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Saturday, September 21, 2024

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कविता की चिंता में

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Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से

कविता विलक्षण है। सारे लक्षणों को गिनाने के बावजूद कुछ और भी गिनने के लिये कविता में, कविता के लक्षण बचे रह जाते हैं। बारम्बार गढ़ी जाती हुई परिभाषाओं के बाद भी कविता फिर परिभाषा गढ़ने के लिये बची रह जाती है।
कविता केवल भाषा में नहीं है। वह भाषा में होने से पहले भी है और भाषा में होने के बाद भी है। मगर हमारी दिक्कत यह है कि हम कविता के केवल उस रूप को ही पकड़ कर बैठ जाते हैं, जो भाषा में है। यहीं हम धोखा खा जाते हैं।
हम हमेशा कविता को भाषा में पकड़ने का असफल प्रयत्न करते हैं। कविता हमेशा भाषा से बाहर निकल कर हमें मुंह चिढ़ाती निरखती रहती है।
आज कविता को लेकर कविता से किसी भी तरह का रिश्ता रखने वाले सारे लोग परेशान हैं। शिकायत है कि कविता के प्रकाशक नहीं हैं। कविता के पाठक नहीं हैं। कविता के खरीददार नहीं हैं। मगर हम इस बात से कत्तई परेशान नहीं है कि कविता हमारे में नहीं है।
कविता का हमारे में न होना हमारे जीवन में, जीवन-व्यवहार में, हमारे बर्ताव में न होना परेशानी की बात है। उसका न होना हमारे लिए परेशानी और चिन्ता का विषय होना चाहिए। मगर इस विषय पर हम कभी बात नहीं करते। कभी विचार नहीं करते। हम जब भी बात करते हैं, केवल भाषा में कविता के बारे में बात करते हैं। हम जब भी बात करते हैं, कविता की किताब के बारे में बात करते हैं। कविता की बिक्री के बारे में बात करते हैं। हम बात करते हैं और बिना किसी नतीजे पर पहुँचे फिर बात करने के अवसर का इंतजार करते हैं। हम दुखी होते हैं कि कविता यहाँ नहीं है, वहाँ नहीं है, मगर हम इस बात से तनिक भी दुखी नहीं होते कि कविता हमारे में क्यों नहीं है?
हम चाहते हैं कि कविता हमारे में हो, न हो मगर बाकी सब जगह हो। प्रकाशन, संस्थानों में हो, पुस्तकालयों में हो, पुरस्कार प्रतिष्ठानों में, सम्मान समारोहों में, अनुवाद केन्द्रों में हो, यानी कि पूरे बाजार में हो। हमारी कविता की चिन्ता पता नहीं कैसे कविता के बाजार की चिन्ता बन गई है। कविता के उसी बाजार की चिन्ता जिसे कबीर ने लुकाठी लेकर फूँक दिया था। हम कबीर के वारिस हैं जरूर, मगर पता नहीं कैसे वारिस हैं? जिस बाजार को कबीर ने आग लगा दिया था, हम उसी बाजार के मुखापेक्षी होकर, उसी के गुलाम होकर कबीर की विरासत को संभालने का दम्भ पाले हैं।
बगैर किसी आन्तरिक उद्वेलन के लिखी हुई कविता चाहे और कुछ भी कर ले मगर प्राणों में उद्वेलन पैदा नहीं कर सकती। जो कविता प्राणों में उद्वेलन नहीं पैदा कर सकती, उसका बाकी जगहों पर होना भी न होने से अलग नहीं है।
कविता मनुष्य की आन्तरिक दशा को प्रभावित करने के लिये है। कविता को न तो केवल ढाल की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है न ही केवल तलवार की तरह। कविता हथियार नहीं है। किसी भी तरह के हथियार केवल हमारे जीवन की बाह्य स्थितियों को ही प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। हथियार का प्रवेश मनुष्य की चेतना की आन्तरिक सतह में संभव नहीं होता। कविता का अनुप्रवेश जीवन की आन्तरिक चेतना में होता है। वह हमारी चेतना से संयुक्त होती है। चेतना से संयुक्त होने की योग्यता के कारण ही कविता किसी भी तरह के हथियार से बहुत अधिक शक्तिशाली है।
कविता केवल कुछ जीवन स्थितियों के विरूद्ध असहमति की आवाज नहीं है। कविता केवल सत्ता के विरोध का नाम नहीं है। यह काम तो विपक्षी दल करता है। कविता केवल व्यवस्था के विरूद्ध विद्रोह का आन्दोलन नहीं है। कविता व्यक्ति और समाज के अन्तर्सम्बन्धों के बीच अन्तर्क्रियाओं के अर्थ की तलाश है। वह समय की ऐतिहासिक विरासत के साथ होने वाली मानवीय चेतना की अभिक्रिया की अनुभव जन्य अभिव्यक्ति है।
गरीबी, अन्याय, अत्याचार इत्यादि अमानवीय वृत्तियों के प्रति मनुष्य की आन्तरिक चेतना में जुगुप्सा और भर्त्सना के भावों को जगाना कविता का काम है। कविता का काम मनुष्य की आन्तरिक चेतना में अस्तित्ववान होना है। अन्तर में विद्यमान होकर बाह्य स्थितियों को प्रेरित और प्रभावित करने का काम कविता का काम है। बगैर आन्तरिक दशाओं को प्रभावित किये केवल भाषा में, बाजार में उपस्थित हो लेना कविता नहीं कविता का व्यापार है। व्यापार की चिन्ता जीवन की चिन्ता नहीं है, बाजार की चिन्ता है। कविता बाजार की वस्तु नहीं है, वह जीवन की जरूरत है। कविता का सम्बन्ध मनुष्य और मनुष्य जाति के जीवन से है।
कविता हम क्यांे लिखते हैं? इस सवाल के सामने हमें अपने को जरूरत ईमानदारी के साथ खड़ा करना होगा। हमें बिल्कुल एकान्त में अपनी अन्तर्चेतना से जवाब सुनना होगा।
क्या हम कविता अपने को समाज में कवि के रूप में स्थापित करने के लिये रचते हैं?
क्या हम कविता अपने को सामान्य से अलग विशिष्ट रूप में प्रचारित करने के लिये लिखते हैं?
क्या हम कविता अपनी श्रेष्ठता और महत्ता को प्रमाणित करने के लिए लिखते हैं?
क्या कविता हमारे लिये सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिये साधन है?
क्या कविता लिखने के पीछे सम्मान और पुरस्कार अर्जित करने की लालसा हमारे भीतर कहीं छिपी बैठी है?
यदि ‘हाँ’ तो कविता हम मनुष्य जाति की हितचिन्ता की उत्प्रेरणा से नहीं, बाजार के लिये लिख रहे हैं। हमारी कविता बाजार की कविता है। बाजारू कविता है। इसका मूल्य और मान भी बाजार के नियमों के तहत निर्धारित होगा। जो निर्धारित होगा उसे हमें स्वीकार करना ही होगा।
यह कविता प्रतिषेध और प्रतिरोध की कविता नहीं हो सकती। यह कविता मनुष्य के जीवन में नहीं हो सकती। यह कविता मनुष्य जाति के जीवन के लिये नहीं हो सकती। वह मनुष्य जीवन को और अधिक सुन्दर और अधिक समुन्नत, और अधिक समृद्ध बनाने में सहायक नहीं हो सकती। जहाँ हम हैं, वहां कविता नहीं है। जहाँ कविता है, वहाँ हम नहीं है। फिर भीहम कविता को पकड़ने के लिये विकल हैं। बेचैन हैं।
अपने लिये सुविधा, सुख और समृद्धि की लालसा को दुलारते रखकर दुःखों के प्रति सहानुभूति का प्रदर्शन कविता नहीं है। दूसरों के दुःख को अपना दुःख समझने का बोध कविता की योग्यता है। कविता बोध से ही उपजती है और बोध को ही बोती है। कविता की उत्प्रेरणा और कविता की फलश्रुति दोनों ही बोध में ही है। दूसरों के सुख-दुख को अबाध रूप में अपने में आने देना और अपने को अबाध रूप में दूसरों में जाने देना ही कविता कर्म है। कविता कर्म शब्द कर्म नहीं, संवेदना कर्म है। यह विरल, विलक्षण और संशिलष्ट कर्म है। कवि कर्म ‘स्व’ और ‘पर’ के संश्लेषण की प्रक्रिया में निहित है। इस प्रक्रिया में अपने अस्तित्व को बगैर किसी परवाह के छोड़ देने के अलावा कविता रचने का दूसरा रास्ता नहीं है।
अपने समय में हमें सोचना है कि हमारी चिन्ता कविता के प्रति है या कविता के बाजार के प्रति? बाजार की चिन्ता कविता की चिन्ता नहीं हो सकती।

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