17.7 C
New York
Saturday, September 21, 2024

Buy now

सामूहिक अस्तित्व का मंगलघोष

- Advertisement -

oung Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से

अमरकोश में लोक के सन्दर्भ में ‘लोकस्तु भुवने जने’ लिखा है। जन-जन से भुवन बना है। जन-जन में भुवन है। भुवन में जन व्याप्त है। जन में भुवन व्याप्त है। लोक सृष्टि की समूची अस्मिता का वाचक है। समूचा संसार जिसमें प्रकृति और प्राणि समुदाय समाहित हैं, लोक में व्याप्त है। जड़-चेतन की अभिन्नता का बोध लोक की व्याप्ति में सन्निहित है। अन्तर्सम्बन्धों की अर्थवत्ता और सहिष्णुता की मूल्यवत्ता में ही लोक प्रतिष्ठित होता है। यही लोक का प्राणतत्व है। इस प्राणतत्व को पलुहित करने वाली चेतना, लोक चेतना है।
प्रकृति के समस्त उपादानों- पृथ्वी, पहाड़, पठार, कछार, नदी, झरना, झील, पेड़ के साथ पशु-पक्षी की प्रजातियों और समस्त मनुष्य समुदाय का सजीव समुच्चय लोक कहा जाता है। लोक की धारणा सामूहिक अस्तित्व की उपासना की महनीय और उज्ज्वल धारणा के उत्कर्ष का प्रतिमान है। यह मानवीय चिन्तन की पवित्रता, महनीयता और मांगलिकता का एकत्र अभिधान है।
यह भिन्न-भिन्न सत्ताओं की अभिन्नता का आधार है। जन-जन के भिन्न होने के बावजूद भिन्न न होने का बोध ही लोक शब्द की व्यंजना है। इस व्यंजना की संवाहक चेतना को लोक चेतना कहा जाता है। लोक दार्शनिक अद्वैत की सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रवाचक है। दो की सत्ता का निषेध, नकार ही लोक के स्वरूप का निदर्शन करता हे। अपने में सबको और सबमें अपने को अनुभव करने का बोध लोक में व्यक्त होता है। समूह में व्यक्ति का विलयन और व्यक्ति में समूह की उपस्थिति लोक के अर्थ का प्रतिपादक है। यह मनुष्य जाति के चिंतन की महिमा का स्वर्ण शिखर है।
लोक चेतना मनुष्य जाति के सामूहिक मंगल की अन्वेषी चेतना है। इसमें व्यक्ति की महिमा सामूहिक मंगल विधान के उत्कर्ष पर आधारित है।
बड़ा आश्चर्यजनक है कि राजसत्ता को सारे अधिकार सौंपकर भी मनुष्य जाति के इतिहास निर्माण का समूचा उत्तरदायित्व लोकसत्ता अपने पास सुरक्षित रखती है। मनुष्य जाति की दशा और दिशा का निर्धारण लोकसत्ता के हाथ में होता है। मनुष्य जाति के नायक का निर्माण हमेशा लोक सत्ता ही करती है। मनुष्य जाति के मंगल विधान की चेतना, लोक चेतना है। आज तक एक भी लोकनायक किसी राजसत्ता ने पैदा किया हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता।
सामूहिकता और पारस्परिकता लोक चेतना में प्रतिष्ठित सारे मूल्यों का आधार है। यह मनुष्य के स्वभाव और उसकी सभ्यता दोनों में समान रूप से मूल्यवान है। लोकचेतना हमेशा राजसत्ता की निरंकुशता की संभावनाओं को अंकुश से नियंत्रित रखती है। लोकचेतना समूचे संसार में सामाजिक संरचना में सबसे शक्तिशाली कारक है। यह हमेशा व्यक्ति चेतना में अलक्षित सामूहिक चेतना की उपस्थिति के रूप में व्यक्त होती है। लोक चेतना में एक वचन को बहुवचन में व्यक्त करने की अद्भुत शक्ति और सामर्थ्य है। लोक चेतना असमाप्त संघर्ष की असीम ऊर्जा का अचूक स्रोत है। यह हमेशा निरंतर आहत होकर भी कभी हारती नहीं है। दिनकर के शब्दों में कहँू तो लोकचेतना मर्त्य मानव की विजय का तूर्य है। लोक चेतना का स्वरूप और उसकी शक्ति साहित्य में संचित और संरक्षित है।
लोकचेतना लोक जीवन में ही बसती है। उसका निवास लोक-जीवन के व्यवहार में लक्षित होता है मगर वह कहाँ बसती है, कहाँ-कहाँ, किसमें-किसमें वह वास करती है, कह पाना बड़ा मुश्किल है। स्थूल लोक जीवन में हमेशा लोकचेतना की पहचान आसान नहीं होती। प्रायः लोक जीवन में भी बहुत से व्यवहार लोक चेतना के विरूद्ध दिखते हैं, लेकिन शीघ्र ही वे लोक चेतना की धारा में लहर की भाँति विलीन हो जाते हैं। कभी-कभी लोकचेतना की व्यापक अभिव्यक्ति व्यक्ति चेतना में भी प्रगट होती है और व्यक्ति का विस्तार लोक में व्याप्त हो जाता है। व्यक्ति लोक का संरक्षक बन जाता है। व्यक्ति लोकनायक बन जाता है। व्यक्ति लोकमंगल का यशगायक बन जाता है। लोक चेतना में व्यक्ति और समूह का विस्मयजनक विलयन है। इसमें व्यक्ति कभी सामूहिक सत्ता का पर्याय बन जाता है। कभी समूह व्यक्ति की असीम संभावनाओं का विलक्षण उद्घाटक।
साहित्य लोक चेतना की भाषिक अस्मिता है। लोक चेतना साहित्य में व्यक्त है। अभिव्यक्त है। साहित्य लोक चेतना की ही वाणी है। साहित्य में लोक चेतना को देखा जा सकता है। सुना जा सकता है। समझा जा सकता है। छुआ जा सकता है। जिया जा सकता है। लोक चेतना के जीवन का स्पन्दन साहित्य में विद्यमान है।
वस्तुतः लोकजीवन लोक चेतना का पर्याय नहीं है। प्रायः लोक जीवन को लोकचेतना का वाहक मान लेने से हमारी बौद्धिकता बहुत-सी भ्रांतियों का शिकार बन जाती है। शायद इसी वजह से लोक साहित्य, लोक संगीत, लोक कला इत्यादि के अलग वर्ग हम सृजित करने लग जाते हैं। साहित्य और कला के आन्तरिक मर्म के धरातल पर इस तरह के वर्गों का कोई मतलब नहीं होता। लोक जीवन सामयिक होता है, मगर लोक चेतना केवल सामयिक नहीं है। वह सामयिक भी है मगर सामयिकता की सीमा को अतिक्रांत करने का स्वभाव लोकचेतना का स्वभाव है। सामयिकता को अतिक्रमित किए बगैर कोई भी चीज सार्वकालिक नहीं हो सकती। लोक चेतना एक सार्वकालिक सत्ता है। वह कल भी थी। आज भी है। कल भी होगी। अस्तित्व का प्रवाह अविच्छिन्न है। लोकचेतना, एक अविच्छिन्न सत्ता है। मनुष्य जाति के जीवन में, उसके जीवनबोध में उसका प्रवाह अविच्छिन्न है।
लोक किसी समूह का वाचक नहीं है। लोक बहुसंख्यक समुदाय नहीं है। लोक अल्पसंख्यक समुदाय का विलोम नहीं है। लोक शास्त्र का विरोधी नहीं है। विकल्प नहीं है। लोक, सत्ता का प्रतिपक्ष नहीं है। लोक प्रवंचित नहीं है। पिछड़ो का समूह नहीं है। लोक गॅवार नहीं है। लोक बनवासी नहीं है। गिरिजन नहीं है। कंगाल नहीं है। असहाय नहीं है। लोक कोई खण्ड, उपखण्ड नहीं है। वह खण्डित चेतना का वाहक कत्तई नहीं है। लोक समग्र का वाचक है। लोक समग्र सत्ता के समेकित रूप का संवाहक शब्द है। लोक विशेषणों की विशेषताओं को निरस्त करने वाली संज्ञा की गरिमा का विस्तार है। राजा, रंक, विद्वान, मूर्ख, बलवान, कमजोर, सुन्दर, कुरूप सबको मिलाकर एक साथ जो सत्ता है अस्तित्व की, लोक है। भिन्नता के असीम विस्तार में जो अभिन्न है, वह लोक चेतना है।
भिन्नता में अभिन्नता का बोध ही सहिष्णुता का जनक है। सहिष्णुता से पारस्परिकता का जन्म होता है। लोक चेतना सहिष्णुता और पारस्परिकता की संपोषक चेतना है। लोक चेतना समग्र को समग्र से जोड़ने वाली चेतना है। सम्पूर्ण के हर अवयव को हर अवयव से जो जोड़ने का काम है, वह चेतना करती है। कोई भी विशिष्ट लोक से बाहर नहीं है। विशिष्ट का अपशिष्ट भी लोक नहीं है। विशिष्ट से बचा हुआ लोक है, यह भ्रम है। यह लोक की धारणा का आयातित व्यतिरेक है। यह आधुनिकता बोध के छदम की भ्रांति है। यह भ्रांति स्वार्थपूर्ण भ्रान्ति है। यह भ्रान्ति विशेषाधिकार पर अधिकार जमाये रखने के लिए सुनियोजित भ्रान्ति है। यह जानबूझ कर प्रचारित और प्रसारित की गई है। यही भ्रान्ति हमारे लोकतंत्र को कलंकित करती है। कमजोर करती है। निर्बल बनाती है। निरीह बनाती है। इसी भ्रान्त अवधारणा में लोक हेय है। हीन है। वंचित है। शोषित है। विपन्न है। दया का पात्र है। अभावग्रस्त है। बुद्धिहीन है। ग्राम्य है। गिरिजन है। वनवासी है। आदिम है। तुच्छ है। भद्र से इतर भदेस है। दरअसल यह लोक नहीं है, यह सब ‘फोक’ है। ‘फोक’ संरक्षण के योग्य है। मगर लोक संरक्षक है। लोक सम्पूर्ण के मंगल विधान का स्रष्टा है।
लोक सत्ता का विरोधी नहीं है। शास्त्र का विरोधी नहीं है। लोक सत्ता का और शास्त्र का सर्जक है। वह सत्ता और शास्त्र का नियंत्रक है। सत्ता और शास्त्र को लोक सापेक्ष्य बनाये रखने का दायित्व लोक चेतना का आत्मधर्म है। लोक चेतना किसी भी तरह के विशिष्टताबोध को निरसत करने वाली चेतना है। जो सत्ता और शास्त्र का नियामक है, वह भी लोक है। उस लोक में जब भी अपने लोक धर्म के प्रति उपेक्षा का जन्म होता है, लोकचेतना उसे विशेषाधिकार से वंचित कर देती है। विशेष को लोक चेतना आत्मसात नहीं करती। विशेष बाहरी तत्व है, जब भी उसका प्रवेश लोक जीवन में होता है, लोकचेतना की आन्तरिक उर्जा सक्रिय हो उठती हैं सक्रिय होकर उसे बार-बार, बारम्बार बहिष्कृत करती रहती है। समाूहिकता के विरूद्ध हर विक्षेप को, सामूहिक जीवन से और व्यवस्था से बाहर करते रहने का स्वभाव, लोकचेतना का स्वभाव है।
लोक कोई स्थिर इकाई नहीं है। वह संरक्षण का मुखापेक्षी नहीं है। वह सहारे का याचक नहीं है। वह कृपाकांक्षी नहीं है। यह सब तो लोक के साथ हमारे लोकतंत्र का मजाक है। उपहास है।
लोक लघु नहीं है। विराट है। लघुता लोक की पहचान नहीं है। उदारता लोक का अभिज्ञान है। लोक का चरित्र उदार चरित्र है। लोक का कुटुम्ब बसुधाव्यापी कुटुम्ब है। लोक में अपना-पराया नहीं है। सब अपना है। ‘सब अपना है’ का बोध ही लोक चेतना का अपना बोध है। आत्म विस्तार की असीम परिणति ही लोक चेतना का आत्मतत्व है।
आत्मचेतना के असीम विस्तार की योग्यता ही लोकचेतना में विलीन होने की योग्यता है। जो आत्मविस्तार की योग्यता से परिपूर्ण है, वही लोक चेतना का संवाहक है। वह ही लोक चेतना में घटक की तरह मौजूद है। जिसमें यह योग्यता नहीं है, वह चेतना का व्यतिरेकी है। लोक चेतना उसे अपने से बहिष्कृत कर देती है। बहिष्कृत करती रहती है। साधारणता नहीं, सधारणता में व्याप्त असाधारणता लोक चेतना की पहचान है।
लोक चेतना ही समूची सृष्टि में नियामक चेतना है। यही अभ्यर्थनीय चेतना है। यही मंगलकारी चेतना है। विराट प्रकृति के साथ समस्त प्राणि समुदाय में सहिष्णुता और पास्परिकता के मैत्रीभाव की स्थापना लोक चेतना की स्थापना है। इस स्थापना के लिये ही जगत में लोक चेतना का साम्राज्य है।
सिंहासन पर कोई बैठे। ताज किसी के भी सिर पर बँधा हो। मगर मनुष्य जाति के हृदय पर शासन हमेशा लोकचेतना का रहता है। हमेशा रहेगा। सच्चे अर्थ में मनुष्य जाति में सम्राट हमेशा-हमेशा लोक चेतना ही है।
लोकचेतना को आत्मसात किये बिना लोकतंत्र व्यर्थ है। लोकचेतना की अभ्यर्थना के अभाव में लोकतंत्र एक फालतू का शब्द है, जिसका न तो भाषा में कोई अर्थ है, न जीवन में कोई मतलब। लोक चेतना की अनुपस्थिति में लोकतंत्र एक भयानक विध्वंस का विस्फोट है, जिसे सामूहिकता और पास्परिकता को विनष्ट करने के लिये प्रयोग किया जाता है। लोकतंत्र तब तक केवल कुछ लोगों के स्वार्थ को पूरा करने का साधन मात्र है जब तक लोक चेतना जन-जन में प्रतिष्ठित नहीं है। जब तक भुवन में प्रतिष्ठित नहीं है।
लोकचेतना आहत होती है, हत नहीं। वह क्षत होकर भी, विक्षत होकर भी अक्षत बनी रहती है। बहुत कुछ के अप्रतिष्ठित होने की आशंका की जा सकती है मगर सामूहिक अस्तित्व के मंगल घोष की अप्रतिष्ठा की आशंका कभी नहीं की जा सकती। लोकचेतना जन-जन को पुकारती आ रही है। पुकारती जा रही है-
‘‘बनो संसृति के मूल रहस्य, तुम्हीं से फैलेगी वह बेल।
विश्व भर सौरभ से भर जाय, सुमन से खेलो सुन्दर खेल।।’’

Related Articles

Election - 2024

Latest Articles

You cannot copy content of this page

Verified by MonsterInsights