Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से
‘‘किसने तोड़ा……?’’ इस प्रश्न के फूटते ही समूची कक्षा में सन्नाटा छा गया।
बच्चे तो थर-थर काँप ही रहे थे। मेज के नीचे हेड मास्टर साहब की टाँगे भी थरथरा रही थीं। वे पसीने में डूबे जा रहे थे। हलक सूखा जा रहा था।
‘‘मैं पूछता हूँ, शिव का धनुष किसने तोड़ा?’’ अब तो विद्यालय की दीवारें भी हिल उठीं। अब वहाँ केवल भय था। भय के अलावा कहीं और कुछ भी नहीं था।
‘‘जी, नहीं पता….।‘‘ ‘‘जी मैंने नहीं तोड़ा।‘‘ ‘‘जी, मैंने नहीं देखा।‘‘ आशंका, क्षोभ, ग्लानि, डर और अपराध बोध की पीड़ा से रुँधे, हकलाते कंठों से सारे विद्यार्थियों का यही जवाब था।
बचपन से ही जनश्रुतियों में सुरक्षित यह कहानी मैंने कितनी बार सुनी है। पहले मन विश्वास करने को राजी नहीं होता था। यह कहानी थोड़ी व्यंग्य और अधिक विनोद की कहानी मालूम पड़ती थी। पता नहीं क्यों, हमारी अधिकांश व्यंग्य कथायें उपहास कथाएं बन जाती हैं। बिना उपहास के हास नहीं रचा जा सकता क्या? बार-बार मन पूछ बैठता है। अब इस कहानी पर मन में विश्वास बढ़ने लगा है।
कहानी में कहा गया है कि किसी विद्यालय में डिप्टी साहब का औचक दौरा हुआ था। वे सीधे प्राइमरी विद्यालय की पाँचवीं कक्षा में घुस गये थे। कक्षा में विद्यार्थी परशुराम प्रसंग की कविता जोर-जोर से पढ़ रहे थे। हेड मास्टर साहब कुर्सी पर उनींदे थे। कक्षा में पहुँचते ही डिप्टी साहब ने बच्चों से प्रश्न पूछ दिया था, ‘‘शिव का धनुष किसने तोड़ा….?
शिव का धनुष टूट चुका था। मगर किसी को पता नहीं था कि धनुष किसने तोड़ा। बच्चों के उत्तर से खिन्न होकर डिप्टी साहब ने हेडमास्टर साहब की तरफ देखा।
हेडमास्टर साहब की हालत दयनीय हो उठी थी। उन्हें डिप्टी साहब, डिप्टी की तरह नहीं, जनक की सभा में रौद्र रस की प्रतिमूर्ति परशुराम की तरह दिखाई पड़ रहे थे। हेड मास्टर साहब की गत तर्जनी देखकर सूख गई कुम्हड़े की बतिया जैसी बन गई थी।
खैर! उन्होंने अपनी अटल व्यवहार बुद्धि की कुशलता से मामला सँभाला। डिप्टी साहब से जलपान के लिये आग्रह किया। हेडमास्टर साहब ने बड़े विनीत भाव से डिप्टी साहब को आश्वस्त किया, ‘‘साहब, लड़के तो दुष्ट होते ही हैं। यह तो तय है कि इनमें से ही किसी ने तोड़ा होगा। देख तो मैं भी नहीं पाया। मगर हुजूर, विश्वास कीजिये, मैं पता जरूर लगा लूँगा। एक-एक की कचूमर निकाल लूँगा। मार-मारकर भुर्ता बना दूँगा। आज नहीं तो कल मैं आपको जरूर ठीक-ठाक बता दूँगा कि किस हरामी के बच्चे ने धनुष तोड़ा।’’
आज हमारे देश की जनचेतना चिल्ला-चिल्ला कर पूछ रही है, किसने तोड़ा…..? हमारे आजाद देश में बन्धुत्व की भावना को किसने तोड़ा? राष्ट्रप्रेम को किसने तोड़ा? हमारे देश भक्ति के भाव को किसने खण्डित किया? हमारे सामूहिक उत्कर्ष के संकल्प को किसने मटियामेट कर डाला?
हम सब तो इस सबके साथ ही आजाद हुये थे। इस सबके लिये ही आजाद हुये थे। हम तो अपने सर्वोत्तम व्यक्तिगत को सार्वजनिक करके राष्ट्र निर्माण की सुरभित आस्था के साथ आजाद हुये थे। फिर आज ऐसा क्यों है कि हम समूचे सार्वजनिक को अपना व्यक्तिगत बना लेने की अमिट बुभुक्षा के शिकार बन बैठे हैं। हमारी भूख ऐसी विकराल कैसे बन गई है कि हम राष्ट्र की समृद्धि के संसाधनों को ही खा-पचा जाने की हर कोशिश में हलकान हैं। हमारा समय बुभुक्षित समय क्यों बनता जा रहा है? कौन बना रहा है। हमारा भिखमंगा बनते जाना हमारे लिये लज्जाजनक क्यों नहीं बन पा रहा है?
हमारे समय की जनचेतना पूछ रही है। हमारे देश की आत्मचेतना पूछ रही है। स्वतंत्रता के बलिदानियों की तमन्ना पूछ रही है। आजादी के पुजारियों का विश्वास पूछ रहा है। सभी तो पूछ रहे हैं, ‘‘आखिर किसने तोड़ा? आजादी का अर्थ किसने तोड़ा? स्वतंत्रता की मर्यादा किसने तोड़ी? भ्रातृत्व की गरिमा किसने तोड़ी? सपनों का सच किसने तोड़ा?’’ सब चुप हैं। बुद्धिजीवी चुप हैं। नेता चुप हैं। वकील चुप हैं। प्राध्यापक चुप हैं। न्यायाधीश चुप हैं। पंचायतें चुप हैं। विधानसभायें चुप हैं। संसद चुप है।
सब चुप हैं। सब भयभीत हैं। सभी भय के कारण चुप हैं। अपने नंगा हो जाने के भय के कारण। बोलना सब जानते हैं। खूब बोलते हैं। सभी बातूनी हैं। मगर इस सवाल पर एकदम चुप हैं।
हमारा समय जाने कैसा समय है। हमारे समय में सिर्फ प्रश्न बोल रहे हैं। उत्तर चुप हैं।
जिन्हें उत्तर देना है, वे या तो चुप हैं, या फिर ‘हम नहीं’, हम नहीं, हम नहीं बोल रहे हैं। उनका बोलना चुप्पी से भिन्न नहीं है।
वे सिर्फ सफाई दे रहे हैं। वे केवल अपनी निदोर्षिता की सफाई दे रहे हैं – हमने नहीं तोड़ा।
मैं देख रहा हूँ, हमारे समय में हमारा समूचा देश एक प्राइमरी पाठशाला में तब्दील हो गया है।
हमारे समय की पाठशाला कहने भर को पाठशाला रह गई है। वास्तव अब वह यतीमशाला बन गई है। बच्चों के भीतर केवल भूख है। पेट की भूख। हाथ में खाली कटोरे हैं। कहीं भोजन पकने की गन्ध भी है। किताबें, कलम सब बस्ते में बन्द है। हेड मास्टर साहब ‘मिड डे मिल’ की व्यवस्था में लथपथ हैं।
प्रश्न गूँज रहा है – किसने तोड़ा? शिव का धनुष किसने तोड़ा?
प्रश्न गूँज रहा है – हमारे देश के बन्धुत्व को, सौहार्द को, समरसता को, सहिष्णुता को, समरसता को, सामूहिक उत्कर्ष के संकल्प को किसने तोड़ा?
‘‘जी हमने नहीं।‘‘ ’’जी हमने नहीं।’’ ‘‘जी हमने नहीं’’
हमारे समय का हेडमास्टर भी कह रहा है, ‘‘ जी हमने नहीं।’’ हमने तो देखा ही नहीं। हमने तो देखा ही नहीं। हमें तो लेखा-जोखा देखने से फुर्सत ही नहीं। क्या मैं कोई सपना देख रहा हूँ? शायद नहीं। मैं सपना नहीं देख रहा हूँ।
हमारे समय में कोई राजनीति नहीं है। राजनीति है ही नहीं। न केन्द्र में, न परिधि में। है, सिर्फ सत्ता हथियाने का गोलबन्द अभियान।