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Sunday, December 22, 2024

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ललित निबन्धः जीवन में कर आसा

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Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह

मनुष्य जीवन की गरिमा का जो श्रृंगार कबीर की कविता में दिखाई पड़ता है, बड़ा आकर्षक है। बड़ा आह्लादक है। बड़ा प्रिय है। मनुष्य के जीवन की महत्ता को और मनुष्य के महत्व को कबीर की कविता बड़ी ही विदग्ध रीति से गौरव प्रदान करती है। कविता के केन्द्र में मनुष्य की मूल्यवत्ता को स्थापित करने के लिये कबीर का उपक्रम हमेशा अविस्मीरणीय बना रहेगा।

कबीर जीवन-प्रवाह की सनातनता के सर्जक कवि हैं। वे परंपरा के मर्म के उद्गाता है। कबीर किसी कालखण्ड के खण्ड-खण्ड रूप के आराधक नहीं है। उनकी आराधना अखण्डकाल के प्रवाह के प्रति है। हमारे जीवन की परम्परा है। प्रवाह है। हमारा जीवन एक अविच्छिन्न परंपरा की अभिव्यक्ति है। एक अजस्र प्रवाह का घटक है।

परंपरा वह नहीं, जो कल थी। आज नहीं है। परंपरा अतीत नहीं है। अतीत में नहीं है। परंपरा हमेशा वर्तमान होती है। वह वर्तमान में होती है। परंपरा में, अतीत वर्तमान में समाहित है और भविष्य वर्तमान में बदल जाने को उत्सुक। हर वर्तमान अनिवार्य रूप से अतीत हो जाने वाला है। हर भविष्य एक दिन वर्तमान होने की तरफ निरंतर खिसकता आ रहा है। हमारे वर्तमान में हमारा अतीत भी मौजूद है और हमारा भविष्य भी सम्मिलित है। इसीलिये कबीर की कविता में वर्तमान, काल की अखण्ड सत्ता के समग्र अस्तित्व का वाचक है। बोधक है। तभी तो कबीर कहते हैं कि अवधू, जो कुछ भी होना है, उसके जीवन में,- जीवन के वर्तमान में ही घटित होने की आशा रखो। उम्मीद रखो। जो अभी है, वही है। जो अभी है, वही आगे भी है। जो अभी है, वही ‘अस्ति’ है। जो है, उसकी आराधना, उसमें आस्था, उसके प्रति अटूट विश्वास ही अस्तिकता है। जो नहीं है, उसमें अनुरक्ति नास्तिकता है। अस्तिकता स्वीकार है। नास्तिकता नकार है।

आस्तिकता अस्तित्व का सम्मान है। नास्तिकता अस्तित्व का तिरस्कार है। अस्तिकता प्रेम है। पूजा है। प्रमोद है। नास्तिकता सन्देह है। प्यास है। धन्धा है। जो कुछ है, उससे भर जाने का भाव धर्म है। जो कुछ नहीं है, उसके अभाव की विकलता अधर्म है। अवधू, ध्यान रखना गौर से देखना जरा, हमारे धर्म में अधर्म कैसे चतुराई से घुस आया है। घुसा पड़ा है। घुसकर धर्म को, सत्य को, आनन्द को, दबोच रखा है।

कितनी निसंगता है कबीर की कविता में। कितना विश्वास है। कितना प्रेम है। कितना प्रमोद है। मन उमग आता है। बार-बार पूछने की उत्कण्ठा होती है- कहाँ पाया आपने? कैसे पाया?
मगर मैं हजार-हजार बार चाहकर भी नहीं पूछ पाता। पूछने का कोई प्रयोजन भी नहीं है। कबीर का प्रश्नों के उत्तर देने में विश्वास नहीं है। कबीर की कविता तो उत्तरों के उत्स तक पहुँचाने की पक्षधर है। कबीर की कविता अस्तित्व के उत्स की ओर उन्मुख कविता है।

कबीर की कविता में अवधू, साधो, सन्तों ये सब सहानुभूति के सम्बोधन हैं। सम्मान के सम्बोधन हैं। आत्मीयता के-, आत्मीय लगाव के सम्बोधन हैं। जीवन को जान लेने की जिसमें थोड़ी भी ललक है, उन सबके प्रति कबीर को अपार प्यार है। उससे कबीर अपने मन की, अपने अनुभव की, अपनी उपलब्धि की बात सहज भाव से कहते हैं। कहते हैं कि वह भी उनकी संवेदना का साझीदार बन सके। संवेदना का सझीदार होना ही साथी होना होता है। कबीर की कविता साथी होने की कविता है।

Kabir कबीर जीवन के कवि हैं। वे मृत्यु के कवि नहीं हैं। जो मृत्यु के बाद की बात करता है, वह धन्धा करता है। धोखा करता है। वह अपना स्वार्थ साधता है। लाभ कमाता है। चाहे वह गुरु ही क्यों न हो। धन्धा तो धन्धा है। धोखा तो धोखा है। क्या फर्क पड़ता है, चाहे वह गुरु का हो, चाहे वेश्या का। देने का अभिनय और लेने की मंशा। देना कुछ नहीं और लेना सबकुछ। सबकुछ देने का दिखावा और कुछ भी न देने की असलियत। कुछ भी न लेने का नाटक और सबकुछ ले लेने की लिप्सा। धन्धा यही है। व्यापार यही है। चाहे व्यापार देह का हो, चाहे धर्म का, चाहे ज्ञान का। धोखा है। झूठ है। पाखण्ड है। ठगी है।

ठगी तो ठगी है। चाहे राम का नाम लेकर ठगी हो चाहे काम का। चाहे लाभ का, चाहे लोभ का। चाहे विकास का नाम लेकर हो, चाहे सुख का, चाहे स्वर्ग का। कबीर कहते हैं, अवधू, सावधान रहना। जो गुरु कहता है कि मरने के बाद स्वर्ग मिलेगा, मेरी सेवा करो। वह झूठ बोलता है। वह स्वार्थी है। वह साधना की आड़ में स्वार्थ-साधना का धन्धा करता है। लोभ जगाकर, अन्धा बनाकर अपना उल्लू सीधा करता है। आदमी को अन्धा बनाने का, उल्लू बनाने का उद्योग धर्म नहीं, धर्म का व्यापार नहीं, अपराध है। पूरा-पूरा अपराध। यह कैसी व्यवस्था है? कैसा विधान है? कैसा संविधान है? जिसमें अपराध के लिये सम्मान की व्यवस्था है। कितना विस्मय जनक है।
कबीर अपनी कविता में कहते हैं कि मृत्यु और कुछ भी नहीं है केवल जीवन का निषेध है। जीवन का निषेध,-जीवन का नकार ही बस मृत्यु है। जहाँ जीवन नहीं है, मृत्यु है। जब भी, जिस भी अवस्था में जीवन नहीं है, मृत्यु है। जीवन से अपरिचय, जीवन की विस्मृति, जीवन के बोध का अभाव ही मृत्यु है।
जहाँ जीवन है, जीवन से परिचय है, जीवन का बोध है, मृत्यु नहीं है। मृत्यु बोध नहीं है, वह अवधारणा है। झूठ है। मृत्यु के उपरान्त का स्वर्ग अवधारणा की अवधारणा है। झूठ का झूठ है।

जीते जी का स्वर्ग सच है। जीवन का स्वर्ग सच है। जीवन में, जीवन का अनुभव स्वर्ग हैं, आनन्द, बोध है। जीवन असीम है। अजस्र है। अमर है। अविनाशी है। लघुता के बोध का मिट जाना और विराटता के बोध का भर आना ही अमरता है। सीमाओं का असीम में विलीन हो जाना ही, अविनाशी हो जाना है। जीवन अविनाशी है, अमर है। जीवन को जान लेना, पा लेना ही मनुष्य जीवन की महत्तम उपलब्धि है। कबीर की कविता मनुष्य जीवन की महत्तम उपलब्धि का यशगान करने वाली कविता है।
कबीर की कविता अवास्तविक के भ्रम को और भय को निरस्त करने वाली कविता है। मृत्य अवास्तविक है। मृत्यु मात्र भय है। मृत्यु के बाद मिलने वाला स्वर्ग भ्रम है। जो गुरु मृत्यु की बात करता है। मृत्यु के बाद स्वर्ग मिलने की दिलासा देता है, वह झूठ का व्यापार करता है। वह गुरु, गुरु नहीं झूठ्ठा हैै। वह दलाल है। स्वर्ग के लोभ से ऊँची कीमत वसूलने की जुगत में लगा हुआ, दलाल। वास्तव में जीवन को जानने की प्रक्रिया में दलाल की, बिचौलिये की कोई भूमिका ही नहीं है।
कबीर का जीवन से परिचय है। वे जीवन को जानते हैं। पहचानते हैं। जीवन उनका बोध है। जीवन को जान लेना ही मृत्य का अतिक्रमण है। मृत्यु के पार होना हैं। जो जीवन में स्थित होता है वह मरता नहीं है। जो जीवन को, बगैर जाने जीता है, वह मर जाता है। जहाँ जीवन है, वहाँ मृत्यु नहीं है। जहाँ मृत्यु है वहाँ जीवन नहीं है। दोनों का साथ-साथ होना संभव नहीं है। बिल्कुल प्रकाश और अन्धकार की तरह। जहाँ प्रकाश है, अँधकार हो ही नहीं सकता। अन्धकार है। अन्धकार होगा, मगर वहाँ होगा जहाँ प्रकाश नहीं है। जीवन प्रकाश है। मृत्यु अन्धकार है। जिसके जीवन में प्रकाश है, जिसने जीवन में प्रकाश पा लिया है, वह नहीं मरेगा। उसे मरना नहीं है। मृत्यु उसके लिये नहीं है। कबीर ने जीवन को पा लिया था। प्रकाश को पा लिया था।

जब तक कबीर पीछे-पीछे चल रहे थे, प्रकाश नहीं था। लोक और वेद के पीछे चलना प्रकाश रहित रास्ते पर चलना है। अँधेरे में चलना है। कबीर भी अँधेरे में चल रहे थे। चल रहे थे दुनियाँ के साथ-साथ। इसीलिये वे दुनियाँ को भी जानते हैं, अँधेरे को भी जानते हैं और मृत्यु को भी जानते हैं। मगर कबीर को आगे से आता हुआ सद्गुरु मिल गया। सद्गुर का रास्ता दुनियां का रास्ता नहीं है। जिस रास्ते दुनियां चलती है, उस रास्ते सद्गुरु कभी नहीं मिलता। सद्गुरु का मार्ग विपरीत दिशा का मार्ग है। दुनियां मृत्यु की तरफ जा रही होती है। सद्गुरु जीवन की तरफ आ रहा होता है। इसीलिये कबीर कहते हैं कि सद्गुरु उन्हें सामने से आता हुआ मिला। एक ही दिशा में चलने वाले यात्री तो आगे-पीछे हो सकते हैं। आमने-सामने नहीं हो सकते। आमने-सामने विपरीत दिशा में जाने वाले पथिक ही हो सकते हैं। कबीर कहते हैं ‘‘आगे तें सतगुरु मिला दीपक दी हाथ।’’ जब कबीर के हाथ में दीपक मिल गया तो उस दीपक के प्रकाश में उन्होंने राह देख ली। राह पहचान ली। उन्होंने जान लिया संसार मृत्यु की तरफ जा रहा है। अंधकार की तरफ जा रहा है। झूठ की तरफ जा रहा है। उन्होंने जीवन को देख लिया प्रकाश में। जान लिया। पहचान लिया। पा लिया। उन्होंने जीवन का अर्थ पा लिया। उन्होंने अस्तित्व का मर्म जान लिया। उन्होंने अमरता का रस पा लिया। रस पी लिया। कबीर की वाणी अमिय रस से सराबोर हो गई। उनके हृइय की गगन गुफा में अजर यानी कि कभी जीर्ण न होने वाला रस झरने लगा। झरकर हमेशा ताजा रहने वाला, कभी बासी न पड़ने वाला रस भरने लगा। उनकी वाणी उसी रस में नहाकर, निखरकर निकलने वाली वाणी है। अमृत वाणी। अमृत पुरूष की अमृत वाणी।

अमृतत्व को उपलब्ध कर लेने वाला प्राण ही मृत्यु का मखौल उड़ा सकता है। बड़े साहस का काम है। कितना विचित्र है कि बड़े साहस का काम भी कबीर के लिये सहज है। हमारी परंपरा में जीवन को जानने वाले न जाने कितने लोग हैं। अमृतत्व को उपलब्ध भी अगणित महाप्राण न जाने कितने हैं। मगर कबीर अकेले हैं, जो कहते हैं – ‘‘हम न मरौं, मरिहैं संसारा।’’
कबीर कहते हैं कि हम नहीं मरेंगे। हम नहीं मरेंगे। हमें मरना नहीं है। इसलिये कि हमको हमेशा जीवित रहने वाला मिल गया है। हम हमेशा जीवित रहने वाले में मिल गये हैं। जीवन हमेशा जीवित रहने वाला है। जीवन में समाहित हो जाना ही न मरना है। व्यक्ति सत्ता का सार्वभौम सत्ता में विलीन हो जाना ही न मरना है। चेतना सार्वभौम है। सबमें है। सबकुछ में है। सर्वकाल में है। जो सबमें था, सबमें है, सबमें होगा, वही जीवन है। जीवन हमश्ेाा से है। हमेशा रहेगा। जीवन में होना हमेशा होना है। जीवन अमृत है। जीवन कभी नहीं मरता।
संसार मर जाता है। कबीर कहते हैं हम नहीं मरेंगे। संसार मर जायेगा। बड़ी अद्भुत बात है। आदमी मर जायेगा तो संसार नहीं मरेगा। संसार जिन्दा रहेगा, जीवित रहेगा। जागृत रहेगा। आदमी नहीं मरेगा तो संसार मर जायेगा। आदमी का न मरना संसार का मर जाना है, क्या?

हाँ, ऐसा ही है। संसार मनुष्यों के, प्राणियों के समुच्चय का नाम नहीं है। संसार प्राणियों के पारस्परिक सम्बन्ध का, पारस्परिक व्यवहार का वाचक है। संसार एक अवधारणा है। उधार की आँख है। वह भी अन्धी। बिना कोई मूल्य चुकाये मुफ्त में मिल गया प्रत्यय है। दूसरे के मूँड़ की उतारी गई गठरी है, जिसे दूसरे को ढोना है। भेद का बर्ताव है। अपने-पराये के भेद का, शत्रु-मित्र के भेद का, अच्छे-बुरे के भेद का, ऊँच-नीच के भेद का, स्त्री-पुरूष के भेद का, लाभ-हानि के भेद का, जय-पराजय के भेद का, कुलीन-अकुलीन के भेद का, ज्ञानी-अज्ञानी के भेद का बर्ताव संसार है। द्वैत का दृष्टिकोण ही संसार है। संसार सिर्फ एक दृष्टिकोण है।
अस्तित्व अभेद है। चेतना अभेद है। जीवन अभेद है। अस्तित्व की, चेतना की, जीवन की उपलब्धि होते ही भेद मिट जाता है। संसार मर जाता है। अभेद में स्थित होते ही भेद मर जाता है। भेद का मर जाना ही संसार का मर जाना है।
संसार मर जाता है। जीवन रह जाता है। जीवन में स्थिति रह जाती है।
कबीर जीवन की बात करते हैं। जीवन-स्थिति की बात करते हैं, जो जीवन को जानने की अभीप्सा रखता है उस अवधू से बात करते हैं। वह अवधू से अपने अवबोध की बात करते हैं।
कबीर कहते हैं कि जैसे ही दीपक जल उठा, दीपक के प्रकाश में मैंने प्रेम को पा लिया। जीवन में ही जीवन धन बैठा हुआ था। जीवनधन को पाते हीे सौभाग्य जाग उठा। सुहाग जाग उठा। सुहाग की सिन्दूरी रेखा का अरुणिम आलोक जगमगा उठा। जगममा उठा तो सारा का सारा अँधेरा मिट गया। संसार मिट गया। संसार खो गया। संसार हेरा गया। संसार कुछ नहीं था, सिर्फ अँधेरा था। अँधेरे का प्रतिभास था।

मैं प्रेमी था। प्रिय को ढूँढ रहा था। बेचैन था। अपार विरह था। अथाह पीड़ा थी। दारूण दाह था। आठों पहर का दाझणा सहा नहीं जाता था। अपना होना असहनीय हो उठा। प्रिय के बिना प्रेमी का होना, होना नहीं होता। मैं मृत्यु मांगने लगा।
मैं मृत्यु मांगने लगा, मुझे जीवन मिल गया। प्रिय मिल गया। प्रिय मिल गया तो प्रेमी गायब हो गया, प्रेमी विलीन हो गया प्रिय में। बिना प्रेमी के प्रिय कैसे होगा। प्रेमी नहीं रहा तो प्रिय भी नहीं रहा। प्रेमी और प्रिय दोनों चले गये जाने कहाँ, बस प्रेम रह गया। द्वैत समाहित हो गया अद्वैत में। द्रष्टा समाहित हो गया। देखने वाला दिखने वाले में समाहित हो गया। अब बस दृश्य है।

अब कुछ नहीं है। बस जो कुछ भी है मेरे लाल की लाली हैं। उसी की आभा है। उसी का प्रकाश है। उसी की ध्वनि है। उसी का अर्थ है। सबकुछ में वही है। सबमें वही है।
मैं अपने लाल की, अपने महत्तम की लाली देखने को, महत्ता देखने को उत्सुक था। आकुल था। मैं लाली में समाहित होकर लाल हो गया। महत्तम की महत्ता में समाहित होकर महत्ता बन गया। महत्ता में मृत्यु नहीं है, केवल जीवन है। जीवन में मृत्यु नहीं है, महत्ता है।

लघुता में मृत्यु है। संसार लघुता में है। संसार और कुछ नहीं, सिर्फ लघुता है। लघुता का अर्थ है। लघुता मिट जाने के लिये ही है। संसार मर जाने के लिये ही है। मुमुर्षु की उपासना व्यर्थ है। मुमुर्षु की आराधना अकारथ है।
हमारी आशा का केन्द्र जीवन है। हमारी अभ्यर्थना का आश्रय जीवन है। हमारे प्रकाश का श्रोत जीवन है। हमारे सुहाग की लाली जीवन है। जीवन ही सबकुछ है। अमृत है। पूर्ण है।
जीवन में जीवन की आराधना के लिये कबीर जीवन में अभीप्सा रखने वाले अवधू से कहते हैं- अवधू, जीवत में कर आसा।

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