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Saturday, September 21, 2024

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सुन्दर की प्रतिष्ठा ही साहित्य का प्राण है

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Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से

जीवन-जगत में सुन्दर और असुन्दर दोनों निर्विवाद रूप में हर काल में स्थित है। ऐसा नहीं है कि अतीत के काल खण्डों में सबकुछ सुन्दर ही सुन्दर रहा हो। ऐसा भी नहीं है कि भविष्य में सबकुछ सुन्दर ही होगा। यह भी सच नहीं है कि वर्तमान समय में असुन्दर अपेक्षाकृत अधिक है। यह सच है कि वर्तमान में हमें असुन्दर अधिक दिखाई देता है। इसका कारण केवल यह है कि हम वर्तमान काल को अधिक नजदीक से देख पाते हैं और बाकी काल की अपेक्षा। उसके साथ हमारे गहरे सरोकार हैं और हमारी सजीव अनुभूतियाँ जुड़ी हैं। फिर भी मनुष्य जाति की स्मृति हमेशा सुन्दर को ही अपने में सँजोने का स्वभाव रखती है। सुन्दर के साथ होने की मनुष्य की आकांक्षा उसकी सहजात है।
साहित्य मनुष्य के स्वभाव का ही सृजन है। मनुष्य और मनुष्य के बीच के पारस्परिक सम्बन्धों में व्याप्त सौन्दर्य की आन्तरिक धरातल पर प्रतिष्ठा ही साहित्य का प्राण है। बाह्य धरातल पर यही काम शासन-व्यवस्था करती है। शासन-व्यवस्था और साहित्य एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं। स्वभावतः तो दोनों एक-दूसरे के सहयोगी ही हैं। मगर जब-जब शासन, कुशासन का रूप ग्रहण कर लेता है, साहित्य उसका विरोधी दिखाई पड़ने लगता है। शासन में प्रायः ही वर्चस्व और स्वार्थ की लालसा समाहित रहती है, इसलिये साहित्य का स्वर सत्ता के विरोधी स्वर के रूप में अधिकतर पहचान रखता है।
सुन्दर की प्रतिष्ठा का सीधा अर्थ असुन्दर की अप्रतिष्ठा से है। जब साहित्य सुन्दर की प्रतिष्ठा करता है तो अपने आप असुन्दर अप्रतिष्ठित और निरस्त होता है। हमारे जीवन में सुंदर और असुंदर दोनों मौजूद है। साहित्य जीवन की पूर्णता में दोनों को देखता है। वह असुन्दर को इस तरह से देखता है, इस तरह से दिखाता है कि वह हमारे जीवन में अप्रतिष्ठित हो सके। असुन्दर के अप्रतिष्ठा की उत्कष्ट प्रेरणा ही आधुनिक चिंतन के यथार्थवाद की जननी है। हमारी साहित्य परम्परा में सौन्दर्यबोध का आधार और नीति निर्माण की भूमि वैयक्तिक स्वतंत्रता की सुरक्षा और पारस्परिक सौहार्द के बीच संतुलन के खोज में ही निर्मित होती रही है। खेद का विषय है कि समकालीन साहित्य जीवन में व्याप्त असुन्दर की अप्रतिष्ठा में अपनी भूमिका नहीं निभा पा रहा है। आज हमारे जीवन में निरन्तर साहित्य की जगह कम होती जा रही है।
जीवन में साहित्य की जगह का कम होते जाना मनुष्य जाति की अस्मिता के लिये सबसे भयानक संकट है। यह हमारे समय की सबसे त्रासद चिन्ता है, जिसकी तरफ हमारा ध्यान नहीं है। अपने समय के जीवन से साहित्य के बाहर होते जाने के विषय में जब भी बात होती है, उसकी सारी जिम्मेदारी हम दूसरों के मत्थे मढ़कर अपनी जवाबदेही से मुक्त हो लेते हैं। कुछ लोग प्रकाशकों को जिम्मेदार ठहराकर चिंतामुक्त हो लेते हैं। कुछ लोग पुस्तकों की खरीद की नीति को दोषपूर्ण और भ्रष्ट बताकर पल्ला झाड़ लेते हैं। मगर शायद यह समूची वास्तविकता नहीं है। मुझे लगता है कि इस स्थिति के पीछे सबसे अधिक जिम्मेदार हमारे लेखक ही हैं। हमारी रचना जनजीवन में प्रतिष्ठित क्यों नहीं हो पा रही है? नहीं हो पा रही है तो इसकी सबसे अधिक जिम्मेदारी हम रचनाकारों की ही है। हम सिर्फ दूसरों को दोषी ठहराकर अपने दायित्व से छुट्टी नहीं ले सकते। हमें अपने रचनाकर्म की आन्तरिक उत्प्रेरणा और उसकी फलश्रुति की सारी अन्तर्क्रियाओं की प्रक्रिया की पूरी पड़ताल में अपने को ईमानदारी से लगाना होगा।
‘‘क्या हमारे समय का साहित्य अपने समय में जीवन में व्याप्त असुन्दर को अप्रतिष्ठित करने में कारगर हो पा रहा है?’’ हम थोड़ा भी आत्मसम्मोहन और आत्ममुग्धता से अलग होकर जवाब तलाशेंगे तो उत्तर नहीं में होगा। सारी साहित्यिक प्रतिबद्धताओं के तुमुल शोर में भी हमारे जीवन में धनबल, बाहुबल और अनीतिबल की प्रतिष्ठा दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। हर आदमी पर किसी न किसी रूप में इन सबका आतंक छाया हुआ है। जातीय संकीर्णता, नये तरह का छुआछूत, धार्मिक असहिष्णुता, पद प्रतिष्ठा का दंभ और वैयक्तिक उत्थान का ज्वर सामूहिक हित को कंपकपा रहा है। इन सबके विरूद्ध साहित्य रचना के सारे संकटों के बावजूद बाजार में साहित्य की भरमार है। हम जिसकी अप्रतिष्ठा के लिये लिख-लिखकर किताबों का ढ़ेर खड़ा किये जा रहे हैं, वह अप्रतिष्ठित क्यों नहीं हो रहा है। जरूर कहीं न कहीं कोई बात है, जिसका सामना हम नहीं करना चाहते हैं।
हमारा दावा है कि हम जन-जीवन के दुख के बारे में, उनके कष्टों और उनकी मुसीबतों के बारे में लिखते हैं। हम उनके पक्षधर हैं। हम उनके प्रवक्ता हैं। हमारी चिंताएँ हमारे समय के शोषित, पीड़ित, वंचित और दलित जीवन के दुःख की चिन्ताएँ हैं। हम जनता के उस दुःख के बारे में, कविता, कहानी, उपन्यास लिखते हैं जिसे वह भोगती है। जनता भोगती है, हम लिखते हैं। हम जो कुछ लिखते हैं जनता उसे नहीं जानती। हम जो लिखते हैं, जिसके लिये लिखते है, वह सब उसके समझ के बाहर की चीज है। साहित्य के हलके में जनपक्ष का साहित्य आम जन की समझ और उसकी भाषा की पकड़ के बाहर की चीज है। वह कुछ थोड़े से बुद्धिजीवियों के बीच बहस की चीज है। जनता का दुःख, जनता साहित्यकारों से अधिक गहराई के साथ जानती है। जनता को अपने दुःख से परिचय और उसकी पहचान की उतनी जरूरत नहीं है, जितनी उस दुख को सहने की शक्ति की जरूरत है। हमारा साहित्य दुख को सहने और दुख से लड़ने की शक्ति जनता को दे सकने में कहाँ सक्षम हो पा रहा है? फिर साहित्य में जनता दुख का प्रदर्शन लेकर क्या करेगी? बच्चन जी के शब्दों में – ‘‘मैं क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी’’
शायद हम वह लिख रहे हैं, जहाँ हम नहीं हैं। जहाँ हम नहीं हैं जिसमें हम शामिल नहीं हैं, वहाँ के बारे में हमारा लिखा हुआ विश्वसनीय कैसे हो सकता है? साहित्य में जीवन और जीवन में साहित्य के न हो सकने का संकट हमारे समय का सबसे बड़ा संकट है।
हमारे समकालीन साहित्य में सबसे चिन्ताजनक बात यह भी है कि हमारे जीवन में जो कुछ भी असुन्दर है, हम आधुनिक के व्यामोह में अपने यथार्थवादी होने के दर्प में, अपनी निर्भीकता को प्रदर्शित करने के गुमान में जाने-अनजाने उसके औचित्य को प्रतिष्ठित करने में अपने को धन्य मानने लगे हैं। सामूहिक जीवन के सौहार्द को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मूल्य पर बलि चढ़ा देने में हम तनिक भी नहीं हिचकते। हमारे बहुत से प्रतिष्ठित कहानीकारों की कहानियाँ असुन्दर को जिस तरीके से जस्टीफाई करती है, भाषा और भंगिमा दोनों स्तरों पर उससे हमारा जीवन बोध आहत ही होता है। आन्तरिक और बाह्य जीवन-संघर्षों में जन-जीवन की साहित्य से शक्ति प्राप्त करने की हमेशा से आकांक्षा रही है। जनता के जीवन में साहित्य की भागीदारी तभी सुनिश्चित हो सकती है, जब साहित्य उसकी प्रवृत्तियों, उसके विश्वासों और उसके नैतिक बोध में उसका सहभागी होगा। साहित्य से जब जनता को अपने संघर्षों के लिये शक्ति प्राप्त होगी, तभी उसका उसके जीवन में स्थान होगा। केवल साहित्य की भाषिक पक्षधरता में जनता का उसी तरह विश्वास नहीं है जैसा कि राजनीति की स्वार्थी और छद्म पक्षधरता में नहीं है। कहीं हमारा साहित्य विचार और व्यवहार के विषम अंतराल के कारण राजनीतिक अविश्वसनीयता के करीब तो नहीं जा रहा है?
संकटग्रस्त जनजीवन को शक्ति, सम्बल और विश्वास की जरूरत है। हमारे जनतंत्र में इस वक्त जनता उसे कहा जाता है, जो सबके काम की है मगर जिसके लिये कोई का का नहीं है। न राजनीति, न साहित्य, न शिक्षा, न चिकित्सा, न न्याय। वह इन सबके होने के लिये है। इन सबके काम के लिये है। जनता का वजूद अपने लिये नहीं रह गया है। दूसरों के वजूद को बनाये और बचाये रखने के लिए बस उसका वजूद कायम रखा गया है। इस असहाय और लाचार स्थिति में जनता को नपुंसक पक्षधरता की नहीं भागीदार भूमिका की जरूरत है। हमें उस साहित्य की जरूरत है, जो हमारे जीवन में आन्तरिक शक्ति का, उल्लास का, उत्साह का, प्रेम का, विवेक का और सह अस्तित्व के औदार्य का सृजन कर सके। हम जिन प्रवृत्तियों के उत्पीड़न के शिकार हो रहे हैं, उनकी अप्रतिष्ठा की हमारे समय को साहित्य से उम्मीद है। सुन्दर की प्रतिष्ठा से ही साहित्य की प्राणशक्ति पलुहित हो सकेगी।

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