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Monday, November 11, 2024

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लेखन जीवन की पुनर्रचना की प्रक्रिया

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मुक्तिबोध     

साहित्यिक कलाकार, अपनी विधायक कल्पना द्वारा, जीवन की पुनर्रचना करता है। जीवन की यह पुनर्रचना कलाकृति बनती है। कला में जीवन की जो पुनर्रचना होती है, वह सारतः उस जीवन का प्रतिनिधित्व करती है, कि जो जीवन इस जगत में वस्तुतः जिया या भोगा जाता है-लेखक द्वारा तथा अन्यों द्वारा। जिया या भोगा जानेवाला यह जो व्यापक जीवन है, वह जितना आन्तरिक है, उतना ही बाह्म । बाह्म और आन्तरिक के बीच स्पष्ट रेखा खींचना मुश्किल है, यद्यपि हमंे बौद्धिक आकलन कि सुविधा कि दृष्टि से भेद तो करना ही पड़ता है। किंतु आंतरिक और बाह्म का यह भेद प्रकार-भेद नहीं। उससे तो केवल यह सूचित होता है कि प्रकाश क्षेपक यन्त्र किस स्थान पर और किस कोण़ में रखा हुआ है।एक कोण से देखने पर जो आन्तरिक है, वह दूसरे कोण से देखने पर बाह्य प्रतीत होगा।
यह जीवन जब कल्पना द्वारा पुनर्रचित होता है, तब उस पुनर्रचित जीवन में तथा जगत क्षेत्र में जिये और भोगे जाने वाले जीवन में गुणात्मक अन्तर उत्पन्न हो जाता है। पुर्नचित जीवन जिये और भोगे जानेवाले जीवन से सारतः एक होते हुए भी स्वरूपतः भिन्न होता है। यदि पुनर्रचित जीवन वास्तविक जीवन से निःसारतः एक हो, तो वह पुनर्रचित जीवन निष्फल है। पुनर्रचित जीवन और वास्वतिक जीवन के बीच जो अलगाव होता है, जो पृथक स्थिति होती है, उस अलगाव और पृथक स्थिति के कारण ही कला में एक अमूर्तीकरण और सामान्यी करण उत्पन्न होता है। यह कैसे ? मैं अपने ख्याल को और साफ करना चाहता हूँ।
यह अमूर्तीकरण इसलिए उत्पन्न होता है कि जीवन की पुनर्रचना जिये और भोगे जानेवाले जीवन से सारत:एक होते हुए भी उससे कुछ अधिक होती है। यह बात महत्व की है कि जीवन की यह पुनर्रचना जिस वास्तविक जीवन में सारतः एक है, और जिसका वह प्रतिनिधित्व करती है, वह पुनर्रचना सचमुच जिये और भोगे जाने वाले या जिये या भोगे गये जीवन की वास्तविकताओं के साथ ही, तत्समान सारी वास्तविकताओं, तत्सदृश सब संभावनाओं का भी प्रतिनिधित्व करती है। जिया और भोगा जाने वाला जीवन विशिष्ट वस्तु है। इस विशिष्ट से (जीवन की पुनर्रचना में) सामान्य की ओर जाया जाता है। इसका फल यह होता है कि कला का प्रभाव सार्वकालिक, सार्वजनिक हो जाता है, कि न केवल एक देश की कलाकृति दूसरे देश में लोकप्रिय हो जाती है, वरन यह भी कि दूसरे देश के अतीत काल की कलाकृति एक देश के वर्तमान काल में भी लोकप्रिय हो जाती है। इस प्रकार देशकालातीत स्थिति प्राप्त कर कलाकृति शाश्वत साहित्य का अंग बन जाती है।
आइये, जीवन की पुनर्रचना की प्रक्रिया को फिर से दुहरायें (1) वास्तविक जिये और भोगे जानेवाले जीवन से जीवन की पुनर्रचना का सारतः एक होकर भी उससे अलग होना और अलग होकर भी सारतः एक होना, (2) कलाकृति जिस जीवन का बिम्बात्मक या भावात्मक प्रतिनिधित्व कर रही है, उस जीवन के सामान सारी वास्तविकताओं और तत्सदृश सब सम्भावनाओं का भी प्रतिनिधित्व करना, दूसरे शब्दों में, सामान्यीकरण होना।
विलगीकृत होकर सार-रूप हने की स्थिति ऐब्स्ट्रैक्शन है विशिष्ट से सामान्य रूप धारण करने की स्थिति जेनेरेलाइजेशन है। इस ऐब्स्टैªक्शन और जेनेरेलाइजेशन की स्थिति के फलस्वरूप कला की अपनी स्वतन्त्र सत्ता, स्वतन्त्र इयत्ता, स्वतन्त्र गति-नियम स्थापित हो जाते है। स्वभाव तथा स्वगति के नियमों में बँधे यथार्थ-बिम्ब यथार्थवादी शिल्प के अनुसार होते है। यथार्थवादी शिल्पवाली जीवन की पुनर्रचना फैटेसी द्वारा की गयी जीवन पुनर्रचना से भिन्न होती हैं। स्टीफन त्स्वाइग के उपन्यास, एक विशेष देश-काल परिस्थिति में प्राप्त वास्तविक जीवन का पुनर्रचित रूप है, किन्तु वह पुनर्रचित रूप प्रातिनिधिक हो उठा है तत्समान सारी वास्तविकताओं और सत्सदृश सारी संभावनाओं का। इसलिए, यह कहा जायेगा कि स्टीफन त्स्वाइग के उपन्यास तत्समान सारी वास्तविकताओं और तत्सदृश सारी सम्भावनाओं का सामान्यीकरण है-यानी कि स्टीफन त्स्वाइग की कल्पना द्वारा पुनर्रचित जीवन, अपने मूल वास्तविक जीवन का प्रतिनिधित्व तो करता ही है, साथ ही वह तत्समान सारी सम्भावनाओं और तत्सदृश सारी वास्तविकताओं का भी प्रतिनिधित्व करता है-भले ही वास्तविकताओं और सम्भावनाओं की हमें अपने मन में कल्पना ही क्यों न करनी पड़े।
जिया और भोगा जाने वाला जीवन एक विशिष्ट वस्तु है। जीवन की पुनरचना की प्रतिक्रिया के दौरान इस विशिष्ट को सामान्य में रूपन्तरित किया जाता है। किन्तु, यह सामान्य उपस्थित कैसे होता ? जिये और भोगे जानेवाले जीवन से पुनर्रचित जीवन की जो सारभूत एकात्मकता है, उस सारभूत एकात्मकता के आधार पर ही, और उसके कारण ही और उसके द्वारा ही, विशिष्ट में सामान्य का तेज प्रोद्भासित होता है, अन्यथा नहीं। पुर्नचित जीवन से वास्तविक जीवन का जो अलगाव है, उस अलगाव द्वारा सामान्य स्थापित नहीं होता, नहीं ही हो सकता। जो सारभूत एकात्मकता है, उससे सामान्य प्रस्तुत होता है।
विलगीकरण की क्रिया, वस्तुतः कला के आत्म-रूप स्थापन की क्रिया है। सारभूत एकात्मकता, स्थापित होने स्थापित होते रहने के बीच आप ही-आप पैदा होती रहती है। सारभूत एकात्मकता विलगीकरण की क्रिया के बिना असम्भव है। किन्तु सारभूत एकात्मकता स्थापित की जाती है, जीवन-पुनर्रचना की विधायक शक्त्पिा कल्पना-वृत्ति के सूत्र संचालन करने वाले संवेदनात्मक उद्देश्य द्वारा, कि जो उद्देश्य कलाकृति से प्रसार में शुरू से आखीर तक समाया रहता है। विलगीकरण तो कला आत्म-रूप स्थापन से उत्पन्न होता है।
वास्तविक जीवन-जगत में, जिसकी कि कलाकृति बिम्ब-रूप है, डूबते रहने से ही उस अनुभवात्मक ज्ञान दृष्टि का विकास होता रहता है कि जो अनुभवात्मक ज्ञान-दृष्टि संवेदनात्मक उद्देश्य की अंगभूत होकर उन संवेदनात्मक उद्येश्यों द्वारा होने वाले कल्पना परिचालन में सहायता करती है। ज्ञानदृष्टि तथा अनु भवात्मक जीवनज्ञान के वास्तविक चबूतरे पर खड़े होकर ही संवेदनात्मक उद्देेश्य अपनी-अपनी विविध प्रतिक्रियाएँ अथवा प्रक्रियाएँ प्रस्तुत करते है। ज्ञान की भूमि का जो प्रसार है, उस प्रसार का क्षेत्र ही संवेदनात्मक उद्देश्यों का कार्यक्षेत्र है। उस ज्ञान-क्षेत्र के प्रसार के परे और उससे अतीत संवेदनात्मक उद्देश्य है ही नहीं। संवेदनात्मक उद्देश्य अन्तःस्थित इच्छा-शक्ति की तृप्ति के और बाह्म से सामंजस्य-स्थापना की प्रवृत्ति के विविध कार्यों के एकीभूत और उदात्तीकृत रूप से युक्त रहते है। ये संवेदनात्मक उद्देश्य या तो बाह्म में काँट-छाँट उपस्थित करके अपनी तृप्ति करते हैं, अथवा उससे अपनी अनुकूलता स्थापित करते हैं। ये संवेदनात्मक उद्देश्य मानव-व्यवहार में, वाक्सरणि में तथा कला कृतियों में, तरह-तरह से स्पष्टतः अथवा प्रतीकात्मक रूप से, प्रकट होते रहते हैं।
दूसरे शब्दों मंे, संवेदनात्क उद्देश्य आभ्यंतर तथा बाह्म की काट-छाँट करते हैं,या आभ्यन्तर की, अथवा दोनों की साथ-साथ। इच्छा-तृप्ति तथा बाह्म से सामंजस्य-विधान की परस्पर-विरोधी द्विविध क्रियाओं की उदात्तीकृत एकात्मकता को धारण करने वाले ये संवेदनात्मक उद्देश्य, अपनी पूर्ति की दिशा में सक्रिय रहते हुए, मनुष्य के बाल्यकाल में ही उस जीवन-ज्ञान का विकास करते हैं, कि जिस जीवन-ज्ञान के बिना उन संवेदनात्मक उद्देश्यों की पूर्ति ही नहीं हो सकती। ये संवेदनात्मक उद्देश्य इच्छा-तृप्ति के विकास के, तथा बाह्म से सामंजस्य-स्थापन के कार्य की परस्पर-भिन्न तथा बहुधा परस्पर-विरोधी प्रक्रिया को एकात्मक उदात्तीकृत बनाते हुए, इच्छा-पूर्ति और सामंजस्य-विधान के द्विविध कार्यो का जो कौशल प्राप्त करते हैं, उस कौशल का दूसरा नाम बुद्धि है। यह बुद्धि की प्रारम्भिक अवस्था है।
जिस प्रकार समाज में कार्य-विभाजन होता है, उसी तरह बुद्धि का अपना कार्य अलग होते हुए भी वह जीवन रक्षा के उस सर्व सामान्य उद्देश्य में अपना योग देती है, कि जिस सामान्य उद्देश्य की पूर्ति में कल्पना तथा भावना का भी योग होता है। अतएव, उस जीवन रक्षा के सर्व सामान्य उद्देश्य की भूमि पर ये सभी वृत्तियाँ परस्परक-सन्निविष्ट, परस्पर-सहायक तथा परस्पर-शिक्षक और परस्परक-संस्कारक होते हुए, उस जीवन-ज्ञान का विकास करती हैं, कि जिस ज्ञान-राशि की सहायता से मनुष्य, अपने संवेदनात्मक उद्देश्यों से परिचालित होते हुए, अपने व्यक्तित्व-चरित्र को, बाह्म परिस्थिति को, तथा जीवन-रक्षा के उपादान जिस वर्ग में प्राप्त होते है उस वर्ग के हितों की ओर अग्रसर करने वाले मूल्यों को विशेष रूपाकार प्रदान करता है, या प्रदान करना चाहता है, प्रदान करने का प्रयत्न करता रहता है।
संक्षेप में, संवेदनात्मक उद्देश्यों द्वारा (अत्यन्त व्यापक अर्थ में, जीवन-रक्षा के लिए, जीवन विकास के लिए) बुद्धि का जन्म होता है। संवेदनात्मक उद्देश्य वास्तविक जगत में, जो कि व्यक्ति के लिए मुख्यतः अपना वर्ग-जगत होता है, अपनी पूर्ति के पथ का निर्माण करने के लिए जीवन-कौशल का विकास करते है।
इस जीवन-कौशल का दूसरा नाम है बुद्धि। संक्षेप में, बुद्धि का पितृत्व यदि संवेदनात्मक उद्देश्यों के पास है, तो उसका मातृत्व कार्यानुभवों के पास है। विलगीकरण (ऐब्स्ट्रैक्शन), समान्यीकरण और संश्लेषण, अर्थात सामान्यीकरणों के सामान्यीकरण, द्वारा बुद्धि अपना कार्य करती है। और बुद्धि के इस कार्य में, बुद्धि द्वारा सहायता-प्राप्त कल्पना और भावना, उसी बुद्धि से सहयोग करती हैं। इस प्रकार बुद्धि का पृथक सत्ता और पृथक पथ का विकास होते हुए भी, उसके पथ के विकास में सम्पूर्ण अन्तःवृत्तिया (भावना, कल्पना) योग देती हैं। ध्यान में रखने की बात है कि बुद्धि के कुछ विशुद्ध क्षेत्रों -जैसे, गणितशास्त्र, भौतिक-शास्त्र, ज्योर्तिविद्या आदि में भी बुद्धि की छलाँग कल्पना के सहयोग से होती है। किन्तु यह कल्पना बुद्धि द्वारा सुसंस्कृत और सुशिक्षित होकर ही वैसा कर सकती है। हाँ, शास्त्रीय क्षेत्रों में भावना की वृत्ति प्रच्छन्न होती है। संक्षेप में, जीवन-ज्ञान की उपलब्धि में तीनों वृत्तियों का सहयोग होता है, औ ये तीनों वृत्तियाँ एक-दूसरे से प्रभावित, परिष्कृत और शिक्षित होती हैं। संवेदनात्मक उद्देश्यों तथा कार्यानुभवों द्वारा उत्पन्न यह जो बुद्धि है, वह क्षेत्र-भेदानुसार अलग-अलग रूप ले लेती है।
हम इस बात को और स्पष्ट करना चाहते हैं। अपराध-व्यवसाय से जीने वाला व्यक्ति, अपने संवेदनात्मक उद्देश्यों तथा कार्यानुभवों द्वारा, बुद्धि का एक विशेष ढ़ंग से विकास करता है। ऐसे व्यक्ति भी मानव-मनोविज्ञान का अध्ययन करते हैं, मानव-व्यवहार का अध्ययन करते हैं। मानव की विश्वास वृत्ति का लाभ उठाते हुए, तथा उसकी दूसरी कमजोरियों से फायदा उठाते हुए, वे अपने कार्य मंे अग्रसर होते हैं। उनके अपने संवेदनात्मक उद्देश्यों तथा कार्यानुभवों के अनुसार, उनके पास भी जीवन-ज्ञान की एक विकसित और उन्नत व्यवस्था कायम हो जाती है। इस जीवन-ज्ञान का वे समुचित उपयोग करते हैं-यहाँ तक कि वे दंड से भी बच जाते हैं। संक्षेप में, उनके अपने संवेदनात्मक उद्देश्यों और कार्यानुभवों द्वारा, उनके पास भी जीवन-ज्ञान की एक उन्नत व्यवस्था है। यदि यह व्यवस्था अधूरी या कमजोर हुई, अथवा उसका अनुशासन ठीक-ठीक न हुआ, तो उन्हें धोखा खाना पड़ता है। दो अपराध-व्यवसाय-कर्ताओं के जीवन ज्ञान की अपनी-अपनी व्यवस्थाओं में, अपने-अपने कार्यानुभवों तथा संवेदनात्मक उद्देश्यों के अनुसार, भेद हो जाता है, यद्यपि उन दो जीवन-ज्ञान-व्यवस्थाओं में बहुत-कुछ समानता भी रहती है।
संक्षेप में, जीवन ज्ञान की प्राप्ति में तीनों वृत्तियों का सजग सहयोग होता है। संवेदनात्मक उद्देश्यों तथा कार्य-अनुभवों द्वारा हही बुद्धि का विकास होकर, यह बुद्धि कल्पना तथा भावना को शिक्षित करके, सुसंस्कृत तथा परिष्कृत करके, आगे बढ़ती हैं। इसी प्रकार सुशिक्षित कल्पना तथा सुशिक्षित भावना,विकसित तथा परिपुष्ट जीवन-ज्ञान के आधार पर, कार्य करती जाती हैं। तीनों अन्तर्वृत्तियों की क्रियाशीलता के फलस्वरूप जो जीवन-ज्ञान उत्पन्न होता है, वह स्वयं एक क्रियाशी शक्ति बन जाता हैं। यह जीवन-ज्ञान, एक विकसित तथा परिपुष्ट व्यवस्था में परिणत होकर, सारे व्यक्तित्व के कार्य की आधार-शिला बन जाता है। तीनों अन्तःवृत्तियों की सक्रियता से उत्पन्न जीवन-ज्ञान व्यवस्था के आधार पर खड़े होकर, बुद्धि भावना और कल्पना, एक-दूसरे से सहयोग करती हुई अपना-अपना कार्य करती हैं।
कल्पना का कार्य है मूर्त्त-विधान करना। अन्तर्निहित संवेदनात्मक उद्देश्यों द्वारा परिचालित होकर ही कल्पना अपना कार्य करती है। ये संवेदनात्मक उद्देश्य जिस जीवन-ज्ञान व्यवस्था के मूर्त्त स्तर पर खड़े होकर कार्य कर रहे है, उस व्यवस्था के तत्वों का यथायोग्य उपयोग करते हुए कल्पना अपना मूर्त्त विधान उपस्थित करती है। न केवल यह, संवेदनात्मक उद्देश्य स्वयं अपनी पूर्ति के लिए बुद्धि का सहारा लेते हैं, जीवन-ज्ञान-व्यवस्था का भरपूर उपयोग करते हैं, तथा बुद्धि, कल्पना और भावना, तीनों का सहयोग लेते हुए कार्य करते हैं। अतएव इस पूरी प्रक्रिया में कल्पना-शक्ति स्वयं जीवन-ज्ञान-व्यवस्था के प्रतिकूल न जाकर, वरन उसकी सहायता प्राप्त करती हुई, उससे सुसंस्कृत और परिष्कृत होती हुई, साथ ही बुद्धि की सहायता लेती हुई, उससे शिक्षित और प्रशिक्षित होती हुई, इसके अतिरिक्त, भावना के रंग में डूबकर आगे बढ़ती हुई, वह अपना मूर्त्त-विधान करती है।
संक्षेप में, कल्पना के मूर्त्त-विधान के या बिम्ब-माला के दो प्रमुख कार्य होते है (1) व्याख्यात्मक (2) प्रातिनिधिक। मूर्त्त-विधान, एक ओर,जीवन की सारभूत विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करता है, तो दूसरी ओर, वह उस जीवन की व्याख्या के रूप में प्रस्तुत होता है। व्याख्यात्मक और पा्रतिनिधिकता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों के पीछे संवेेेेेेेेदनात्मक उद्देश्य समाया रहता है। उससे विरहित होकर दोनों के अस्तित्व की सम्भावना मुश्किल है।
जीवन की पुनर्रचना कल्पना द्वारा होती है। कल्पना वह माध्यम हैं जिसके द्वारा संवेदनात्मक उद्देश्य जीवन की पुनर्रचना करते हैं। इसलिए वास्तविक जीवन से पुनर्रचित जीवन की पृथकता तथा स्वरूप-भेद तो हो ही जाता है। संक्षेप में, कल्पना पुनर्रचित जीवन का स्वरूप-स्थापना करती है, और उसे वास्तविक जीवन की कोटि से हटा देती है। किन्तु साथ ही, यह पुर्नचित जीवन वास्तविक जिये और भोगे गये जीवन से सारभूत एकता रखता है। जिये और भोेगे गये वास्तविक जीवन से सारभूत एकता रखते हुए, भी, पुनर्रचित जीवन तत्समान सारी वास्तविकताओं और तत्सदृश सारी भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है। इस प्रकार, उसमें सामान्य का आविभवि होता है। किन्तु यह सामान्यीकरण है काहे का ? जिये और भोगे गये वास्तविक जीवन के अतिरिक्त, और उसको शामिल करके, तत्समान सारी वास्तविकताओं की सारी सम्भावनाओं का-चाहे वे किसी भी देश-काल की क्यों न हों, अथवा पीछे गये या आने वाले मनुष्यों के हृदय में ही वे क्यों न कल्पित हुई हों। किन्तु सामान्य का यह धरातल तब प्राप्त होता है, जब पुनर्रचित जीवन जिये और भोगे गये जीवन से सारभूत एकता रखे। अर्थात्, कलाकार का कर्त्तव्य है कि वह अपने संवेदनात्मक उद्देश्य के अनुसार, स्वयं के विशिष्ट में डूबे, जिये और भोगे गये जीवन के वास्तविक विशिष्ट से एकात्म हो, कि जिस विशिष्ट को वह अपने संवेदनात्मक उद्देश्यों के अनुसार प्रस्तुत करना चाहता है। कलाकार जीवन की पुनर्रचना द्वारा विशिष्ट ही उपस्थित करना चाहता है। किन्तु कला के अर्न्तनियमों के बँधकर उस विशिष्ट में विशिष्ट का स्वरूप विकसित होकर, परिणत होकर, सामान्य के रूप में प्रोद्भासित होता है। किन्तु यह सामान्य विशिष्ट का ही सीमा-विरहित रूप है। अतएव कलाकार का धर्म है कि अपने विशिष्ट की गहराइयों को पहचाने और उसे प्रस्तुत करे।
जीवन की पुनर्रचना मंे, वास्तविक जिये और भोगे गये जीवन से जो सारभूत एकता स्थापित होती है, उस सारभूत एकता को हम और स्पष्ट करना चाहते हैं। हम ये बता चुके हैं कि बुद्धि, ज्ञान, भावना के परस्पर सहयोग से जीवन-ज्ञान विकसित होता है। संवेदनात्मक उद्देश्यों द्वारा परिचालित होकर ही कल्पना मूर्त्त-विधान करती है। और ये संवेदनात्मक उद्देश्य जीवन-ज्ञान-व्यवस्था की सुदृढ़ पीठिका पर उपस्थित होकर ही कार्य करते हैं। साथ ही, वे जीवन-ज्ञान -व्यवस्था की इस पीठिका द्वारा नियन्त्रित भी होते हैं।
बुद्धि-कल्पना-भावना के परस्पर सहयोग से, तथा सहयोग के कारण, और अपने परस्पर-प्रभाव के फलस्वरूप, उनमें से प्रत्येक में जो परिणति हुई है उससे, और इन तीनों वृत्तियों के कार्य-व्यवहार के तथा जीवन-ज्ञान विकास के मूल उत्स संवेदनात्मक उद्देश्यों और वास्तविक जगत में उनकी पूर्ति के प्रत्यनांें, और उस प्रयत्न के दौरान प्राप्त होने वाले अनुभव और ज्ञान में, समाहित है। दूसरे शब्दों में इच्छा-तृप्ति और बाह्य से सामंजस्य-विधान के द्विविध (कभी-कभी परस्पर-विरोधी) कार्यो की एकता के निर्वाह से जीवन-ज्ञान उत्पन्न होता है, किन्तु उस जीवन-ज्ञान की प्राप्ति संवेदनात्मक उद्देश्यों के अनुसार होती है।
संक्षेप में, जिये और भोेगे गये वास्तविक जीवन के सारभूत सूत्र, उसकी सारभूत विशेषताएँ और सारभूत बिम्ब, इच्छा-तृप्ति और बाह्य से सामंजस्य-विधान के द्विविध (तथा कभी-कभी परपस्पर-विरोधी) कार्यों की एकता के निर्वाह के प्रयत्नों के दौरान संकलित, सम्पादित और संशोधित होते हैं।
हमारे आस-पास बहुत जीवन बिखरा हुआ है, फैला हुआ है। सर्वत्र उसके दृश्य प्रसारित हैं। किन्तु उनमें से हमारे लिए वही महत्वपूर्ण है, कि जो हमारी इच्छा-तृप्ति के कार्य तथा बाह्य से सामंजस्य-विधान के कार्य पर अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव डालते हों, अथवा हमारे उद्देश्यों को अग्रसर या पश्चसर करते हों। दूसरे शब्दों में, हम उसका संकलन करते हैं, हमसे वह संकलन हो जाता है। इस संकलन से ही हमारा जीवन-क्षेत्र बनता है। किन्तु इसे जीवन क्षेत्र में अनेकों मानव सम्बन्ध मानव मूल्य, अनकों कार्य-व्यवहार, अनकों घटनाएँ जिनके सूत्र केवल हमारे जीवन क्षेत्र में ही नहीं उसके बाहर तक फैले रहते है-उनकी क्रिया पर एक हद तक ही हमारा प्रभाव होता है। यह जीवन क्षेत्र वास्तविक जीवन-जगत का अंग है। उस वर्ग-जगत का अंग है कि जो विशेष काल-परिस्थिति में विशेष रूप धारण करता है। अतएव हमें अपने जीवन-क्षेत्र के अनुभवों से, तथा व्यापक जीवन-जगत के ज्ञान से, उस ज्ञान दृष्टि का विकास करना पड़ता है, कि जिससे हमें इच्छा-तृप्ति के और बाह्य से सामंजस्य-विधान के कार्य में सहायता प्राप्त हो। फलतः हमें अपने जीवन-क्षेत्र में बाहर निकलकर जीवन-जगत में फैलना पड़ता है। और व्यापक जीवन-जगत का ज्ञान प्राप्त करके अपने जीवन -क्षेत्र में लौट आना पड़ता है। और फिर पुनः जीवन-ज्ञान की वृद्धि के साथ-साथ अपने जीवन क्षेत्र को अपने सामर्थ्य के अनुसार व्यापक से व्यापकतर करना पड़ता है।
यही नहीं बाह्य से सामंजस्य-विधान की प्रवृत्ति तथा इच्छा-तृप्ति के प्रयत्न, इन दोनों ने मनुष्य को अपने से ऊपर उठने, अपने से परे जाने की वृत्ति को इतना बलवान बना दिया है कि हम अपने तात्कालिक हितों की बलि देकर दूरतर लक्ष्य प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं, और व्यक्तिगत स्वार्थ से परे उठकर सामान्य मानवीय आदर्शो की प्राप्ति का प्रयत्न करते है। किन्तु, ये सामान्य आदर्श उस जीवन-जगत से उठे होते हैं, कि जो हमारा जीवन-जगत है, जो हमारा परिवेश है, जो हमारा वर्ग है। किन्तु सामान्य मानवीय आदर्शों को उन विशेष मानव सम्बन्धों के हितों की पूर्ति करनी पड़ती हैं कि जिन मानव सम्बन्धों के क्षेत्र में हम पैदा हुए हैं, और जिनमें और जिनके बीच में रहकर हमने अपने जीवन-ज्ञान और दृष्टि का विकास किया है। दूसरे शब्दों में, मानव-सम्बन्धों के हित प्रधान हैं और आदर्श गौण। अतएव, आदर्शों को इस प्रकार ढ़ाला और रचा जाता है कि जिससे मानव-सम्बन्ध, वस्तुतः, एक समाज के भीतर के विभिन्न वर्गों के आपसी सम्बन्ध, तथा वर्ग के भीतर परस्पर मानव-सम्बन्ध, बने रहें और उसकी फिलासिफी बनायी जाती है- अर्थात् यह समष्टि-चित्र और उसके भीतर समायी हुई दृष्टि की व्यापकता-वस्तुतः अपने तथा वर्ग के एकीभूत दृष्टिकोण से देखे जाने की स्थिति से उत्पन्न है। यह बात भूलने की नहीं है।
यह पहले ही बता चुके है कि कला जीवन की पुनर्रचना है, किन्तु कवि के संवेदनात्मक उद्देश्यों के अनुसार यह पुनर्रचना की जाती है। ये संवेदनात्मक उद्देश्य उस दृष्टि से सम्पन्न हैं, कि जो दृष्टि कवि ने अपने अनुभवात्मक ज्ञान द्वारा तथा परम्परा द्वारा प्राप्त की है। उसके संवेदनात्मक उद्देश्यों के पास जो जीवन-ज्ञान है-चाहे वह अनुभवात्मक हो अथवा परम्परायित हो-उस जीवन-ज्ञान के तत्वों का उपयोग करते हुए कल्पना अपने चित्र प्रस्तुत करती है। संवेदनात्मक उद्देश्यों द्वारा संचालित होकर कल्पना जीवन की पुनर्रचना करती है, अतएव, इस पुनर्रचना के कार्य के दौरान वास्तविक जीवन व्याख्या तो आप ही आप हो जाती है। जीवन दृष्टि-सम्पन्न संवेदनात्मक उद्देश्यों के पास यदि दृष्टि-दोष है, तो वह दोष भी कल्पना-विधान में प्रस्तुत होगा। संक्षेप में, जीवन दृष्टि और संवेदनात्मक उद्देश्यों की सारी क्षमताएँ और निर्बलताएँ जीवन-ज्ञान के अधूरे-सधूरेपन, अच्छे-बुरेपन और सही गलतपन के सारे रंग संवेदनात्मक उद्देश्यों में से बहते हुए, कल्पना-विधान में फैल जायेंगे। उसी प्रकार, यह भी ध्यान में रखने की बात है कि कल्पना के महल की ईंटें वास्तविक जीवन में जिये गये तत्व ही हैं। अनुभव, जीवन दृष्टि ज्ञान व्यवस्था आदि-आदि बातों में से कल्पना अपने तत्व ग्रहण करती है, और उनकी जोड़-तोड़ करके अपने आकार बनाती है। संक्षेप में, जीवन की पुनर्रचना कवि के संवेदनात्मक उद्देश्यों के अनुसार उसकी जीवन-दृष्टि और जीवन-ज्ञान के अनुसार बनती है।

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