Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से
‘‘अब वे नहीं है।’’ सूचना प्रसारित हो रही है।
कौन कह रहा है?
सब कह रहे हैं। टी.वी. कह रही है। रेडियो, अखबार और जो भी कहने वाले हैं, कह रहे हैं।
‘ये सब सच कह रहे हैं?
‘‘नहीं, ये सच कहने वाले नहीं हैं।
‘‘झूठ कह रहे हैं?’’
कैसे, कहें कि झूठ कह रहे हैं। ऐसा कहना उन सबकी शान के खिलाफ होगा। नहीं, यह तो संविधान के भी खिलाफ होगा।
‘‘वे सच भी नहीं कहते। झूठ भी नहीं कहते।
‘‘सच भी कहते हैं। झूठ भी कहते हैं।
‘‘जो कहते हैं, कई-कई तरह से सच भी होता है। कई-कई तरह से झूठ भी। हमारा समय कैसा अजीब समय है। हमारे समय में जो भी कहने वाले हैं, उनके कहने में सच भी है। झूठ भी है। सच, झूठ में और झूठ, सच में इस कदर मिला-जुला है कि उसे अलग कर पाना मुमकिन नहीं है। खैर।
जब से मैंने सुना है, पढ़ा है,- हिन्दी के वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह, अब नहीं हैं। जब-जब यह सुनी हुई, पढ़ी हुई ध्वनि मेरे भीतर प्रतिध्वनित हो रही है, उनकी कविता की कुछ पंक्तियाँ इस समाचार को झुठलाती मेरी आँखों के आगे उग आ रही है-
जाऊँगा कहाँ
रहूँगा यहीं
किसी किवाड़ पर
हाथ के निशान की तरह
पड़ा रहूँगा।
किसी पुराने ताखे
या सन्दूक की गन्ध में
छिपा रहूँगा मैं।
यह कविता सच है, तो समाचार जरूर झूठे होने चाहिए। मगर अफसोस है कि समाचार झूठ नहीं है। मैं सच और झूठ के इस विशाल तिलिस्म में असहाय उजबक की तरह कभी इधर कभी उधर और कभी कहीं नहीं देखता हुआ बस बैठा पड़ा हूँ।
चेतना के कबसे बन्द पड़े कपाट पर जाने कबसे बिना थके, बिना घराये, बिना उकताये थाप देते रहने का बूता किसमें हैं? सामर्थ्य किसमें हैं? पौरूष किसमें है? उनके खुलने की सबर से बेखबर केवल थपथपाने की क्रिया में तल्लीनता किसमें है? मनुष्य जाति की सरोकार हीनता के विजड़ित बुलन्द दरवाजे पर एक पैर पर खड़े रहकर उसे खटखटाने का,- खटखटाते रहने का धैर्य किसमें है? कविता में, केवल कविता में। कविता परिणाम की आकांक्षी नहीं है। कविता केवल प्रयत्न में आस्था रखती है। राजनीति परिणाम पाना चाहती है। इसीलिये हमेशा ही राजनीति के लिये आदमी साधन है। साहित्य के लिए आदमी साधन नहीं है, साध्य है। कविता आदमी के जीवन में सघने के लिये है।
कविता में जो अर्थ की ध्वनि है, वह कोशकारों के प्रकाण्ड प्रयत्न से जीवित और जीवन्त नहीं है। वह इसलिये जीवित और जीवन्त है कि उसमें लाखों-लाख रचनाकारों के प्राणों का स्पन्दन समाहित है। अनगिनत लोगों ने हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में अपने को दलित द्राक्षा की तरह निचोड़ कर अपने समूचे जीवन रस को शब्दों में उलीच रखा है। कविता कवि में अधिकांश, अधिकतर, प्रायः समाहित होती है। मगर कविता में कवि का समाहित हो पाना हमेशा नहीं, कभी-कभी हो पाता है। हिन्दी की आधुनिक काव्यधारा में केदारनाथ सिंह ऐसे कवि हैं, जो अपनी कविता में समाहित हो सके हैं। अपनी कविता में समाहित हो सकने की योग्यता ही उनकी विलक्षणता है। वे विलक्षण ढंग से अपनी कविताओं में मौजूद हैं। उनकी मौजूदगी हमें कुरेदती है, झकझोरती है, झिंझोड़ती है, चिकोटती है, खरोंचती हैं, सहलाती है, बहलाती है, गुदगुदाती है और हममें गुनगुनाती है। वह हममें पेड़ों के, नदी के, चिड़ियों के, पानी के, बादल के, बाजरे के, भुट्टे के, धान के, तरकारी के हास-हुलास और उनकी पीड़ा और उनकी उदासी और उनकी चिन्ता को सुनने की, समझने की केवल भाषा ही नहीं सिखलाती, बल्कि भाषा को धारण करने वाली संवेदना को भी हमारे में जनती है।
मैं किवाड़ों पर कान लगाये हूँ। किवाड़ों पर थाप में समाई हुई उनकी मौजूदगी बहुत कुछ कहती हुई सुनाई दे रही है। बहुत कुछ, फिर कभी। अभी मैं उनकी कविता ‘पांडुलिपियां’ में बजते ध्वनि संकेतों से प्राप्त इंगितों से अनुबिद्ध हूँ और उसके सन्दर्भ में ही आपसे कुछ अनुरोध करना चाहता हूँ।
अब अनुरोध की बात आ गई तो केदारनाथ जी की कविता ‘एक छोटा-सा अनुरोध, की याद हो आई। मुझे तो उनकी सारी कविताएँ ही अनुरोध जैसी लगती हैं। सचमुच कविता एक अनुरोध ही है, क्या? शायद। हर आदमी, हर समय चल रहा होता है। उसे चलने का पता हो तो भी, न हो तो भी। हमारे जीवन में चलना सिर्फ एक क्रिया भर नहीं है।’ चलना एक क्रिया के अलावा भी बहुत कुछ है। वैसे हमारी परम्परा में यात्रा में चलने वाले राही को टोकना अच्छा नहीं माना जाता। मगर एक कवि अपनी यात्रा में अपने सहयात्रियों को अपने अनुरोध के माध्यम से तनिक देर के लिये रुकने का आग्रह जरूर करता है। वह कहना चाहता है,- आँख मूँदकर चलना, चलना नहीं होता। चलना केवल कहीं पहँुचने के लिये ही नहीं होता। मंजिल निःसन्देह मूल्यवान है, मगर मार्ग भी कम मूल्यवान नहीं है। मार्ग के किनारे खड़े वृक्षों की हरियाली, उनकी छाया, छाया से फूटती सुगन्धि, सुगन्धि से उठते गान, बावलियों के जलतरंग का आमंत्रण, कूपों के पानी की मिठास और श्रम परिहार के ठिकानों की मधुरिम आश्वस्ति उपेक्षणीय नहीं है। ये सब मिलकर ही मंजिल को कोई अर्थ देते हैं। खैर। देखिए न! मैं तो बहक ही गया। बात तो ‘पांडुलिपियाँ’ के बारे में करनी है न!
‘पांडुलिपियाँ’ कविता मुझे बहुत प्रिय है। यह कविता पढ़ते हुए भीतर से बहुत उद्वेलित कर देती है। कविता का पाठ अपने प्रति बेहद उत्कर्ण बनाये रखता है। आश्चर्यजनक ढंग से यह कविता अपने में पाठकीय अस्मिता को शामिल कर लेती है। इस कविता का शीर्षक जरूर ‘’पांडुलिपियाँ’ है और बहुत ठीक है। मगर पता नहीं क्यों मुुझे बार-बार ऐसा लगता है कि यह कविता कवि के बारे में है। कविता के बारे में है। कवि-चेतना के बारे में है। काव्य-परम्परा के बारे में है। परम्परा की भव्य यातना, गानमय उदासी और उसके अकुंठ उल्लास और उसकी अचूक आस्था के बारे में है। उसके उज्ज्वल अवदान और उसकी गरिमापूर्ण विरासत के बारे में है। पता नहीं क्यों मुझे पांडुलिपियाँ एक कवि से भिन्न नहीं लगतीं। एक कवि एक पांडुलिपि से भिन्न नहीं लगता। अपने समय का बहुपठित से बहुपठित कवि मुझे फिर भी पढ़े जाने के लिये आमंत्रण और अनुरोध से भरा हुआ एक पांडुलिपि जैसा बराबर लगता है।
पांडुलिपि संग्रहालय में पड़ी है। संग्रहालय में पड़े-पड़े जर्जर हो गई है। पांडुलिपि की सही जगह संग्रहालय नहीं है। उसकी सही जगह जनसंकुल जीवन है। कविता जीवन में शामिल होने के लिये है। जीवन में शामिल न हो सकने की नियति उसे जर्जर बना देती है। उदास बना देती है। सदियों से अनसुनी संवेदना की पुकार की पीड़ा केदारनाथ सिंह जानते हैं। इस पीड़ा की परख ही उन्हें पांडुलिपियों के पास ले जाती है। अपने पास ले जाती है। उन्हें कविता में ले जाती है। इससे भी बड़ी बात यह है कि केदारनाथ सिंह शब्द के नीचे दबी हुई किसी स्त्री की चीख को सुन सकने की विलक्षण दक्षता के वारिस हैं। यही दक्षता वह चीज है, जो उन्हें विलक्षण बनाती है। यह विलक्षणता मामूली चीज नहीं है। यह योग्यता शब्द को उसकी समूची गरिमा और उसके समूचे सामर्थ्य में आत्मसात कर लेने की योग्यता है। शब्द कैसे एक वंचना की पीड़ा की चीख को सदियों अपने में समवाकर, सहेज कर सुरक्षित रखते हैं, यह जानना, यह जान सकना ही, कविता होना होता है। नहीं, नहीं, इतना जानना ही पर्याप्त नहीं है, पूरा नहीं है, कविता के लिये। आँखों से छूते ही किस कदर शब्द को हटाकर उसके नीचे दबी हुई चीख अपनी समूची अस्मिता में जीवित और जीवन्त हो उठती है, यह जानना कवि का जानना होता है। यह जानना ही कवि का होना होता है। बड़ा अद्भुत है, बड़ा आश्चर्यजनक है, कविता का पूरा संसार ही शब्द की सत्ता पर आश्रित है, अबलम्बित है, मगर जहाँ कविता फलित होती है शब्द की सत्ता मिट जाती है। वह विलीन हो जाती है। अपने फलितार्थ में। शब्द मिट जाते हैं। अर्थ रह जाता है। शब्द अपने अर्थ में विलीन हो जाते हैं। शब्द के अपने अर्थ में विलीन होने के रहस्य को केदारनाथ सिंह जानते हैं। इस रहस्य को जानना ही केदारनाथ सिंह की कविता की मार्मिकता को जानना है। कविता शब्दों में नहीं है, शब्दों के स्फोट में है। शब्दों के टूटने में है। मिटने में है। शब्दों में समाहित संवेदना के प्रस्फुटन में है। जैसे वृक्ष का प्रकट होना बीज के टूटकर-फूटकर मिटने पर ही संभव है, वैसे ही कविता का भी। कविता तभी प्रगट होती है, जब शब्द गल जाते हैं। बड़ा विचित्र है। कविता का विधान बड़ा विचित्र विधान है। केदारनाथ सिंह इस विचित्र विधान को जानने वाले विचित्र कवि हैं।
केदारनाथ सिंह पांडुलिपियों की नियति को जानने वाले कवि हैं। वे उनकी निष्ठा को भी जानते हैं। उनकी आकांक्षा को भी जानते हैं। उनकी यातना को भी जानते हैं। यह सब जानना ही उन्हें मुकम्मल कवि बनाता है।
वे जानते हैं कि कविता कभी अकेले में नहीं रहना चाहती, मगर उसे अकेले में रहना पड़ता है। वह बोलना-बतियाना चाहती है मगर उसे चुप पड़ा रहना पड़ता है। क्यों?
शायद इसलिये कि कविता भीड़ के साथ चिल्ला नहीं पाती। वह भीड़ के पक्ष में भीड़ के लिये हल्ला नहीं बोल पाती। वह भीड़ के लिये झंडा, डण्डा, टोपी, गमछा नहीं बन पाती। कविता बहुजन की पक्षधर है, मगर बहुजन को इसका पता नहीं हो पाता। पता नहीं हो पाता इस वजह से कविता को चुप रहना पड़ता है। उसे चुप रहना बहुत अखरता है। बोलने-बतियाने की मंशा कविता की हार्दिक मंशा हैै। चिल्लाना उसका स्वभाव नहीं है। अपने स्वभाव के कारण कविता को-पांडुलिपियों को- अकेलेपन की यातना झेलनी पड़ती है। केदारनाथ सिंह कविता का स्वभाव जानते है। उसकी नियति जानते हैं इसलिये अकेलेपन की दारुण यातना झेलती पांडुलिपियाँ उन्हें पहचानती हैं। उनका हालचाल पूछती हैं। दुर्लभ आत्मीयता का वारिस होने के नाते ही वे जानते हैं कि पांडुलियाँ अपनी यातना में भी अपने अस्तित्व के टुकड़े-टुकड़े होकर उधराने के दंश के बावजूद सदियों तक इंतजार में अविचल होती हैं,-किसी राहुल के इंतजार में।
कवि का पांडुलिपियों के अन्तर्देश में चलने का अनुरोध बड़ा ही दुर्लभ बोध का आमंत्रण है। उनका अनुरोध काव्य परम्परा की अविच्छिन्नता के बोध का प्रतिष्ठापक अनुरोध है। केदारनाथ सिंह की संवेदना इस अलक्षित सत्य को प्रतिष्ठापित करती है कि काव्य परम्परा अविच्छिन्न है। अपने इसी व्यापक और मार्मिक बोध के काारण वे देख पाते हैं,- दिखा पाते हैं कि पांडुलिपियों के अन्तर्देश में, ब्रह्मसूत्र मुक्तिबोध की कविता पढ़ रहा है। शांकुतल का हिरन पद्मावत के तोते से कुछ कह रहा है। कबीर के बीजक का कोई पद अपनी जगह से छिटक कर, अपने समय को उलाँघ कर मनु से बहस कर रहा है। हिन्दी साहित्य के इतिहास का सबसे पुराना और पहला महाकाव्य ‘रासो’ किसी समकालीन दौर के सबसे नये और युवा कवि की कोई अप्रकाशित कविता पढ़ रहा है। यहाँ कविता में केदारनाथ सिंह ने काव्य परम्परा के जिस सत्य को उद्घाटित किया है, उससे पांडुलिपियों के बहाने कविता की आत्मा अद्भुत और अपूर्व रूप में उद्भासित हो उठी है। केदारनाथ सिंह कविता की आत्मा को आत्मा की गहराइयों से प्यार करने वाले कवि हैं। उनकी कविता में कविता का आत्मसत्य काल की सत्ता को अतिक्रांत करता हुआ अधिष्ठित है।
कविता की आपसदारी में कविता की जीवनीशक्ति का अन्वेषण केदारनाथ सिंह की अपनी वह खोज है, जो काव्य जगत की महत्तम उपलब्धि है। उनकी कविता में चीनी महाकवि ली पै का स्तवन, जो कविता को खजूर के पत्ते पर लिखकर नदी को समर्पित कर देते थे, कविता के पहले पाठक पानी के लिये और पहला पाठक फिर उन्हें पहुँचा देता था दूसरे पाठक तक,- कविता की अविनश्वरता और उसकी निरंतरता शाश्वत स्तवन बन जाता है। केदारनाथ सिंह की कविता में कविता का स्तवन जो कि कविता की प्रशस्ति के शिल्प में नहीं है ऐतिहासिक रूप में विस्मय में डालता है। कवि की अद्भुत सूझ और सामर्थ्य से चकित करता है।
पांडुलिपियों पर लगे हुए धूल की अनुचित कापीराइट के ठप्पे की पहचान और उसके विरूद्ध किसी बेचैन हाथ की हल्की गरमाहट की परख उनके यथार्थ बोध की व्यापकता और उनकी विरल ईमानदारी का दुर्लभ उद्घोष है, जो इतिहास में कविता की गरिमा का अमिट दस्तावेज है। ‘पांडुलिपियाँ’ कविता वाास्तव में कविता में कविता के इतिहास का शिलालेख है, जिसे हर समय, हर कहीं किसी पेड़ की छाल में, किसी नदी के कण्ठ में, किसी जेल की दीवार में और किसी पत्थर की स्मृति में पढ़ा जा सकता है। कविता में केदारनाथ सिंह का और केदारनाथ सिंह में कविता का होना, एक दुर्लभ, स्मरणीय और स्पृहणीय घटना की तरह है, जिसका होना सदियों में कभी-कभी होता है। केदारनाथ सिंह का होना इतिहास के लिये गर्व की थाती है।
मैं किवाड़ों पर कान लगाये बैठा हूँ। किवाड़ों पर निशानों में पड़े हुए थाप बोल रहे हैं। मैं सुन रहा हूँ। निशान में अनगिनत शब्द समाहित हैं। ध्वनि समाहित है। झंकार समाहित है। बहुत ही धीमी किन्तु बहुत ही साफ ध्वनि कानों में बोल रही है- मैं कविता हूँ। मैं केदारनाथ सिंह हूँ। मैं यहीं हूँ। यही हूँ। यही हूँ।......
मैं वहीं हूँ।
जो कि आपके सामने हूँ
जिससे आप मिलते रहे हैं अक्सर....
.....मेरे पास एक रोटी है
और उसी में न्योतकर सारे शहर को
खिलाना चाहता हूँ.....
....मेरे हाथ में है मेरा चाय का चुक्कड़
और हैफ में पड़ा देखता हूँ मैं
कि भई वाह!
इस इत्ती-सी चाय को
मेरे संग-संग सुड़क रहे हैं
इत्ते सारे होंठ!
सम्पर्क-
प्राचार्य
माँ गायत्री महिला पी.जी. महाविद्यालय
हिंगुतरगढ़-चन्दौली।
मो0नं0- 945055160