Young Writer, चुनाव डेस्क। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से
क्षमा चाहता हूँ। जो बात मैं कहना चाहता हूँ, उसे कहने के लिए आप मेरे मथ्थे जनतन्त्र की अवमानना का आरोप नहीं मढ़ेंगे, यह मेरा आपसे विनम्र अनुरोध है। मेरा अनुरोध अपने उन भाइयों से है, जो अपने को अपने मन ही राष्ट्रभक्त घोषित करते रहते हैं। बिना किसी भक्ति के राष्ट्र को अपनी जायदाद मान बैठते हैं। अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनने की जिन्हें आदत पड़ गई है। जो यह समझते हैं कि प्रभुता संपन्न होने के नाते केवल वे ही लोकतंत्र के पुजारी हैं।मेरा अनुरोध उनसे है, जो लोकतंत्र के कारण फलने-फूलने की वजह से लोकतंत्र पर अपना अधिकार मानते हैं। जो लोकतंत्र को अपने अधिकार की वस्तु मानते हैं और किसी को भी लोकतंत्र के व्यावहारिक सत्य पर कुछ भी कहने का हक कभी स्वीकार नहीं पाते है। हालांकि हमारे समय में किसी किसी भी तरह का अनुरोध दाँत निपोरने से अधिक अर्थ नहीं रखता। दाँत निपोरता हुआ आदमी मुझ हमेशा मनुष्यता के माथे पर कलंक का टीका ही लगता है। फिर भी!
अपने देश की सत्ता के सिंहासन पर जो जनतन्त्र बैठा है, उसकी आत्मा सावन की अन्धी है। उसे सब कुछ हरा-हरा ही दिखता है। दिखे भी क्यों नहीं। उसके तो चारों तरफ हरियाली ही हरियाली है। उसका तो समूचा वजूद ही हरियाली में डूबा है। मगर जन? जन की बात मत पूछिए। जनतन्त्र की मूल इकाई भले जन है। जनतंत्र का आधार भले जन है। मगर हमारे समय में जनतन्त्र जन के लिए नहीं है। जन का जनतन्त्र के लिए हो जाना उसका सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। जन तो जाने कबसे दुर्भाग्य में घिरा है। इधर काफी दिनों से बेचारा जनतन्त्र भी दुर्भाग्य से जूझता हाँफ रहा है। अपनी जीवन रक्षा के लिए गर्दन हिलाता और कमर झुकाता चलता आ रहा है।
हमारे प्यारे और पूज्य जनतन्त्र को केवल कुछ राजनीतिक दलों और घी में पाँचों उगली डाले घरानों ने अपना पालतू बना रखा है। वे अधिकार की लाठी से उसे भैंस की तरह हाँककर अपने गोंठ में बाँध रखे हैं। उसे मन-माफिक दूह रहे हैं। जनतन्त्र का दूध-दही, मक्खन-पनीर उनके घरों की शोभा है। सम्पदा है।
जनतन्त्र ने जनप्रतिनिधियों को बहुत कुछ दिया है। सब कुछ दिया है। राज-पाट, धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा सब दिया है। भला क्या कुछ नहीं दिया है। हत्या करने के बावजूद हत्यारा न कहे जाने की सहूलियत दिया है। सामन्तों के सारे आचरण के बावजूद सेवक कहे जाने का सुअवसर दिया है। झूठ बोलने का असीम अवकाश दिया है। अपने स्वार्थ को पूरा कर सकने के सामर्थ्य का उपहार दिया है। चोरी करने की वैधता का पुरस्कार दिया है। हमारे समय में हमारे जनतन्त्र ने जन के सम्मुख सामन्ती आत्मा को लोकतन्त्र का परिधान दिया है। नहीं, नहीं मैं गलत कह गया। जो वास्तविकता को ढकने का काम करता है, उस परिधान को नकाब कहा जाता है। जनतंत्र का मूल मकसद सामन्ती शोषण उत्पीड़न और अमानवीयता से मुक्ति दिलाना था। मगर जाने कैसे हमारी व्यवस्था में वेश बदल कर सामन्तवाद हमारे सिर पर आ बैठा। यह सब जानबूझ कर नहीं हुआ है। लेकिन इससे क्या फर्क! जो है, सो तो है ही न!
सबसे बड़ी बात यह है कि व्यावहारिक धरातल पर हमारे जनतन्त्र ने उन मूल्यों को अपने कार्य-व्यवहार से मान्यता प्रदान की है, जिन मूल्यों का उच्छेद करना लोकतन्त्र की मूल संकल्पना थी।
हमारे लोकतन्त्र में चोरी जैसा गर्हित कृत्य अब निन्दनीय नहीं रह गया है। बल्कि वैधानिक मान्यता मिल जाने के कारण, भले ही वह अघोषित है, वह प्रतिष्ठा का आधार बन गया है। जनता का पैसा सरकार के पास जाकर जब वह पुनः जनता के लिए अवमुक्त होता है, उसका अधिकांश वैधानिक शक्ति-सम्पन्न लोगों द्वारा हड़प लिया जाता है। वह उनकी हवस को पूरा करने का साधन बन जाता है। इसमें जो जितना ज्यादा हड़प सकता है, वह उतना ही अधिक प्रभावशाली और प्रतिष्ठा के योग्य समझा जाता है। ये कोई दस्यु नहीं है, डकैत नहीं है, अपराधी नहीं है, ये वही लोग हैं, जिन्हें लोकतंत्र ने व्यवस्था का नियन्ता होने का अधिकार दिया है। एक ग्राम प्रधान से लेकर देश के प्रधान तक इसमें भागीदार हैं। इस कार्य की अब कोई भर्त्सना नहीं करता उल्टे जनता उनका सम्मान और अभिनन्दन करने को सहज भाव से प्रस्तुत रहती है। हमारे जनप्रतिनिधियों के जन विकास की निधि में उनकी हिस्सेदारी की विधि सम्मत मान्यता हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में अनुमोदित हो चुकी है। चोरी के अधिकार को नैतिक रूप से प्रतिष्ठापरक बनाने में हमारी लोकतांत्रिक सरकार का योगदान अभूतपूर्व है। निन्दनीय आचरण का अभिनन्दन हमारे लोकतंत्र की ऐतिहासिक उपलब्धि बन गया है।
हमारी संसद की संप्रभुता का अपने स्वार्थ के संपोषण के लिए जैसा लज्जाजनक पतन पिछले वर्षों में दिखाई पड़ा है, वह विस्मित करने वाला है। पक्ष-विपक्ष का भेद भुलाकर जनप्रतिनिधियों की वेतनवृद्धि और पेंशन का जो विधेयक सर्वसम्मति से पारित किया गया, वह लोकतंत्र की हत्या का मिसाल है। आजीवन सरकार की सेवा करने वालों को पेंशन से वंचित करने और जनप्रतिनिधियों को पेंशन से पुरस्कृत करने का निर्णय संसद के स्वार्थी, अविश्वसनीय और जनविरोधी चरित्र का अमिट साक्ष्य प्रस्तुत करता है। फिर भी जनतंत्र इस देश की जनता के लिए गर्व करने का आधार है, यह कैसा विपर्यय है! कैसी विडम्बना है।
जनहित की जिम्मदारियों का व्यक्ति हित में बदलते जाना जनतन्त्र के लिए गर्व का विषय है या ग्लानि का? शर्म की बात है या शान की? ऐसी व्यवस्था की भर्त्सना होनी चाहिए या अभिनन्दन होना चाहिए? कौन पूछे। किससे पूछे। हमारे गरिमामय जनतन्त्र की जनता में यह सवाल कहीं नहीं है। जनता की जबान पर तो केवल जयकार के नारे हैं।
हमारा जनतन्त्र अविश्वसनीय, स्वार्थी और गैर ईमानदार जनप्रतिनिधियों का जनतन्त्र बनता जा रहा है। हमारे प्रतिनिधियों के चिन्तन के केन्द्र में जनता नहीं है।
जनता में सुरक्षा की, संरक्षण की और रोजगार की भयानक प्यास है। वह पानी-पानी चिल्ला रही है। उधर, पानी के सारे स्रोतों से पानी इकट्ठा कर कुछ शक्तिशाली लोगों की जल क्रीड़ा के लिए सरोवर बनाए जा रहे हैं। सारे कुओं को सुखाकर एक कुँआ बनाया जा रहा है,- भाँग का कुँआ।
हमारा जनतन्त्र प्यासा हुआ है, जनता प्यासी हुई है, उसे भाँग के कुँए का पानी पीना है। उसे जनतन्त्र की जय का फाग गाना है। पता नहीं कब तक।
हम प्यास, प्यास चिल्ला रहे हैं। हमारी संसद के पास पानी नहीं है। सारा पानी बोतलों में बन्द किया जा चुका है। पानी जो खरीद सकते है। खरीद कर पी रहे हैं। जो खरीदने से बचे हुए लोग हैं, वही हमारी संसद के लिए काम के लोग हैं। वहीे लोग वोट हैं। जो लोग वोट है, उन्हें हमारी संसद अपने कुँए से भाँग पिला रही है। असहाय जनता के ऊपर जब नशा चढ़ेगा तभी वह जनतन्त्र की जोर से जयनाद करेगी। वह नशे में नाचते-गाते वोट करेगी। हमारे समय में वोट करना अपना हाथ कटाने जैसा जाने क्यों बन गया है? अपने कटे हुए हाथ को तरह-तरह के झंडो से ढँककर संसद की तरफ मुँह सुखाकर ताकते रहना, हमारी जनता की दयनीय नियति बन गया है।