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Saturday, July 27, 2024

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हस्तिनापुर एक्सटेंशन : रसो वै सः

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Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह
HASTINAPUR EXTENTION

कभी-कभी लगता है, हम बहुत कुछ जानते हैं। ठीक भी है। बरसों-बरस पढ़ने में बिता देने के बाद भी भला ऐसा क्यों न लगे? लगना ही चाहिए। मगर…..
मगर क्या?
मगर यह कि कभी लगता है कि हम कुछ भी नहीं जानते। हम जो जानते हैं, उसे जानने जैसा कहना बड़ा मुश्किल हो उठता है। दूसरों के लिये तो कहा जा सकता है। दूसरों को तो हम जनाते ही हैं कि हम बहुत कुछ जानते हैं। आपसे कम नहीं जानते हैं। ज्यादा ही जानते हैं। आप मानें, न मानें आपकी मर्जी। फिर भी कोई मानता कहाँ है। कोई नहीं मानता। मजबूरी में मानना पड़े भी तो कोई मानना तो नहीं ही चाहता। मगर खुद से कहना कि हम बहुत कुछ जानते हैं, नहीं हो पाता।

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बड़ी मुश्किल परेशानी है। बड़ा टेढ़ा है। बड़ी टेढ़ी खीर है। कुछ न जानने की हीनता को कैसे स्वीकार करें? नहीं, यह भी स्वाभाविक नहीं है। संभव नहीं है। कुछ जानने की महत्ता को कैसे सँभालें? नहीं, यह भी संभव नहीं है। सँभालने की शक्ति ही नहीं है। सामर्थ्य ही नहीं है। फिर….? फिर क्या रास्ता है?
हमें लगता है, कुछ जानने की उत्कण्ठा ही मनुष्य के जीवन में रस का संचार करने में समर्थ है। सक्षम है। यही हीनता की कुण्ठा से मुक्त करने में कामयाब है। यही महत्ता के दर्प से छुटकारा दिला कर मनुष्य को सहज रखने में सफल है।
कुछ जानने की उत्कण्ठा ही मनुष्य को जीवन में रस की तरफ ले जाती है। रस में ले जाती है। रस के स्रोत की ओर उन्मुख होने को उत्प्रेरित करती है।
रस क्या है? भला कौन नहीं जानता। अदना से अदना आदमी भी जानता है। जाहिल से जाहिल आदमी भी जानता है। हर कोई जानता है कि हर पदार्थ में रस है। सबका अपना स्वाद है। सबका अपना आस्वाद है। हर व्यक्ति में रस है। किसिम-किसिम का रस है।
बात में रस है,बतरस का सर। रूप में रस है, सम्मोहन का रस। दृश्य में रस है, आकर्षण का रस। ध्वनि में रस है, आमंत्रण का रस। गन्ध में रस है, मादन का रस। व्यंजन में रस है, आस्वाद का रस। साहित्य में रस है, तोष का रस। अध्यात्म से रस है, आनन्द रस। सृष्टि में सब तरफ रस ही रस है। हर जगह रस ही रस है।
सचमुच?
नहीं। शायद रस कहीं नहीं है। शायद रस किसी में नहीं है। रस अनुभव में नहीं है। रस की लालसा हर कहीं है। रस, कहीं नहीं है।
हर कोई रस के लिये लालायित है। हर किसी में रसपान की ललक है। मगर रस का कहीं पता नहीं है।
साहित्य का तो बच्चा-बच्चा रस के बारे में जानता है। रस की परिभाषा जानता है। लक्षण जानता है। कविता में उदाहरण जानता है। भेद जानता है। प्रकार जानता है। संख्या जानता है। सबकुछ जानता है, रस के बारे में। रस नहीं जानता है।
रस को जाने बगैर जीवन कितना नीरस है। मनुष्य कितना तुच्छ है। पदार्थ कितने अपदार्थ हैं। पद कितना सुन्न है। वस्तुएँ कितनी अवास्तविक हैं। सब कुछ कितना व्यर्थ है।
हमें लगता है, रस शायद जानने की चीज नहीं है। रस के सन्दर्भ में जानना बड़ा उथला मालूम पड़ता है। जो पाने लायक है, पीने लायक है, जीने लायक है, उसके लिये जानना बड़ा अपर्याप्त है।
रस क्या है? कह पाना बड़ा कठिन है। कुछ चीजें कहने में नहीं आतीं। गूँगा बना देती हैं। फिर भी…….। फिर भी कहने का सिलसिला कब थमा है। नहीं, गूँगे कण्ठ में भी बहुत देर तक वाणी विरम नहीं सकती। वाणी के प्रवाह को कण्ठ का स्तंभन कभी बाँध नहीं सका है। मूकता का अवरोध जब टूटता है, मूक वाचाल बन जाता है। मौन बहुत तरह से बोलना जानता है। सच कहें तो मौन ही वक्तृता का उत्स है। जो बिना मौन हुये बोलते रहते हैं, उनका बोलना बकवास बन जाता है। साहित्य तो मौन की ही अभिव्यंजना है। कविता गूँगे का गान है।
कविता करने वालों ने रस के बारे में कहा है। बार-बार कहा है। खूब-खूब कहा है। कहा है,- ‘‘रसो वै सः’’। रस ही वह है। जो रस है, वही वह है।
‘वह’, कौन? यह रस के बीच में वह कहाँ से आ गया? रस में वह कहाँ से आ गया?
नहीं, ऐसा नहीं है। वह कहीं से नहीं आया। वह रस में से भी नहीं आया है। वह, रस ही है। रस ही है। रस ही वह है। अभिन्न हैं दोनों। बस नाम ही दो है। अस्तित्व एक ही है।
फिर….? वही बात। वह क्या है? रस क्या है?
वह अस्तित्व का बोध है। रस अस्तित्व का बोध है। अस्तित्व असीम है। अनन्त है। अनादि है। सतत है। अव्याहत है। अव्यय है।
रस व्यक्ति नहीं है। व्यक्ति में नहीं है। वस्तु नहीं है। वस्तु में नहीं है। भाषा में नहीं है। वह सबमें है। सर्वत्र है। सर्वकाल में है। इसीलिये वह जनमता नहीं है। उसका जन्म नहीं होता। वह प्रगट होता है। वह निष्पन्न होता है।
वह है पहले से ही। निष्पन्न होता है, भाव में। भाव, चेतना का स्वभाव है। जब हम भाव में नहीं होते हैं, अभाव में होते हैं। भाव में न होना ही सीमा में होना होता है। खण्ड में होना होता है। मिटने के लिये होना होता है। बँटने के लिए होना होता है। लघुतम इयत्ता में होना होता है। मरने के लिये होना होता है। अभाव संसार का विस्तार है। झूठ का विस्तार है। दुःख का विस्तार है। भय का विस्तार है। भाव अस्तित्व का स्वभाव है। रस हमें अस्तित्व का बोध कराता है। रस अमृत है। रस मुक्ति है। वह हमें मुक्त करता है।ै लघुता से मुक्त करता है। सीमा से मुक्त करता है। खण्ड से मुक्त करता है। मृत्यु सीमा की ही होती है। असीम में मृत्यु है ही नहीं। रस हमें असीम में स्थिति देता है। रस असीम है। वह असीम है।
रस में असीम की व्याप्ति है। असीम में रस व्याप्त है। विराट का बोध हीरस का बोध है। लघु सत्ता का विराट अस्तित्व में विलय ही रस की निष्पत्ति है। अनुभोक्ता रस का आश्रय नहीं है। रस ही अनुभोक्ता का आश्रय है। रस अनुभोक्ता में विलीन नहीं होता। अनुभोक्ता ही रस में विलीन होता है। जब अनुभोक्ता नहीं रह जाता, रस रह जाता है। जब अनुभोक्ता होता है, रस नहीं होता। जहाँ अनुभोक्ता होता है, वहाँ रस नहीं होता।
रस वैयक्तिक नहीं है। वह वैयक्तिक सत्ता नहीं है। वह निर्वैयक्ति सत्ता है, जिसमें व्यक्तियों के अपार समूह समाहित हैं। व्यक्ति सत्ता का सामूहिक सत्ता में विलय ही रस का निष्पादन है। रस, वह लीला भूमि है, जहाँ सीमाओं का असीम से अभिसार होता है। रस, मिटने के मंगल उत्सव का आह्लाद है। साहित्य हमें इस आह्लाद को उपलब्ध कराने का सबसे सहज माध्यम है।
वैयक्तिक सत्ता के अतिक्रमण की उत्प्ररेणा ही साहित्य की अस्मिता है। साहित्य हमें भावदशा में स्थित करके रस का बोध देता है।ै व्यक्ति के सुख या दुःख का आख्यान साहित्य नहीं है। जो है, उसका निरूपण साहित्य नहीं है। जो नहीं है, उसका निदर्शन साहित्य नहीं है। साहित्य व्यक्ति के समूह में विलयन की व्यंजना है। साहित्य ‘जो नहीं है’, उसके ‘जो है’ उसमें समाहन का आह्वान हैै। साहित्य अस्ति में नास्ति और नास्ति में अस्ति के विलोपन और प्रगटन की संध्या का अपूर्व अस्तित्व है। साहित्य, वह संध्या का सौन्दर्य है, जिसमें दिन विलीन हो जाता है, रात प्रगट हो जाती है। जिसमें रात समाहित हो जाती है और दिन उग आता है। जहाँ व्यक्ति तिरोहित हो जाता है, समूह उद्भासित हो उठता है। समूह व्यक्ति में और व्यक्ति समूह में समाहित होते रहते हैं। साहित्य अद्भुत है। अद्भुत इस अर्थ में कि इसमें व्यक्ति समूह में समाहित होकर भी समूह के वाचक व्यक्ति के रूप में बना रह जाता है। सागर में सीपी का होना तो होता ही है, सीपी में सागर का होना भी साहित्य में है। सीपी में सागर का होना ही साहित्य का होना है। भाव का होना है। रस का होना है। सीमा में असीम का अनुप्रवेश ही साहित्य में रस का मर्म है।

रस बड़ा मार्मिक है। वह स्थूल नहीं है। वह सूक्ष्म भी नहीं है। वह व्यक्ति नहीं है। वस्तु भी नहीं है। वह दृश्य नहीं है। वह दृष्टि भी नहीं है। वह स्थूल में भी है। सूक्ष्म में भी है। व्यक्ति में भी है। वस्तु में भी है। दृश्य में भी है। दृष्टि में भी है। जहाँ भी, जब भी खण्ड, अखण्ड में समंजित होने को पाँव उठाता है, रस आविर्भूत हो उठता है। भाव अखण्ड है। असीम है। अविनाशी है। भावसत्ता हजारों साल पहले भी थी। आज भी है। हजारों साल बाद भी रहेगी। भाव, मनुष्य पर आश्रित नहीं है। वह सिर्फ मनुष्य में व्यक्त होता है। भाव के व्यक्त होने से ही मनुष्य, मनुष्यत्व को उपलब्ध होता है। सार्थक होता है। भाव कभी मनुष्य में विलीन नहीं होता। वह मनुष्य में व्यक्त होकर फिर अपनी असीम और अविनाशी सत्ता में स्थित रह जाता है। मनुष्य जब भाव में होता है, रस बोध को उपलब्ध हो जाता है।

व्यक्ति जब भी भाव में होता है, भावदशा में होते ही वह व्यक्ति इकाई नहीं रह जाता। वह अपनी क्षुद्र इकाई की सीमा को अतिक्रांत कर जाता है। लाँघ जाता है। उलाँघ जाता है। भावदशा में व्यक्ति अपने में स्थित नहीं रहता। स्थिर नहीं रहता। वह अपने से इतर से सम्पन्न होते है। अपने से इतर से सम्पन्न होना ही व्याप्ति से सम्पन्न होना होता है। जब भी आदमी प्रेम में होता है, क्रोध में होता है, भय में होता है, जुगुप्सा में होता है, सिर्फ अपने में नहीं होता। रस, अपने में व्याप्ति के प्रसार का दुर्लभ बोध है। साहित्य दुर्लभ की सुलभता का आयोजन है।

रस, सीमा और असीम की सन्धि में है, क्या? हाँ, है। जहाँ सीमा, असीम में समाहित होती है, मृत्यु, अमरता में, विलीन होती है, अभाव, भाव में मग्न होता है, अहं, अस्तित्व में सम्मिलित होता है, वहीं रस स्थित है। जहाँ अनेकताएँ अपनी एकता का अभिज्ञान पा लेती है, अवबोध पा लेती है, रस फलित हो जाता है।
साहित्य मनुष्यजाति के लिये मूल्यवान थाती है, तो इसीलिए कि वह व्यक्ति में उसके आन्तरिक व्योम को उसकी व्याप्ति में व्याप्त होने को उत्प्रेरित करता है। सीपी के भीतर जो सागर समाहित है, उसे सागर का अनुभव देने में सहायता देता है। सार्वभौम अस्तित्व में वैयक्तिक अस्तित्व को समाहित होने का आमंत्रण, साहित्य का आमंत्रण है। साहित्य मनुष्य जीवन में व्याप्त रस का आस्वादन कराकर मनुष्य को रस के स्रोत की ओर उन्मुख करने का महत उद्योग है।

साहित्य, वैयक्तिक उद्योग कत्तई नहीं है। वह व्यक्ति की उपलब्धि कदापि नहीं है। साहित्य चेतना के सार्वभौम और सार्वजनिक स्वरूप की अस्मिता के बोध को आत्मसात करने का अभिक्रम है। स्थितियों के बदल जाने से, परिस्थितियों के परिवर्तित हो जाने से, जो अपनी अर्थवत्ता से विच्युत हो जाता है, वह साहित्य नहीं, साहित्य का प्रतिमास है। मनुष्य के बदल जाने से मनुष्य की चित्तवृत्तियाँ नहीं बदल जातीं। चित्तवृत्तियाँ सनातन हैं। चित्तवृत्तियाँ सार्वजनिक हैं। सबमें होने के कारण ही चित्तवृत्ति रसबोध में सक्षम है। चित्तभूमि का रसबोध के माध्यम से प्रसार ही साहित्य का ध्येय है। साहित्य सर्वजन की सम्पत्ति है। सम्पूर्ण मनुष्यजाति की विरासत है। साहित्य का सम्मान सामूहिक अस्मिता के गौरव का सम्मान है। साहित्य, मनुष्यजाति की विराट चेतना को उपलब्ध हो लेने की उत्कट अभीप्सा का संरक्षक है। पोषक है। पालक है।

साहित्य में जो रस है, वह जीवन में व्याप्त रस से अभिन्न है। जो रस है, वही वह है। वह, यानी विराट अस्तित्व। वह विराट अस्तित्व, जिसमें सब समाहित हैं। जिसमें, सारी वैयक्तिक इकाइयाँ सन्निहित है। विराट अस्तित्व ही व्यक्ति इकाई में विभक्त है। विभक्त की अविभक्त की ओर यात्रा ही साहित्य की यात्रा है। साहित्य की यात्रा पूर्णता में पर्यवसित होने की यात्रा है। रस, पूर्णता के बोध का उद्बोधन करता है।
रस, जीवन को जानने का, अस्तित्व को जानने का, उसकी विराटता को, उसकी असीमता को जानने का आधार है। रस को उपलब्ध हुये बिना कुछ भी जानना संभव नहीं।
जीवन सारी स्थितियों को अपने में समवा लेता है। सारी विकटताएँ और उत्कटताएँ जीवन में समा जाती हैं। सारी विरसताएँ रस में समाहित हो जाती हैं। रस कितना विराट है।
जो रस है, वही जीवन है। वही अस्तित्व है। वही विराट है। वही असीम है। वही सबकुछ है। रसो वै सः।

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