Young Writer, चुनाव डेस्क। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से
मूल्यों को मुखौटा बनाने का अपराध
लोकतंत्र केवल एक शासन प्रणाली नहीं है। यह केवल सामाजिक व्यवस्था का ढाँचा भर भी नहीं है। इसका प्राण तत्व तो वह उदात्त मानवीय मूल्य है, जो किसी भी तरह के शोषण और हर तरह की प्रवंचना से मनुष्यजाति को मुक्ति दिलाने के संकल्प से संबलित हट्टी-कट्टी दिखती हो मगर उसके प्राण में स्पन्दन की ध्वनि सुनाई नहीं पड़ती।
लोकतंत्र की महिमा के आख्यान किताबों में जितने आकर्षक मालूम पड़ते हैं, व्यावहारिक जीवन में वह कहीं दिखाई नहीं देता। जो चेहरा हमें अपनी आँखों से देखने को मिलता है, वह बड़ा ही विद्रूप कुत्सित और विक्षोभ पैदा करने वाला है। मैं बार-बार सोचता हूँ ऐसा क्यों है? ऐसा होना नहीं चाहिए मगर ऐसा है। जैसा नहीं होना चाहिए वैसा होना समय का कितना कठोर अभिशाप है।
हमारा लोकतंत्र प्रपंच और पाखण्ड को भेंट चढ़ गया है। वह इनमें डूब गया है। डूबी हुई चीज को ढूढ पाना बड़ा मुश्किल भरा काम होता है। हमारे समय में हमारी समाज व्यवस्था में लोकतंत्र के मौलिक स्वरूप की खोज बहुत ही जटिल है।
प्रपंच क्या है? असल में प्रपंच सत्य की छाया में असत्य को सत्य जैसा प्रतिभासित कराने के प्रबल उद्योग का संजाल है। वैसे मूलतः प्रपंच दर्शन का शब्द है मगर इसका अर्थ व्यवहार इतना व्यापक है कि इससे कोई भी अपरिचित नहीं है। हमारे मौजूदा तंत्र का लोक से आन्तरिक लगाव बिल्कुल नहीं रह गया है। उसके सुख-दुख से उसका नाता, उसमें उसकी भागीदारी नगण्य हो चुकी है। फिर भी तंत्र हमेशा जनता के सामने उसकी दुहाई देता रहता है। हमारे तन्त्र के लिए हमारा लोक केवल उसके स्वार्थ साधन का माध्यम भर रह गया है। लोक से चाहे जैसे भी हो बहुमत हासिल करके सत्ता पा लेना हमारे तंत्र यानी सारे राजनीतिक दलों का एकमात्र मकसद बन गया है।
जो नहीं है उसके होने के अनुभव कराने के उद्योग को पाखण्ड कहा जाता है। हमारी समूची राजनीति जो नहीं है, उसी का ढ़िढोरा पीटकर लोक को छलने के उद्योग में लिप्त है। प्रपंच का ऐसा विस्तार और पाखण्ड का ऐसा पुरजोर प्रदर्शन लोकतंत्र के व्यावहारिक स्वरूप का एक ऐसा कलंक बन गया है, जिससे लोकतंत्र की आत्मा कलुषित हो उठी है।
जब आत्मा कलुषित होगी तो काया भी कुंठित हो ही जायेगी। कलुषित आत्मा और कुंठित काया का हमारा लोकतंत्र हमारे समय में व्यापक लोक जीवन के अभ्युदय का निमित्त बन पाने में अयोग्य और असमर्थ साबित हो रहा है। यह भयानक दुर्भाग्य है, लोक का भी और तन्त्र का भी।
आजादी के बाद जब देश में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था स्थापित हुई तो बहुत-बहुत उम्मीदों की सुगन्धि यहाँ की हवा में तैर रही थी। बहुत से सपने आँखों से बाहर निकल कर गिरते-उठते चलने का हौसला बाँध रहे थे। मगर क्या हुआ? आज क्या स्थिति है। जो है, सबके सामने। हाथ कंगन को आरसी क्या!
स्वतन्त्रता सबको मिलनी थी, नहीं मिली। हमारे महान लोकतंत्र में जनता के पास मतदान करने को छोड़कर और कौन-सी उल्लेखनीय स्वतन्त्रता हासिल है। स्वतन्त्रता पर असली स्वामित्व तो सचमुच में राजनीतिक दलों को मिला है। स्वतन्त्रता का असली स्वाद तो वे ही जानते हैं। राई को पर्वत और पर्वत को राई बनाने की सामर्थ्य उनके ही पास है। सुख और समृद्धि और प्रभुत्व के सारे सपने उनके ही आँगन के चाकर हैं। कहा जाता है कि जनता सरकार बनाने की शक्ति रखती है। उसे मतदान का अ सीम अधिकार मिला है। झूठ है, झूठ है, झूठ है। आज हमारे समय में जनता मतदान नहीं करती। कत्तई नहीं करती है। जनता से मत खरीद लिए जाते हैं। बड़ी ही मामूली कीमत पर खरीद लिए जाते हैं। भावनाओं को भड़काकर, उन्माद को फैलाकर, आश्वासनों के प्रलोभन से, जाति की सौगन्ध से, क्षेत्रीयता के सगेपन से जनता से मत हथिया लिए जाते हैं। अब तो मत लूटने की चीज बन गई है। लोकतन्त्र का जो भी लाभ है, राजनीतिक दलों को लाभ है। कभी किसी दल को, कभी किसी दल को। कभी किसी दल की कुण्डली में राजयोग चमक उठता है। कभी किसी दल की कुण्डली में। मगर राजयोग तो उन्हीं दलों की कुण्डलियों में चमकने को विवश है। हमारे लोकतंत्र की मूल संकल्पना में जो लोकशाही है, वह कभी व्यावहारिक धरातल पर जड़ पकड़ी ही नहीं। उसकी जड़ फूटने भी नहीं पाई कि दल-दल में बैठे सत्ता के सौदागरों ने उसकी जड़ खोदकर उसमें मट्ठा डाल दिया।
जिस बन्धुत्व के विकास के लिए, जिस समता के विस्तार के लिए, जिस समान अवसर की उपलब्धता के आयोजन के लिए हमारा लोकतंत्र अधिष्ठित हुआ था, वह कुछ भी नहीं हो सका। आज भाई-चारा हमारे समाज में कहीं नहीं है। हमारा समूचा समाज विखण्डित होकर बिखर गया है। जातियों में, सम्प्रदायों में, धर्मों में, स्त्री-पुरूष में बँटकर हमारी पारंपरिक सामाजिक संस्था बिल्कुल चरमरा कर भहरा उठी है। समान शिक्षा का सपना सिर्फ धूल-धूसरित ही नहीं हुआ बल्कि असमान शिक्षा का आदर्श ताल ठोंककर ललकार रहा है। शिक्षा और चिकित्सा आम आदमी के लिए नहीं रह गई है। फिर भी हम संविधान की दुहाई देते नहीं थकते हैं। संविधान की मूल प्रस्तावना की हत्या करके हमारी राजनीति संविधान की हिफाजत के लिए मर-मिटने का मिथ्या दंभ भरकर बिना पानी के बादल की तरह रोज-रोज गरजती है। सौहार्द्र कहीं नहीं है। वैमनस्य और विद्वेष हर कहीं है। लगाव, पारस्परिकता दिखाई नहीं दे रही है। बहुत-सी महत्तम चीजें जब लोकतंत्र नहीं था, तब भी हमें सहज सुलभ थीं। हमारे बीच थीं। हमारे जीवन में हँसते-गाते मौजूद थीं। अब लोकतंत्र है मगर मनुष्य जीवन की महत्तम चीजें नहीं है। अब वे स्मृति के संग्रहालय में संरक्षण के लिए गुहार लगाती अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए आँसू बहा रही हैं। अगर हमारे बीच लोकतंत्र है, तो ऐसा क्यों है?
इधर हमारी प्रतिनिधि राजनीति इतिहास को ठीक कर रही है। वह अपनी सारी ऊर्जा को इतिहास को सुधारने में झोक रही है। वह इतिहास में संशोधन करके भारतीयता को गौरव प्रदान करने का दावा कर रही है। इतिहास ठीक करने की चीज है क्या है? अतीत में कुछ भी संशोधन, कुछ भी सुधार किया जा सकता है क्या? अतीत में कुछ भी जोड़ना, कुछ भी घटाना मानवीय क्षमता के बाहर की बात है। जो व्यतीत है, वह आदमी की पकड़ में नहीं है। जो पकड़ में ही नहीं है, उसके साथ कुछ भी किया जाना कैसे संभव है। जहाँ कुछ भी नहीं किया जा सकता, वहाँ बहुत कुछ करने का मंसूबा रखना असल में कुछ न करने जैसा ही परिणाम प्रदान करने वाला होता है।
वास्तव में मूल्यों को मुखौटा बनाने का अपराध बड़ा गंभीर अपराध है। इससे वर्तमान के बन्ध्या और भविष्य के अन्धा हो जाने का खतरा पैदा होता है। हमारी समूची राजनीति सारे लोकतांत्रिक मूल्यों को मुखौटा बनाकर सत्ता हथियाने का खेल पूरी तन्मयता से खेलती आ रही है। बहुमत पाकर सत्ता पर स्वामित्व जमाने के लिए मुस्लिम वोट बैंक, हिन्दू वोट बैंक, पिछड़ा वोट बैंक, दलित वोट बैंक, महिला वोट बैंक और भी कई तर के वोट बैंकों की कुत्सित परियोजनाओं का प्रवर्तन करके सामाजिक समरसता को विनष्ट कर सोशल इंजीनियरिंग जैसी कुशलता की निन्दनीय प्रतिष्ठा की गई। धार्मिक उन्माद को भड़काकर राष्ट्र में विद्वेषपूर्ण विभाजन की नींव रखी गई। राष्ट्रवाद के यशगान का डंका बजाकर राष्ट्र की थाती का निजीकरण किया जा रहा है। सारे पद, सारी प्रतिष्ठाएँ, सारे सम्मान खरीदने-बेचने की चीज बनाए जा रहे हैं। क्या यही हमारे लोकतंत्र की उपलब्धि है? यही लोकतन्त्र का गौरव है?
अगर हाँ, तो लज्जाजनक है। अगर नहीं तो अपराधपूर्ण है। यह अपराध किसका है? आने वाला समय पूछ रहा है। अँखुए फोड़कर सूख गई सपनों की फसल पूछ रही है, बोलो न! इस सबका उत्तरदायी कौन है। लोक है? इस लज्जा का भार किसके कन्धे पर रखा जाएगा?
धर्मनिरपेक्षता हमारे लोकतंत्र का मूल्य था। उसे मुखौटा बनाकर बहुमत हासिल करने के लिए एक सम्प्रदाय के तुष्टिकरण का जाल बुना गया। राष्ट्रवाद स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान उन्मेषित एक महनीय लोकतन्त्र का महत मूल्य था। उसे मुखौटा बनाकर धर्म-निरपेक्षता के विलोम के रूप में प्रचारित किया गया। राष्ट्र हमारे लिए किसी काल्पनिक अवधारणा का विषय नहीं है। वह जीवित सत्ता है, जो समूचे राष्ट्र के निवासियों के फेफड़ों से साँस लेती है।
नहीं, मूल्यों को मुखौटा बनाने का अपराध आज चाहे भले राजनीतिक कौशल के नाम पर भुला दिया जाय मगर भविष्य जरूर इस अपराध के लिए मानवता के न्यायालय में अभियोग दाखिल करके जबाब माँगेगा। तब उसे बरगलाने की गुंजाइश नहीं बचेगी।