Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से
हमारे समय में जीवन और व्यवस्था से जुड़े तमाम मुद्दों पर लोगों के बीच भारी मतभेद है। मगर अभिनय की श्रेष्ठता हर आदमी को एकमत से स्वीकार है। निर्विवाद रूप में हर क्षेत्र में अगर कोई उल्लेखनीय उपलब्धि है, तो वह अभिनय की प्रतिष्ठा है।
अभिनय निश्चित तौर पर प्रशंसनीय कला है। अभिनय की कला से हम इतने प्रभावित हुये हैं कि हमने उसे अपना समूचा जीवन ही समर्पित कर दिया है। अभिनय हमारे दिल-दिमाग में प्रवेश कर गया है। घुसकर उसने अपनी जगह बना ली है। जगह क्या बना ली है, समझिये कि पूरी जगह ही हथिया ली है। हमारे समय में अभिनय हमारा आचरण बन गया है।
अभिनय का आचरण बन जाना कैसा है, हमें नहीं मालूम। जैसा भी हो क्या फर्क पड़ता है। है तो, है। अभिनय आदमी का स्वभाव नहीं है। स्वभाव की अनुकृति है। अपने स्वभाव से बाहर निकल कर दूसरे के स्वभाव का अनुसरण, अभिनय होता है। जो अपना नहीं है, दूसरे का है, उसे अपना बना लेना अभिनय है। जो असली नहीं है, उसे असली की तरह, दिखा देना अभिनय है। नकली में असली का विश्वास पैदा कर देना अभिनय है। हमारे समय में अभिनय हमारा धर्म बन गया है। हमारा राष्ट्रधर्म बन गया है। क्या हमारे समय में हर आदमी अपने स्वभाव के निषेध में तल्लीन है। हर आदमी किसी दूसरे की नकल में तत्पर है। हर आदमी नकली को असली बनाने में, बनाकर हर किसी को दिखाने में निरत है। हर आदमी जो अपना नहीं है, उसे अपना बनाने के उद्योग में लगा है। कितना अद्भुत है।
अभिनय का आचरण में बदल जाना कितना अद्भुत है। शायद इसका हमें पता नहीं है। जो है, उसका हमें पता नही ंहोना कितना अद्भुत है। अपने निरन्तर नकली होते जाने की प्रक्रिया का हमें पता नहीं होना कितना अद्भुत है। अभिनय का सिनेमा के पर्दे से निकल कर जन-जन में व्याप्त हो जाना कितने विस्मय की बात है। मगर बात कुछ जन की नहीं हैं। एक-दो जन की बात होती तो कुछ बूझने की बुझाने की गुंजाइश भी रहती। यहाँ तो कूपहिं में भाँग पड़ी है। नहीं, कुँए में ही नहीं, कुँए कुएँ में हर कुएँ में भाँग पड़ी है। फाग कही नहीं है। भाँग, हर कहीं हैं। आनन्द कहीं नहीं है। उल्लास कहीं नहीं है। नशा हर कहीं है।
हमारे समय में हर नेता अभिनेता बनने को प्राण-पण से जूझ रहा है। इस कला की साधना में उसने अपना सारा समय और समूचा स्वत्व समर्पित कर दिया है। सत्ता पर कब्जा पाने के लिये कोई भी अभिनय से उसे इंकार नहीं है। किसी को अपना चेहरा याद नहीं है। किसी का अपना चेहरा नहीं है। मुखौटे हर किसी को याद हैं। हर किसी की स्मृति का भंडार मुखौटों से भरा पड़ा है। अभिनेताओं के पाँव तो राजनीति में अंगद के पाँव बन ही गये हैं। अभिनेताओं के नेता बनने की प्रक्रिया हमारे समकालीन जीवन में अभिनय की अपूर्व प्रतिष्ठा का पक्का सबूत है।
हम खुश नहीं हैं, रत्तीभर भी मगर चेहरे पर खुशी का पाउडर पोत कर घूम रहे हैं। हजार तरह के भय भरे हुये हैं भीतर। मगर निडरता का क्रीम चेहरे पर मलकर चमकाये चल रहे हैं। लोभ भरा हुआ है लबालब अंदर छलक-छलक पड़ रहा है आँखों से मगर त्याग का भाषण झाड़े जा रहे हैं। हम अन्दर बिल्कुल खाली हैं, मगर बाहर, बाहर भरा-भरा दिखने में, दिखाने में व्यस्त हैं। जो है, उसे हम पूरी ताकत लगाकर ढाँक-तोप रहे हैं। जो नहीं है, उसे सब तरह से सबको दिखा देने को बेकल हैं। हमें पता नहीं है कि हम क्या कर रहे हैं। हमारे समय की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि हम जो कुछ कर रहे हैं, उससे हम वाकिफ नहीं हैं। हम यह जानने को उत्सुक ही नहीं हो पा रहे हैं कि हमारे लिये घरों में भी ‘मेकअप’ में रहने की हमारी लाचारी हमारे लिये कितनी दुर्भाग्यपूर्ण है। हमारे घरेलू खर्च में ‘मेकअप’ का बढ़ता हुआ दबाव हमें भीतर से और बाहर से कितना कमजोर करता जा रहा है, हमें मालूम नहीं पड़ रहा है।
पहले हम नाटक देखने के लिये घर से बाहर जाया करते थे। अब हम घर में खुद ही नाटक करने लगे हैं। हम ही नाटक खेल भी रहे हैं, देख भी रहे हैं। पहले हम ‘मेकअप’ का तमाशा देखने ‘थियेटरों’ और सिनेमाघरों में जाया करते थे। अब ‘मेकअप’ का तमाशा हमारे घरों में घुस आया है। इतने तक भी गनीमत थी। इतने तक भी हमारे जीवनबोध को उतना खतरा नहीं था। हमारी परम्परा में गृहस्थ घर में रहता था। बाहर आता था, जाता था मगर रहता था घर में। वह घर में स्थित होता था। घर में स्थित होकर हर कहीं उपस्थित होता था। आज कोई भी घर में नहीं है। किसी के पास अपना घर नहीं है।
हमारे घर से, हमारा घर लापता हो गया है और हमें पता नहीं है। हमारे ही भीतर से हमारा विश्वास लापता हो गया है और हमें पता नहीं है। हमारे लाभ में से हमारा शुभ गायब हो गया है और हमें पता नहीं है। हमारे समय में जो हमारा लाभ है, वह शुभ नहीं है, न अपने लिये, न अपनों के लिये, दूसरों के लिय तो बात ही छोड़िये। ऐसा क्यों है?
उत्तर आसान नहीं है। यह भी सच है कि इस जीवन स्थिति के पीछे कोई एक-दो कारण नहीं है। अनेकों हैं। मगर हमें लगता है कि जो प्रमुख कारण है, वह हमारा अभिनय का आचरण है। हमारा समूचा आचरण ही अभिनय बन गया है। बनता जा रहा है। अब तो स्थिति यहाँ तक आ गई है कि आदमी खुद के समक्ष भी अभिनय कर रहा है। किसान खेती कर नहीं रहे हैं, खेती करने का अभिनय कर रहे हैं। मजदूर, मजदूरी नहीं कर रहे हैं, मजदूरी करने का अभिनय कर रहे हैं। अध्यापक पढ़ाने का अभिनय कर रहे हैं। छात्र पढ़ने का अभिनय कर रहे हैं। अधिकारी, अधिकारी होने का अभिनय कर रहे हैं। बुद्धिजीवी, अपने बुद्धिजीवी होने का अभिनय कर रहे हैं। अभिनय साहित्यकार भी कर रहे हैं। खण्डित और क्षुद्र कालखण्डों के जीवन स्थितियों की बोध विहीन उत्तेजनाओं के सहारे कुछ भी लिखकर साहित्यकार होने की दुर्ललित वासना साहित्य के समग्र बोध को खण्डित करने का अभिनय सीख रही है। हम कर कुछ और रहे हैं मगर करते हुय कुछ और दीख रहे हैं। हम करना कुछ और चाहते हैं मगर कर कुछ और रहे हैं। हम जो कुछ भी कर रहे हैं, बिना मन के कर रहे हैं। हम जो कुछ भी कर रहे हैं, बिना रस के कर रहे हैं। हम अपने काम में अपने को जोड़ नहीं पा रहे हैं। सचमुच हमारे समय की यह कैसी विचित्र विडम्बना है।
हमारे जीवन की जड़ सूख रही है। हम निश्चिन्त नहीं हैं। हम चिन्तित हैं जरूर। हम उद्विग्न हैं। उद्विग्नता में हम पत्ता-पत्ता सींच रहे हैं। हम पत्ता-पत्ता सींच रहे हैं। जड़ प्यासी-प्यासी है। हम सींचते जा रहे हैं। सींचने में अफनाते जा रहे हैं। हरियाली सूखती जा रही है। हमारे वृक्ष छायाहीन होते जा रहे हैं। फलहीन होते जा रहे हैं। हम अपना घर ढूंढने बाजार में हलकान हैं। हम भूल गये हैं, घर बाजार में नहीं मिल सकता। हम भूल गये हैं अभिनय, आचरण नहीं है। हमारे समय में अभिनय की प्रतिष्ठा, आचरण की अप्रतिष्ठा से अलग नहीं है।