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Saturday, September 21, 2024

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बादल सिर्फ पानी नहीं बरसते

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Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से

बादल केवल पानी ही नहीं बरसते हैं। पानी तो वे बरसते ही हैं, पानी के साथ और भी बहुत कुछ बरसते हैं। मगर हमारा दुर्भाग्य है कि हम उस बहुत कुछ के प्रति अभिमुख ही नहीं है। हमारी मिथ्या आधुनिकता और घमण्डी बौद्धिकता हमें उससे विमुख करती है। आधुनिकता के प्रति हमारा व्यामोह इतना गहरा है, उसका आतंक इतना डरावना है कि हम उसके लिये बहुत कुछ से विमुख होने को सहज ही तैयार हो जाते हैं। हम देख रहे हैं कि बादलों से सिर्फ पानी की अपेक्षा रखने वाली मनुष्यजाति बुरी तरह से बेपानी होती जा रही है। हमारी व्यवस्था पानी के लिये पानी-पानी होती जा रही है। हम पानीदार दिखने के चक्कर में पानी की नजर से उतरते जा रहे हैं। हमारी आँखों का पानी मरता जा रहा है।
बादल जब भी उतरते हैं छा जाते हैं। हमारी आँख अपने आप आकाश की ओर उठ जाती है। बादल हमें आकाश की ओर उन्मुख करने के आलम्बन हैं। मनुष्य का आकाश की ओर उन्मुख होने का अर्थ विस्तार की ओर उन्मुख होना है। आकाश की ओर उन्मुख होते ही हम पाते हैं कि पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का जोर ढीला पड़ रहा है। हम पृथ्वी के ऊपर देखते ही पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य नक्षत्र मण्डलों से संयुक्त हो जाते हैं। हम यह भी पाते हैं कि पृथ्वी का अर्थ सूरज, चाँद, तारों, आसमान और बादलों के साथ-साथ है। इन सबमें एक आन्तरिक सम्बन्ध है, जो एक-दूसरे के अस्तित्व को अर्थ प्रदान करता है। हम जब तक अपने को केवल धरती का प्राणी समझते हैं, हमारा घनत्व बहुत बोझिल होता है। हमारा आयतन यानी हमारे अस्तित्व का आयतन बहुत कम होता है।
जब हमारा आयतन बहुत कम और घनत्व बहुत्व अधिक होता है, हम नितान्त केवल अपनी ठोस अस्मिता में केन्द्रित होते हैं। हम स्वकेन्द्रित होते हैं। हम स्वार्थी और क्रूर होते हैं। हम केवल अपने घर के बारे में सोचते हैं और हमारा पड़ोस हमसे विच्छिन्न हो जाता है। हमारे पड़ोसी हमारे लिये पराये हो जाते हैं। बेगाने हो जाते हैं। हमारे शत्रु बन जाते हैं। हर पड़ोसी में हमें शत्रु दिखाई पड़ने लगता है। उसके प्रति आशंका, अविश्वास का जन्म होने लगता है। फिर द्वेष का विष भर जाता है। पड़ोसी चाहे जो हो, हिन्दू हो, मुस्लिम हो, सिक्ख हो, इसाई हो कोई फर्क नहीं। यह तो केवल संयोग की बात है। सहधर्मी हो या विधर्मी हो, यह महत्वपूर्ण नहीं रह जाता। महत्वपूर्ण केवल यह है कि अपने पड़ोसी के प्रति हमारा लगाव नहीं होता। लगाव न होने से अलगाव की विषवेल पनपती है, जो हमें एक-दूसरे से विच्छिन्न, विक्षुब्ध और विद्वेषपूर्ण बना देती है।
वास्तव में हमारा आपसी वैमनस्य हमारे आत्मकेन्द्रित अस्तित्व की देन है। यही हमें सत्ता संघर्ष में नियोजित करता है। धर्म हमारे आपसी सौहार्द को नष्ट करने का मूल कारण नहीं है। धर्म को तो सत्ता संघर्ष के घटक मूल कारण के रूप में प्रचारित करते हैं। इतिहास साक्षी है, जब मुसलमान हमारे देश में नहीं आये थे, तब भी समूचा देश आपस में मित्र नहीं था। आज भी समूचा देश मुसलमानों को छोड़कर भी आपस में मित्र भाव का संवाहक नहीं है। हम हैं कि किसी और रोग के लिये किसी और रोग की दवा खाकर निरोग होने की आस लगाये हैं।
बादल हमें आकाश की ओर उन्मुख करके हमारे अस्तित्व के आयतन को विस्तार देते हैं, हमारे पड़ोस की धारणा को अर्थयुक्त करते हैं।, हमें पड़ोसी के प्रति प्रेमधर्म का अर्थ बताते हैं। उनके इस अवदान के प्रति मनुष्यजाति को बादलों के प्रति आभारी होना चाहिए।
बादल पानी बरसने से पहले उल्लास बरसते हैं। उमंग बरसते हैं। रोशनी बरसते हैं। रंग बरसते हैं। एक बादल ही हैं अकेले इस समूची सृष्टि में जो नींद से बाहर खुली आँख में सपने बरसते हैं, जीवन के इन्द्रधनुषी सपने। एक मात्र बादल ही वर्तमान में भविष्य के फसल की हरियाली बरसते हैं। वर्तमान में भविष्य को अंकुरित करने वाले बादल काल की अप्रतिहत सत्ता में अनोखे हैं।
बादल सबसे पहले आग उगलती हवाओं में अपने आगमन से शीतलता का अद्भुत जादू बरसते हैं। बादलों के आ जाने से अपनी आग से उत्तप्त हवा उनके संस्पर्श मात्र से शीतल हो उठती है। जिस हवा की दाहकता से बचने के लिये आदमी खिड़की-दरवाजे बन्द रखते हैं, उसी की रोमांचक छुवन को पाने के लिये सारे गवाक्ष खोल कर बाहर आने को आतुर हो उठते हैं। बादल हमारे लिये वैयक्तिक खोल को तोड़कर सामूहिक अस्तित्व में अपने को समंजित करने का आकर्षक आमंत्रण बरसते हैं।
बादल प्रीति की पुलक के गीत बरसते हैं। पुलक प्रीति से पैदा होती है और गीत पुलक से। प्रेम की पुकार कभी अनसुनी नहीं हो सकती। बादल को धरती से और धरती को बादल से सनातन प्रेम है। प्रेम में अपने को पूरा-पूरा विसर्जित कर देने का बोध मनुष्य के लिये बादल बरसते हैं। इसी बोध से धरती का कण्ठ कजली से गूँज उठता है। बादल पानी के साथ जिन्दगी के लिये उत्सव की अकंुठ उत्प्रेरणा भी बरसते हैं।
बादल पहाड़ की छाती को भी नरम बनाने का बूता बरसते हैं। पत्थर पर हरियाली उगाने का शौर्य बादलों से बरसता है। नदियों में हुलास, झरनों में हास, सरोवरों में सुभाष, झीलों में झंकार, सागरों में शंखनाद, पशु-पक्षियों में उद्गामिता यह सब भी बादल से बरसता हैं। बादलों से पानी के साथ समस्त जड़-चेतन जगत के लिये अपूर्व तोष की भी बरसात होती है।
हमारा परम दुर्भाग्य है कि बादल से जो कुछ बरसता है, उस सबसे हम विमुख हैं। हम कुछ भी ग्रहण करने को, आत्मसात करने को कत्तई तैयार नहीं है। हम इतने भूखे, भिखमंगे, कंगाल और स्वार्थी हो गये हैं कि हमारी चाहत बन गई है- बादल रुपये बरसें, सोने के सिक्के बरसें, प्रतिष्ठा बरसें, पद बरसें और निकम्मी उच्चता के नुस्खे बरसें। यह भला कैसे हो सकता है? ऐसा कैसे हो सकता है। यह सब तो बादल का स्वभाव ही नहीं है। इस सबमें बादलों की कोई रूचि ही नहीं है।
विडम्बना यह है कि बादल जो कुछ बरस रहे हैं, उसकी तरफ तो हमने आँखें बन्द कर ली है। जो नहीं बरस सकते हैं उसके लिये आँखे बिछाये हैं। बादल आदमी के टुच्चे स्वार्थ को संपोषित करने वाले सेवक नहीं हैं। वे प्रेम यज्ञ के अनुष्ठाता है। वे तो प्रीति की रीति में भिगोने हर साल आते हैं। आदमी नहीं भिंगता तो उनका क्या दोष? वे आते हैं बरसकर लौट जाते हैं। हम सूखे के सूखे रह जाते हैं।
हम तो बादल से बरसे पानी को भी जुगाकर रख सकने के अयोग्य हो गये हैं। नदियों के प्रवाह हमने बाधित कर डाले हैं। जंगल काट डाले हैं। ताल-पोखर पाट डाले हैं। हमारा विश्वास सहज रूप से प्राप्त होने वाली चीजों से उठ गया है। हम तो सारी संरक्षित और संचित सम्पदा के दोहन के विश्वासी बन गये हैं। अब हम भूगर्म जल के दोहन की राक्षसी वृत्ति के वारिस हैं। पता नहीं कब तक?
बादल जो कुछ बरसते हैं, उससे विमुख होकर मनुष्य जाति बेपानी होने को अभिशप्त है। मनुष्य जाति के हित चिंतक कवि रहीम कबसे चिल्ला रहे हैं- रहिमन पानी राखिये। मगर हम पानी की पत पहचान नहीं सके।
बादल थोड़ा-सा पानी बरसते है, हमारे शहर चुल्लू भर पानी में नाक दरेरने लगते हैं। बाँध दरकने लगते हैं। सड़कें धंसने लगती हैं। हमने जो कुछ बनाया है, बिगड़ने लगता है। हमने बनाया क्या है? शायद हमने सिर्फ कमीशन बनाया है। कमीशन बनाने में शायद कुछ बन गया है। बादल हमें सबकुछ देंगे। कमीशन नहीं देंगे। कमीशन खाकर बादल कभी नहीं बरसेंगे।

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