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Thursday, March 28, 2024

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कविता संग्रहः हरी हरी दूब

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Young Writer, साहित्य पटल। रामजी प्रसाद “भैरव” की कविताएं

हरी हरी दूब

हरी हरी दूब
पसरी है धरती पर
पूरे वजूद के साथ
वह ओस की बूंदों को
अपने तृण नोक पर उठाए
ऐसे झूमती है
जैसे शेषनाग ने उठाया है
अपने फन पर पृथ्वी
किसी कदाचारी के पाँव के नीचे आकर भी
अपनी विनम्रता नहीं खोती
और प्रचण्ड आंधी जैसी विपत्ति में दूब
सिर उठा कर मुकाबला करती है
जब कि बड़े बड़े दरख़्त
पल पल धराशायी होते हैं
हरी हरी दूब
करती है श्रृंगार धरती का
उसे श्यामला बनाने में
सहती है धूप घाम पानी पत्थर
फिर एक दिन उसे धानी चूनर
पहना कर खिलखिला उठती है
वही हरी हरी दूब ।

मैं मन नहीं पढ़ पाया

मन किताब नहीं है
जो कोई झट पढ़ ले
स्कूल कालेज में भी
कभी नहीं बताया गया
कि मन को ऐसे पढ़ते हैं
ना डंडे के बल पर
ना जोर जबरजस्ती
मन को तो केवल पढ़ा जा सकता है
प्रेम की भाषा में
और प्रेम की भाषा समझने के लिए
हृदय चाहिए
एकदम स्वच्छ निर्मल
जल से भी साफ और पवित्र
भला ऐसा हृदय कहां से लाऊँ
वह बाजार में बिकने वाली वस्तु तो नहीं है
जो मनमानी कीमत चुका कर खरीद लिया
हृदय आचरण के साबुन से घिस कर
स्वच्छ किया जा सकता है
फिर चाहे जितना पढो प्रेम की भाषा
मैं अपढ़ तो
चाहकर भी
नहीं पढ़ पाया मन।

मैं प्रतियोगी नहीं हूँ

प्रतियोगिता
खुद को स्थापित करने का मार्ग है
लोग लगे हैं
एक दूसरे को खारिज कर
अपनी स्थापना में
राग द्वेष से की गई स्थापना
मनुष्य को मनुष्य के रूप में स्थापित होने देगी?
या उन्हें पतित कर
पदच्युत कर देगी
मैं प्रतियोगी नहीं हूँ
मुझे अपनी इस छद्म प्रतियोगिता से बाहर ही रखो
मनुष्य के रूप में मेरी स्थापना काफ़ी है
जहाँ जरूरतमंद इंसान के लिए थोड़ी हमदर्दी हो
उसके आंसू की कीमत पहचान सकूँ
किसी के दुःख पर उपहास के ठहाके न निकलते हों
किसी रोते हुए को कुछ देर हँसा सकूँ
किसी छोटे बच्चे के बिसुरते हुए सपने का सम्बल बन सकूँ
किसी अंधे को सड़क पार कराने में झिझक न हो
किसी अपाहिज की लाठी बन साथ चल सकूँ
कुल मिलाकर एक इंसान बन सकूँ
मैं प्रतियोगी नहीं हूँ
मुझे अपनी प्रतियोगिता से बाहर रखों ।

हवा में लटकते हुए लोग

उनका जमीन छोड़ कर हवा में लटकना
अब किसी को आश्चर्य में नहीं डालता
लोगों को विश्वास हो चला है
अपनी इन दुर्दिन भरी परिस्थियों के लिए
वो खुद ही जिम्मेदार हैं
इसके लिए किसी ईश्वर को
दोषी नहीं बनाया जा सकता
हवा में लटकते हुए लोगों के
हाथ पाँव ही नहीं
मुँह भी स्वतंत्र है
जिससे वे जी भर गाली दे सकते हैं
जमीन पर चल रहे लोगों को ,
जो जमीन पर पाँव टिका कर
मस्तिष्क के सर्जक स्वरूप से
कल्पना के चित्र खींचने में
व्यस्त रहता है
ठीक वैसे ही जैसे कोई कवि
वे अपनी कल्पना को मूर्त रूप देने में
जैसे कोई चित्रकार
रेखा चित्र में रंग भरने में
जैसे कोई रंगकर्मी
अपनी भूमिका में प्राण फूँकने में
जैसे कोई नर्तकी
मिला लेती है अपनी लय से प्रकृति
जैसे कोई गायक
अपनी स्वर साधना से
गला देता है पानी में पत्थर
हवा में लटकते हुए लोग
कुछ भी समझते हुए
खूब ठठाकर एक विद्रूप हँसी
हँस सकते हैं अभागे की तरह।

जीवन परिचय-
 रामजी प्रसाद " भैरव "
 जन्म -02 जुलाई 1976 
 ग्राम- खण्डवारी, पोस्ट - चहनियाँ
 जिला - चन्दौली (उत्तर प्रदेश )
मोबाइल नंबर- 9415979773
प्रथम उपन्यास "रक्तबीज के वंशज" को उ.प्र. हिंदी  संस्थान लखनऊ से प्रेमचन्द पुरस्कार । 
अन्य प्रकाशित उपन्यासों में "शबरी, शिखण्डी की आत्मकथा, सुनो आनन्द, पुरन्दर" है । 
 कविता संग्रह - चुप हो जाओ कबीर
 व्यंग्य संग्रह - रुद्धान्त
सम्पादन- नवरंग (वार्षिक पत्रिका)
             गिरगिट की आँखें (व्यंग्य संग्रह)
देश की  विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन      
ईमेल- ramjibhairav.fciit@gmail.com

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