Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से
इतिहास अपने समय में मनुष्य जाति की सामूहिक चेतना का घर है। हमारी चेतना बहुत हद तक ज्ञात और बहुत हद तक अज्ञात रूप में इतिहास में निवास करती है। इतिहास प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में हमारे चिन्तन और विचार को प्रभावित करता है। यह सच है कि इतिहास मनुष्य जाति की निर्मिति है। मगर यह भी सच है कि मनुष्य जाति के निर्माण में भी इतिहास की महत्वपूर्ण भूमिका है। मनुष्य, इतिहास को बनाता है और इतिहास मनुष्य को बनाता है। इतिहास और आदमी का पारस्परिक अन्तर्सम्बन्ध अत्यन्त संवेदनशील और नाजुक है।
ठीक घर की तरह ही इतिहास हमें सुरक्षा, सुविधा और जीवन के विकास के लिये ऊर्जा प्रदान करता है। उसके प्रति हमारा रागात्मक लगाव स्वाभाविक है। मगर इसके मायने यह कत्तई नहीं है कि घर की संरक्षा के कारण उसके प्रति हमारा राग जड़ और स्थिर होकर हमारे में जड़ता का संचार करने लगे। हम घर बनाते हैं, अपने पुरखों के घर को परिवर्धित और संबर्धित करते हैं। हमारे घर में रहने की सार्थकता, हमें प्राणवान और ऊर्जावान बनाकर हमें गतिशील करने में है।
इतिहास के साथ मानवीय चेतना का रिश्ता स्थिर रिश्ता नहीं है। वह द्वन्द्वात्मक और गतिशील रिश्ता है। इतिहास से मनुष्य जाति की सामूहिक चेतना की निर्मिति और मनुष्य जाति की सामूहिक चेतना से इतिहास की निर्मिति की प्रक्रिया हमेशा चलने वाली निरन्तर गतिशील प्रक्रिया है। जो लोग यह समझते हैं कि इतिहास केवल कुछ बीती हुई घटनाओं का लिखित या अलिखित समुच्चय भर है, वे इतिहास चेतना के मर्म को बूझने से वंचित रह जाते हैं। जो वंचित रह जाते हैं, वे ही अपने भ्रमों के दुराग्रह से इतिहास की सजीवता को नष्ट करने का अपराधी उद्योग करते हैं। इतिहास वह नहीं है, जो आज नहीं है। इतिहास वह है, जो आज भी अपने परिणामों के प्रभाव से हमारे जीवन को आन्दोलित करता है। इतिहास अपने परिणामों के प्रभाव के रूप में हमारे में मौजूद है। उस प्रभाव को अपने समय के सन्दर्भ में ग्रहण करने के विवेक को ही इतिहास चेतना कहा जाता है। इतिहास चेतना के विकास के अभाव में इतिहास की जानकारियों का कोई मतलब नहीं होता। इतिहास चेतना का विकास किये बिना इतिहास की शिक्षा का विस्तार जीवन दृष्टि को समृद्ध करने में कभी अर्थवान नहीं हो सकता।
मनुष्य जाति चाहे जितनी शक्तिशाली और तकनीक में समुन्नत हो जाय, मगर वह इतिहास के तथ्यों को बदलने में कभी समर्थ नहीं हो सकती। इतिहास की गलतियों को ठीक करने का दम्भपूर्ण उद्योग मनुष्य जाति को प्रतिगामिता की ओर ले जाने का केवल एक छलपूर्ण उद्वेलन है। इसके मूल में किसी प्रछन्न स्वार्थ के अलावा किन्हीं दूसरे सार्थक तथ्यों की तलाश सरासर धोखा है। इतिहास के अपराधों के अभियोग वर्तमान की अदालत में सुनवाई के लिये लगाने की उत्प्रेरणा एक उत्तेजक मानसिक वंचना के अलावा और अर्थ नहीं रखती। इतिहास से प्रतिशोध का प्रयत्न जीवन से विमुख होने के प्रयत्न से भिन्न नहीं है।
इतिहास हमें आगाह करता है कि कोई भी अवसर केवल एक बार ही आता है। अवसर दुबारा नहीं आते। दुहराये नहीं जाते। बीते हुये अवसरों के अनुभव आगे आने वाले अवसरोें के लिये हमें सतर्क और सनद्ध कर सकें, हमारे विवेक को जाग्रत और हमारी शक्ति को उर्जस्वित कर सकें तो इतिहास की सार्थकता प्रमाणित होती है। इतिहास में उपस्थित अवसरों के घटित परिणाम हमारे पक्ष में भी होते हैं और विपक्ष में भी। हमारी अभीप्याओं का अक्षत भी बनाये रखते हैं और प्रतिरूप भी होते हैं। हमारी आकांक्षाओं के अनुरूप भी होते हैं और क्षत-विक्षत भी बनाते हैं। इतिहास के बहुत से स्थल हमारे लिये गर्व के भी विषय हैं और बहुत से ग्लानि के भी। इतिहास के प्रति हमारा क्या व्यवहार हो, इसे तय करना हमारा सबसे अधिक उत्तरदायित्व का काम है।
जहाँ तक मैं समझता हूँ इतिहास के साथ हमें अपने रिश्ते को बेहद संयम, धैर्य, सहिष्णुता और विवेक के साथ बरतने का व्यवहार विकसित करना चाहिए। वर्तमान की तरह ही इतिहास की विद्रूपताएँ भी हमें पीड़ा पहुँचाती है, यह बिल्कुल सच है। उस पीड़ा को सहने की शक्ति अपने में हमें विकसित करने के अलावा दूसरे रास्ते और अधिक भयावह परिणाम की ओर ले जाने वाले होंगे।
हमारे इतिहास में हल्दीघाटी की लड़ाई हमारी विरासत की हारी हुई लड़ाई है। मगर तमाम जीती हुई लड़ाइयों से यह हमारे लिये अधिक कीमती, गौरवपूर्ण और गर्व की लड़ाई है। ऐसा क्यों है? एक हारा हुआ नायक हमारे जातीय गौरव का महानायक क्यों है? हमें सोचना चाहिए। राणा प्रताप हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीक चरित्र क्यों है? एक शासक के रूप में अकबर की महानताओं के सम्मुख उसकी क्षुद्रताओं को उजागर करने में राणा प्रताप कैसे समर्थ हैं? ये सब सवाल हमारी इतिहास चेतना के निर्माण के लिये बेहद जरूरी सवाल हैं।
कोई भी लड़ाई बड़ी या छोटी नहीं होती। हमेशा लड़ाई का मकसद लड़ाई की महत्ता का निर्धारण करता है। किसी भी लड़ाई में हार या जीत बड़ी चीज नहीं होती। बड़ा केवल संकल्प होता है। जो मनुष्य की गरिमा की रक्षा के लिये लड़ते हैं, इतिहास उनका को जाता है। उनका इतिहास भविष्यत की मनुष्य जाति की इतिहास चेतना के निर्माण का उत्प्रेरक बन जाता है। महाराणा की लड़ाई, शिवाजी की लड़ाई, टीपू सुल्तान की लड़ाई, लक्ष्मीबाई की लड़ाई राजनीतिक लड़ाई नहीं है। वह मनुष्य की जन्मगत स्वतंत्रता, सहज स्वाभिमान और अपनी ऐतिहासिक विरासत की सुरक्षा की लड़ाई है। मनुष्य की महत्ता को बचाये रखने के लिये लड़ी गई कोई छोटी-सी, छोटी लड़ाई भी सहज ही महत्तम बन जाती है।
इन लड़ाइयों की स्मृति का अटल प्रतिरोध हमें उच्चतर मानवीय मूल्यों की विरासत के प्रति हमारे में सम्मान का भाव जगाकर सार्थक इतिहास चेतना का विकास करता है।
कौन-सी लड़ाई, कौन-सा प्रतिरोध, कौन-अभियान आदमी को बड़ा बनाता है, यही सबसे महत्वपूर्ण बात है। जिससे उसके पास्परिक सम्बन्धों का दायरा बढ़ता है, सहिष्णुता और सहकारिता विकसित होती है, आन्तरिक सम्मान समृद्ध होता है, स्वाभिमान उन्नत होता है, मनुष्य जीवन के लिये वह सब मूल्यवान है, महत्वपूर्ण है। वही हमारी ऐतिहासिक सम्पदा है। मनुष्य जाति का जो भी आचरण और व्यवहार एक दूसरे के प्रति क्रूर, अहिष्णु और प्रतिशोधी बनाता है, मनुष्य की कीमत घटाने वाला है, आदमी को छोटा बनाने वाला है। वह सब न हमारे अपने काम का हैं, न अपनों के काम का है। न इतिहास के काम का है, न वर्तमान के काम का, न भविष्य के काम का।
जो इतिहास हमें उन्नत बनाने में सहायक नहीं है, वह इतिहास नहीं, इतिहास का उच्छृष्ट है। इतिहास में इतिहास का उच्छृष्ट भी, इतिहास के स्वरूप में समाहित पड़ा है। इतिहास के सत्व से इतिहास के उच्छृष्ट को अलगाने के लिये, इतिहास चेतना का विकास मनुष्य जाति के विकास के लिए सबसे अधिक मूल्यवान चीज है।
घर में रहते हुये घर के प्रभाव को अपने अनुकूल बनाने का उद्योग हमेशा से, हमेशा के लिये मनुष्य जाति के जीवित और जागृत होने का सहज प्रमाण है। इतिहास मनुष्य की सामूहिक चेतना का आवास है। अपने पुराने घर में हमें कहाँ नई खिड़की खोलने की जरूरत है और कौन-सी पुरानी खिड़की बन्द कर देना हमारी जरूरत के अनुकूल है, इसका विवेक हमें अपने में विकसित करना है।
मनुष्य जाति की जीवन यात्रा के लिये इतिहास उसकी स्मृति में संचित पूँजी है। इतिहास पंथ नहीं है, पाथेय है। पाथेय और पूँजी उपयोग के लिये है। इस उपयोग की प्रविधि का संधान ही इतिहास चेतना का मूल कर्तव्य है।
जो जातियाँ अपने इतिहास का उपयोग अपनी अभ्युन्नति और अपनी समृद्धि के लिये करने की शक्ति और विवेक हासिल कर लेती हैं, वे जीवित जाति कहलाती हैं। वे हमेशा जीवित और जागृत रही है। शक्तिशाली और समृद्धिशील होती है। इसके विपरीत जो जातियाँ इतिहास के उपयोग के काम आ जाती हैं, किसी तरह के अधैर्य, उत्तेजना और अविवेक के कारण इतिहास के उपयोग में खप जाती हैं, वे मिट जाती हैं।
मिटने का रास्ता इतिहास के काम का भी रास्ता नहीं है। अन्ततः मिटने के रास्ते पर जाना इतिहास में सम्मिलित होने से वंचित रह जाना होता है।
इतिहास के घर में रहकर इतिहास को समृद्ध बनाने के विवेक से वंचित रह जाना मनुष्य जाति क सबसे बड़ा दुर्भाग्य है।