Young Writer, चंदौली।
मैं हिन्दू हूँ। मेरा हिन्दू होना मेरी अस्मिता से बिल्कुल अभिन्न् है। मेरे होने में ही मेरा हिन्दू होना समाहित है। यह मेरा विकल्पों के बीच ऐच्छिक चुनाव नहीं है। यह मेरे जन्म के साथ ही मेरे अस्तित्व के उपादानों में उपस्थित है। मैं बराबर सोंचता रहता हूँ मेरे हिन्दू होने का क्या मतलब है? कुछ विशेष अर्थ, कुछ विशेष ध्वनि कुछ विशेष प्रयोजन, कुछ विशेष संकल्प, कुछ विशेष निर्देश….. आदि आदि के बारे में जब भी विचार करता हूँ, मुझे मेरा, हिन्दू विशेष जैसा कभी भी नहीं मिलता। जब भी मिला है, सिर्फ संज्ञा जैसा मिला है।
विशेषणों के विशेषीकृत गुण अर्जित किये जाते हैं, यत्न से किसी प्रयोजन की पूर्ति के लिये विशेषणों को प्रदर्शित किया जाता है। मगर संज्ञा कोई उपार्जित चीज नहीं है, वह सहज है। वह स्वयं है। संज्ञा का प्रदर्शन संभव नहीं है। संज्ञाओं की कोई नुमाइश् नहीं लगाई जा सकती। नुमाइश तो केवल कुछ खोजी गई, गढ़ी गई, उत्पादित और पुनरुत्पादित चीजों की लगाई जाती है। सम्भ्यता के लिये प्रदर्शन और प्रदर्शनी का कुछ मूल्य और महत्व हो तो हो संस्कृति के संसार में इसका कुछ भी अर्थ नहीं है।
सहज के बारे में ग्लानि या गर्व का वास्तविक अर्थ में कोई और चित्य नहीं दिखता है। स्वयं के बारे में स्वयं के लिये ग्लानि या गर्व का कोई अर्थ नहीं होता। स्वयं के लिये ग्लानि या गर्व का विषय अपने कृत्यों का दूसरों के जीवन पर होने वाले प्रभाव का परिणाम ही निर्धारक हो सकता है। हमारे अस्तित्व की अभिव्यक्ति से हमारे समय की सामाजिक अस्मिता को कितना सुख, समृद्धि और संतोष मिलता है यही हमारे लिये गर्व का कारण हो सकता है। इसके विपरीत ग्लानि का। यह हमारे हिन्दू होने के सन्दर्भ में भी हमें अर्थ प्रदान करता है। हमारा होना हमारे पड़ोस के लिये क्या अर्थ रखता है, हमारे गाँव के लिये क्या अर्थ रखता है, हमारे देश के लिये क्या अर्थ रखता है, दुनियाँ के लिये क्या अर्थ रखता है, इसकी खोज हमारे में पैदा होनी चाहिए। हमारे हिन्दू होने से हमारे समय के सामूहिक जनजीवन में क्या अन्तर्क्रिया घटित होती है और उन क्रियाओं का परिणाम हमारे समय के विकास को कितना प्रभावित करता है, यह जानना हमारे लिये बेहद जरूरी है।
कभी-कभी ऐसी भी स्थितियां आती हैं, जब मुझे सोचना पड़ता है कि मैं हिन्दू हूँ या कि मुझे हिन्दू बनना है। जब भी मैं सोचता हूँ मुझे पीड़ाजनक हँसी आती है। बनना तो हमेशा ही झूठा और नकली होता है। हम बन वही सकते हैं जो हम नहीं हैं। जो हम हैं ही उसके बनने का सवाल कहाँ उठता है। हर बार मुझे लगता है मैं हिन्दू हूँ ही, बनना क्या है। बार-बार ठहर कर यह भी देखता हूँ कि मेरा हिन्दू होना कैसा है? क्या मेरा हिन्दू होना मुस्लिम होने का विलोम तो नहीं है? मैं पाता हूँ बिल्कुल नहीं है। मैं देखता हूँ मेरा हिन्दू होना किसी मुसलमान के सम्मुख कुछ दूसरा, हिन्दुओं की भीड़ में कुछ दूसरा और अपने एकान्त में कुछ दूसरा तो नहीं है? अगर है तो गड़बड़ है। नहीं है तो ठीक है। मैंने जब जब भी देखा है अपना हिन्दू होना अलग-अलग नहीं लगा है।
कभी-कभी ऐसा भी सोचना पड़ता है कि अपने हिन्दू होने को छिपा लेना या उपेक्षित कर देना अपने बौद्धिक होने, लोकतांत्रित होने, धर्म निरपेक्ष होने और साहित्यकार होने के लिये जरूरी है क्या? मैं जब भी सोचता हूँ मुझे ऐसा सोचना पाखण्डपूर्ण लगता है। मैं जो हूँ, उसे छिपाना पाखण्ड है। उसे दिखाना भी पाखण्ड है। क्या छिपाने और दिखाने से अलग कोई स्थिति नहीं है? जरूर है। मुझे लगता है, वह स्थिति इन स्थितियों से अधिक सम्मानजनक समझी जाने योग्य है। हम जो है, ईमानदारी से वह होकर ही दूसरों के लिये उपयोगी और सहिष्णु हो सकते हैं।
किसी भी व्यक्ति के लिये एक साथ एक से अधिक या सभी धर्मों के प्रति समान भाव रखने की परिकल्पना मानवीय स्वभाव और क्षमता के हिसाब से केवल भाषिक प्रवंचना के अलावा और महत्व नहीं रखती। किसी भी व्यक्ति का सभी धर्मों की प्रार्थनाओं और प्रार्थना पद्धतियों का व्यवहार, एक प्रशंसनीय किन्तु अवास्तविक छलना से अधिक नहीं प्रतीत होता। विभिन्न धर्मों के बीच विद्वेष विहीन सहिष्णुता के अलावा मेल-मिलाप के अन्य उदार-प्रत्ययों का वैचारिक प्रदर्शन वस्तुतः मुझे अवास्तविक और पाखण्डपूर्ण ही लगता है। प्रायः धर्मों के आपसी संघर्ष वास्तव में धर्म के नहीं सत्ता के संघर्ष होते हैं। सत्ता के संघर्ष को धर्म के संघर्ष के रूप में प्रचारित और प्रतिष्ठित करना मनुष्य जाति के लिये ऐतिहासिक अपराध से भिन्न नहीं है। धर्म को लेकर राजनीतिक प्रयोजन से संघर्ष की उदारतावादी और संकीर्णतावादी दोनों तरह की अवधारणाएँ वैचारिक अपराधीकरण की प्रवृत्ति की ही प्रवर्तक हैं। मैं हमेशा अनुभव करता हूँ कि अपने धर्म के प्रति अडिग आत्मिक आस्था के साथ दूसरे के धर्म के प्रति विद्वैष विहीन भाव स्थिति की उपलब्धि ही सामाजिक समरसता के लिये युग धर्म का सर्वोत्तम और स्वाभाविक मानक बन सकता है।
मैं जब-जब परीक्षण करता हूँ मेरा हिन्दू होना किसी के लिये भी चाहे वह हिन्दू हो, मुसलमान हो, सिक्ख-ईसाई हो, असुविधाजनक साबित नहीं होता। हिन्दू होने की वजह से आज तक मुझे किसी का मुसलमान होना या अन्य कुछ भी होना असुविधाजनक नहीं लगा है। मैं हमेशा ही अनुभव करता हूँ कि जिसका होना और किसी के लिये कठिनाई और दुख पैदा करने वाला नहीं है, अभिनन्दनीय है। हिन्दू होने से हिन्दू बना बिल्कुल भिन्न है। मुसलमान होने से मुसलमान बनना बिल्कुल अलग है। किसी को पीड़ा पहुँचाने के लिये कुछ भी बनना निन्दनीय है। यह सच है कि हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे के समानार्थक नहीं है। मगर एक-दूसरे के विलोम भी नहीं है। फिर भी पता नहीं कैसे हमारे देश में हिन्दू और मुसलमान को एक-दूसरे के विलोम की तरह समझे जाने की समझ अब भी बनी हुई है। हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही है।
मुझे लगता है, इस स्थिति के लिये उदारतावादी और संकीर्णतावादी दोनों ही तरह के विचार समान रूप से अपराधी की भूमिका में खड़े हैं। भिन्नताओं से आँख मूँदकर संस्कार की प्राकृतिक शक्ति की अनदेखी करके एक में मिलाने की उदार सोच भी सच्ची और ईमानदार नहीं है। बनावटी है। असंभावित है। भिन्नताओं को जड़ीभूत और परिहार्य मानकर विद्वेशपूर्ण अलगाव की अनिवार्यता को अंगीकार करने की संकीर्ण सोच भी अयथार्थ और अनर्थकारी हैं यह मनुष्य उदात्तता का तिरस्कार करती है। उसे क्षुद्र बनाने षड़यंत्र रचती है।
मैं अनुभव करता हूँ कि हिन्दू होकर भी हिन्दू न होने से हम मुसलमान के निकट नहीं हो सकते। हम जो हैं, वह होकर ही, उसके होने की सच्चाई को स्वीकार करके ही एक-दूसरे के प्रति हार्दिक, सहिष्णु और मैत्रीपूर्ण हो सकते हैं। मुझे लगता है, भारतीय हिन्दू और भारतीय मुसलमान होने से पारस्परिक द्वेष दूर हो सकता है। द्वेष मिटने से मैत्री का विकास सहज संभव है। मैं अपने हिन्दू होने के अर्थ की तलाश में भिन्नताओं के साथ सुखद साहचर्य की संभावनाओं की उत्सुक प्रतीक्षा में डूब जाता हूँ।
संभावनाओं की प्रतीक्षा में डूबकर देखता हूँ बहुत से सवाल सिर उठाये डूबते-उतराते दिखाई देते हैं। अपनी आत्मचेतना में कई-कई सवाल और संदेह टकराने लगते हैं। मेरा मन मुझसे पूछने लगता है, क्या मेरा हिन्दू होना मेरे पर ही निर्भर होगा या अपने हिन्दू होने को ढाँचागत अवधारणाओं से प्रमाणित कराना होना? मेरे सामने तमाम तरह के हिन्दू अपनी विविधता और बहुलता की पहचानों के साथ खड़े हो जाते हैं। एक हिन्दू वह भी है, जो आचार-व्यवहार की कर्मकाण्डी प्रथाओं का पोषक हिन्दू है। एक हिन्दू वह भी है, जो बाह्य आचार-व्यवहारों में विश्वास न रखने के बावजूद अपनी आस्था में हिन्दू है। एक हिन्दू वह भी है, जो आत्मचेतना के उत्कर्ष की असीम संभावनाओं के मार्ग का अन्वेषी है। एक वह भी है, जिसे लिये नियामक सिद्धान्त अपर्याप्त हैं। एक वह भी है, जिसके लिये नियामक सूत्रों की अनिवार्यता बेहद अर्थपूर्ण है। आत्मिक धरातल के भिन्न-भिनन स्तरों पर अधिष्ठित और व्यवहार के अनेकानेक धरातलों पर स्थित विचार बदुल समूहों में समन्वित हिन्दू जाति की विविध वर्णी व्यापकता मेरे हिन्दू होने के बोध को उल्लसित करती है। विचारों की भिन्नता के बावजूद जीवन बोध के अनुभवों के लिये उन्मुक्त अवकाश की उपलब्धता हिन्दू जाति का अक्षुण्ण गौरव है। हिन्दू होना मनुष्य जाति के अभ्युदय के लिये सीमाओं के अतिक्रमण का वह अदम्य अभियान है, जो कभी रुकने वाला नहीं है। इस अभियान का आमंत्रण मुझे हमेशा उत्प्रेरित करता है।
आत्मिक धरातल पर उपासना के भिन्न-भिन्न मार्गों से होकर एक ही जगह पहुँचने के रामकृष्ण परमहंस के प्रयोग मेरे हिन्दू होने के अर्थ को विस्तार देते हैं। विवेकानन्द की आत्मदर्प से उन्मुक्त उद्घोषणाएँ स्वाभिमान को जागृत करती हैं। उनकी दरिद्रनारायण की व्यापक करुणा धर्म को नयी प्रासंगिकता प्रदान करती है। फिर भी आत्मगत उपलब्धियों की सामाजिक अभिव्यक्ति कैसे हो, यह चुनौती हमेशा ही नयी बनकर नये-नये रूप में ललकारती रहती है।
मेरे लिये हिन्दू होने का अर्थ केवल उदात्त मूल्यों के उत्कृष्ट रूपों का यशगान नहीं है, बल्कि सिद्धान्तों की श्रेष्ठा के व्यावहारिक जीवन में रूपान्तरण की प्रक्रिया का संधान भी है। अपने अनुभव और विश्वास की पूँजी को व्यापक सामूहिक उत्कर्ष के लिये सार्वजनिक बना सकने की विधियों का अनुसंधान मुझे अपने हिन्दू होने के अर्थ की तलाश में प्रवृत्त करता है। व्यापक और वृहत्तर पारिवारिकता की पृष्टभूमि की प्रतिष्ठा मेरी खोज की उत्प्रेरणा है।