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Friday, March 29, 2024

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कविताः …कोई हक नहीं

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Young Writer, साहित्य पटल। रामजी प्रसाद “भैरव” की कविताएं

तुम्हें कोई हक़ नहीं
कि रोटी की बात करो
रोटी की बात
तुम तब कर सकते हो
जब विश्वास दिलाओ
तुम रोटी की माँग
नहीं करोगे ।
तुम्हें कोई हक़ नहीं
कि रोज़गार की बात करो
रोज़गार की बात
तुम तब कर सकते हो
जब विश्वास दिलाओ
तुम रोज़गार की मांग
नहीं करोगे ।
तुम्हें कोई हक़ नहीं
कि बुनियादी जरूरतों की बात करो
बुनियादी जरूरतों की बात
तुम तब कर सकते हो
जब विश्वास दिलाओ
तुम बुनियादी जरूरतों की माँग
नहीं करोगे ।
तुम्हें कोई हक़ नहीं
कि तुम स्वतंत्र अस्तित्व की बात करो
स्वतंत्र अस्तित्व की बात
तुम तब कर सकते हो
जब विश्वास दिलाओ
स्वतंत्र अस्तित्व की माँग
नहीं करोगे ।
तुम्हें कोई कोई हक़ नहीं
कि मरने की बात करो
मरने की बात
तुम तब कर सकते हो
जब विश्वास दिलाओ
मरने की माँग
नहीं करोगे ,कभी नहीं करोगे ।

वार्षिक कैलेंडर

वैसे तो हर कैलेंडर
वार्षिक होते है
पर कोई कोई कैलेंडर
अलग भी होते हैं
कुछ कैलेंडर में
पूरे वर्ष का लेखा जोखा
सहजता से लिखा जा सकता है
कुछ कैलेंडर के
खाली बने जगह में
दूध का हिसाब
पानी का हिसाब
धोबी का हिसाब
और भी कितना कुछ
टंकित होता है पूरे वर्ष
पर जब अख़बार वाला
ठीक उसी दिन
अख़बार नहीं देता
जिस दिन कैलेंडर छपा होता है
तो बहुत गुस्सा आता है
गुस्सा इसलिए भी आता है
पूरे वर्ष हमने इसी से खरीदे थे अख़बार
आज अख़बार न देकर
पूरे साल का हिसाब बिगाड़ दिया ।

ठीकरे

ठीकरे फोड़ने के लिए
सर चाहिए
मिल जाएंगे
इसके लिए बाज़ार
जाने की क्या आवश्यकता
पहले तय करो
कैसे सर चाहिए
बुद्धि वाले
ज्ञान से आच्छादित
या फिर
गुड़ गोबर
जिसमें भूसा भरा हो
जाहिर है
जिसमें भूसा भरा होगा
वह तुम्हारे काम न आएगा
ठीकरे फोड़ने के लिए
पहला वाला अच्छा साबित होगा ।

सृजन के पुष्प

रोपता मैं सृजन के पुष्प
बोते तुम विध्वंस के बीज
यही अंतर है
तेरे मेरे सोचने का ।
फसल तो दोनों की उगेगी
एक जीवन को सुरभित करेगी
दूसरी जीवन विराग कहेगी
विद्रूपता , जड़ता ,भीरुता
के अंधे मोड़ पर
तुम्हारे ठहाके गूँजेंगे
मेरे जीवन के शाश्वत प्रवाह में
स्वच्छन्दता का लय होगा
सुमधुर गान से नहीं टूटेंगी
स्वर लहरियों की निर्बाध श्रृंखला
रोपता मैं सृजन के पुष्प
बोते तुम विध्वंस के बीज
यही अंतर है
तेरे मेरे सोचने का ।
सत्य के मद्दम लौ के सहारे
देख लूंगा मैं
अपना कंटकाकीर्ण मार्ग
मुझे तुम्हारी तरह
नहीं खोना है
चकाचौंध की मृगमरीचिका में
जहाँ दम्भ , पाखण्ड ,स्वांग
छल , अहंकार के
भभकते ज्योतिपुंज पर
थिर हो गयी है
तुम्हारी चेतना
रोपता मैं सृजन के पुष्प
बोते तुम विध्वंस के बीज
यही अंतर है
तेरे मेरे सोचने का ।

साँप और सीढ़ी

जिंदगी साँप सीढ़ी का
खेल ही तो है
जहाँ शीर्ष पर
पहुँचने की होड़ है
बल्कि कुछ कदम
और आगे
जहाँ अंतिम नम्बर
लिखा है
उसके बाद
एक कदम भी
कोई आगे
नहीं जा सकता
परन्तु यह राह
आसान नहीं है
सफलता की राह
विषधर रोके खड़े हैं
बहुत कुछ भाग्य पर
निर्भर है
आप का अगला कदम
साँप में मुँह पर पड़ेगा
या फिर आगे
इसके प्रति आप
अनभिज्ञ ही होते हैं
यदि आप का कदम
साँप के मुँह से आगे
पड़ता है
तो निश्चय ही आप
भाग्यशाली हैं
और यदि मुँह पर
पड़ता है तो
उसके विष का प्रभाव है
आप नीचे गिर जाते हैं
जिंदगी और खेल में
बस फर्क इतना है कि
खेल बार बार मौका
देता है
पर जिंदगी नहीं ।

ठंडा लोहा और गर्म लोहा

ठंडे लोहे पर
श्रम साध्य करने वाले
नादान श्रमिक
अपनी स्फीत शिराओं में
उमड़ घुमड़ रहे
रक्त के प्रवाह को
निरर्थक मत उकसा
अत्यधिक श्रम के
आक्रोश का वेग
कहीं मस्तिष्क में
चढ़ न जाए
परिणाम की भयावह
कल्पना
तुम्हें हो न हो
परन्तु तुम्हारा यह
खालिश श्रम
तुम्हारी जड़ता
उजागर कर देगा ।
अपने श्रम के
परिप्रेक्ष्य
सृजनात्मकता को
आकार देना
चाहते हो तो
अनुभव के
पंख लगा लो
उड़ लो
रचनात्मकता के
खुले वितान में
तब तक
ठंडा लोहा
गर्म लोहे में
परिवर्तित हो
चुका होगा ।
तुम भी
अवसर का
लाभ उठाकर
उसे चोट दो
एक बार नहीं
बल्कि बार बार
इस अल्प श्रम से
आवृत्त
उस गर्म लोहे को
जितना चाहो
मोड़ सकते हो
उसे जो आकर दोगे
मौन स्वीकार होगा ।

नदी

नदी !
तुम इस बात से
आश्वस्त कभी मत होना
कि तुम्हारे तट पर खड़ा
हर कोई व्यक्ति
श्रद्धालु ही होगा ।
वह तमाशाई
या फिर
उत्श्रृंखल
लम्पट भी
हो सकता है
जो तुम्हारे
शांत जल में
पत्थर का
एक टुकड़ा फेंककर
उपहासात्मक ढंग से
गिन सकता है
तुम्हारे जीवन में
आये हलचल को ।

सुना है

यह दुनियां
बहुत बड़ी है
इत्ती बड़ी , इत्ती बड़ी , इत्ती बड़ी
नहीं सबसे बड़ी
इसमें ही सब कुछ
समाया हुआ है
और समाया हुआ है
इस बड़ी दुनियां में
एक छोटी दुनियां
उस छोटी दुनियां
के भी अंदर
एक छोटी दुनियां और है
इसी प्रकार दुनियां के अंदर
एक और छोटी दुनियां
ऐसे ही जाने कितनी
दुनियां गढ़ लिए हैं
आदमी ने ,
अपनी प्रभुता के लिए
जहाँ का वह स्वयम्भू शासक है
और आदमी
इस भ्रम और अहंकार में
जी रहा है कि
वह दुनियां का श्रेष्ठ आदमी है ।

दुनियां

सुना है
यह दुनियां
बहुत बड़ी है
इत्ती बड़ी , इत्ती बड़ी , इत्ती बड़ी
नहीं सबसे बड़ी
इसमें ही सब कुछ
समाया हुआ है
और समाया हुआ है
इस बड़ी दुनियां में
एक छोटी दुनियां
उस छोटी दुनियां
के भी अंदर
एक छोटी दुनियां और है
इसी प्रकार दुनियां के अंदर
एक और छोटी दुनियां
ऐसे ही जाने कितनी
दुनियां गढ़ लिए हैं
आदमी ने ,
अपनी प्रभुता के लिए
जहाँ का वह स्वयम्भू शासक है
और आदमी
इस भ्रम और अहंकार में
जी रहा है कि
वह दुनियां का श्रेष्ठ आदमी है ।

प्रेम

प्रेम
पूरा का पूरा
दिया सलाई नहीं है
जहां आग होती है
बल्कि प्रेम
माचिस की पट्टी पर
बिछे बारूद के छोटे कण
और तीली लगे मामूली बारूद के
हल्के स्पर्श से
निकली चिंगारी है
जिसे जमाना सिद्दत से
महसूस करता है
एक भीड़ आग के पीछे दौड़ती आयी है
शदियों से
उसे बारूद से बारूद की
स्पर्श की अनुभूति कभी नहीं रही ।

खरोंच के निशान हैं

जब मेरा माथा
दुःखने लगता है
दिन भर की कचर पचर से
आंख बन्द कर लेता हूं
कुछ भी याद नहीं रखना चाहता
किससे मिला , सुख या दुःख
किसने दी थोड़ी सी प्रसन्नता
किसने जले पर नमक छिड़का
किसने उपहास में उड़ा दिए
मेरे मासूम से सवाल
हंसी ठहाकों में
मैं उन्हें स्मृतियों से बाहर
छोड़ आया था कब का
इस समय मेरा माथा केवल
तुम्हारे कोमल स्पर्श की
कल्पना चाहते थे
तुम्हारी कोमल सींक सी
उंगलियों के पोर
छू रहे हो
केवल मेरा माथा ही नहीं
मेरा अंतस भी
जहां कुछ क्रूर निर्मम
लोगों द्वारा खरोंच के निशान हैं ।

जीवन परिचय-
 रामजी प्रसाद " भैरव "
 जन्म -02 जुलाई 1976 
 ग्राम- खण्डवारी, पोस्ट - चहनियाँ
 जिला - चन्दौली (उत्तर प्रदेश )
मोबाइल नंबर- 9415979773
प्रथम उपन्यास "रक्तबीज के वंशज" को उ.प्र. हिंदी  संस्थान लखनऊ से प्रेमचन्द पुरस्कार । 
अन्य प्रकाशित उपन्यासों में "शबरी, शिखण्डी की आत्मकथा, सुनो आनन्द, पुरन्दर" है । 
 कविता संग्रह - चुप हो जाओ कबीर
 व्यंग्य संग्रह - रुद्धान्त
सम्पादन- नवरंग (वार्षिक पत्रिका)
             गिरगिट की आँखें (व्यंग्य संग्रह)
देश की  विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन      
ईमेल- ramjibhairav.fciit@gmail.com

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