सैयदराजा। आजादी से पूर्व सन् 1942 के अगस्त महीने में तत्कालीन बनारस का हिस्सा रहा चंदौली उद्वेलित हो उठा था। महात्मा गांधी के आह्वान पर सड़कों पर उतरे क्रांतिकारियों से अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बिगुल फूंक डाला। अंग्रेजों भारत छोड़ो के नारे के साथ 1942 में अगस्त क्रांति का आगाज हुआ।
जिले भर में नौ से 28 अगस्त तक लगातार क्रांतिकारियों का जुलूस निकला। 13 से 28 अगस्त के बीच चार दिन तत्कालीन बनारस के चार स्थानों पर क्रांतिकारियों पर फायरिंग हुई थी जिसमें 15 स्वतंत्रता सेनानी शहीद हो गए थे। पहली 13 अगस्त को वर्तमान में वाराणसी जिले के दशाश्वमेध में तो दूसरी महत्वपूर्ण घटना 16 अगस्त को वर्तमान में चंदौली जिले के धानापुर तथा तीसरी घटना चोलापुर मे चैथी घटना 28 अगस्त को सैयदराजा में घटी। महात्मा गांधी ने जब नौ अगस्त 1942 को मुंबई के करो या मरो का नारा लगाया तो उसकी गूंज धानापुर और सैयदराजा की धरती पर भी पड़ा। यहां के जर्रे-जर्रे में क्रांति की चिंगारी दहक उठी थी। जब महात्मा गांधी ने अग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन के जरिए ब्रिटिश हुक्मरानों को ललकारा तो आजादी के नुमाइंदों के सीने में दबी आजादी की आग और भड़क गई। जगह-जगह अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह शुरू हो गया। क्रांतिकारियों ने धानापुर में 16 अगस्त 1942 और सैयदराजा में 28 अगस्त 1942 को जान की बाजी लगाकर धानापुर और सैयदराजा थाने पर तिरंगा फहराया था। सैयदराजा में 28 अगस्त को श्रीधर, फेकू और गणेश शहीद हो गए थे। सैयदराजा कांड की गूंज ब्रिटेन की संसद में भी गूंजी और प्रधानमंत्री चर्चिल को बयान देने पर विवश कर दिया था। सैयदराजा कांड में घायल होने वाले क्रांतिकारियों में रामनरेश सिंह, रामधनी सिंह, रामदेव सिंह, जगत नारायण दुबे, चंद्रिका दत्त शर्मा, जोखन सिंह, कपिलदेव सिंह, देवनाथ सिंह, राम सेवक राम आदि शामिल थे। 28 अगस्त 1942 को मुटकपुआं निवासी जगत नारायण दुबे साथियों संग सैयदराजा थाने पर पहुंचे। दारोगा तक बात पहुंची कि स्वतंत्रता सेनानी थाने पर तिरंगा फहराना चाहते हैं। दारोगा ने मना किया, लेकिन आजादी के दीवानों ने अंजाम की परवाह किए बगैर हल्ला बोल कर थाना को आग के हवाले कर दिया। थाने पर तिरंगा फहराने की कोशिश में तीन क्रांतिकारी शहीद हो गए। खुद जगत नारायण दुबे को दो गोली लगी। बावजूद इसके सैयदराजा थाना भवन पर थोड़ी देर के लिए ही सही तिरंगा फहराया। जो लोग भी आजादी के लिए लड़ी गई इस लड़ाई में शामिल रहे उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। महीनों जेल में बिताने और अंग्रेजों की यातना सहने के बाद 12 अक्तूबर 1943 को रिहा हुए।