स्वतंत्रता संग्राम के आखिरी दौर में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के ‘करो या मरो’ के आह्वान पर 16 अगस्त 1942 को महाईच परगना के आन्दोलनकारीयों द्वारा जो कुछ किया गया वह कामयाबी और कुरबानी के नजरीये से संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) व भारत के बड़े काण्डों में से एक था, लेकिन इस काण्ड की उतनी चर्चा नहीं हो पाया जितनी होनी चाहिए थी क्योंकि इसकी प्रमुख वजह यह थी कि खुफिया विभाग द्वारा ब्रिटिश गवर्रनर को जो रिपोर्ट भेजा गया उसमें धानापुर (वाराणसी) के स्थान पर चानापुर (गाजीपुर) था। इतिहासकार डा0 जयराम सिंह बतात हैं कि ‘‘राष्ट्रीय अभिलेखागार नई दिल्ली की होम पोलीटीकल फाईल, 1942 में भी चानापुर (गाजीपुर) का उल्लेख है। जिसका संसोधन 1992 में किया गया। 16 अगस्त 1942 का धानापुर थाना कांड इस वजह से भी चर्चित नहीं हो पाया।’’
वाराणसी से तकरीबन 55 किलोमीटर पूरब में बसा धानापुर सन् 1942 में यातायात के नजरीये से काफी दुरूह स्थान था। बारिश में कच्ची सड़कें कीचड़ से सराबोर हो जाया करतीं थीं तथा गंगा नदी बाढ़ की वजह से दुर्लघ्य हो जाया करती थी। करो या मरो के उद्घोष के साथ 08 और 13 अगस्त 1942 को वाराणसी में छात्रों और नागरिकों ने ब्रिटिश हुकूमत के ताकत को पूरी तरह से जमींदोज करके सरकारी भवनों पर राष्ट्रध्वज तिरंगा फहरा कर आजादी का जश्न मनाया। जैसे ही यह खबर देहात अंचल में पहुंची तो वहां की आंदोलित जनता भी आजादी के सपनों में डूबकर समस्त सरकारी भवनों पर तिरंगा फहराने के लिए उत्सुक हो गया। महाईच परगना में सरकारी भवनों पर तिरंगा फहरासने का कार्यक्रम कामता प्रसाद विद्यार्थी के नेतृत्व में 09 अगस्त 1942 से ही शुरू हो गया था। 12 अगस्त 1942 को गुरेहूं सर्वे कैम्प पर, 12 अगस्त 1942 को चन्दौली के तहसील, थाना, डाकघर समेत सकलडीहां रेलवे स्टेशन पर तथा 15 अगस्त 1942 की रात में धीना रेलवे स्टेशन पर धावा बोले के बाद महाईच परगना में केवल धानापुर ही ऐसी जगह थी जहां सरकारी भवनों पर तिरंगा फहराना बाकी था।
अब आजादी का ज्वार लोगों को कंपा रहा था, लोग स्वतंत्र होने के लिए उतावले थें तथा कामता प्रसाद विद्यार्थी महाईच के गांवों में घूम-घुम कर लोगों को प्रोत्साहित कर रहे थें। 15 अगस्त 1942 को राजनारायण सिंह व केदार सिंह धानापुर पहुंच कर थानेदार को शान्तिपूर्वक तिरंगा फहराने के लिए समझाया मगर ब्रिटिश गुलामी में जकड़ा थानेदार किसी भी हाल में तिरंगा फहराने को राजी नहीं हुआ। तब जाकर 16 अगस्त 1942 को पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार महाईच परगना के लोग सुबह से ही कालीया साहब की छावनी पर एकत्र होने लगें। सरकारी आंकड़े के मुताबिक आन्दोलनकारीयों की संख्या प्रातः 11.00 बजे तक एक हजार तथा तीन बजे तक पांच हजार तक थी। तीन बजे के करीब विद्यार्थी जी, राजनारायण सिंह, मन्नी सिंह, हरिनारायण अग्रहरी, हरि सिंह, मुसाफिर सिंह, भोला सिंह, राम प्रसाद मल्लह आदि के नेतृत्च में करीब पांच हजार लोगों का समूह थाने की तरफ बढ़ा।
बाजार में विद्यार्थी जी ने लोगों से निवेदन किया कि वे अपनी-अपनी लाठीयां रखकर खाली हाथ थाने पर झण्डा फहराने चलें क्योंकि हमारा आन्दोलन अहिंसक है। पलक झपकते ही आजादी के खुमार में आहलादित जनता थाने के सामने पाकड़ के के सामने पहुंच गयी। महाईच परगना के सभी गांव के चैकीदार लाल पगड़ी बांधे बावर्दी लाठीयों के साथ तैनात थें उनके ठीक पीछे 7-8 सिपाही बन्दुकें ताने खड़े थें तथा इनका नेतृत्व थानेदार नंगी पिस्तौल लिए नीम के पेड़ के नीचे चक्कर काटकर कर रहा था। थाने का लोहे का मुख्य गेट बन्द था। राजनारायण सिंह ने थानेदार से शान्तिपूर्वक झण्डा फहराने का निवेदन किया, लेकिन वह तैयार नहीं हुआ। थानेदार ने आन्दोलनकारीयों को चेतावनी देते हुए कहा कि झण्डा फहराने की जो जुर्रत करेगा उसे गोलियों से भून दिया जायेगा। इतना सुनना था कि कामता प्रसाद विद्यार्थी ने लोगों को ललकारते हुए कहा कि ‘आगे बढ़ो और तिरंगा फहराओ, आने वाले दिनों में नायक वही होगा जो झण्डा फहरायेगा। इसके बाद वे स्वयं तिरंगा लेकर अपने साथियों के साथ थाना भवन की तरफ बढ़े।
कामता प्रसाद विद्यार्थी के साथ रघुनाथ सिंह, हीरा सिंह, महंगू सिंह, रामाधार कुम्हार, हरिनराय अग्रहरी, राम प्रसाद मल्लाह व शिवमंगल यादव आदि थें। ज्यों ही ये लोग लोहे की सलाखेदार गेट कूद कर थाने में प्रवेश किया त्यों ही थानेदार ने सिपाहीयों को आदेश दिया फायर और वह पिस्तौल से हमला बोल दिया। गोली विद्यार्थी जी के बगल से होती हुयी रघुनाथ सिंह को जा लगी। पलक झपकते ही विद्यार्थी जी ने झण्डा फहरा दिया। बन्दूकें गरज रहीं थीं तथा गोलियां भारत मां के वीर सपूतों के सीनों को चीरती हुयी निकल रहीं थीं जिससे कि सीताराम कोईरी, रामा सिंह, विश्वनाथ कलवार, सत्यनारायण सिंह आदि गम्भीर रूप से घायल हुये तथा हीरा सिंह व रघुनाथ सिंह मौके पर ही शहीद हो गयें।
अब तक की घटना जनता मूक दर्शक बनकर देख रही थी मगर भारत माता के वीर सपूतों को तड़पता देख जनता उग्र हो गयी। राजनारायण सिंह का आदेश पाकर हरिनारायण अग्रहरी ने चालुकता पूर्वक थानेदार को पीछे से बाहों में जकड़ लिया तथा पास ही खड़े शिवमंगल यादव ने थानेदार के सिर पर लाठी का भरपुर वार किया, जिससे कि तिलमिलाया थानेदार अपने आवास की तरफ भागा मगर आजादी के मतवालेपन में उग्र जनता ने उसे वहीं धराशायी कर दिया। अब तो आन्दोलन अहिंसक हो चुका था उसकी धधकती ज्वाला में दो हेड कांस्टेबुल और एक कांस्टेबिल को मौत के घाट उतार दिया। बाकी सिपाही व चैकीदार स्थानीय होने की वजह से भागने में कामयाब हुये।
इस विनाशलीला के बाद उग्र क्रान्तिकारीयों ने सभी सरकारी कागजातों और सामानों व टेबुल कुर्सीयों को इकठ्ठा कर थानेदार व तीन सिपाहियों की लाशों को उसी में रखकर जला दिया। इसके बाद आजादी के मतवालों का जूलूस काली हाउस व पोस्ट आफिस पर भी तिरंगा फहरा दिया। तकरीबन रात आठ बजे क्रान्तिकारीयों ने अधजली लाशों को बोरे में भर कर गंगा की उफनती धाराओं में प्रवाहित कर दिया। बरसात की काली रात में गम्भीर रूप से घायल महंगू सिंह को इलाज के वास्ते पालकी पर बिठा कर कामता प्रसाद विद्यार्थी व अन्य लोगों ने 13 किमी0 दूर सकलडीहां स्थित डिस्पेंसरी पहुंचे मगर गम्भीर रूप से घायल भारत माता के वीर सपूत महंगू सिंह ने दम तोड़ दिया। 17 व 18 अगस्त तक धानापुर समेत पूरी महाईच की जनता ब्रिटिश हुकूमत की गुलामी से आजाद थी। 17 अगस्त तक इस महान काण्ड की चर्चा प्रदेश व देश में गूंज उठा। 18 अगस्त को डी.आई.जी. का दौरा हुआ चूंकि मौसम बारिश का था तो सैनिकों को पहुंचने में देरी हुयी। सैनिकों को पहुंचते ही पूरे महाईच में कोहराम मच गया। रात के वक्त छापों का दौर शुरू हुआ। लोगों को पकड़ कर धानापुर लाया जाता तथा बनारस के लिए चालान कर दिया जाता। इस तरह तीन सौ लोागें का चालान किय गया और उन्हे बुरी तरह प्रताडि़त किय गया। धानापुर थाना कांड के ठीक नौ दिन बाद 25 अगस्त सन् 1942 को पुनः थाना नग्गू साहू के मकान में अस्थायी रूप से स्थापित किया गया। इस बीच जले हुये थाना परिसर की मरम्मत करा कर 06 सितम्बर सन् 1942 को पुनः थाना अपने स्थान पर स्थापित हुआ।
16 अगस्त सन् 1942 का धानापुर थाना कांड भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बड़े कांडों में से है मगर शाब्दिक गलती धानापुर के स्थान पर चानापुर की वजह से इतिहास में अपना स्थान नहीं दर्ज कर पायी जिससे कि यह प्रसिद्ध न हो पाया। लेकिन राष्ट्र के नाम पर कुर्बान होने वालों को लोग हमेशा याद रखते हैं। इसीलिए हर साल 16 अगस्त को इन शहीदों की मजारों पर मेला लगता है और इन्हे श्रद्धांजली अर्पित की जाती है। किसी शायर ने क्या खूब कहा है कि –
शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पे मरने वालों का यहीं बाकी निशां होगा।