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Thursday, November 21, 2024

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मुझे क्या चाहिए…

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Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से

‘मुझे क्या चाहिए? अव्वल तो यह प्रश्न बनता नहीं। बन भी जाय तो किसी को स्वाभाविक नहीं लगेगा। शायद इसलिये कि इस तरह के प्रश्न हमारे समय में चलन में नहीं है। यह प्रश्न हमारे समय के प्रश्नों के ढाँचे में नहीं है। प्रश्नो का भी ढाँचा होता है, क्या? क्यों नही, बिल्कुल होता है। हमारे समय में कौन-सी ऐसी चीज बची है, जो ढाँचे के बाहर है। नहीं, नहीं सब कुछ ढ़ला हुआ है। सब कुछ ढाला हुआ है। यहाँ तक कि अब तो अन्तर्राष्ट्रीय ब्राण्ड की कम्पनियों ने आदमी के लिये भी ढाँचा ढाल लिया है। विश्व बाजार में आदमी के ढाँचे के बाहर का आदमी, आदमी ही नहीं है। हमारी सभ्यता के तकनीकी बाजारीकरण ने आदमी को अपने स्वभाव से इस कदर विमुख और वंचित कर दिया है कि हमें सारी स्वाभाविक चीजें अस्वाभाविक लगने लगी है। खैर।
प्रायः हम यह सोचते है कि प्रश्न दूसरों से पूछने के लिये होते हैं। हम दूसरों के बारे में जानने को हमेशा उत्सुक और उतावले बने रहते हैं। हमारी सारी दिलचस्पी दूसरों के बारे में है। हमारे सम्मुख हमेशा कोई दूसरा खड़ा है। चाहे पछाड़ने के लिये चाहे पटकने के लिये। चाहे लताड़ने के लिये चाहे हटकने के लिये। हम एकान्त में भी भीड़ से घिरे हैं। शोर से घिरे है। अकेले में होकर भी जाने किससे-किससे भिड़े है। बड़ा अजीब है। हाँ, हाँ एक दम अजीब ही है। पता नहीं क्यो हम, हमारे नहीं है। हमारे सामने हमारी अपनी जिन्दगी नहीं है। हम अपने जीवन के सम्मुख नहीं है। हमारे सामने हमारी अपनी जिन्दगी नहीं है। हम अपने जीवन के सम्मुख नहीं हैं। पता नहीं क्यों?
मगर मैं क्या करूँ? मेरे पीछे तो कई दिनों से यह प्रश्न पड़ा है। हाथ धोकर पड़ा है। पिण्ड नहीं छोड़ता, छुड़ाने की सारी कोशिशो के बाद भी।

एक समय था, जब प्रश्नों की भीड़ में मैं घिरा था, धक्का खा रहा था, मुक्का खा रहा था। दरे जा रहा था, तरेरा जा रहा था, तब इस सवाल को झुठलाता एक दूसरा सवाल था। वह था, मुझे क्या नहीं चाहिए?

सब कुछ चाहिए था। जो-जो देखता था, जो-जो दिखाई पड़ जाता था, सबको पा लेने के लिये मन में हूक उठती थी। मचल उठता था मन। तब मैं बच्चा था। मेले में घूमता हुआ बच्चा। विस्मय से विजड़ित। औत्सुक्य से विमोहित। लालसा से लुब्ध। हर सजी हुई दुकान आँखो को अपने में जड़ लेती थी। हर दुकान बुलाती थी चिल्ला-चिल्लाकर इतने जोर से कि कान के पर्दे बेकाम हो जाते थे। मैं क्या करता भला। कोई भी क्या कर सकता है। तब दुकान का एक सामान नहीं, पूरी-पूरी दुकान ही चाहिए थी। नहीं, दुकानो का नहीं, नहीं दुकानो से भरा पूरा मेला ही चाहिए था। मगर क्या हुआ। क्या होे सकता था। जेब में दम ही क्या था। एक फिफिहरी पर संतोष करना पड़ा था। मालूम नहीं था तब कि मेला आँख का नहीं होता जेब का होता है। देखने का काम आँख का नहीं है, दाम का है। मगर मन कहाँ माना। कहाँ मान सकता है। मान जाय तो मन ही क्या। सो मेला देखा। देखता रहा। खाली जेब मेला देखने का मजा भी कम नहीं है। मैंने तो बिना जेब देखे खूब मेला देखा है। कहावत चाहे जो कहे लेकिन मुझे तो खूब मजा मिला है। जो लोग सामान खरीदने के साथ-साथ मौज भी खरीदने का मंसूबा बाँधे रखते हैं, वे हमेशा दुखी रहते हैं।

हमारे दुखी होने की सबसे बड़ी वजह शायद यह है कि हम हमेशा दुख के बारे में सोचते रहते है। दुख नहीं भी है तो दुख के आ जाने की आशंका को हम अपने में बुला लेते हैं। फिर उससे बचने के उपायों का आयोजन करने लगते हैं। दुख को हटाने के बारे में, जो दुख अभी नहीं आया है, उसको भी रोकने के बारे में हम अपनी सारी सोच लगा देते हैं। हमारे चिन्तन के केन्द्र में दुख स्थिर हो जाता है। सुख चूल्हे-भाड़ मंे चला जाता हैं। मुझे लगता है, हमारी चिन्ता वस्तुओं को लेकर उतनी नहीं है। वस्तुएँ तो अपनी अस्मिता में हैं ही। हम भी अपनी अस्मिता में हैं ही। फिर क्या बाधा है? परेशानी दूसरी है। परेशानी यह है कि हम वस्तुओं पर अपना अधिकार चाहते हैं। अपना स्वामित्व चाहते है। वस्तुओं पर ही नहीं हम व्यक्तियों पर भी अपना अधिकार चाहते हैं। अधिकार को ही हम कभी प्रेम का नाम दे देते हैं, कभी-कभी सेवा का, कभी कुछ और का, कभी कुछ और का। फिर उपद्रव शुरू हो जाता है। सारे उपद्रच की जड़ अधिकार की भावना में है। सारी अशान्ति का मूल अधिकार है। अधिकार को लेकर ही सारी राजनीति है। सारी असहमतियाँ है। सारे संघर्ष हैं। दुनिया के बहुत से समझदार लोग-‘संघर्ष ही जीवन है‘ कहकर अपनी समझदारी का निदर्शन भी करते है। समझदार बनने से भला किसी को कौन रोक सकता है।

मेरे तो बचपन से ही समझदारी पीछे पड़ी है। जब बचपन था मेरे पास मैं समझदार होने को लालायित हो रहा था। महत्वपूर्ण मामलों में सयाने लोगों की साझेदारी मुझे सयाना बन जाने के लिये उन्मथित कर देती थी। अपनी उपेक्षा से बचपन खो गया। मैं सयान हो गया। सयान होकर क्या मिला? कुछ पता नहीं। जवान होकर भी कुछ और होने की। कुछ और होकर भी कुछ और होने की हूक जस की तस बनी रही। बनी हुई है अब भी, वैसी की वैसी। हाँ, उसमें एक दंश और जुड़ गया है, जो था उससे वंचित हो जाने का दंश। जवान होने की जो हड़बड़ी थी वह जवान होकर भरी नहीं। उसमें भर गई बचपन के जाने की कचोट। बचपन में मुझे जवानी चाहिए थी। जवानी मिल गई। मगर मिल जाने से कुछ नहीं हुआ। मेरा ख्याल है हर किसी का यही हाल है।

हमारे समय का हर आदमी आधी जिन्दगी, जिन्दगी शुरू करने का इंतजार करता है। हमारा इंतजार जिन्दगी के लिये नहीं है, जिन्दगी गुजारने के साधन के लिये है। फिर जिन्दगी का साधन ही हमारे लिये जीवन बन जाता है। साधन कुछ को मिल जाता है, बहुतों को नहीं मिलता। नहीं, ऐसा नहीं है। जिनको साधन नहीं मिलता उनकी तो बात ही अलग है। वे तो अभाव की गरगराती नदी में मगरमच्छों की बुमुक्षा के शिकार के लिये सहज सुलभ ही हो जाते है। मगर जिनको साधन मिल जाता है, जिन्दगी उनसे भी छूट जाती है। साधन पकड़ में आ जाता है, जिन्दगी छूट जाती है। साधन के जबड़ो के भी दाँत घड़ियाल के दाँतो से कम नुकीले नहीं होते। फिर आदमी साधन की गिरफ्त से छूटने के दिन गिनने लगता है।
मैं बार-बार सोचता हूँ, जीवन क्या है? क्या नौकरी, व्यवसाय, मकान, जमीन, जायदाद, गाड़ी-घोड़ा, पद-प्रतिष्ठा, रोब-दाब और बहुत कुछ यह सब जीवन है। शायद हाँ…..। हाँ इसलिये कि प्रायः हम सब इन सबके लिये ही सारा प्रयत्न करते रहते है। हमने मान लिया है कि इन सब के बिना जीवन का कोई मतलब नहीं है।

शायद नहीं….। नहीं इसलिये कि इन सबको पा लेने के बाद भी लगता है कि यही जीवन नहीं है। यह सब जीवन की चाह है। जब यह नहीं था। तब भी जीवन था। इन सबके होने के बाद भी जीवन है। जीवन शायद और कुछ है। कुछ और ही चीज है। क्या है, जीवन?

बड़ा मुश्किल सवाल है। यह सवाल प्रायः किताबों की ओर खींच ले जाता है। ग्रन्थो की तरफ घसीट ले जाता है। धर्मग्रन्थों की चैखट पर सिर धुनने को विवश करता है। वहाँ जाकर भी बहुत कुछ मिलता है। जीवन नहीं मिलता। बहुत से प्रश्न मिलते हैं, नये। नये-नये। मगर उत्तर नही मिलता। वहाँ सिद्धांत हैं। निष्कर्ष है। दृष्टांत है। उपदेश हैं। ज्ञान है। दृष्टि है। दर्शन है। जीवन नहीं है। फिर….?

जीवन, जीवन से बाहर कहीं नहीं है। हम कहीं भी जाने को तैयार हो लेते है। मगर जीवन में उतरने का तरीका कुछ दूसरा है। जैसे नदी में नहाने के लिये हमें अपने सारे वस्त्र-आभूषण किनारे पर उतार देने होते है, वैसे ही जीवन में उतरने के लिये जीवन की जरूरी चीजें भी रख देनी होती हैं। यह बड़ा मुश्किल है। मुश्किल इसलिये है कि यह हमारे अभ्यास में नहीं है। हमारे लिये तो जीवन, जीवन के लिये तमाम-तमाम चीजों को चाहने को लेकर है।

मैं सोचता रहता हूँ। बराबर सोचता हूँ। मुझे लगता है, लगता है, जिन्दगी में सबसे अधिक लुभाने वाली चीज यश है। प्रतिष्ठा का यश किसे नहीं लुभाता? सबको लुभाता है। मगर सबसे मजेदार बात यह है कि यश की लोलुपता को लोभ के अन्तर्गत नहीं गिना जाता। यह एक ऐसा धोखा है, जो धोखा जैसा नहीं लगता। धोखा खाते रहने पर भी लगता ही नहीं कि धोखा खा रहे है। यह ऐसा व्यापार है जिसमें निरन्तर घाटा खाते रहने के बावजूद व्यापार में मन्दी नहीं आती। यश की लालसा इतनी घातक लालसा है कि वह हमसे हमारे सृजन का सुख भी छीन लेती है। छीन नहीं लेती हड़प लेती है। इस तरह हड़प लेती है कि हमें अपने कमजोर होने का तनिक भी भान तक नहीं हो पाता। अपनी कमजोरी पर गर्व अगर कहीं सबसे अधिक होता है तो वह यश लोलुप आदमी में होता है।

यश क्या है? श्रेष्ठता का प्रमाण। विशिष्टता की प्रशस्ति। असाधारण होने की स्वीकृति ही यश है। श्रेष्ठता, विशिष्टता, असाधारणता किसकी? कौन है श्रेष्ठ? कौन है, विशिष्ट है? कौन है, असाधारण? अहं। अहं ही है न!

अहं ही तो अस्तित्व के बोध की सबसे बड़ी बाधा है। सबसे कठिन व्यतिरेक है। हम यात्रा करने चले थे अस्तित्व के अनुभव की। चंगुल में फँस गए अहं के। हम सृजन करने चले थे सहज को उपलब्ध होने के लिये मगर असाधारण होने की गिरफ्त में जकड़ गए। ख्याति की लालसा ने हमें सृजन के सहज सुलभ सुख से वंचित कर लिया।

हमारे जीवन मंे सबसे अधिक आश्चर्यजनक यह है कि जो भी चीज हमारे पास है, जो हमें उपलब्ध है, उसकी मूल्यवत्ता का हमें तनिक भी बोध ही नहीं है। यह हमारी सबसे बड़ी विडम्बना है। इस विडम्बना हम सभी शिकार है। यह जीवन के प्रति नकारात्मक सोच का परिणाम है। नकारात्मक सोच की प्रबलता के कारण नकारात्मक ऊर्जा के प्रवाह में हम बहने को बाध्य हो जाते है। जो है, उसके रस के आस्वाद से हम वंचित रह जाते हैं और जो नहीं है, उसको लेकर केन्द्रित हो जाती है। जब हम बचपन में थे, हम जवान होने के लिये चिन्तित थे। हमारा विश्वास था कि जवान हो लेना ही समझदार हो लेना है, शक्तिमान हो लेना है। मगर जवान होने पर पता चला कि हमारा विश्वास भ्रम था। पता नहीं क्यों जैसे-जैसे जीवन की यात्रा आगे बढती जाती है, हमारे विश्वास भ्रम में बदलते जाते है। मुझे यह जीवन का सबसे दुखदाई दुर्भाग्य महसूस होता है। यह दुर्भाग्य अगर मेरा अकेला होता तो कोई खास महत्व की बात कत्तई नहीं होती। मगर मैं देखता हूँ कि यह दुर्भाग्य समूची मनुष्यजाति को अपने नागपाश में कसे हुए हैं।
हम चाहते है कि धन हमारे पास हो, पद हमारे पास हो, प्रतिष्ठा हमारे पास हो मगर यह सब हम चाहते हैं इसका किसी को पता न हो। जीवन में चाहने वाली बहुत-सी चीजों को हेय मान लेने की हमारी अवधारणा हमारे जीवन को कुंठित कर देती है। कुंठा बहुत कुछ को आच्छादित कर देती है। हममें हमारापन ढ़ँक जाता है।

मैं भी सोचता हूँ। खूब सोचता हूँ। बार-बार सोचता हूँ। जब-जब सोचता हूँ, पाता हूँ कि सब कुछ चाहिए मुझे। दूसरों के सामने हम अपने को चाहे जितना निःस्वार्थ, त्यागपूर्ण, उदार और महान खड़ा कर लें मगर उससे क्या? क्या होता है? कुछ नहीं। कुछ भी नहीं। यही तो हमारे लोकतन्त्र की सबसे बड़ी विडम्बना है। यहाँ हर कोई अपने को निःस्वार्थ, त्यागी, परोपकारी, जनसेवक, देशभक्त, प्रदर्शित कर रहा है। प्रदर्शित करने की होड़ मची है।मगर सिर्फ प्रदर्शित करने की ही। दूसरो के सामने हम जैसा अपने को दिखाते हैं, अपनी आँख के सामने हम वैसा कहाँ हो पाते हैं। हम जो चाहते हैं, न मिले तो अंगूठ खट्टे हैं, सोचकर संतोष कर लेते हैं। जो कुछ मिल जाता है, उससे प्यास कम नहीं होती। मुझे लगता है हम पानी के पीछे नहीं, प्यास के पीछे ही जाने कब से दौड़ रहे हैं। समूची मनुष्यजाति ही प्यास के पीछे आँख बन्द कर दौड़ रही है। दौड़ रही है और दौड़ते-दौड़ते हाफ रही है। हमारी दौड़ अगर पानी के पीछे होती, पानी के लिये होती तो जरूर प्यास कुछ कम होती। मगर प्यास के पीछे दौड़ने से प्यास कभी कम हो सकती क्या? नहीं। कभी नहीं।

ऐसे मौके पर जयशंकर प्रसाद जी बहुत याद आते है-
पीता हूँ, हाँ, मैं पीता हूँ,-यह स्पर्श, रूप, रस, गन्ध भरा।
मधु लहरों के टकराने से, ध्वनि मेें है क्या गुंजार भरा।।

प्यासा हूँ, मैं अब भी प्यासा, संतुष्ट ओध से मैं न हुआ।
आया फिर भी वह चला गया, तृष्णा को तनिक न चैन हुआ।।
                    (कामायनी-काम सर्ग)
नहीं, बरसात कम न हुई। हुई। खूब हुई। रात-रात भर हुई।मगर घड़ा नहीं भरा। भरने की सारी कोशिश कामयाब नहीं हुई। अब भी वह वैसे ही है। खाली-खाली। रीता-रीता। बड़ा अजीब है।
भरने का सारा उद्यम। सारा का सारा उद्योग। समूचा उपक्रम व्यर्थ चला जा रहा है। समय सरकता जा रहा है मगर कुछ भर नही पा रहा है। घड़े में ही छेद है क्या। छेद ही छेद है क्या? जो कुछ आ रहा है, चला जा रहा है। अभाव कम नहीं हो रहा है। ऐसा क्यों है? मैं बार-बार सोचता हूँ। दूसरों के देखने में लगता है, घड़ा मेें जल है, मगर घड़ा को लगता है खाली है।

हम कोशिश कुछ और कर रहे हैं। परिणाम कुछ और निकल रहा है। हम पानी पी रहे है। प्यास बढ़ती जा रही है। हलक सूखता जा रहा है। नहीं, शायद हम पानी नहीं पी रहे हैं। शायद हम पानी की शक्ल में प्यास ही पी रहे है। कितना विस्मय जनक है। मगर केवल विस्मय ही तो जीवन नहीं है। विस्मय के अलावा जीवन को कुछ और होना चाहिए।

जीवन में भरने का बोध कैसे भरे। कृतार्थता का अनुभव कैसे मिले? वह संतुष्टि कहाँ है? जिसके लिये यह मन न जाने कहाँ-कहाँ भटकता रहता है। मरीचिका के पीछे दौड़ते मृग की तरह। मरीचिका प्रतिभास है। सत्य की तरह प्रतिभसित होने वाला पहुँच में आते ही असत्य हो जाता है। जीवन का रस कहाँ है? रस का स्त्रोत कहाँ है कर्म में? कर्म फल में?

सवाल बड़ा पेंचीदा है। इतना पेंचीदा है कि यह सवाल दर्शन का सवाल बन जाता है।
दर्शन के सारे सवाल, सारी जिज्ञासाएँ, सारी उत्कण्ठाएँ, सारी प्रपत्तियाँ जीवन को लेकर ही हैं। जीवन से ही सम्बन्धित हैं। जीवन की प्रक्रिया, जीवन के प्रयोजन और जीवन की उपलब्धियों के बारे में हैं। फिर भी पूरा का पूरा दर्शन हमारे जीवन का हिस्सा नहीं है। नहीं बन पाया है अब तक ऐसा क्यों है? यह बडी अजीब-सी बात नहीं है।

यह सोचकर बड़ी हैरानी होती है कि दर्शन, धर्म, अध्यात्म, साहित्य, कला, विज्ञान यह सब जो जीवन के लिये है हमारे तथाकथित उन्नत या उन्नति की आकांक्षी समाज व्यवस्था में बहुत थोड़े से लोगों से सम्बन्ध रखने वाला है। इन सबका व्यापक जीवन में प्रवेश न पाना बड़ा अचम्भा में डालता है। जीवन के लिये सबसे जरूरी चीजों का हमारे समय में जीवन में प्रवेश क्यों नहीं है? जीवन के लिये बहुत जरूरी चीजें बहुत थोड़े से लोगों से ताल्लुक रखने वाली क्यों बनी हुई हैं ?

गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं कि कर्म के फल की आकांक्षा अशान्ति का कारण है। ठीक है। यह तो बिल्कुल ठीक है-कर्मण्येवाधि कारस्ते मा फलेषु कदाचन‘। कर्मफल की इच्छा मत करो। मगर यह आसान बात नहीं है। बहुत सी ठीक बातें, ठीक-ठीक बातें आसान नहीं होती। यह तो बड़ा कठिन है। कर्म करो मगर फल की आकांक्षा मत करो। ऐसा कैसे होगा। कैसे हो सकेगा भला! हम तो कर्म करने से पहले ही कर्मफल की आकाँक्षा पाल लेते हैं। नहीं, हम तो फल के लिये ही कर्म करने के अभ्यासी है। कर्म करने वाला है तो फल की आकांक्षा भी होगी ही। असल में बात का पेंच तो दूसरी जगह फँसा है। मूल बात तो कर्ता की है। गीता में मूल प्रश्न कर्म का नहीं है। मूल प्रश्न कर्ता का है।

कर्म तो सब करने हैं। सारे कर्म गीता में हैं। युद्ध का प्रतिपादन ही गीता का प्रतिपाद्य है। अमर्ष, ग्लानि, उत्साह, रोष, हर्ष, विषाद, जय, पराजय, रूदन, हास सब गीता में है। गीता कर्म के निषेध का ग्रन्थ नहीं है। कर्मफल के निषेध का भी नहीं है। वह तो कर्ता के निषेध का उपदेश है।
कर्तापन के निषेध का उपदेश केवल आत्मिक जगत का मूल्य नहीं है। केवल आध्यात्मिक जगत का मूल्य नहीं है। वरन वह समस्त मनुष्य जाति के समग्र जीवन का महत्तम मूल्य है। यह वह मूल्य है, जिसकी सामाजिक महत्ता सबसे अधिक मूल्यवान है। आज हमारे भारतीय लोकतंत्र का जो सबसे बडा कलुष है, वह कर्तापन के ढ़ोल-नगाड़े के निरर्थक शोर से पैदा हुआ है। हमारा लेना-देना कर्म से नहीं है। कर्म फल से नहीं है। हमारा सारा लेना-देना कर्तापन से है। हमारे सारे के सारे दल केवल यह बताने में अपनी सारी ऊर्जा उड़ेल दे रहे हैं कि देश के लिये हमने क्या-क्या किया है। कर्म नहीं दिख रहा है। कर्मफल नहीं दिख रहा है। कर्तापन दिख रहा है। केवल कर्तापन बोल रहा है। यह सबसे त्रासद विडम्बना है। कृष्ण का कहना है कि कर्तापन का न होना ही जीवन में, समाज में, राष्ट्र में दुनिया में शान्ति का, समृद्धि का, सुख का मूल है।

बड़ा अद्भुत है। मगर बड़ा कठिन है। मैं भी इस मूल को पाना चाहता हूँ। कैसे मिलेगा? पता नहीं। इसका पता पाने का पता ना मालूम है।
यही ना मालूम पता मुझे चाहिए। कहाँ मिलेगा? बड़ा दुर्लभ है। आज तो जिसके पास भी जाइए प्यास ही प्यास पसरी हुई मिलती है। हमारे समय का आदमी लाभ और लोभ की बाढ़ में ऊभ-चूभ डूबता हुआ आदमी बना हुआ है।
मगर हम देखते हैं कि हमारे पुरखो ने इसे पा रखा था। रहीम को कर्तापन के अभाव का बोध पता था। वह पता उनका यह दोहा बताता है-

        गोधन, गजधन, बाजि धन, और रतन धन खान। 
        जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान।।
संतोष धन और कुछ नहीं, कर्तापन के न होने का बोध ही है। रहीम की कविता में गीता की गूँज सुनाई देती है।
गीता को हृदयंगम करने की बदौलत ही रहीम लिख सके थे-
        पानी बाढ़ै पाव में, घर में बाढ़ै दाम।
        दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानो काम।।

रहीम की कविता हमारे विकास के, उत्कर्ष के, सारे दावों को, खारिज कर देती है। हमारी सज्ञानता के सारे दर्प को इंकार कर देती है। हम दोनो हाथ से ही नहीं, हजारों हजार हाथों से नाव में पानी भरने में लगे हुए हैं। मैं भी लगा हुआ हूँ। लगे-लगे सोच रहा हूँ- ‘‘मुझे क्या चाहिए?‘‘

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