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Saturday, September 21, 2024

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संविधान पर संकट

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Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से

संकट में भला कौन नहीं है? प्रायः सब ही हैं। केवल कुछ बहुत-से थोड़े समरथ लोगों को छोड़कर। समरथ लोग हमेशा भाग्यशाली होते हैं। इसलिए कि उन्हें दोष नहीं लगता। उन पर दोष प्रमाणित नहीं होता। कभी-कभार हो भी जाय तो क्या? उसे वे ठेंगे पर रख लेते हैं- समरथ के नहिं दोष गुसाईं। रवि पावक सुरसरि की नाईं।
संविधान के बारे में कुछ भी कहने में बड़ा डर लगता है। इसलिये डर लगता है कि वह ठहरा एकदम असाधारण और मैं निपट साधारण। असाधारण के बारे में साधारण का कुछ भी कहना निरापद नहीं हो सकता।
सबसे बड़ी दिक्कत तो यह है कि संविधान की जगह हमेशा ही उसके रक्षक बोलते हैं। वह संप्रभुता संपन्न है मगर उसके संरक्षक हैं। संविधान की सारी शक्ति उसके संरक्षक मंडल के हाथ का खिलौना है। संविधान सूत्र में है और उसके सारे निहितार्थ उसके व्याख्याताओं पर आश्रित हैं।
संविधान एक है मगर व्याख्यायें अनन्त हैं। एक ही अनुच्छेद की अलग-अलग वकील बिल्कुल अलग व्याख्या करने के अधिकारी हैं। पक्ष में भी विपक्ष में भी। कभी-कभी तो एक ही वकील एक ही वाद में पक्ष में भी और विपक्ष में भी पैरवी करते पाये जाते हैं। वकील के लिये व्याख्या का आधार फीस है। बस फीस। वकील बहस में व्याख्या करते हैं। जज अपने फैसले में। संविधान अपनी जगह स्थिर रहता है।
संसद में संविधान का अर्थ सत्तारूढ़ दल के लिये कुछ और है। विरोधी दल के लिये कुछ और। क्षेत्रीय दलों के लिये कुछ और। निर्दलों के लिए कुछ और। संविधान एक है। कानून एक है। मगर उसके अर्थ और उसकी व्याख्यायें अलग-अलग लोगों के लिऐ अलग-अलग है। इतना ही नहीं देश का अर्थ भी अलग-अलग लोगों के लिये अलग-अलग है। देश प्रेम को तो जाने ही दीजिये, वह तो निहायत ही अलग किस्म का है। सचमुच कितना विचित्र है।
एक ही सत्य को भिन्न-भिन्न तरह से कहने की हमारी श्रुतियों की प्रणाली- एको हि सद् विप्रा बहुधा वदन्ति- की परम्परा तमाम मृत प्राय परम्पराओं के बीच में कितनी सजीव है। आजादी के बाद हमारे बीच संविधान की व्याख्या की मूल उत्प्रेरणा सत्ता को, शक्ति को, प्रभुत्व को और लाभ को अपने हक में करने की एक मात्र उत्प्रेरणा बनी हुई है। हमारी व्यवस्था में आज कानून अपने लाभ की भैंस को अपने घर हॉक ले जाने के लिये डंडा की तरह है। यह डंडा उन लोगों के लिए सबक सिखाने का भी डंडा है, जो भैंस की ओर देखने की जुर्रत करते हैं।
संविधान के मान को उसकी मर्यादा को सबसे अधिक संकट उनकी ओर से है जो उसके संरक्षक हैं। संविधान की मंशा के अनुपालन में जो नियुक्त हैं, उनकी आस्था संविधान के प्रति तनिक भी नहीं दिखती है।
आज भी हमारे देश का अधिकांश आमजन संविधान के बारे में कुछ भी नहीं जानता। कुछ जानना भी नहीं चाहता। वह जानने की जरूरत ही नहीं महसूस करता है। हमारा शासन तंत्र भी संविधान के बारे में नागरिकों के बीच जानकारी प्रसारित करने के प्रति पूरा उदासीन है। हमारी प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा की समूची शाखाओं में संविधान के सम्बन्ध में प्रायः किसी भी प्रकार की जानकारी का पूरा अभाव व्याप्त है। परिणाम यह है कि हमारी जनता संविधान की जगह सिर्फ झांसा के संविधान का व्यावहारिक परिचय रखती है।
कितना अजीब है कि संविधान के शासन में हम हर दिन हर काम में असंवैधानिक आचरण के लिये अभिशप्त हैं। आज भी हमारे देश में पुलिस थाना दहशत का केन्द्र बना हुआ है। किसी भी तरह की शिकायत लेकर थाना जाने में किसी भी संभ्रांत के पाँव थरथराते हैं। उत्पीड़न की शिकायत लेकर जाने वाला आदमी ही सबसे पहले थाने में उत्पीड़न का शिकार होता है। अपराध की सूचना देने जाने वाला व्यक्ति थाने में स्वयं अपराधी जैसा, कैसे बन जाता है? कोई नहीं पूछता।
हमारे समय का हर आदमी आदमी न होकर प्रश्नों की कब्रगाह क्यों बन गया है? कोई नहीं पूछता। हमारी जबान पता हीं क्यों पथरा गई है। पता नहीं क्यों पत्थर की बन गई है। किसी को पता नहीं। हजार-हजार सवाल हमारी छाती में खौलते रहते हैं मगर हमारी जबान पर एक भी नहीं आते।
हम विद्यालयों में पढ़ने के लिये जाते हैं और वहाँ नकल कराने की फीस भरकर बिना पढ़े लौट आते हैं। हमारे सारे निजी चिकित्सालय मुर्दों का इलाज करने में तत्पर हैं। आदमी मर जाता है फिर भी चिकित्सक इलाज चालू रखते हैं। परिजनों से चिकित्सा की फीस वसूलते रहते हैं।
किसी भी संवैधानिक सहूलियत को पाने के लिये किसी भी जमीन से उठा हुआ हमारा पहला कदम नितांत असंवैधानिक होने को शापित क्यों है?
जब संविधान की रचना हो रही थी, हमारे लक्ष्य स्पष्ट थे। हमारे सामने एक सुसंगठित, भयमुक्त, शोषण विहीन और समतामूलक राष्ट्र निर्माण का स्वप्न स्पष्ट था। हमारी आस्था अनाविल थी। नागरिक सम्मान और वैयक्तिक स्वतंत्रता के भावों के प्रति हमारे हृदय में सम्मान की अभीप्सा भरी थी। हमारे संविधान की मूल भावना उच्चतर मानवीय समाज निर्माण के प्रति प्रतिबद्ध थी। हमारे हृदय में संविधान की गरिमा के प्रति पवित्र श्रद्धा की भावना भरी थी।
आज समय के बदलते संदर्भ अलग हैं। आज हमारी राजनीति का मूल संकल्प सत्ता को हथियाने का संकल्प बन गया है। आज संविधान का उपयोग हम अपने-अपने व्यक्तिगत स्वार्थों और उद्देश्यों की पूर्तिके लिए तलवार और ढाल की तरह करने के विश्वासी बन गये हैं। बनते जा रहे हैं। हमारा रवैया उसकी गरिमा के प्रति श्रद्धा का नहीं, बल्कि खिलवाड़ी बनता जा रहा है। हम कानून को अपने पक्ष में इस्तेमाल करने के अभ्यासी बन गये हैं। लोकतंत्र की गरिमा के प्रति हमारे हृदय में आस्था के भाव विलुप्त होते जा रहे हैं। हमारी सामूहिक उत्थान और मंगलेच्छा के संकल्प धूल में मिलते जा रहे हैं।
स्वतंत्रता, समता और बन्धुत्व की भावना के प्रति हमारे भीतर आस्था की जड़ें उकठ रही हैं। उखाड़-पछाड़ की आँधी में हमें छाँह देने वाले पेड़ों की जड़ें उलस रही हैं।
हम अपनी जड़ों से बेखबर हैं। हमारा ध्यान अपनी जड़ों को सींचने के प्रति नहीं है। हम पत्ता-पत्ता सींच रहे हैं। हम डाली-डाली सींच रहे हैं। जड़ सूखती जा रही है। पत्ते मलिन होते जा रहे हैं। डालिययां कमजोर होती जा रही हैं।
जिसकी सुरक्षा में हम तैनात हैं उसके प्रति हमारा कोई ममत्व नहीं है। हमारा समय न जाने कैसे जाने-अनजाने अपने उत्तरदायित्वों से विमुख होता समय होता रहा है।
अपने दायित्वों से विमुख होने का संकट हमारे संविधान का सबसे बड़ा संकट है।
संविधान के संकट को हम अपना संकट कब समझ सकेंगे? जब तक समझने को तैयार नहीं हो पाते हैं। संविधान पर संकट बना रहेगा।

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