Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से
संस्कृत साहित्य में सुभाषितों की गरिमामय परम्परा है। मानव जीवन की अभ्युन्नति और उसके उत्कर्ष के लिये उपयोगी और मूल्यवान अनुभव-कथ्यों को जगह-जगह से चुनकर संकलित करने की परिपाटी संस्कृत में प्रचलित है। सुभाषित का मुख्य सम्प्रेष्य अर्थ जीवन के लिये कल्याणकारी होता है।
सच है कि संस्कृत काव्य में मनुष्य जीवन के लिये बहुत कुछ महत्तम उपलब्ध है। मगर यह भी सच है कि संस्कृत साहित्य के महान रचनाकारों में अनुभव की जो व्यापकता, दृष्टि की जो गहराई और अभिव्यंजना का जो कौशल है, वह उस परम्परा के परवर्ती संकलनकर्ताओं और व्याख्याताओं की पकड़ से अछूता ही रह गया है। टीका की समृद्ध परम्परा के बावजूद ‘मेघदूत- एक पुरानी कहानी’ में हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कालिदास की संवेदना का जैसा पुनर्सृजन किया है, वह टीकाकारों की पकड़ से बाहर की चीज है। रचनात्मक भाषा की विलक्षणता में जो संवेदना की व्यंजना है, वह केवल भाषा के विच्छेदन से प्राप्त होने वाली वस्तु नहीं है।
सुभाषितों के गर्भ में सुभाषित के अलावा भी बहुत कुछ है, जो सुभाषित के आवरण को तोड़कर बाहर आने के लिये न जाने कितनी छटपटाहट से भरा है, मगर हम उधर देखने को उन्मुख ही नहीं हो पाते। जीवन-सत्य कितने-कितने रूपों में कविता की आन्तरिक संरचना में ध्वनित होने को मचलता रहता है, मगर हम उसके किसी एक रूप में ही इतने अनुरक्त पड़े रहते है कि बाकी रूप अनदेखे ही रह जाते हैं।
शिक्षा के शुरुआती दौर में किसी कक्षा के पाठ्यक्रम में संकलित सुभाषित संग्रह में मैंने एक पद पढ़ा था –
यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डितः स श्रुतिवान् गुणज्ञः।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणा कांचनमाश्रयन्ति।।
पता नहीं क्यों तब भी यह श्लोक मुझे सुभाषित नहीं लगा था। आज भी नहीं लगता। तब से आज तक तमाम कोशिशों के बावजूद इस उक्ति को मैं सुभाषित की श्रेणी में स्वीकार नहीं कर सका। इस छन्द में मुझे बराबर बजती हुई कोई और ध्वनि सुनाई देती है, जो कविता के मूल कथ्य को कविता से बाहर ले जाती है। इस कविता की अर्थव्यंजना शब्दों में ही आबद्ध नहीं है। वह शब्दों से फूटकर शब्दों का अतिक्रमण कर जाती है और अर्थ शब्दों के बाहर निकल कर जीवन के विस्तार में झंकृत हो उठता है। शायद हर महत्वपूर्ण कविता शब्दों को भेदकर सुदूर संवेदना के विस्तार में अर्थवती होती है, जैसे बीज को तोड़कर वृक्ष फलित होता है।
भाषा के विच्छेदन से कविता का अर्थ पाने की प्रणाली वाणी का व्यायाम भर है। महत्वपूर्ण कविता हर समय में भाषा की खोल को तोड़कर ही प्रतिष्ठित होती है। खैर!
यह कविता भर्तृहरि की कविता है। इसमें एक प्रेमी कवि के जीवन का अनुभव है। इसमें एक राजा कवि का अनुभव है। इसमें एक विरक्त वैरागी कवि के जीवन का बोध है। भर्तृहरि कोई अदना से आदमी नहीं थे। कोई मामूली-सी बात कहने के लिये उन्होंने कविता का आश्रय नहीं लिया था। जीवन के विविध पक्षों की सूक्ष्मता और गहराई का उन्हें सम्यक बोध था। उनकी कविता उस गहन बोध की सहज अभिव्यक्ति की मिशाल है।
कविता में अर्थ-निष्पादन की कोई एक ही चिराचरित प्रणाली नहीं है। अर्थ-व्यंजना की अनगिनत प्रणालियाँ है जिनका प्रयोग कवि अपनी सूझ के अनुसार करते हैं। ऐसे में हम यदि किसी एक ही प्रधान प्रणाली को पकड़कर कविता में अर्थग्रहण का आग्रह करते हैं, तो यह कविता के प्रति अन्याय ही नहीं अत्याचार बन जाता है।
भर्तृहरि की इस कविता में अर्थ की गरिमा का आख्यान नहीं है। अर्थ के आतंक का उपहास है। इस कविता में कवि के अपने विश्वास की प्रतिष्ठा नहीं है। लोक विश्वास की अन्धता का उद्घाटन है। अतिरेक का उन्मोचन है। उसकी अतार्किकता से निर्मित असंगति के प्रति क्षोभ है। कविता की व्यंजना अर्थ की प्रशस्ति की नहीं बल्कि अर्थ के प्रति सामूहिक सोच की विपन्नता और विद्रूपता के प्रति खेद की है।
कवि लोकमान्यता के बिडम्बना मूलक सच का उद्घाटन करते हुये कहता है कि जिसके पास प्रचुर धन है, वह कुलीन है। ऊँचे कुल में जन्म लेने के कारण समाज में जो सम्मान कुलीन व्यक्ति को प्राप्त होता है, वह सम्मान धनवान व्यक्ति को धन की उपलब्धि के कारण उसी के साथ बिना प्रयास मिल जाता है। धनवान व्यक्ति को लोग पण्डित यानी विविध विषयों का जानकार भी मान लेते हैं। उसे लोग श्रुतिवान यानी सुनने योग्य बातों को सुने हुये भी मान लेते हैं। उसमें लोगों को गुणों का भंडार भी दिखाई पड़ता है। धनवान व्यक्ति की बातों को दुनिया बड़े महत्व के साथ सुनती है, इसलिये वह कुशल वक्ता मान लिया जाता है। धन की प्रतिष्ठा के कारण धनवान व्यक्ति के चर्चे सुदूर तक फैल जाते हैं। उसमें लोगों को आकर्षण पैदा हो जाता है। लोग उसे देखने को उत्सुक बने रहते हैं, इसलिये वह दर्शनीय हो जाता है। लोक में सारे गुण अर्थात् सारे सद्गुण, कांचन यानी धन का ही आश्रय ग्रहण करते हैं।
यह लोक जीवन का सच है। दुनियाँ में ऐसा दिखाई देता है। दुनिया में ऐसा ही होता है। ऐसा ही है। किसी एक समय में ही नहीं बल्कि हर समय का यह सच है। मगर यह सच, सच न होते हुये भी सच जैसा क्यों है? कविता के शब्दों में यह क्यों नहीं है मगर कविता की अर्थ-व्यंजना में सारे शब्दों में सन्निहित अर्थ का अतिक्रमण करके यह क्यों ही ध्वनित हो उठता है, प्रधान रूप में। कविता के शब्द-कथ्य में कविता के अर्थ की सिर्फ प्रस्तावना है। कविता की पूरी अर्थ ध्वनि कविता के शब्दों से बाहर है। और यह अर्थध्वनि लोक मान्यता के प्रति खेद की अर्थध्वनि है।
धनवान आदमी समाज में धनवान के रूप में सम्मानित और पूजित हो तो कोई दिक्कत की बात नहीं है। कोई विसंगति की बात नहीं है। जीवन-सत्य के सन्दर्भ में कोई व्याघात नहीं है। मगर धनवान व्यक्ति, विद्वान की तरह, वक्ता की तरह, गुणवान की तरह और दर्शनीय की तरह आदृत और पूजित हो, यह बड़ी बेधक विसंगति है। यह सामूहिक जीवन धारा के सहज प्रवाह में व्यवधान की वृत्ति है, व्याघात की स्थिति है। यह स्थिति, यह धारणा जीवन के उत्कर्ष के अनुकूल नहीं है।
धन अपनी अर्थवत्ता में जीवन में उद्भासित हो, अच्छा है। बहुत अच्छा है। शुभ है। स्वागत योग्य है। मगर धन बाकी सबको तिरस्कृत करता हुआ अभिनन्दित हो यह शुभ नहीं है। धन जीवन के लिये बहुत मूल्यवान है। धन की महिमा अपनी जगह शोभित हो, यह शुभ है। मगर धन का और सबको विस्थापित करके सबकी जगह कब्जा जमाकर पूजित होना शुभ नहीं है। धन का कुलीनता को विस्थापित कर देना, विद्वत्ता को विस्थापित कर देना, वक्तृत्ता को विस्थापित कर देना, सौन्दर्य को विस्थापित कर देना, विचार को विस्थापित कर देना आतंक के अधिनायक शासन जैसा विद्रूप है। इस विद्रुप स्थिति का अंकन करके कवि यहाँ इस स्थिति के प्रति अपनी कविता में खेद का भाव जगा रहा है। यह खेद का भाव कविता में व्यंग्य की बेधक व्यंजना का सृजन करता है।
यह सिर्फ संस्कृत सुभाषितों का एक उदाहरण भर है। ऐसे सुभाषितों की संख्या काफी है, जिनके गर्भ में सुभाषित के अलावा और बहुत कुछ मौजूद है। मैं तो संस्कृत के वाग्वैभव से बिल्कुल अनभिज्ञ और अनधिकारी हूँ। संस्कृत के मनीषी विद्वान यदि इधर ध्यान दें तो सुभाषितों के गर्भ में जो व्यंग्य के बीज मौजूद हैं, उनकी हरियाली का वैभव हमें प्रफल्लता प्रदान कर सकता है। तब हमारे हिन्दी व्यंग्य की पृष्टभूमि के लिये एक समृद्ध रिक्थ हमें सहज सुलभ हो जायेगा।
किसी एक का बाकी सबकी जगह हथिया कर सब पर कब्जा कर लेना किसी भी समाज के लिये बेहद विद्रूप है। इस विद्रूप का उद्घाटन व्यंग्य का सबसे प्रधान विषय है।