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Saturday, September 21, 2024

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हँसब ठठाइ फुलाइब गालू

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Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से

ठठ्ठा मारकर हँसना भी और गाल भी फुलाये रखना। यह साथ-साथ संभव नहीं है। यह एक साथ संभव नहीं है। यह एक असंभावना है। तुलसी की कविता अपने समय में इस एक असंभावना को पूरी शक्ति के साथ संभव बनाने की जद्दोजहद में लथपथ है।
हमारा समय असंभावना को साधने की निष्फल क्रियाओं का समय है, क्या?
शायद हाँ। ‘हाँ’ कहते हुये बड़ी पीड़ा होती है। व्यथा उमड़ती है। वेदना टीसती है। अपार अवसाद घेर लेता है। फिर भी मैं कहता हूँ- ‘हाँ’।
हमारा समय बड़ा अजीब समय है। हम जो कहना चाहते हैं, कह नहीं पाते। कुछ और बोलने के लिये खड़े होते हैं मगर कुछ और ही बोलकर बैठ जाते हैं। हमारे सामने हमें सुनने के लिये जो खड़े होते हैं, हम उनके लिये नहीं बोल पाते। हम उनके लिये बोलने लग जाते हैं, जो हमें सुन नहीं रहे होते हैं। हम हर बार धिक्कार लिखने के लिये कलम उठाते हैं और हर बार धन्यवाद लिखकर रख देेते हैं। पता नहीं ऐसा क्यों है? मगर ऐसा है।
हमारे समय की सबसे बड़ी समस्य यह है कि हम समस्या के सामने खड़े नहीं हैं। हमने समस्या की जगह समस्या की प्रतिमाएं गढ़ ली हैं। समस्याओं की प्रतिमाओं के पीछे हम अपने को छुपाने के लिए खड़े हैं। समस्या के सामने खड़े न होकर अगल से, बगल से, पीछे से, बहुत दूर से समस्या के बारे में सोचना-हमारी सबसे बड़ी समस्या है। समस्या को हटाने की बजाय उसे मिटाने की बजाय उसके बारे में बात करने का शौक हमारी सबसे बड़ी समस्या है। हम समस्याओं के समाधान की जगह उनके विस्तार के आयोजक बन जाते हैं।
ऐसा इसलिये है कि हमारे उपक्रम में ही गड़बड़ी है। कीड़े जड़ में घुसे हैं। दवा हम पत्तों पर छिड़क रहे हैं।
हम सारी बातों पर बहस करते हैं मगर हम अपनी अभीप्सा के बारे में कभी कोई बात नहीं करते। हम अपनी चाह के बारे में, अपनी चाहतों के बारे में कभी कोई बात नहीं करते। बात करना ही नहीं चाहते। हमें इस बारे में बात करते डर लगता है। अपने नंगे हो जाने का डर लगता है। अपने पाखण्ड के प्रगट हो जाने का डर लगता है। अपने नंगे हो जाने की स्थिति से बचने के लिये हम दूसरी बातें करने लग जाते हैं।
अपने देश की आजादी के बाद हमने कभी अपनी अभीप्सा के बारे में गंभीरता से सोचा ही नहीं। हमने कभी भी व्यक्तिगत अभीप्सा, सामाजिक अभीप्सा, नागरिक अभीप्सा और राष्ट्रीय अभीप्सा पर कत्तई ध्यान ही नहीं दिया।
आज हम देख रहे हैं कि हम जाने-अनजाने दोगली अभीप्सा के वारिस बन चुके हैं। आज हमारी समूची अभीप्सा सिर्फ छल की अभीप्सा बन कर रह गई है।
आज हम जहाँ हैं, दरअसल वहाँ नहीं है। जो कर रहे हैं, वह असल में नहीं कर रहे हैं। जो कह रहे हैं, वास्तव में वह नहीं कर रहे हैं। हमारा समूचा राष्ट्रीय चरित्र छद्म का चरित्र बनकर, छल का चरित्र बनकर रह गया है।
बड़ा विचित्र है। हम जो कुछ कर रहे हैं, परिणाम उसका उल्टा मिल रहा है। जबसे हमारी शिक्षा में नैतिक शिक्षा का पाठ्यक्रम सम्मिलित किया गया है, समूची शिक्षा व्यवस्था ही अनैतिक बन गई है। हमारे विद्यालयों में नैतिक शिक्षा की परीक्षा सबसे अधिक अनैतिक ढंग से हो रही है। जबसे हमारे पाठ्यक्रम में राष्ट्रगौरव का पर्चा शामिल किया गया है, तबसे हमारा राष्ट्रगौरव और अधिक धूल चाट रहा है। हमारे समय में अधिसंख्य विद्यार्थी बिना कुछ भी पढ़े अधिक से अधिक अंक पाने के आकांक्षी बने हुये हैं। मनरेगा के मजदूर बिना काम किये पैसा पा लेने को आकुल हैं। हमारी लालसा की बस्ती-बस्ती बदचलन हो गई है। हमारा संकल्प आवारा होकर बदनाम गलियों के चक्कर काट रहा है।
हमारे समय का हर आदमी अमीर और धनी हो लेने की दौड़ में आँख पर पट्टी बाँधकर दौड़ रहा है।ै हमारे समाज में धनबल और बाहुबल का सम्मान सबसे ऊँचे आसन पर विराजमान है। हमारे समय की बुद्धिजीविता गरीबों के पक्ष में बोलकर-लिखकर धनी बनने के रास्ते की तलाश में लगी है। हमें चोरी से, भ्रष्टाचार से नाराजगी नहीं रह गई है। हमारी नाराजगी है तो सिर्फ इस बात से है कि चोरी और भ्रष्टाचार का अवसर हमें क्यों नहीं मिला है। हमारी समूची राजनीति केवल सत्ता पर कब्जा जमाने की राजनीति है। हमारे समय में आदमी, आदमी नहीं महज एक वोट है।
हमारे समय में हमारी अभीप्सा ईमानदार दिखते हुये बेइमानी की हर तरकीब से अपने को बेहद समृद्ध और शक्तिशाली बना लेने की अभीप्सा है। हम कोई भी निर्माण, निर्माण के लिये नहीं, अपने वर्चस्व के लिये करने के आकांक्षी हैं। हम अपनी राष्ट्रभक्ति को इस रूप में पेश करने को उत्सुक हैं कि दूसरों को राष्ट्रद्रोही ठहराया जा सके।
हम दलन के विरूद्ध चिन्तन के पक्ष में नहीं हो पाते। हम दलित-हित के बारे में अपने चिन्तन को प्रचारित करने के पक्षधर हैं। हम दलित-हित की बात दलित समूह का समर्थन पाने की लालसा से करते हैं। हम उनकी सहानुभूति और उनके सहयोग से अपनी अभ्युन्नति के लिये उनके पक्ष में बोलते हैं। हम स्त्री उत्पीड़न के विरूद्ध इसलिए आवाज उठाते हैं कि हम निरापद ढंग से स्त्री भोग के अवसर पा सकें। हमारा सारा आचरण छल का आचरण बन गया है। हमें जो बोलना है, नहीं बोल रहे हैं। जो नहीं बोलना है, बोल रहे हैं।
हमारा साहित्य, जो लिखना है नहीं लिख पा रहा है। जो नहीं लिखना है, लिख रहा है। पता नहीं क्यों? पता नहीं कैसे? हमारी भर्त्सना और हमारा अभिनन्दन एक जैसा बन गया है।
हमारे सामाजिक मूल्य सामूहिक स्वीकृति के प्रमाण होते हैं। आज हमारे समाज में बड़प्पन और सम्मान के जो मानदण्ड है, वे संविधान के विरोधी हैं। हमारे समय में हमारे समाज में राष्ट्र को कमजोर करने वाले कृत्यों का मूल्य बढ़ता जा रहा है। महत्व बढ़ता जा रहा है।
आज प्रायः अधिकांश अपने पते पर लापता लोग हमारे बीच हैं। अपनी जगह पर कोई नहीं है। जो शिक्षा के क्षेत्र में हैं, सेवा के क्षेत्र में हैं, वे ठेकेदारी कर रहे हैं। जो व्यापार में हैं, वे राजनीति कर रहे हैं। जो राजनीति में हैं, वे व्यापार कर रहे हैं।
हम प्रतिपक्ष में दिखते हुये सत्ता के सुख भोग के आकांक्षी है। हम अपने विरोध के लिये पुरस्कार पाने की लालसा के अनुचर हैं। हम गाल फुलाकर ठठ्ठा मार हँसने की असंभावना के अभ्यासी हैं। हम एक असंभव के लिये अभ्यास में लीन हैं।
नहीं, यह कभी नहीं सधेगा। यह तुलसी की कविता का सच है। तुलसी की कविता के सच को स्वीकार करके ही हमारा समय अपने से सृजित समस्या से पार जा सकता है। हमें खुद से पूछना होगा- हम हँसेगे या गाल फुलाये बैठे रहेंगे?

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