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Thursday, November 14, 2024

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इतिहास की गवाही के बिना

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Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से

हिन्दी साहित्य के इतिहास में बहुत से कवि ऐसे हैं, जिन्हें जानने के लिये आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का इतिहास पढ़ना जरूरी है। मगर बहुत कवि ऐसे भी हैं, जिन्हें लोग शुक्ल जी का इतिहास बिना पढ़े भी जानते हैं।
इतिहास का गवाह होना बुरा नहीं है। मगर इतिहास का अस्तित्व का प्रमाणकर्ता हो जाना जरूर अखरने की बात है। शुक्ल जी तक तो गनीमत है। मगर उसके बाद का इतिहास नियामक की भूमिका में फोटो को प्रमाणित करने वाले राजपत्रित अधिकारियों के हस्ताक्षरों का कार्यालयी दस्तावेज बनने की प्रक्रिया में अग्रसर दिखाई देता है। अपने पक्ष और अपनी पसंद को इतिहास के अध्याय बनाने के खड़यन्त्र इतिहास की विश्वसनीयता को ही संदिग्ध बनाने वाले बनते जा रहे हैं। इतिहास व्यक्तिगत पसन्द का अभिलेख नहीं है। व्यापक जनजीवन की भावनाओं के साथ जुड़ाव की परवाह किये बगैर श्रेष्ठता की स्थापनाएँ इतिहास की जवाबदेही के छद्म व्यवहार की पक्की निशानदेही हैं। मगर यहाँ बात इतिहास के बारे में नहीं करनी है।
जो कवि बिना इतिहास पढ़े स्मृति में आ जाते हैं, कभी भूलते नहीं। परीक्षा में उनके बारे में प्रश्न न भी पूछे जायँ, कोई फर्क नहीं पड़ता। परीक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण कवियों के जीवन परिचय और कविता जो बड़े श्रम से याद की जाती है, परीक्षा बीतने के बाद ही भूल जाती है। जो याद नहीं किया जाता, जिसे याद नहीं करना पड़ता, याद रह जाता है। नरोत्तम दास से मेरा परिचय सहज ही बहुत बचपन में प्रारंभिक कक्षाओं में पढ़ते समय हो गया था। उनकी सरल-सी सीधी-साधी भाषा में कुछ सवैये, कुछ कवित्त जो स्मृति में आये फिर गये नहीं। वे एक बार आकर ठहर गये। बस गये। क्या स्मृति में आकर ठहर जाना कविता का बड़ा गुण है? अवश्य है। मैं कहना चाहता हूँ कि नरोत्तमदास बड़े कवि हैं। उनकी कविता बड़ी कविता है। उनकी कविता मूल्यवान कविता है।
कविता के मूल्यवान होने के केवल एक-दो या कुछ गिने हुये ही कारण नहीं होते। जितने कारण साहित्यशास्त्र के ग्रंथों में गिनाये गये हैं, उतने ही नहीं होते। उनके अलावा भी बहुत से कारण अनगिने भी बचे रह जाते हैं, जिनकी वजह से कविता मूल्यवान होती है। नरोत्तमदास की कविता गिने-गिनाये कारणों से बचे रह गये कारणों के कारण मूल्यवान कविता है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने इतिहास में नरोत्तमदास का उल्लेख सम्मानपूर्वक किया है। उन्हें सीतापुर जिले के बाड़ी कसबे का रहने वाला बताया है। शुक्ल जी ने उनकी भावुकता और भाषा की प्रशंसा की है। उन्हें नरोत्तमदास की कविता में घर की गरीबी का वर्णन सुन्दर लगता है। घर की गरीबी का सुन्दर वर्णन नरोत्तमदास जानते हैं। आचार्य शुक्ल उसे पहचानते हैं। गरीबी का सुन्दर वर्णन गरीब होने मात्र से संभव नहीं है। गरीब होकर भी गरीब न होने से संभव है। नरोत्तमदास गरीब होकर भी गरीब न होने वाले कवि हैं। जिन लोगों को गरीबी गरीब बनाने में हार जाती है, वे ही कवि बन पाते हैं। नरोत्तमदास की कविता गरीबी को हरा देने वाली कविता है। गरीबी में गर्व का होना ही कविता का होना होता है, क्या? लगता तो है।
स्मृति में ठहर जाना बड़ा सरल है मगर बड़ा विरल है। स्मृति में तो बहुत-सी चीजें आती हैं, मगर ठहर नहीं पातीं। कुछ-कुछ चीजें ही ठहर पाती हैं। ठहरने की शक्ति बड़ी विलक्षण शक्ति है। नरोत्तमदास की कविता विलक्षण कविता है। वे जीवन के विचक्षण कवि हैं। उनकी कविता में जीवन की गहराई की थाह है। जिन्दगी की अथाह गहराई को भाषा में रस की तरह भरने की अद्भुत सामर्थ्य है। उनकी कविता समर्थ कविता है।
नरोत्तमदास की कविता गरीबी की लघुता की कविता नहीं है। दीनता के दाँत निपोरने की कविता नहीं है। उसमें दैन्य की कातरता नहीं है। याचना नहीं है। उनकी कविता गरीबी में सौन्दर्य का सृजन करने वाली कविता है। उनकी कविता गरीबी में दीप्ति पैदा करने वाली कविता है। दमक पैदा करने वाली कविता है। उनकी कविता मैत्री के गरिमामय महाख्यान की कविता है। यह महाख्यान बहुत छोटा है। मगर कितना बड़ा है। नरोत्तमदास की कविता इसलिये अविस्मरणीय कविता है कि उसने समूची हिन्दी जाति को मित्रता की महनीयता का महामंत्र उपलब्ध कराया है। ‘सुदामा चरित’ सिर्फ कहने के लिये सुदामा चरित है। वास्तव में वह मित्र चरित है। सुदामा चरित में सुदामा का होना सुदामा के लिये नहीं है, कृष्ण के लिये है। कृष्ण के सन्दर्भ में ही सुदामा के होने का अर्थ है।
जिसके ‘सीस पगा न झगा तन में‘ है। जिसकी कोई पहचान का सूत्र नहीं, – ‘प्रभु जाने को आहि बसैं केहि ग्रामा। जो परिचय विहीन है। जिसकी ‘धोती फटी-सी लटी दुपटी’ है। जो नंगे पैर है। जो महल को देखकर चकित है। जो कृष्ण का ठौर पूछ रहा है। कितना तुच्छ है, सुदामा। वही सुदामा पल भर में मित्रता की पारसमणि से छूकर कितना महनीय हो जाता है। कितना स्पृहणीय हो उठता है। उसकी गरीबी कितनी गर्वीली हो उठती है, जब कृष्ण राजकाज त्याग कर दौड़ पड़ते हैं। दौड़कर सुदामा को अँकवार में भर लेते हैं। गरीबी कितनी इठलाने के योग्य सौभाग्य में बदल जाती है। नरोत्तम की कविता गरीबी के सौभाग्य में बदलने के रसायन के अनुसंधान की कविता है। उनकी कविता भारतीय जाति की अनाहत अभीप्सा की कविता है। उनकी कविता पारस्परिकता के जयगान की कविता है। उनकी कविता संबन्धों की पवित्रता के पाँव परात के पानी को हाथ से छुये बिना नैनन के जल से धोने के अनुष्ठान की कविता है। कितनी गौरवपूर्ण कविता है।
सुदामा की गरीबी में दंश नहीं है। लोभ नहीं है। अमर्ष नहीं है। केवल जीवन के प्रति अकुंठ आस्था है। कोदो-साँवा का भात भी भरपेट मिल जाय तो दूध-दही और मिष्ठान्न की लिप्सा नहीं है। उनकी गरीबी लोलुप नहीं है। उनके घर में जो गरीबी है, उसके प्रति उनके मन में, दुत्कार नहीं है। जुगुप्सा नहीं है। सहिष्णुता का अभाव नहीं है। शायद, इसी वजह से कविता में गरीबी के चित्र सुंदर बन पड़े हैं। गरीबी का सुन्दर चित्र अस्वाभाविक तौर पर एक विलक्षण उपलब्धि है, जो चित्त को चमत्कृत करता है।
नरोत्तम की कविता राजा के मित्र होने की कविता है। भारतीय जाति के मन में स्थित राजा के मित्र होने की अदम्य आकांक्षा की कविता है। क्या हमारे मन की आकांक्षा कविता की उत्प्रेरणा नहीं है? यह सच है, यह आकांक्षा एक अघटनीय असंभावना है। मगर असंभावना में भी संभावना के द्वार कविता में खुलते रहे हैं। यहाँ तो बात कुछ और ही है। यहाँ तो असंभावित सच आँखों के आगे नाच रहा है। नरोत्तम की कविता अपने समय के सबसे विपन्न आदमी और सबसे सम्पन्न आदमी की मैत्रीपूर्ण पारस्परिकता के सच की कविता है। दुर्लभ कविता है।
नरोत्तम की कविता अपने समय के सबसे छोटे आदमी और सबसे बड़े आदमी के बीच की पारस्परिकता के सच के साक्ष्य की कविता है। यह मनुष्य जाति के जीवन में निराशा और अविश्वास के अछोर विस्तार के बीच आश्वासन की गवाही की कविता है। इतिहास के लिये यह बड़ी मूल्यवान कविता है। स्मृति में इस कविता का बचे रहना, बने रहना मनुष्य जाति के जीवन में पारस्परिकता की महत्ता के बचे रहने की निशानी है।
पांचाल नरेश द्रुपद अपने मित्र द्रोण को उनकी याचना के बावजूद एक गाय नहीं दे सके। यह भी सच है। मित्रता के धिक्कार का यह राजधर्म भी सच है। वहीं द्वारिकाधीश कृष्ण सुदामा की दीनदशा देखकर रोने लगते हैं। कृष्ण अपने वैभव के बराबर वैभव सुदामा को बिना मांगें दे देते हैं। कृष्ण का देना देखकर रूक्मिणी घबरा जाती है। यह दान नहीं है। यह मित्रता का मान है। यह राजा और प्रजा की पारस्परिकता में मैत्री का अपूर्व गौरव है। नरोत्तम की कविता इसी गौरव का गान है। यह कविता हमारी स्मृति में संचित विरासत की कविता है।
नरोत्तमदास की कविता इतिहास में दर्ज भक्ति-काव्य के फुटकर खाते से निकलकर मेरी स्मृति में बराबर कौंध जाती है। हमारे समय में हमारे लोकतंत्र का गौरव है। लोकतंत्र की गरिमा का वितान हमारे सिर के ऊपर तना है। सहिष्णुता के विज्ञापन हमारी आँखों के आगे चमक रहे हैं। पारस्परिकता के प्रचार के नारे हमारे कानों में गूँज रहे हैं। बन्धुत्व के विरद हमारे समय के संचार माध्यम गा रहे हैं।
अपने बन्धुत्व से वंचित समय में नरोत्तमदास के मैत्री के महाख्यान की कविता का अर्थ मैं बार-बार सोचता हूँ। उनकी कविता की उपस्थिति बेचैन करने वाली उपस्थिति से भिन्न नहीं है।

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