Young Writer, चुनाव डेस्क। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से
गिरगिट एक ऐसा जन्तु है, जो कुछ घरेलू है और बहुत कुछ जंगली भी। जब हमारे घरों के सामने पेड़-पौधे हुआ करते थे, गिरगिट प्रायः दिखा करते थे। वैसे गिरगिट से मेरी निकटता कभी नहीं रही। बस एक कुतुहल ही हुआ करता था, उसे देखकर। मन में कभी गिरगिट के लिए कोई आकर्षण नहीं पैदा हुआ। पैदा होता भी क्यों? न कोई ढंग का रंग, न कोई चाल-ढाल। धूसर रंग, लम्बी पूँछ, बेडौल पेर मुझे अच्छे नहीं लगे कभी। उसका गर्दन उचका-उचका कर अविश्वास भरी नजरों से देखना जैसे कि वह देखने वाले को तौल रहा है? मुझे नागवार ही लगता। फिर भी गिरगिट को बचपन में मैं दूर से प्रायः देखा करता था। तब गिरगिट के रंग बदलने के मुहावरे का अर्थ मैं कत्तई नहीं जानता था। आज भी मुहावरे का पूरा अर्थ मैं जानता हूँ, यह दावा नहीं कर सकता। हाँ, इतना जरूर जानता हूँ कि रंग बदलने के मुहावरे के माध्यम से गिरगिट दुनिया भर के मनुष्यों की स्मृति में जरूर अपनी जगह बनाए हुए है।
गिरगिट अपना रंग बदलता है या उसका रंग अपने आप बदल जाता है, ठीक से नहीं कह सकता शायद वह जिस रंग की छाया में होता है, उसी रंग का दिखने लगता है। मेरा ख्याल है रंग का बड़ा व्यापक अर्थ है। रंग केवल लाल-पीला ही नहीं है। रंग केवल हरा नहीं है। केवल सफेद नहीं है। रंग, रंग-ढंग में भी है। रंग, रंग जमाने में भी है। रंग गाठने में भी है। रंग के और भी बहुत से रंग है। पता नहीं क्यों मुझे लगता है, इस मुहावरे में जो रंग है वह रंग के व्यापक अर्थ में प्रयुक्त है। गिरगिट का रंग बदलना अवसर के अनुकूल अपने हित में अपना व्यवहार
और अपनी वाणी बदल लेने की जैसी व्यापक व्यंजना भाषा में व्यक्त करता है, वह बड़ा अद्भुत है।
गिरगिट बहादुर कत्तई नहीं है। हाँ, स्वाथी जरूर बेहद है। काइयां तो निश्चय ही अव्वल दर्जे का है। डरपोक भी बहुत है। मगर अपने डर को छिपा लेने में भी माहिर है। इतना ही नहीं अपने डर को डकार कर वह अपनी दुबली गरदन हिला-हिला दूसरों के दिल में डर जगाने में भी वह निपुण होता है। हालांकि गिरगिट से कोई भी डरता नहीं।
गिरगिट का अपना कोई घर नहीं होता। मगर वह किसी के भी घर में घुसकर अपने घर की तरह रह लेने का हुनर जनम से ही जानता है। वह जिस घर से निकल कर जाता है, उसकी चौखट पर थूककर जाता है। थुथकार कर जाता है। जाता है तो खूब फूँफकार कर जाता है। अपने फुत्कारने की फेंचकुर के फेन से उसके निकसार को पाटकर जाता है। खैर! छोड़िस इस गिरगिट पुराण को।
मैं जब भी इस मुहावरे के बारे में सोचता हूँ मुझे लगता है, बेचारा गिरगिट अलानाहक ही बलि का बकरा बन गया है। यह मुहावरा गिरगिट का नहीं भ्रष्ट मनुष्य की व्याभिचारी वृत्ति की भर्त्सना की अनूठी व्याजोक्ति है। लोक चेतना में मानवीय मूल्यों के प्रति जो व्यापक निष्ठा है, जो अडिग अनुरक्ति है, वह अद्भुत कल्पनाशीलता के साथ अत्यन्त सूक्ष्म व्यंजनाओं के माध्यम से उन मूल्यों की मर्यादा को कलंकित करने वालों के प्रति कठोर प्रहार करने में हमेशा सक्रिय और सजग रहती है। मुहावरों के माध्यम से, कहावतों के माध्यम से, लोकोक्तियों के माध्यम से लोक चेतना का भास्वर प्रतिरोध गरजता रहता है। ठीक से देखा जाय तो एक मुहावरा हजार-हजार कविता पर भारी पड़ता है। वहाँ कथ्य और अभिव्यंजना में व्यापक और सूक्ष्म का ऐसा समन्वय दिखाई देता है कि काव्य कौशल उसके आगे पानी भरने को विवश हो उठता है।
मेरा ख्याल है, जब यह मुहावरा बना होगा मनुष्य की प्रजाति में राजनेता की किस्म नहीं रही होगी। हमारे लोकतंत्र में मौजूदा राजनीतिक दलों का अस्तित्व न रहा होगा। चुनाव की प्रणाली न रही होगी। झूठ और पाखण्ड का ऐसा प्रचलन न रहा होगा। बाजार में बेशर्मी की ऐसी प्रतिष्ठा न रही होगी। सीना फुलाकर गाल बजाने का ऐसा चलन न रहा होगा। अगर रहा होता तो बेचारे गिरगिट पर यह गाज नहीं गिरी होती। आज गिरगिट जरूर हमारी राजनीति में नेताओं के रंग देखकर लजाता होगा। अपनी औकात पर पछताता होगा। मगर अब उसके पछताये का मतलब ही क्या? अब तो मुहावरा दुनियाँ भर के लोगों की जबान पर चढ़ा बैठा है। अब आदमी का नेता चाहे गिरगिट से भी जितना नीचे गिर जाय, इस मुहावरे को आदमी की जवान से नीचे गिराना संभव नहीं।
पहले कहा जाता था कि आदमी को ऊँचा उठने में बड़ी मेहनत करनी पड़ती है। मगर आज दिखाई दे रहा है कि आदमी को नीचे गिरने में कितना साहस जुटाना पड़ता है, कह पाना मुश्लिक है। उल्टे घड़े की तरह औंध जाना और बेपेदी के लोटे की ढुलक जाना सचमुच हँसी खेल तो नहीं ही है।
जब चुनाव की घोषणा हो जाती है। आयोग की अधिसूचना जारी हो जाती है। नेताओं की प्रजाति की आत्मा में लिप्सा और लोलुपता के विषाणु कुलबुलाने लगते हैं। अपनी सुख सुविधा अपने भोग और ऐश्वर्य के छिन जाने की आशंका का ज्वर कँपकपी पैदा करने लगता है। यह बुखार उन्हें इतना व्यथित करता है कि वे बड़बड़ाने लगते हैं। राजनीतिक दलों में भगदड़ मचने लगती है। इसमें से उसमें और उसमें से इसमें , आने-जाने का सिलसिला शुरू हो जाता है। सत्ता में सिंहासन पर बरसों से कुंडली मारकर बैठा कोई मंत्री कहने लगता है कि वह जहाँ था, आक्सीजन बहुत कम थी। वहाँ उसका दम घुट रहा था। अपने सारे अधिकारों का पूरा-पूरा उपयोग और दुरुपयोग करने के बावजूद उसकी आत्मा की बेचैनी बहुत बढ़ जाती है। वह जनता की ठीक से सेवा करने के लिए दूसरे दल में शामिल हो जाता है। जिस दल की छाती पर चाकी चलाकर दाल दलते उसके हाथ नहीं थकते थे, उसी दल में अब उसकी दिव्यदृष्टि अमृत के स्रोत का दर्शन करने लगती है। जनता उजबक की तरह उसका मुंह ताकते रह जाती है। जनता कर भी क्या सकती है। जनता को दलों की दस्युता की पालकी ढोनी ही है। वह अपने कंधे सहलाते, उनके भाषण के लवण भाष्कर चूर्ण फाकते अपना हाजमा दुरूस्त करने में जुट जाती है। हमारे जनतन्त्र में अधिकार सबको मिला है। अधिकार को लेकर शिकायत की कोई गुंजाइश नहीं है। नेताओं को बोलने का असीम अधिकार मिला है। जनता को सुनने का अपार अधिकार मिला है। राजा को सुख भोगने का और प्रजा को दुख भोगने का बराबर का अधिकार हमारे लोकतंत्र का अनमोल उपहार है। घोड़े को घास चरने का और घास को हरा होते रहने का अधिकार हमारे लोकतंत्र में बराबरी के अधिकार की प्रतिष्ठा करता है।
ठीक चुनाव का बिगुल बजने के साथ एक राज परिवार के वधू की आत्मा में विद्रो का तूफान उठ खड़ा हो गया। सारे सुखों के उपभोग के बावजूद अधिकार सुख की उत्कंठा ने उसे डँवाडोल कर दिया। वह अपने घर के दल से नाता तोड़कर दूसरे दल के घर में जा बैठी। उसके वक्तव्य और बयान समाचार पत्रों की सुर्खियों में छा गए। टी.वी. के सारे चैनलों में एक साथ गूँजने लगे। जैसे कोई बहुत बड़ी क्रान्ति हो गई है। हमारे समय के समाचार में दलबदल जैसा जघन्य कृत्य महत्व का विषय बन गया है। जिसकी भर्त्सना होनी चाहिए, उसका अभिनन्दन हो रहा है। भर्त्सना का अभिनन्दन लोकतन्त्र का नया मूल्य बन रहा है, क्या? कौन बता सकता है।
गिरगिट की जाति बड़े संकट में घिर गई है। उसकी तो अस्मिता ही डँवाडोल हो उठी है। उनके हिस्से में था ही क्या? महज एक मुहावरे की थाती को छोड़कर गिरगिट की पूरी जाति के पास और है ही क्या!
हमारे लोकतंत्र की मौजूदा स्थिति में गिरगिट हाथ उठा-उठाकर फरियाद कर रहे हैं। भाई हमने आपका क्या बिगाड़ा है। आप हमारे पर हमारी विरासत पर इतने कुपित क्यों हैं? कुठाराघात क्यों कर रहे हैं। रंग बदलने वाले नेताओं पर जनता के न्यायालय में एक मुहावरे की हत्या का अभियोग विचार के लिए दाखिल किया गया है। किसी भी समाचार में इनते बड़े अभियोग की कहीं भी कोई चर्चा नहीं है। एक मुहावरे की हत्या का अभियोग लोकतंत्र की हत्या के अभियोग से अलग नहीं है। देखिए आने वाले समय में इस अभियोग पर विचार हो पता है, या लम्बित पड़ा रह जाता है। हमारे समय में जाने कितने विचारणीय अभियोग लम्बित पड़े रहने का अभिशाप झेल रहे हैं।
मुझे लगता है मेरे चारों तरफ गिरगिट आकर खड़े हो गए हैं जिधर देखता हूँ गिरगिट ही गिरगिट दिख रहे हैं। मैं उनके घेरे में घिर गया हूँ। गिरगिटों में आक्रोश है। वे तरह-तरह के सवाल कर रहे हैं। मैं क्या जवाब दूं।
वे सवाल कर रहे हैं? आदमी सबका हक क्यों छीन रहा है?
आदमी गिरगिट क्यों बन रहा है? जब आदमी, आदमी बनकर संतुष्ट नहीं हो पा रहा है तो क्या गिरगिट बनकर संतुष्ट हो सकेगा? नहीं, नहीं स्वार्थी आदमी जिस भी रंग में रंगेगा, रंग को ही कलंकित करेगा।
गिरगिट मुझसे पूछ रहे हैं, आपके समय में राजनीतिक दल इतने अन्धे क्यों हैं?
आपके समय के दल किस दलदल में फँसे है कि अदना-सी बात नहीं समझ पा रहे?
क्या वे नहीं जानते कि निष्ठा का रंग नहीं बदलता? क्या उनकी समझ में यह बात नहीं आती कि आचरण के व्याकरण की नाक पर रूमाल रख कर भी निष्ठा का तुक बिष्ठा से नहीं मिलाया जा सकता।
वे मुझसे पूछ रहे हैं, क्या आप हमारे एक मुहावरे की हत्या के अभियोग में अपनी गवाही दे सकते हैं। आप हमारा गवाह बन सकते हैं?
मैं क्या करूं? क्या कहूँ? सोच नहीं पा रहा हूँ।
मैं ‘नहीं’ कहकर उन्हें दुखी नहीं करना चाहता। उन्हें निराश नहीं करना चाहता।
मगर ‘हाँ’ कहकर उनका झूठमूठ का उत्साह भी नहीं बढ़ा सकता।
मैं जानता हूँ, मेरी गवाही से कोई फर्क नहीं पड़ता। मुझे सचाई के लिए गवाही देना, सचाई का सबसे बड़ा अपमान मालूम पड़ता है।