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Friday, November 22, 2024

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दरद न जाने कोय

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Young Writer, साहित्य पटल।

एक ऐसे दर्द को हमेशा साथ लेकर रहना, जिसे कोई नहीं जानता कैसा होता है? यदि कभी पूछने का मन हो तो मीरा से जरूर पूछिए।
इसी दर्द का इतिहास कविता का इतिहास है। इसी दर्द का जीवन मीरा का जीवन है। जो लोग कविता को कागज पर लिखने की चीज मानते हैं, कविता उन्हें नहीं जानती। मगर कविता मीरा को जानती है। इसलिए कि कविता में मीरा उस दर्द को कह सकी हैं। जो कहने में नहीं आता मगर फिर भी कहा जाता है, शायद उसे ही हम कविता के नाम से जानते हैं। कविता भरी हुई गागर से छलक कर बाहर आ जाने की सहज विवशता के रस के छींटे की तरह है। छींटे ही संघनित होकर धार बन जाते हैं। धार-धार से प्रवाह बन जाता है। कविता का अजस्र प्रवाह जाने कबसे प्रवाहित है। जाने कब तक प्रवाहित होता रहेगा। इस प्रवाह में सब तरह का रस है। वेदना का रस है, उत्ताप का रस है, आक्रोश का रस है, अनुक्रोश का रस है। संताप का रस है, संघर्ष का रस है। राग का है, अनुराग का है। उल्लास का है, उत्साह का है, संतोष और तोष का भी है। प्यास का भी है और परिप्लुति का भी है। बड़ा मुश्किल है गिन पाना है। मनुष्य का पूरा जीवन ही कविता का जीवन है। मीरा की कविता मनुष्य के विदग्ध जीवन की कविता है। विदग्धता सूक्ष्मतम अनुभूतियों को आत्मसात करने की योग्यता है। गीत कविता सूक्ष्मतम अनुभूतियों की संवाहक कविता है। मीरा की कविता का घनत्व बहुत ज्यादा है।
घनत्व ज्यादा होने से मीरा की कविता वजनी कविता है। मीरा की कविता वजनदार कविता है। उनकी कविता तीव्रतम छटपटाहट की कविता है। अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए विकल्प विहीन स्थितियों में रास्ते की तलाश का आवेग उनकी कविता में है। मीरा की कविता में आन्तरिक और बाह्य स्थितियों का अद्भुत समायोजन है। चेतना के आन्तरिक धरातल की बेचैनी के साथ जीवन के बाह्य स्थितियों की परेशानी को मीरा एक साथ व्यंजित कर सकने वाली काव्यभाषा की अद्भुत आविष्कारक रचनाकार हैं। बिना किसी बक्रोक्ति के, बिना किसी व्याजोक्ति के मीरा ने जीवन के दर्द को जिस तरह व्यक्त करने की सामर्थ्य हासिल की है, कविता में वह अलम्य है। मीरा की कविता की भाषा में जो बेधकता है वह उनके जीवन के ताप को अपने में पूरी तरह धारण कर सकने की योग्यता के कारण है। इसी कारण मीरा के शब्द हृदय को बेध सकने में समर्थ हैं जैसे शिरीष हीरा को बेधने में।
मीरा की कविता में जो दुख है, उसके केन्द्र में न समझे जाने का दुख है। जो स्वयं को समझने की प्रक्रिया में तल्लीन है मगर कुछ भी समझने के प्रयास से विरत लोगों की भीड़ में घिरा है। जो नितांत समझे जाने योग्य है, मगर वह अपने को समझदार कहने वालों की समझ में समझने के दायरे से बाहर की चीज है। अपने सुख से व्याकुल, अपनी मर्यादा के भार से मूर्छित दुनिया, जिन्दगी को अपने समझ के वृत्त से बाहर रखकर विमोहित है। उसकी समझ की परिधि में जीवन नहीं है, महल है, सिंहासन है, राज्य है, राज्य की सीमा है, शस्त्र हैं, शस्त्रागार हैं। यह सब जीवन नहीं है, जीवन का खेल है। मीरा के लिए जीवन खेल नहीं है, मेल की उपासना का माध्यम है। फिर भी मीरा की कविता में कहीं विरोध नहीं है। विरोध में नकार है। नकारात्मकता है। मीरा की कविता स्वीकार की कविता है। अपार स्वीकार के विधायक प्रवाह में सारे नकार अपने आप बह जाते है। बिला जाते हैं। मीरा की कविता में जीवन की जड़ता के प्रति, नकारात्मकता के प्रति क्रोध नहीं है, क्षोभ है, करुणा है। नासमझी के प्रति करुणा, विरोध और विद्रोह से बड़ी चीज है। बहुमूल्य चीज है। मीरा की कविता बहुमूल्य कविता है।
मीरा की कविता इसलिये बहुमूल्य कविता है कि वह इन्कार की नहीं, उपलब्धि की कविता है। उनकी कविता बहुत कुछ को नकारने के मकसद की कविता नहीं है। बात यह है कि उनकी आन्तरिक बेचैनी उन्हें ऐसे सत्य की आन्तरिक उपलब्धि से समृद्ध बना देती है कि उसके सापेक्ष्य बहुत-सी मूल्यवान समझे जाने वाले मूल्य अपने आप निरस्त और व्यर्थ हो जाते हैं। मीरा की कविता अपनी आन्तरिक जरूरतों से उपजी कविता है। जब किसी रचनाकार की आन्तरिक जरूरत अपने समय के व्यापक जीवन की आन्तरिक जरूरत से अभिन्न तौर पर संपृक्त हो जाती है, रचना की मूल्यवत्ता बहुत बढ़ जाती है। जीवन के ऊपरी स्तर पर जितनी ही समाज में भिन्नता दिखाई पड़ती है गहन और सूक्ष्म स्तर पर उतनी की एकता स्थित होती है। मीरा की कविता जीवन के गहन और सूक्ष्म स्तर की कविता है। इसीलिये मीरा का बोध, व्यापक काल का बोध बन जाता है। मीरा की कविता जितनी अधिक मध्यकालीन है उतनी ही अधिक वह आधुनिक भी है। आधुनिक का एक अर्थ बराबर बने रहने वाला भी होता है। अपने बोध में बराबर बने रहने वाले बोध को व्यंजित करने वाली कविता मूल्यवान और महत्वपूर्ण कविता होती है। मीरा की कविता का बोध बराबर बने रहने वाला बोध है।
मध्यकालीन काव्य बोध और आध्ुानिक काव्य बोध में सबसे बड़ी भिन्नता चेतना के धरातल की भिन्नता है। मध्यकाल के रचनाकार का काव्यबोध उनका जीवन बोध भी है। मीरा ने मेवाड़ के राजवंश की मर्यादा को खण्डित करने के लिये कुछ भी नहीं किया। मीरा अपनी आन्तरिक चेतना में प्रेम के रस ऐश्वर्य से इस कदर भर गयी थीं कि चेतना की ऊपरी सतह पर सजने वाली सारी खोखली मर्यादाएँ रसहीन और व्यर्थ हो गई थी। उनके लिये मीरा के जीवन में कोई जगह नहीं बची थी। उनके जीवन में उनका कोई वजूद ही नहीं था। कोई मूल्य ही नहीं था। कोई महत्व ही नहीं था। मीरा उनसे बहुत आगे, बहुत दूर निकल गईं और वे बहुत पीछे छूट गईं। वे मूल्य, वे मर्यादाएं मीरा द्वारा परित्यक्त हैं। वे केवल मीरा के परित्याग के कारण ही तिरस्कृत हैं। उनके तिरस्कार का कोई उद्योग मीरा की कविता में नहीं है।
मीरा की कविता प्रेम निवेदन की कविता है। अपनी अभीप्सा के प्रति अपार अनुरोध की कविता है। प्रतिवेदन की कविता है। अपने प्रेम के सम्मुख अगाध आत्मसर्मण की कविता है। उन्हें अपनी आँखों से, वह सबकुछ देखने में कोई रूचि नहीं है, जिसे दुनियां देखने के लिए ललचती रहती है। उन्हें अपनी आँखों में दुनियाँ के दुलारे सौन्दर्य को बसा लेने की रूचि ही नहीं है। उनकी उत्कण्ठा है केवल अपरूप सौन्दर्य को अपने में पा लेने की। वह सौन्दर्य जो कभी पुराना नहीं पड़ता। जो कभी बासी नहीं होता। जो हमेशा ताजा बना रहता है। क्षण-क्षण नया होता रहता है। मीरा उस सौन्दर्य की उपासक हैं, जिसका पान कर लेने से प्यास नहीं बढ़ती है। परितोष बढ़ता है। वे उस सौन्दर्य के अधिष्ठता से अनुनय करती हैं- ‘‘बसो मेरे नैनन में नन्दलाल।’’
अपरूप सौन्दर्य के अधिष्ठाता नन्दलाल की झलक जैसे ही झलकती है, मीरा की आँखों में, उन्हें विह्वल कर देती है। विह्वलता उनमें उन्मत्त हो उठती है। आह्लाद के घुँघुरू उमंग की डोरी में कस जाते हैं। शब्दों के पाँव थिरक उठते हैं। ध्वनियों की झंकार बज उठती है। संगीत बह पड़ता है। शब्द सन्नाटा तोड़ने के लिए नहीं जनमते। वे तो जनमते हैं, हृदय का द्वार खुल जाने से। हृदय का द्वार खुल जाता है तो उसमें प्रेम के पियूषवर्षी मेघ भर जाते हैं। वे बरसने लग जाते हैं। वे बरसने लग जाते हैं और शब्द जनमने लग जाते हैं। शब्दों के जनमने से सन्नाटा अपने आप टूटने लग जाता है।
प्रेम की उपलब्धि मृत्यु के उपरान्त ही होती है। मृत्यु का भय मिटने का भय है। मिटने के भय को मिटाकर ही प्रेम के साम्राज्य में प्रवेश मिलता है। प्रेमी के लिये विष का कोई मतलब नहीं होता। विष का कोई प्रभाव नहीं होता। दुनियां का कोई भी जहर उसके लिये कुछ भी महत्व नहीं रखता। उसे मार नहीं सकता। जिसने अपने को स्वयं मार दिया है, उसे कोई क्या मारेगा? कैसे मारेगा? उसे मारने का कोई उपाय नहीं है। मरना बार-बार होता है क्या? नहीं मरना सिर्फ एक ही बार होता है। मिटना एक ही बार होता है। विलय केवल एक ही बार होता है। प्रेम विराट है, अविनश्वर है। विराट में विलय के बाद नश्वर अस्तित्व का कोई वजूद नहीं रह जाता। नश्वर अस्तित्व को नष्ट करने वाले सारे विष उसके लिये व्यर्थ हैं। तभी मीरा विष पीकर भी मगन हो सकीं। मीरा की कविता विष पीकर भी मगन हो उठने वाली कविता है- ’’राणा विष को प्यालो भेंजो
पीय मगन सो होई।’’
विष पीकर मरते तो सुना गया है, दुनिया में। मगर विष पीकर नाचन अनसुना है। मीरा की कविता अनसुने सत्य की कविता है। मीरा की कविता रूप के श्रृंगार की कविता नहीं है। वह अस्तित्व के श्रृंगार की कविता है। मीरा के पांवों में आनन्द के घुघरूँ बंधे है। मीरा और किसी से नहीं बंधी है। वे आनन्द से बंधी है। दुनिया आनन्द के आलोड़न में नृत्यमग्न मीरा को बावली समझती है। मगर मीरा अकेले ऐसी बाबली है, जिसे पता है कि वह बावली नहीं है। अपनी सास के लिए मीरा ‘कुलनासी’ हैं। मीरा के साथ उनकी सास का रिश्ता वही रिश्ता है, जो आनन्द के साथ उद्वेग का होता है। आनन्दिता के उपजते ही उद्विग्नता के कुल का नाश हो ही जाता है, अनप्रयास ही। उद्विग्नता में दुनिया के सारे दर्द समाये हुये हैं। जो अपनी ही आशंकाओं और अपने ही संशयो के विष से विमोहित दर्द से तड़प रहा है, वह दूसरे के दर्द को कैसे सुन सकता है। कैसे समझ सकता है? कैसे जान सकता है।
जो दर्द कोई नहीं जानता, वह कुछ पाने का दर्द नहीं है। कुछ खोने का दर्द नहीं है। वह कुछ होने का दर्द है। कुछ होने का दुख कविता का दुख है। कुछ बोने का सुख कविता का सुख है। मीरा की कविता कुछ होने की प्रक्रिया में निर्मित होने वाले दर्द की कविता है। जो इस प्रक्रिया में शामिल नहीं है, वे इस दर्द को नहीं जानते। नहीं जान सकते। प्रेम में होने की प्रक्रिया, मीरा के जीवन की प्रक्रिया है। प्रेम के धरातल पर अधिष्ठित होने का अभिक्रम मीरा के जीवन का अभिक्रम है। बड़ा कठिन अभिक्रम है। इसी कठिन अभिक्रम के बारे में कबीर ने कहा है – ‘‘सूरा होना सरल है, घरी पहर का काम। साधू होना कठिन है, आठ पहर संग्राम।।’’
साधू होना प्रेम में होना है। अपनी अस्मिता को मिटाकर व्यापक जीवन-जगत की अखण्ड अस्मिता में विलीन होना है। शूली के ऊपर सेज सजाने प्रेम का अभिक्रम का अभिक्रम है। शूली के ऊपर सुहाग की सेज का मर्म जो जानता है, वही प्रेम के राज्य में पांव धरने का जोखिम उठा सकता है। शूली पर चढ़ने के दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलने का साहस सिर्फ प्रेम में है और किसी में नहीं। इसी साहस की खोज मीरा की कविता की खोज है। मीरा की खोज उस प्रविधि की खोज है, जिससे शूली सुहाग की, सौभाग्य की सेज बन जाती है।
प्रेम के बाजार में मीरा ने गोविन्द को खरीद लिया है। उन्होंने वाजिब कीमत चुकाकर खरीदा है। मीरा का प्रेम मुकम्मल कीमत चुकाकर हासिल हुआ प्रेम है। न सस्ते में किसी चालबाजी के सहारे लिया गया है, न दांत निपोर कर महंगी कीमत चुकाकर। मीरा ने बड़े गर्व का सौदा किया है, गोविंद के साथ, बड़े गौरव का सौदा किया है। न कोई दीनता, न कोई गिड़गिड़ाहट न व्यर्थ की विनय न कोई निहोरा। बराबर का दिया और उसी बराबर का लिया। न रत्ती भर कम न माशा भर ज्यादा। मीरा ने अपने को पूरा-पूरा दे दिया और पूरा-पूरा देकर गोविंद को पूरा ले लिया। मीरा जैसा प्रेम कहां है कहीं। नहीं है, न सूर के पास, न तुलसी के पास। न कबीर के पास न रैदास के पास। मीरा का प्रेम पूरे भक्ति काव्य के प्रेम से विलग है। विलक्षण है। मीरा का प्रेम, प्रेम को नया आयाम देता हुआ प्रेम है। नई दिशा, नई ऊँचाई, नया मूल्य, नई गहराई और नया गौरव। मीरा का प्रेम अपने युग को फलॉगकर आने वाले समय को आमंत्रित करता प्रेम है। मीरा की कविता काल के कोप में प्रेम को पलुहित करने वाली कविता है। मीरा के प्रेम में आत्मदर्प की अद्भुत दमक है।
मीरा की कविता भिन्नता के प्रतिभास में अभिन्नता के बोध की कविता है। अभिन्नता का बोध ही प्रेम की कोख है। अभिन्नता की जमीन में ही प्रेम अंकुरित होता है। पलुहित होता है। पुष्पित होता है। फलित होता है। स्त्री-पुरूष का भेद, राजा-प्रजा का भेद, धनी-गरीब का भेद, सबल-निर्बल का भेद यानी भेद की, भिन्नता की समूची सत्ता ही तिरोहित हो जाती अभेद की, अभिन्नता की अखण्ड अस्मिता में। मीरा की कविता में अभिन्नता का बोध चेतना की गहराई में आत्मगत है। वह समाज सुधार की बौद्धिक अवधारणा की तरह धारण किया विचारगत प्रभाव नहीं है। विचारगत प्रभाव की उत्प्रेरणा जीवन व्यवहार में स्थिर नहीं हो पाती। शायद इसी कारण से प्रायः सामाजिक आन्दोलन कम समय में ही प्रभावहीन हो जाते हैं। कविता की जीवन ऊर्जा के स्रोत प्राणियों के प्राणों की गहराई से जुड़े होते हैं, इसीलिये कविता कभी प्रभावहीन नहीं होती। मीरा की कविता प्राणों में स्पन्दन का संचार करने वाली कविता है। मीरा की कविता जीवन की जड़ों की अभ्यर्थना की कविता है। मीरा की कविता, कविता के लिये महलों के बन्ध्या होने के प्रवाद को झुठलाती कविता है। राजमहल के प्रपंच में मीरा की कविता का होना अप्रत्याशित तौर पर सच के अपवाद की अमिट गवाही की तरह से है। युगों से कविता को आतंकित करने के गुमान में अचेत राजमहलों के अभिमान को मीरा की कविता ने हिलाकर रख दिया। कविता की विजय का ध्वज सबसे पहले मीरा ने मेवाड़ के राजमहल पर ही लहराकर अपनी यात्रा की शुरुआत की। राजावंशों के सारे अभियानों का अन्तिम बिन्दु राजमहल होता है। मगर मीरा जिस महनीय जीवन यात्रा की यात्री हैं, उसका प्रस्थान बिन्दु ही राजमहल है। मीरा की कविता की मंजिल के वैभव का अनुमान कुछ-कुछ इसी तथ्य से लगाया जा सकता है।
मीरा की यात्रा अपने अस्तित्व के स्रोत की यात्रा है। अपने अस्तित्व की गहराई में उतरते-उतरते उसके उद्गम के उत्स तक पहुँच पड़ने की यात्रा है। जैसे-जैसे दूरी कम होती जाती है, भिन्नता का भान कम होता जाता है। जैसे-जैसे स्रोत के निकट पहुंचना सधता जाता है, अभिन्नता का बोध बढ़ता जाता है। अभिन्नता के केन्द्र से ही अनगिनत भिन्नता के स्वरूप जीवन की परिधि पर प्रतिभासित होते हैं। जैसे गन्ध के असीम विस्तार के केन्द्र में मलय है, जैसे चांदनी के अछोर विस्तार के केन्द्र में चन्द्रमा है, वैसे ही जीवन की विविध विभिन्नता के केन्द्र में अभिन्नता है। चाँदनी चाँद से भिन्न प्रतिभासित होती है, भिन्न है नहीं। यह भिन्नता का प्रतिभास ही मीरा का दर्द है। मीरा के दर्द का कारण है। जीवन के प्रतिभास को जीवन समझ लेने की वृत्ति मीरा की वेदना का कारण है।
मीरा का दर्द न समझे जाने का दर्द है। जो नितांत समझे जाने के योग्य है, मगर समझने के दायरे से बाहर रखा हुआ है। जिसके सम्मुख होना है, उसके विमुख होना और जिसके विमुख होना है, उसके सम्मुख होना, मीरा का दर्द है। प्रतिभास को जीवन समझ लेना और जीव को प्रतिभास मान लेना मीरा के दर्द की वजह है। जीवन के केन्द्र को छोड़कर परिधि पर जीवन खोजना मीरा की पीड़ा का कारण है। मीरा के लिए दर्द और दवा और वैद्य अलग-अलग नहीं है। भिन्न-भिन्न नहीं है। मीरा के लिये जीवन का आधार ही उनका प्रियतम है। जीवन के आधार से विलग होकर जीने की स्थिति ही मीरा का दर्द है। जीवन के स्रोत से वंचित रहकर भिन्नता के प्रतिभास में जीने की विडम्बना ही मीरा का दर्द है। मीरा के दर्द की दवा दुनिया में नहीं है। दुनिया में सिर्फ दर्द है। दुनिया में प्रेम नहीं है। इस दर्द को जान लेना ही दर्द को दवा बना देता है। दवा को वैद्य बना देता है। दर्द और दवा और वैद्य की अभिन्नता का बोध ही मीरा की कविता का बोध है। वेदना और प्रेम और प्रियतम की अभिन्नता का बोध ही मीरा की कविता का बोध है।
मीरा की कविता अभिन्नता के बोध में व्याप्त गहरे महामौन में गूँजते महानाद की कविता है। भिन्न-भिन्न नादों के निनाद का महानाद में समावेशन ही मीरा की कविता की पीड़ा का उल्लास है। वही उनकी कविता की पुलक है, प्राप्ति है। यही मीरा की कविता का चरितार्थ है।

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