जीवित पुत्रिका व्रत हिंदू धर्म में महिलाओं के लिए बेहद कठिन व्रत माना जाता है. इस व्रत को महिलाएं निर्जला रहकर करती हैं. हिन्दू पंचांग के अनुसार हर साल अश्विन मास की कृष्ण अष्टमी को जीवित्पुत्रिका का व्रत रखा जाता है. इस व्रत को जितिया, जिउतिया और जीमूतवाहन व्रत भी कहा जाता है. इस दिन माताएं अपनी संतान की सुख-समृद्धि और दीर्घ आयु के लिए निर्जला व्रत रखती हैं.
यह पर्व तीन दिन तक मनाया जाता है. इस पर्व की शुरुआत सप्तमी को नहाय-खाय की परंपरा से शुरू होती है. इस बार जीवित्पुत्रिका व्रत 28 सितंबर से शुरू होकर 30 सितंबर तक चलेगा. अष्टमी को महिलाएं निर्जला व्रत रखती हैं और अगले दिन यानी नवमी को पारण किया जाता है.
जीवित्पुत्रिका व्रत पूजन विधि
जीवित्पुत्रिका व्रत के पहले दिन नहाय-खाय होता है। इस दिन महिलाएं सुबह जल्दी उठकर, स्नान करके पूजा-पाठ करती हैं. पूजा करने के बाद महिलाएँ एक बार भोजन ग्रहण करती हैं और उसके बाद पूरा दिन निर्जला व्रत रखती है. नहाय-खाय के दिन बिना लहसुन-प्याज और नमक का भोजन किया जाता है. इस दिन भात, मंडुआ के आटे के रोटी और नोनी का साग खाने का महत्व है. इसके बाद अष्टमी को महिलाएँ सुबह स्नान करके पूजा-पाठ करती हैं और पूरे दिन निर्जला व्रत रखती हैं. अगले दिन सूर्योदय के बाद पूजा-पाठ करने के बाद व्रत का पारण किया जाता है.
अष्टमी को प्रदोषकाल में महिलाएं जीमूतवाहन की पूजा करती है. इस दिन कुशा से निर्मित जीमूतवाहन की प्रतिमा की पूजा की जाती है. पूजन करने के लिए जीमूतवाहन की प्रतिमा को धूप-दीप, चावल, पुष्प आदि अर्पित किया जाता है. इसके साथ ही मिट्टी तथा गाय के गोबर से चील व सियारिन की प्रतिमा बनाकर लाल सिंदूर का टीका लगाया जाता है. पूजन करने के बाद महिलाऐं जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा सुनती हैं. मान्यता है कि जीवित्पुत्रिका व्रत कथा सुनने से संतान की आयु लंबी होती है और उसके जीवन में सुख-समृद्धि बनी रहती है. इस दिन दान-दक्षिणा देने से विशेष फल प्राप्त होता है.
जीवित्पुत्रिका व्रत कथा
पौराणिक कथाओं के जीवित्पुत्रिका व्रत कथा का संबंध महाभारत से है.कथा के अनुसार महाभारत युद्ध में अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए अश्वत्थामा पांडवों के शिविर में गया और उसने द्रौपदी के पाँचों पुत्रों को पांडव समझ कर उनकी हत्या कर दी. इस पर अर्जुन ने क्रोध में अश्वत्थामा को बंदी बना लिया और उससे उसकी दिव्य मणि छीन ली. अश्वत्थामा ने इस बात का बदला लेने के लिए उत्तरा के गर्भ में पल रहे पुत्र को मारने के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया, जिसे रोक पाना असंभव था. लेकिन उत्तरा के पुत्र का जन्म लेना भी जरुरी था. तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सभी पुण्यों के फल उत्तरा को समर्पित किया जिससे और उसके बच्चे को गर्भ में ही दोबारा जीवन दिया. गर्भ में मृत्यु को प्राप्त कर पुन: जीवनदान मिलने के कारण उसका नाम जीवित्पुत्रिका रखा गया. वह बालक बाद में राजा परीक्षित के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसी समय से आश्विन अष्टमी को जीवित्पुत्रिका व्रत के रूप में मनाया जाता है.
इस व्रत की बाबत नगरों में काफी चहल पहल रही पूजा सामाग्री व फल के दुकान पे भीड़ देखने को मिली