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Saturday, September 21, 2024

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कबिरा खड़ा बाजार में

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Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से

कबीर बेधड़क बाजार में आने-जाने वाले आदमी हैं। बीच बाजार में खड़े होने का असम साहस कबीर में है। वे अपने काते-बुने कपड़े भी लेकर बाजार में निकलते रहे हैं। वे अपनी कविता भी लेकर बाजार में निकलते रहे हैं। वे अपनी लुकाठी लेकर भी बाजार में निकलते रहे हैं। कबीर के हाथ में वस्त्र भी था। कविता भी थी। लुकाठी भी थी। बड़ा विस्मय होता है। इस विस्मय जनक विरल आदमी को देख पाने के लिए बराबर मन मचलता रहता है। मन का क्या, मन तो जाने किस-किसके लिये, किन-किन चीजों के लिये मचलता रहता है। मगर कुछ भी कहाँ हो पाता है। लगता है, हमारे समय में हमारा और हमारे जैसों का मन सिर्फ मचलने के लिये ही रह गया है। खैर!
कबीर की कविता जीवन के अन्तर और बाह्य दोनों छोरों के सच को छूती कविता है। कबीर के वस्त्र उनके न होने के बाद भले सुलभ न रह गये हों मगर उनकी कविता आज भी हमारे लिये ओढ़ने-पहनने के काम की बनी हुई है। कविता का ओढ़ने पहने के काम का बने रहना कविता के लिये कैसा है, इसका निर्णय बड़ा मुश्किल है।
अभी थोड़े दिनों पहले मैंने एक प्रख्यात लेखिका का कबीर के बारे में एक लेख पढ़ा। उस लेख में उन्होंने कबीर के हिन्दू होने के पक्ष में अपनी कल्पनाशक्ति से कबीर की कविता से अनेकों उद्धरण देकर उनको हिन्दू सिद्ध करके ही दम लिया। उनका तर्क है कि कबीर की कविता में हिन्दू धर्म के प्रतीकों, पद्धतियों और आचार-व्यवहार की जितनी गहरी पकड़ मिलती है, उससे उनका हिन्दू होना सिद्ध होता है। मजेदार बात है कि कबीर की जाति के बारे में इतिहास में बहस करने का अवकाश है। तर्क रखने की गुंजाइश है। मैं सोच में पड़ गया हूँ कि कबीर की जाति तय कर लेने से उनकी कविता के अर्थ में, उसकी व्यंजना में, उसकी व्याप्ति में कुछ फर्क पड़ने की संभावना दिखाई देती है, क्या? अगर ऐसा है, तो ठीक। चलो पहले जाति ही तय कर लें। कविता जो जाति-धर्म की सरहदों को पार करके पैदा होती है, उसको समझने के लिये जाति-निर्धारण की आवश्यकता कितनी बेधक है।
जहाँ तक हिन्दू प्रतीकों, विश्वासों और व्यवहारों की जानकारी और कविता में प्रयोग की बात है तो इसी तर्क के आधार पर जायसी और रहीम को भी हिन्दू होना ही पड़ेगा। मेरा मन उन लेखिका से बार-बार यह पूछ लेना चाहता है कि कबीर के हिन्दू ठहरा दिये जाने से हिन्दुओं को कोई अतिरिक्त लाभ मिल सकेगा क्या? कबीर के हिन्दू न होने की दशा में हिन्दुओं को उनकी वजह से कुछ नुकसान उठाना पड़ता है क्या?
इस लेख के पढ़ने के आस-पास ही एक प्रतिष्ठित पत्रिका में एक प्रतिष्ठित मुसलमान लेखक का कबीर के बारे में एक और लेख पढ़ा। इस लेख में उन्होंने बड़े परिश्रम से यह प्रमाणित किया है कि कबीर को मुस्लिम धर्म-व्यवहार की सही जानकारी नहीं थी। उनकी कविता में इस्लाम की रीति-नीति का त्रुटिपूर्ण वर्णन अनेक जगहों पर मिलता है। उनके विचार से कबीर मुसलमान जाति के नहीं मालूम पड़ते हैं।
कितना विलक्षण विपर्यय है। कबीर को लेकर यह विपर्यय कितना बेधक है। एक हिन्दूवादी लेखिका कबीर को हिन्दू साबित करने पर तुली हैं। एक धर्मनिरपेक्ष कहा जानेवाला मुसलमान लेखक कबीर को मुसलमान न मानने पर आमादा हैं। दोनों की निष्पत्तियाँ एक ही हैं। कितना आश्चर्यजनक है, विचार के दो ध्रुवों पर स्थित विचारकों का कबीर को लेकर एक जैसा निर्णय। साहित्य के लिये दोनों की सोच कितनी निरर्थक है। पता नहीं क्यों, पता नहीं कैसे हमारे समय में कबीर से अधिक महत्व की चीज उनकी जाति हो गयी है। क्या अब कविता के बारे में भी राजनीतिक दलों की गर्हित चिन्तन धारा के समान्तर जातीय आधार पर सोशल इंजीनियरिंग के नुस्खे आजमाने का समय शुरू होने वाला है? अगर ऐसा होने वाला है तो कितने शर्म की बात है! कितनी ग्लानि की बात है!
अभी-अभी एक मुलाकात में दलित विमर्श के एक क्रान्तिकारी कवि ने बताया कि उनका पक्का विश्वास है कि कबीर की स्वाभावित मृत्यु नहीं हुई थी, बल्कि कट्टरपंथियों ने उनकी हत्या कर दी थी। उन्होंने बताया कि उनके विश्वास का आधार यह है कि कबीर की क्रान्ति चेतना को कट्टरपंथी कभी बर्दाश्त कर ही नहीं सकते। कबीर जैसी कविता लिखने वाले की हत्या अवश्यंभावी है। इस दारुण सच पर इतिहासकारों ने जान-बूझकर पर्दा डालने के लिये चामत्कारिक घटनाओं की परिकल्पना रचकर उनकी मृत्यु से संबन्धित अविश्वसनीय और चामत्कारिक किंवदन्तियों को प्रचारित कर दिया है।
यह सब पढ़कर और सुनकर मैं तबसे तहप्रभ हूँ। स्तंभित हूँ। मेरा मन कबीर के समय में अपने को और अपने समय में कबीर को देखने को विकल है।
मैं देख रहा हूँ, हमारे समय में कबीर बीच बाजार में खड़े हैं। उनके हाथ में लुकाठी है। जलती हुई लुकाठी। उनकी लुकाठी में उनकी कविता की आग जल रही है। यह आग उनके आत्मबोध के तेल से प्रज्ज्वलित है। बिना आत्मबोध के पाखण्ड को जलाने वाली कोई आग जल ही नहीं सकती। मगर हमने तो कबीर की कविता में व्याप्त उनके आत्मबोध को न जाने कबसे ठुकरा रखा है। केवल पाखण्ड विडम्बन को पकड़ रखा है। अब उनके पाखण्ड बिडम्बन को भी हम भुनाने की जुगत में लगे हैं। हिन्दू सोच रहे हैं, हिन्दुओं के पाखण्ड पर प्रहार करने वाला हिन्दू ही हो तो बेहतर है। इसलिये वे कबीर को हिन्दू सिद्ध करने पर तुले हैं। मुसलमानों को इस्लाम में व्याप्त पाखण्ड को उजागर करने वाला मुसलमान किसी हाल में कबूल नहीं है। इसलिए वे कबीर को मुसलमान न मानने के पक्ष में हैं।
इधर कबीर हैं कि हमारे लोकतंत्र के सट्टा बाजार में अपनी कविता की लुकाठी लिये खड़े हैं। कबीर उस बाजार में खड़े हैं, जहां आदमी आदमी नहीं महज एक वोट है। वोट खरीदने और बेंचने की दुकानें सजी हैं। जाति के मूल्य पर, धर्म के मूल्य पर, धर्म निरपेक्षता के मूल्य पर, पिछड़े और दलित के मूल्य पर, विकास के वायदे के मूल्य पर, वोट खरीद-फरोख्त का धन्धा बाजार में अपने रंग में है। हर दुकानदार कबीर को अपनी दुकान में घसीट लाना चाहता है। सारे दुकानदारों ने कबीर की लुकाठी पर पानी फेंक कर बुझा दिया है। सबने मिलकर उनकी लुकाठी उनसे छीनकर सड़क पर फेंक दी है। बीच सड़क पर कबीर की बुझी हुई लुकाठी पड़ी है। कबीर को अपनी दुकान में अपने उत्पाद के विज्ञापन के लिये खींच लाने को दुकानदारों में धक्का-मुक्की मची हुई है।
सभी अपनी-अपनी दुकान की तरफ खींच रहे हैं कबीर को। मगर कबीर हैं कि टस से मस नहीं हो रहे हैं। कबीर बीच बाजार में, बीच सड़क में खड़े हैं, सभी दुकानों से समान दूरी पर। कबीर अकेले रहेंगे मगर किसी दुकानदार के साथ नहीं जायेंगे। वे न हिन्दू दुकानदार के साथ होंगे न मुस्लिम दुकानदार के साथ, न किसी अन्य जाति के दुकानदार के साथ। कबीर की कविता दुकानों से बाहर रहकर दुकानदारों को धिक्कारती रहेगी। कबीर हिन्दू साबित हों, न हों कोई फर्क नहीं पड़ता। वे हिन्दू धर्म के निन्दक नहीं है। वे सिर्फ हिन्दू अन्धता के समर्थक नहीं हैं। कबीर को मुसलमान मानें न मानें वे इस्लाम के विरोधी नहीं है। वे सिर्फ इस्लामिक कठमुल्लेपन के उपासक नहीं है। जहाँ भी पाखण्ड है, अन्धापन है, छल है, दिखावा है, कबीर की कविता उसका उपहास करती रहेगी।
किसी भी समय में बाजार चाहे जितना कुत्सित रूप धारण कर ले, चाहे जितना हत्यारा रूप अख्तियार कर ले मगर उसकी स्वार्थी कट्टरता कभी भी कबीर की कविता की हत्या करने की कूबत नहीं पा सकती। कबीर की कविता हमेशा-हमेशा दुकानदारों को बीच बाजार धिक्कारती रहेगी।

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