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Monday, December 11, 2023

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प्यास का कुँआ : डा.उमेश प्रसाद

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Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह
प्यास का कुँआ : जो लोग यह सोचते हैं कि सभ्यता और संस्कृति बिल्कुल भिनन चीजें हैं, वे पता नहीं कैसे सोचते हैं। हमारे समय में सोचने के ,न जाने कितने-कितने ढंग निकल आये हैं। एक से एक निराले ढंग। एक से एक नए ढंग। हमारा गुमान है कि इनके रंग बिल्कुल नये है। बिल्कुल नए-नए हैं। रोमांच तो है। रोमांच की उत्तेजना तो है। मंगर नया होना ही सार्थक होना नहीं है। उपयोगी होना नहीं है। सार्थक होना नहीं है। कल्याणकारी होना नहीं है। ग्राह्य होने की संभावना से भरा हुआ होना नहीं है। नहीं, इन बातों पर विचार करने का हमारे पास समय नहीं है। हमारे समय में हमारे पास बहुत कुछ है। बहुत-बहुत कुछ है। अगर कुछ नहीं है तो अवकाश नहीं है। अपने जीवन के बारे में कुछ भी सोचने का कत्तई अवकाश नहीं है। सामाजिक सन्दर्भ में कुछ भी विचार करने का अवकाश नहीं है। अपने अस्तित्व और सामूहिक अस्तित्व के अन्तर्सम्बन्ध के बारे में सोचने का थोड़ा भी अवकाश नहीं है। मनुष्य जीवन में अन्य प्राणिसमुदाय और प्रकृति जगत के बीच हमारी संस्कृति में एक बड़ा ही सुदृढ़ सेतु बहुत लम्बे समय से विद्यमान रहा है। आज हम जिस सभ्यता के अनुवर्ती होकर इतरा रहे हैं, उसने इस सेतु को ही ध्वस्त करके धराशायी बना दिया है।

हमारे समय में आदमियों की अपार भीड़ में आदमी अकेला और असहाय होकर उद्भ्रान्त-सा बाजार के बीच में भागता हुआ दिखाई दे रहा है। आदमी के पास अपनी बस केवल प्यास है। बाकी सब कुछ पानी है। आदमी के पास अपनी बस केवल भूख है, बाकी जो कुछ है, सब भोजन है। केवल प्यास का बचे रह जाना और पानी का गायब हो जाना मनुष्य जाति का कितना भयावह दुर्भाग्य है, कह कहना बड़ा कठिन है। केवल भूख का बचे रह जाना और भोजन का नदारद हो जाना कैसी भीषण विडम्बना है, कौन कह सकता है। प्यासा आदमी, भूखा आदमी, भला किस काम का आदमी है! किसके काम का आदमी है? नहीं किसी के काम का नहीं है। न अपने काम का, न दूसरों के काम का। न किसी प्राणी के काम का, न प्रकृति के काम का। न इतिहास के काम का, न वर्तमान के काम का।

पुराना बिल्कुल बेकाम नहीं होता। निरा व्यर्थ नहीं होता। हर नया पुराने से ही निकलता है। हमारी संस्कृति पुरानी है। उसका मूल्य पुराना होने में ही है। आज की हमारी जड़ विहीन सभ्यता में जो पुराने के प्रति उपेक्षा और अवमानना का भाव विकसित हुआ है, वह हमारी संस्कृति को आहत करने वाला है। उससे हमारी संस्कृति के क्षरण का संकट जन्म ले रहा है। हमारे समय में पुराने आदमी की उपेक्षा, पुराने रिश्तों की उपेक्षा, पुराने परीक्षित विश्वासों की उपेक्षा हमें आगे ले जाने में सहायक नहीं है। जब भी कोई राष्ट्र अपनी संस्कृति को अभिसिंचित करने वाली अपनी पारंपरिक सभ्यता का परित्याग करके दूसरी जातियों की सभ्यता को अंगीकार करने के आकर्षण में उतावला होता है, उसकी संस्कृति का ध्वंस शुरू हो जाता है। भारतीय संस्कृति के केंद्र में त्याग है। यह संस्कृति भोग की विरोधी नहीं है। ऐश्वर्य की विरोधी नहीं है। भोग के गहरे अर्थ और प्रयोजन को हमारी संस्कृति ने अच्छी तरह से जाना है। जानकर उसे जीवन में प्रतिष्ठित किया है। भोग और ऐश्वर्य हमारे जीवन की परिधि है। वह हमारे जीवन में परिधि पर है। हमारी परिधि के विस्तार में भोग है, ऐश्वर्य है। खूब है। प्रकाशित है। पल्लवित है। फलित है। मगर उसका केन्द्र त्याग है। त्यागपूर्वक भोग हमारी संस्कृति का प्राण है। आज पश्चिम की सभ्यता के व्यामोह ने हमें हमारे जीवन के केन्द्र से काट दिया है। अपने केन्द्र से विच्युत होकर हमारे समय में आदमी टहनी से टूटे हुए पत्ते की तरह परिधि में उड़ रहा है। हवा में उधरा रहा है। आदमी का अपदार्थ हो जाना किसी के लिए भी ठीक नहीं है। न आदमी के लिए, न समय के लिए, न समाज के लिए, न राष्ट्र के लिए। मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। भारतीय संस्कृति इसीलिए श्रेष्ठ संस्कृति है कि उसमें साध्य मनुष्य है। उसमें साध्य मनुष्य का जीवन है। बाकी जो कुछ भी है, वह सब मनुष्य के जीवन के उत्कर्ष के लिए है। मनुष्य के सारे उत्पाद मनुष्य जीवन और समाज की अभ्युन्नति के साधन हैं। भारतीय समाज व्यक्ति में सन्निहित सामूहिक विराट अस्मिता की उपासना का समाज है। हमारी संस्कृति ने ऐसे समाज को निर्मित किया है, जिसमें एक में अनेक और अनेक में एक के समाहित होने की अद्भुत धारणा का प्रकाश है। हमारी संस्कृति एक बचन में समाहित बहुवचन की संस्कृति है। हमारी संस्कृति विराट संस्कृति है। हमारी संस्कृति विराट बोध की संस्कृति है। हमारी संस्कृति प्यास के शमन के लिए पानी के कुँए खोदने की संस्कृति है।

हमारी संस्कृति का आधार व्यक्ति नहीं है। हमारी संस्कृति का आधार धर्म है। धर्म व्यक्ति में समाहित विराट अस्मिता का संधान है। हमारी संस्कृति के मूल में व्यक्ति नहीं है, समूह है। वैयक्तिकता नहीं है, सामूहिकता है। यह अत्यन्त संश्लिष्ट संस्कृति है। भारतीय संस्कृति व्यक्ति की संस्कृति नहीं है। समाज की संस्कृति नहीं है। यह समष्टि की संस्कृति है। यह व्यष्टि में सन्निहित समष्टि और समष्टि में समाहित व्यष्टि की अद्भुत संस्कृति है। यह संस्कृति भेद में अभेद की प्रतिष्ठा की संस्कृति है। यह संस्कृति अर्जन की नहीं, विसर्जन की संस्कृति है। यहाँ व्यक्ति नहीं रह जाता। व्यक्ति मिट जाता है। सबमें समाहित, सबकुछ में समाहित व्यक्ति की विराटता रह जाती है। अस्तित्व की विराटता की उपासना भारतीय संस्कृति की अमूल्य उपस्थापना है। इस संस्कृति के मूल में महत्तम अद्वैत जीवन बोध की मार्मिक अभिव्यंजना है। यह बोध ही ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की महनीय धारणा को वास्तविक आधार प्रदान करने वाला है। हमारी पारंपरिक सभ्यता इस संस्कृति के मूल्यों को अभिव्यंजित करने वाली सभ्यता है। उसे आचरण में व्यवहृत करके अपनी संस्कृति को पोषण भी प्रदान करती है और उसकी प्राणधारा को जीवन में प्रवाहित करने का माध्यम भी बनती है।
भारतीय सभ्यता के समक्ष जो पश्चिमी सभ्यता है, वह इसके विपरीत विश्वासों की सभ्यता है। इस सभ्यता को बौद्धिक जगत आधुनिक सभ्यता के नाम से अभिहित करता है। जिस सभ्यता को अपनाने के लिए भारतीय बौद्धिक वर्ग जो अपने वर्चस्व का आकांक्षी है, व्यक्ति केन्द्रित सभ्यता है। इस सभ्यता के केन्द्र में मनुष्य नहीं है। मनुष्यजाति नहीं है। केवल व्यक्ति है। व्यक्ति जो अस्तित्व की क्षुद्रतम इकाई है। इसमें क्षुद्रतम इकाई के श्रेष्ठता बोध का अमानवीय दम्भ है। यह दम्भ की पोषक सभ्यता है। यह सभ्यता मनुष्य विरोधी सभ्यता है। यह व्यापक मानवीय बोध का दलन करके व्यक्ति के निजी हित की साधक सभ्यता है। यह व्यक्ति की सामर्थ्य को साधनों के सहारे विकसित करने की उपासक सभ्यता है। यह सभ्यता व्यापारिक सभ्यता है।

जीवन कोई व्यापार की चीज है, क्या? जीवन कोई घाटा और मुनाफा से बढ़ने और घटने वाली चीज है, क्या? नहीं, नहीं ऐसा नहीं है। ऐसी समझ तो बड़ी घटिया समझ है। यह समझ मनुष्य जीवन की गरिमा के लिए साधनों पर आधारित और अवलम्बित नहीं होती। सभ्यता का आधाार तो मनुष्य का जीवन है। सभ्यता का निमित्त तो मनुष्य जाति के जीवन को सजाना है। उसे सँवारना है। मनुष्य के जीवन का उत्कर्ष मनुष्यजाति के जीवन के उत्कर्ष से पृथक और भिन्न कभी नहीं हो सकता। मनुष्य की महत्ता हमेशा ही मनुष्य जाति के लिए उसके प्रदेयों पर ही निर्भर करती है।

आधुनिक सभ्यता साधनों को अधिक महत्व देकर मनुष्य की आत्मशक्ति को कमजोर बनाती है। उसे साधनों पर अवलम्बित रखकर पराश्रिता के भावबोध को प्रछन्न रूप से विकसित करती है। इस तरह से यह मनुष्य में पौरुष और साहस का ह्रास करती है। वैयक्तिक स्वतंत्रता के आग्रह को उकसाकर सामाजिक पारस्परिकता के मूल्य को ध्वस्त करती है। पारस्परिक सद्भाव से वंचित होकर इस सभ्यता में आदमी धीरे-धीरे अकेला और असहाय होने को अभिशप्त हो जाता है। सामूहिक संवेदना के उच्छिन्न होने से प्रतिरोध की शक्ति क्षय हो जाती है।

आधुनिक सभ्यता के केन्द्र में समाज नहीं है, व्यक्ति है। सामूहिकता नहीं है, वैयक्तिकता है। सार्वजनिकता नहीं है, निजता है। विराटता नहीं है, क्षुद्रता है। उदात्तता नहीं है, संकीर्णता है। समर्पण नहीं है, स्वामित्व है। त्याग नहीं है, भोग है। विसर्जन नहीं है, अर्जन है। अधिकार का, ऐश्वर्य का, भोग का निजीकरण है। प्रकृति को पराधीन बनाने का अपार उद्योग है। महान अस्तित्व की तमाम इकाईयों और घटकों पर स्वामित्व स्थापित करने की उद्दआम वांछा है। आधुनिक सभ्यता का कोई केन्द्र नहीं है। यह सभ्यता परिधि की सभ्यता है। अल्पजीवी सभ्यता है। प्रभुत्व की लोलुप सभ्यता है। यह सभ्यता प्रदर्शन की सभ्यता है। यह सभ्यता परदा की सभ्यता है। यह सभ्यता दोगली सभ्यता है। इसके दो-दो गाल हैं। यह गाल बजाने की सभ्यता है। यह आँख दिखाने की सभ्यता है। बहुत कुछ को छिपाना और बहुत कुछ को दिखाना इस सभ्यता का दोहरा मूल्य है। दूसरों को छोटा साबित करने के लिए प्रदर्शन और अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए अपनी तुच्छता का छिपाव इस सभ्यता की क्रूरता को उद्घाटित करता है। व्यक्ति की श्रेष्ठता का दम्भ आधुनिक सभ्यता का वह ओछा चरित्र है जो सामूहिक मनुष्यता के उदार ऐश्वर्य को पददलित करता है। यह वैश्विक सामुदायिक मनुष्य और व्यापक मनुष्यता के उदात्त मूल्य को विखण्डित करके उसका दलन करता है और व्यक्तियों के छोटे-छोटे समूह की उच्चता को प्रतिष्ठित करता है। शासक और शासित के अमानवीय विभाजन को गरिमामण्डित करता है।

भारतीय सभ्यता उदात्त जीवनबोध की सभ्यता है। यह सभ्यता पानी का कुँआ खोदने की विश्वासी सभ्यता है। हम प्यास बुझाने के लिए पानी का संधान करने का विश्वास न जाने कबसे बनाए रखे हुए हैं। पानी के लिए हम कुँआ बनाते रहे हैं। हमारे कुँए पीढ़ियों की प्यास बुझाने के लिए सक्षम होते आए हैं। आज जिस सभ्यता को हम सिर पर लादे दौड़ रहे हैं, वह पानी की नहीं प्यास की सभ्यता है। इस सभ्यता में आँखों में पानी नहीं है, प्यास है। यह सभ्यता प्यास का कुँआ खोदने की अन्धी सभ्यता है। यह सभ्यता सुख की ताजगी की उपासक सभ्यता नहीं है। यह सुख का भण्डारण करने वाली सभ्यता है। यह नहीं जानती कि भण्डारण करने से चीजें बासी हो जाती है। यह सभ्यता बासी सुख के उपभोग की अभागी सभ्यता है। जीवन प्यास के उन्माद में नहीं है। जीवन परितोष की पुलक में समाहित है। हमारी परंपरा की आराधना परितोष के पुलक की आराधना है।

सुख में डूब जाने की उद्दाम अतृप्ति आधुनिक सभ्यता का आदर्श है। सुख में डूब कर मर जाने की दुर्दान्त नियति को स्वीकार करके सुख को बचा लेने का उद्योग आधुनिक सभ्यता का अपनाउद्योग है। सुख को बलिदान करके मनुष्य जीवन की गरिमा को बनाए और बचाए रखने का आदर्श भारतीय सभ्यता के आदर्श की गरिमा है। हमारी सभ्यता मनुष्य जीवन के गौरव के निरन्तर उत्कर्ष की आराधना की सभ्यता है।

-Young Writer

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