Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से
पद्माकर बड़े विदग्ध कवि हैं। विदग्धता उनकी वाणी में बगरी हुई, विथुरी हुई है। प्रायः घरों में कीमती और बेशकीमती चीजों के होने के स्थान होते हैं। नियत जगह पर, जो कुल जगह में बहुत कम होती है, मूल्यवान को पाया जा सकता है। मगर पद्माकर की कविता का घर ऐसा है, जहाँ हर जगह मूल्यवान ही बिखरा पड़ा है। जहां जी चाहे देख लो। जहाँ मन आये पा लो।
जब वाणी विदग्ध हो जाती है, शब्द, शब्द नहीं रह जाते। शब्द भावसत्ता के विग्रह बन जाते हैं। शब्द भावराशि के रत्नाकर बन जाते हैं। बूँद में समुद्र समाहित हो जाता है। शब्दों से अर्थ निकालने की चीज नहीं रह जाता। अर्थ बहने लगता है। शब्दों से फूटकर अर्थ अनेक धाराओं में बह उठता है। शब्दों में जीवन व्यापार के दृश्य बोलने लगते हैं। कविता में शब्द का शब्द न रह जाना ही कविता का होना होता है, क्या? जहाँ शब्द अपनी लघु सत्ता को उलाँघ कर विराट सत्ता में विलीन होने लगते हैं, उस जगह का ही नाम मनीषियों ने कविता रख रखा है। कविता वाणी की विदग्धता में व्याप्त शक्ति है।
यह विदग्धता क्या चीज है? मैं नहीं जानता। मगर बड़ी अद्भुत है, यह जानता हूँ। समूची अस्मिता को आच्छादित कर लेती है, यह जानता हूँ। विदग्धता प्राणों को आप्यायित कर देती है, यह जानता हूँ। रसतोष से अस्तित्व को परिप्लुत कर देती है, यह जानता हूँ। मगर यह सब तो उसका प्रभाव है। प्रभाव जानता हूँ मगर पहचान नहीं जानता। उसकी परिभाषा नहीं जानता। जान भी कैसे सकता हूँ? मैंने तो वैयाकरणों के कुल की गरिमा का द्वार भी नहीं देखा है।
कभी-कभी मन में आता है कि जो कुछ भी जल जाने के योग्य है, उस सबके जलकर मिट जाने के बाद, जो बचा रह जाने योग्य है, वही विदग्धता है, क्या? कभी नष्ट न होने वाली, हमेशा बची रहने योग्य जो है, वही विदग्धता है, क्या? कभी नष्ट न होने वाली, हमेशा बची रहने वाली भाषा की विरासत को ही विदग्धता कहा जाता है, क्या? जो भी हो! छोड़िये। यह सब अपने वश का नहीं है। अपने बूते का नहीं है। फिर बात का छोर तो पद्माकर से जुड़ा है। पद्माकर की एक कविता है –
‘‘फागु की भीर, अभीरिन में गहि गोविन्दै लै गई भीतर गोरी।
भाई करी मन की पद्माकर, ऊपर नाई अबीर की झोरी।
छीनि पितम्बर कम्बर तें सु विदा दई मीड़ि कपोलन रोरी।
नैन नचाय कहीं मुसुकाइ, लला फिरि आइयों खेलन होरी।।’’
इस कविता में वसन्त के ब्याज से, होली के बहाने गूढ़ प्रेम व्यापार की प्रगल्भ व्यंजना की अनुगूँज व्याप्त है। व्यापार तो बस कहने भर को है, गूँज ही गूँज रही है।
द्वैत में अद्वैत के बोध की लीलाभूमि, ब्रजभूमि में फाग की धूम मची है। ब्रज भूमि, ब्रजन की भूमि है। विचरण की भूमि है। लीलोत्सव की भूमि है। लीला का उत्सव क्या है? ठहरी हुई चेतना के स्थिर केन्द्र पर काया के क्रियाशील वृत्त का ऐश्वर्य। ब्रज में राग के ऐश्वर्य का उत्सव हो रहा है। फाग की भीर मची है। भीड़-भाड़ में धक्का-धुक्की मची है। छीना-छोरी मची है। ठेलम-ठेल मची है। सब बेखबर है। किसी को अपनी खबर नहीं है। खबर है, तो राधा को है। उन्हें अपनी खबर है। अपने प्रिय की खबर है। अपने प्रेम की खबर है। वे प्रेम की पुजारिन हैं। उनकी साधना आनन्द के लिये नहीं ही प्रेम के लिए है। उनका प्रेम आनन्द के लिये नहीं है। उनका प्रेम, प्रेम के लिये है। उनका प्रेम प्रिय के लिये है। राधा को कुछ नहीं चाहिए। चाहिए तो केवल कृष्ण चाहिये।
फाग की भीर में राधा कृष्ण को पा लेती हैं। पा लेती हैं तो गह लेती हैं। गहना, पकड़ना नहीं है। पकड़ने से बहुत अधिक गहराई है, गहने में। इसमें आन्तरिकता की संम्पृक्ति की ध्वनि अधिक प्रभावी है, बाह्य पकड़ की बहुत कम। राधा, कृष्ण को गहकर भीर के बीच से उन्हें अभीर में- एकान्त में, ले जाती हैं। प्रिय को लेकर भीड़ में हो पाना संभव ही नहीं। प्रेम हमेशा आदमी को एकान्त में ले जाता है। एकान्त में स्थित करता है। राधा, रसराज, रसिकराज गोविन्द को भीड़ से, कोलाहल से अलग एकान्त में पाती हैं तो मन को भाने वाला सब कुछ करती हैं। जो मन आया सो किया। जो-जो मन भाया सो-सो किया। फाग का प्रयोजन पूरा हो गया।
फाग का प्रयोजन क्या है? शायद सबको पता है। सबको पता हो, न हो, मगर राधिका को पूरा पता है। पूरा-पूरा पता है। उन्हें पता है कि अपनी आन्तरिकता के रंग में अपने प्रियजन को रंग देना और अपने प्रिय की आन्तरिकता के रंग में रंग जाना ही फाग है। आन्तरिकता के समस्त भावों का तरल होकर उमड़ पड़ना ही रंग है। आन्तरिकता के विविध रंग ही रंगों की बहुवर्णी विविधता हैं। आन्तरिकता की विविधता में, स्निग्धता में, तरलता में, शीतलता में, मधुमयता में डूब जाना ही फाग है। राधा डूब गई। फाग हो गया। फाग हो गया तो फिर फाग के उपादानों को संभाले रखने का क्या औचित्य? कुछ नहीं। अब क्या होगा अबीर? इसीलिये पद्माकर कहते हैं पूरी-पूरी अबीर की झोरी कृष्ण के ऊपर उलट दी राधा ने। पूरी झोली का उलट देना कितनी मार्मिक व्यंजना से कविता को कितना समृद्ध बना देता है। यहाँ अर्थ शब्दों में नहीं, शब्दों को अतिक्रान्त करके कितने व्यापक सुदूर में गूँज रहा है। अपनी समूची आन्तरिकता के साथ किसी की आन्तरिकता में डूब जाना हर समय नहीं होता। कभी होता है। कभी नहीं, केवल वसन्त में होता है। फाग वसन्त में ही होता है। वसन्त में, जब जीवन में भी वसन्त उतर आये, उग आये तो कोई बात बने। पद्माकर की कविता वसन्त के साथ जीवन वसन्त में उमग पड़े फाग की कविता है।
इतना ही नहीं है। पद्माकर की कविता की राधा में जितनी गूढ़ता है, उतनी ही प्रगल्भता भी है। प्रगल्भता और गूढ़ता का संबंध बड़ा विरल होता है। प्रगल्भ गूढ़ता की छाप स्मृति में इतनी गहरी हो जाती है कि जल्दी धूमिल नहीं पड़ती। वह अबीर की झोली नट नागर के ऊपर तो डाल ही देती है। इसके बाद कमर में बँधे उनके पीताम्बर का फेटा भी खोलकर छीन लेती है। फागोत्सव का कृष्ण का बाना भी उतार लेती है। वह कृष्ण की अस्मिता की पहचान को अपने पास रख लेती है। राधा, कृष्ण को पूरा-पूरा पा लेती है। फिर कृष्ण को विदा देती है। कैसे विदा देती है? ‘मीड़ि कपोलन रोरी।’ उनको कपोलों पर रोरी मलकर विदा देती है। विजय का कैसा अपूर्व उल्लास बरस रहा है, राधा की भंगिमा में। पद्माकर की वाणी में चित्र नहीं, चित्रावलियाँ नृत्य कर उठती है। मोहक नृत्य। अपने प्रिय को अपने में पा लेने का कैसा अपूर्व आह्लाद उमड़ रहा है। पद्माकर की विदग्ध वाणी में राधा की विदग्धता कितनी मोहक बन पड़ी है।
फिर…..? पूछिये मत। पद्माकर की कविता का समाहार तो देखिये। यहाँ समाहार सिर्फ समाहार नहीं है। समाहार में बहुत कुछ समाया हुआ है। बहुत कुछ ही नहीं, समाहार में ही कविता की सारी समन्विति समाहित है – ‘‘नैन नचाय कही मुसुकाइ, लला फिरि आइयो खेलन होरी।’’
फिर वह कहती है। कुछ कहने में और नैन नचाकर कुछ कहने में बड़ा फर्क है। जमीन आसमान का फर्क है। सिर्फ वाणी का बोलना भी मार्मिक होता है। प्रभावकारी होता है। मगर वाणी के साथ जब काया भी बोलने लगे तो बात और हो जाती है। यह सच है कि नाटक में कविता के आ जाने से नाटक का प्रभाव बढ़ जाता है। लेकिन कविता में नाट्य का समाहित हो जाना तो सोना में सुहागा है। सोने में सुगन्धि का होना किसी चमत्कार से कम नहीं होता। पद्माकर की वाणी में सुगन्धित सोने का सच अपने दुर्निवार आकर्षण में हाथ-हिलाकर बुलाता खड़ दिखाई देता है।
आँखों को नचाकर और मुसुकाकर कहना साधारण कहना नहीं है। केवल मुसुकाकर कहने में ही कथन में बहुत मारकता आ जाती है। आँखों के दबाकर कहने में ही कथन में बहुत बेधकता भर जाती है। आँखों को नचाकर कहने का तो कहना ही क्या! फिर दो-दो विलक्षण अनुभावों का वाणी के साथ मिलकर कुछ कहना तो भावों की भीड़ खड़ी कर देना है। भाव नहीं, भावों की भारी भीर एक के बाद एक, एक-दूसरे को धकेलती, धकियाती पद्माकर की कविता में भरभराकर निकल आती है। निकलती ही जाती है। शब्द तिरोहित हो जाते हैं। डूब जाते हैं। विलीन हो जाते हैं।
प्रायः महत्वपूर्ण और मूल्यवान कविता में शब्द भावों के संवाहक बनकर आते हैं। वाहक बनकर आते हैं। भावों को वहन करके शब्द अपनी सार्थकता सिद्ध करते हैं। कभी-कभी, कहीं-कहीं कविता में शब्द भावसत्ता में अपने अस्तित्व के साथ डूबकर उसके श्रृंगार बन जाते हैं। जब-जब ऐसा होता है, हो पाता है, कविता विलक्षण बन जाती है। पद्माकर की कविता विलक्षण कविता बन पड़ी है।
इस कविता में क्या कह रही है, राधा? जो कह रही है, उसमें विजय का गर्व है, क्या? मगर विजय कैसी? प्रेम कोई युद्ध थोड़े ही है, जिसमें जीत, हार है। नहीं, प्रेम खेल भी नहीं है, जिसमें जीतना, हारना लगा होता है। प्रेम में तो जीत-जीतकर भी हार जाना होता है। हार-हार कर भी जीत हासिल हो जाती है। जहाँ जीत-हार नहीं है वही प्रेम है। प्रेम, जीवन का वह धरातल है, जहाँ गणित के सारे सूत्र फेल हो जाते हैं। प्रेम के तल पर गुणा-भाग, जोड़-घटाव सब बेमतलब हो जाता है। व्यर्थ हो जाता है। वहाँ एक धन एक दो नहीं होता। वहाँ एक धन एक बराबर एक होता है। वहाँ एक हमेशा एक में समाहित होकर एक हो जाने को आकुल रहता है।
अपने प्रेमी को ‘लला‘ संबोधित करने की सूझ कवि की विलक्षण उद्भावना है। श्रृंगार में वात्सल्य का स्पर्श कितना अद्भुत है। वात्सलय के श्रृंगार से संयुक्त हो जाने से श्रृंगार की गरिमा कितनी ऊँची उठ जाती है। वात्सल्य अपने आश्रय की अबोधता का बोधक है। अपने प्रेमी में अबोधता का बोध प्रेम को कितना गौरवपूर्ण और संरक्षणप्रद बना देता है। भारतीय नारी की गरिमा का यह कैसा निदर्शन है। अपने प्रेमी की नादानता को व्यंजित करने में वाणी कितने-कितने संकेतों को उजागर करती है, कह पाना बहुत कठिन है। कहने में न आने वाले कथ्य को शब्द से संकेतित कर देना कविता की चरम सार्थकता है। अपने को पूरा-पूरा देकर अपने प्रिय की नादानी को सयाना बनाने का आग्रह पद्माकर की कविता का आग्रह है। यही लालित्य है। यही लालित्यपूर्ण जीवन है। कविता लालित्यपूर्ण जीवन के सृजन के लिये है। वात्सल्यपूर्ण प्रेम, प्रेम का सुमेरू शिखर है, जिसे भारतीय मनीषा ने अन्वेषित किया है। उपलब्ध किया है। जिसे भारतीय कविता ने जीवन में प्रतिष्ठित किया है।
होली खेलने फिर आना। फिर फिर आना। फाग फिर-फिर खेलने का ही उत्सव है। यह अचूक उत्सव है। बीत जाने के बाद भी रह जाने वाला उत्सव है। अपने चले जाने के बाद भी अपनी निशानी छोड़ जाने वाला है। अपनी गहगह निशानी। अपनी महमह निशानी। अपनी निशानी में अपने को पूरा सहेजे हुये। होली का उत्सव जड़ों का उत्सव है। और उत्सव तो डाल-डाल के उत्सव है। डाल-पात के उत्सव हैं। फूल-पात के उत्सव हैं। मगर होली नहीं। होली में जीवन डाल से, पात से सिमटकर जड़ों में समाहित हो जाता है। जब डाल-डाल में पात-पात में फैला हुआ जीवन रस सिमट कर जड़ों में समाहित हो जाता है। समाहित होकर समुल्लसित हो उठता है, तब होली होती है।
जड़ों का स्वभाव रस के स्रोत में धँसने का स्वभाव है। स्रोत से रस सोखने का स्वभाव है। रस को सोखकर अपने में रखने का स्वभाव जड़ों का स्वभाव नहीं है। जड़ें रस को बाँट देती हैं। जिसके पास रसग्रहण की जितनी क्षमता है, उसे उतना दे देती है। जड़े रस संचित नहीं करतीं। वे रस वितरित करती हैं। रस के स्रोत में धंसकर रस का वितरण करने की योग्यता को पा लेना ही जीवन की सार्थकता है। होली, जीवन में, जीवन की सार्थकता को पा लेने की उत्प्रेरणा का उत्सव है।
रस के स्रोत से रस खींचकर तनों, डालों का, शाखों का, पातों का विस्तार करना, पोषण करना, श्रृंगार करना सृसृक्षा का सम्मान है। सबको पोषण प्रदान करके सृजन चेतना का अपनी जड़ में लौट आना स्रष्टा के अनुदेश का अनुवर्तन है। यह अनुवर्तन ही जीवन की सार्थकता का मूलमंत्र है। होली जीवन के मूलमंत्र के गान का महोत्सव है।
यह महोत्सव हमारे ऋतुचक्र में सहज है। परिधि के समूचे विस्तार में घूमकर केन्द्र में लौट आने का आमंत्रण होली का आमंत्रण है। हमारे जीवन का विस्तार सभ्यता में है, मगर केन्द्र सहज में है। सभ्यता की समृद्धि में सहज का अटक जाना, जीवन का भटक जाना है। पथभ्रष्ट हो जाना है। वसन्त मनुष्य जाति की पथभ्रष्ट होती चेतना का पथप्रदर्शक है। इसीलिये वसन्तु ऋतु नहीं है, ऋतुराज है। जो हमें सहज में स्थित करने की सामर्थ्य रखता है, वही हमारा राजा है। होली हमारे जीवन को सहज की ओर उन्मुख करने का उत्सव है। सहज में प्रतिष्ठित करने का उत्सव है। होली में सारी कृत्रिमताएँ सहज ही छूट जाती है। सारे भय, सारे संकोच, सारी आशंकाये स्वयं भहराकर गिर जाती हैं। अवधारण से उपार्जित अच्छा और बुरा का भेद मिट जाता है। अस्तित्व उजागर हो उठता है। अस्तित्व की अभ्यर्थना का उत्सव होली का उत्सव है।
जहाँ कुछ सीखना नहीं होता, वहीं जीवन होता है। जहाँ कुछ छिपाना नहीं है, दुराना नहीं है, वहीं फाग होता है। फाग जीवन का उत्सव है। जब कण्ठ के सारे अवरोध मिट जाते हैं, कविता का जनम होता है। पद्माकर की कविता फाग की अचूक कविता है उनकी कविता में मनुष्य जाति के लिये फिर-फिर होली खेलने का अम्लान आमंत्रण है, –
‘‘लला फिरि आइयो खेलन होरी।’’
पद्माकर पुकार पुकार कर कह रहे है,- आना होली खेलने फिर आना। होली ख्ेालने फिर-फिर आना। होली ख्ेालने फिरि-फिरि आना। लौट-लौट आना। चाहे जहाँ भी चले जाना। चाहे जितनी भी दूर चले जाना मगर होली खेलने फिर आना। कहीं भी जाना मगर अपने में लौट आना। अपनों में लौट आना। अपने से लौट आना। अपने से अपनों को रंग देना। अपनों से अपने को रँग लेना। यह होता रहे। फिर-फिर होता रहे। बार-बार होता रहे। बराबर होता रहे। यह क्रीड़ा बराबर चलती रहे। कभी रुके नहीं। कभी चुके नहीं। यह कविता में भारतीय जाति की सनातन अभीप्सा की अभिव्यक्ति है।