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Friday, November 22, 2024

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परदेश को उठे पाँव

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Young Writer, साहित्य पटल।

संकट है। चहुँओर संकट है।
चिड़िया के लिये चारा नहीं है। पंछी के लिये पानी नहीं है। पंथी के लिये छाँह नहीं है। आस्था के लिये कहीं कोई आश्वासन नहीं है।
जवानों के लिये रोजगार नहीं है। वृद्धों के लिये कोई सहारे क संबल नहीं है। दुध-मुँहों के लिये दुलार नहीं है। कहीं कोई हास-हुलास नहीं है।
खेतों के गिरे हुये, बचे हुये अन्न आग के हवाले कर दिये गये हैं। तालाबों, पोखरों के मुँह न जाने कबके सूखे हैं। छाँहों के सारे ठाँव राजाज्ञा की निगरानी में नजरबन्द हैं। आस्था के वृक्ष जंगलराज के ठेकेदारों के हाथ में जा चुके हैं।
चिड़िया कहाँ रहें? कैसे रहें? न रहें तो कहाँ जायँ? जायँ तो कैसे जाय? बड़ा संकट है। संकट है कि- ‘‘का खाईं, का पीहीं, का ले परदेश जाईं?’’
देश में रहना न हो सकेगा तो परदेश जाना ही पड़ेगा। हमारे समय में पूरे के पूरे गाँव ही परदेश जाने को पाँव उठाये खड़े हैं।
हमारे गाँव बड़े-बड़े शहरों के परदेश रोज-रोज जाने का मंसूबा बाँधते हैं। जाते हैं, जाकर अपनी पहचान खो देते हैं। गाँव शहर में जाकर खो जाते हैं। खप जाते हैं।

हमारे गाँव के जवान बड़े-बड़े शहरों की छोटी-छोटी फैक्टरियों के मजदूर बनकर अपना मुँह छिपाने को बेबस हैं। वृद्ध ए0टी0एम0 के मुँह जोहने को विवश हैं। जो अभी नहीं जा पाये हैं, वे भी जाने को पाँव उठाये खड़े हैं। न जायें तो क्या खायें? क्या पीयें? जायें तो, क्या लेकर परदेश जायें?
खेत गिरवी हैं। गहने ब्याज के बन्दीगृह में कैद हैं। काम पाने के लिये एजेण्टों की चिरौरी-मिनती चालू है। एजेण्ट पत्थर दिल है।
चिड़ियाँ परदेश जाना चाहती है। जवानी परदेश जाना चाहती है। कुल मिलाकर पास में एक चना है। चना दाल दलने के लिये चाकी में डाल दिया गया है। चाकी में एक चने की बिसात ही क्या। दाल चाकी के किल्ले में फंस गई है। अटक गई है।
चिड़िया बढ़ई के यहाँ गुहार लगाती है। बढ़ई किल्ला फाड़ दे तो दाल निकल आये। मगर नहीं, बिगड़ैल बढ़ई नहीं सुनता।
हमारे समय में फरियाद डालने के लिये भी जुगाड़ की जरूरत है। सिफारिश का जोर चाहिये। फिर फरियाद सुनने के लिये घूस चाहिये। काम पाने के लिय, काम की पगार पाने के लिये पगड़ी चढाने का बूता चाहिए। पगड़ी चढ़ाने के लिये सिर्फ एक चना है। चना चक्की के किल्ले में फँसा है। क्या लेकर परदेश जाय।
परदेश जाना लाजिमी है। मगर क्या लेकर? लेकर जाने को कुछ नहीं है। जो है, चक्की में है। जो है, चक्की के किल्ले में फंसा है।
परदेश में कौन, किसका सगा-सम्बन्ध्ी है, कोई नहीं। जिसके बाप में कोई कूबत नहीं है, उसे हर किसी को बाप बनाना है। कोई बाप बने न बने, दीगर बात है। मगर बनाना है। हमारे समय की जवानी लावारिस जवानी है। हमारे समय के बाप बिना कूबत के बाप हैं। अपने बापों की विवशता से कुपोषित जवानी पत्थरों के आगे बाप-बाप चिल्ला रही है। पत्थर सुन नहीं रहे हैं। फिर? बुरा हाल है।
जहाँ भूख है, भोजन नहीं है। जहाँ प्यास है, पानी नहीं है। जहाँ भोजन है, भूख नहीं है। जहाँ पानी है, प्यास नहीं है। जहाँ हाथ है, काम नहीं है। जहाँ काम है, हाथ नहीं है। जहाँ आँख है, सपने नहीं है। जहाँ सपने हैं, आँख नहीं है। बड़ा विपर्यय है। मगर है। हमारे समय में बहुत कुछ नहीं है मगर विपर्यय हर कहीं है।
विपर्यय में ही जीना है। रोज-रोज उधर जाती सीवन को रोज-रोज सीना है। फिर भी विकास की घुट्टी हमें पीना है। हम विकास के पथ पर अग्रसर है। हमारे गाँवों में उजाड़ का निरन्तर विकास हो रहा है। गलियों और चौपालों में सन्नाटे का बराबर विकास बढ़ रहा है। आपस में अपरिचय का, असंवाद का विकास बढ़ रहा है। चौड़ी-चौड़ी सड़कों के विस्तार में दुर्घटनाओं में बेशुमार विकास हो रहा है। दुर्घटनाओं में घायलों और मृतकों के लिए ट्रामा सेण्टरों का विकास बढ़ रहा है। किसिम-किसिम के स्कूलों में हर साल बढ़ती फीसों का विकास बढ़ रहा है। अलगाव और असुरक्षा का विकास तो बाढ़ की तरह उफन रहा है। भला कौन कह सकता है कि विकास नहीं बढ़ रहा है।
नहीं बढ़ रहा है, तो पारस्परिक विश्वास नहीं बढ़ रहा है। कर्तव्यबोध नहीं बढ़ रहा है। देश प्रेम नहीं बढ़ रहा है। जीवन की सुरक्षा नहीं बढ़ रही है। आश्वस्ति के आश्रय नहीं बढ़ रहे हैं। मगर इनके बढ़ने, न बढ़ने से हमारा विकास प्रभावित होने वाला नहीं है। लूट का, दलन का, दमन का विकास तो जंगल-जंगल गूँज रहा है। नदी-नदी, पहाड़-पहाड़ गरज रहा है।
बहुत लोग हैं, जिनका कहने-सुनने से विश्वास उठता जा रहा है। कहने को बहुत कुछ है, मगर किससे? जिनसे कहना है, उन्हें सुनने में कोई रूचि नहीं है। जिन्हें सुनना है, वे कान में तेल डाले बोलने के व्यापार में लगे हैं। जो कुछ सुन सकते हैं, उनसे कुछ भी कहना व्यर्थ है। फिर? फिर क्या, जो है सो है।
चिड़िया चाहे, जितनी चिल्लाये कोई सुनने वाला नहीं है। वह जितनी चिरौरी करे कोई पसीजने वाला नहीं है। सुनने वाला कोई नहीं है। चिड़िया की फरियाद कोई नहीं सुनेगा, न बढ़ई, न लाठी, न भाड़, न समुद्दर, न हाथी, न साँप, न रानी। हमारे पुरानी लोककथा की चिड़िया हमारे समय की चिड़िया नहीं है। हमारे समय की चिड़िया, कहानी की चिड़िया से अधिक अभागी है। कहानी के समय से हमारे समय में अभाग का विकास बहुत आगे बढ़ चुका है।
परदेश जाना चाहो जाओ। कैसे जाना है, तुम जानो। जाना चाहो खाली हाथ चले जाओ। रहना चाहो, खाली पेट रहो। जैसे भी रहना हो, रहो मगर चुप रहो। बस बोलो मत। बोलने से कानून व्यवस्था प्रभावित होती है। कानून-व्यवस्था में बाधा डालना अपराध है। अपराध के लिये सजा है। बोलोगे, तो सजा मिलेगी। और कुछ मिले, न मिले सजा जरूर मिलेगी। हमारे समय में सजा सुलभ है। न्याय दुर्लभ है। जो दुर्लभ है, उसे छोड़ो। जो सुलभ है उसे लो।
वोट दे दो। आश्वासन ले लो। आश्वासन को खाओ। आश्वासन को पीओ। आश्वासन को ले परदेश जाओ। परदेश में खो जाओ। परदेश में खप जाओ।
पता नहीं कैसा समय है। अपने ही देश में जाने कितने-कितने परदेश उगे आ रहे हैं। पनपते जा रहे हैं।
अपना देश, परदेश क्यों बनता जा रहा है। सारे जाने-पहचाने अपने, पराये जैसे क्यों बनते जा रहे हैं। अपना गाँव अपने गाँव जैसा क्यों नहीं है? अपने बाप, बाप जैसे क्यों नहीं हैं? अपनी सरकार अपनी सरकार जैसी क्यों नहीं है?
बहुत से सवाल हैं, गाँव-गाँव, गली-गली बौड़िया रहे हैं। सवाल बवण्डर की तरह उठ रहे हैं। धूल-गर्द फैला रहे हैं। आँखों में भरे आ रहे हैं। आँखें किरकिरा रही हैं। कुछ सूझ नहीं रहा है। सब पहचाने, अनपहचाने से बनते जा रहे हैं।
केवल चिड़िया नहीं, केवल जवान नहीं, केवल जवानी नहीं केवल बुढ़ापा नहीं, पूरा का पूरा गाँव, पूरे के पूरे गाँव परदेश जाने को पाँव उठाये हुये हैं।
हर कोई, हर किसी से पूछ रहा है- ‘का खाईं, का पीहीं, का ले परदेश जाईं?’’
कोई जवाब नहीं है। कहीं कोई जवाब नहीं है। कहीं से कोई जवाब नहीं उठ रहा है।
सवाल उठ रहे हैं। एक नहीं, दो नहीं। हजार-हजार, लाख-लाख, करोड़-करोड़ सवाल उठ रहे हैं। हमारे समय में आदमी सवाल में बदलता जा रहा है।
हमारे समय में भोजन, सवाल में बदलता जा रहा है। वस्त्र, सवाल में बदलता जा रहा है। दवा, सवाल में बदलती जा रही है। शिक्षा, सवाल में बदलती जा रही है।
हमारे समय में हर आदमी अपने ही घर में प्रवासी बनता जा रहा है। घर-घर में एक परदेश घुसने के लिये पाँव उठाये खड़ा है। हर घर, परदेश जाने को पाँव उठाये है।

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