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Saturday, July 27, 2024

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हस्तिनापुर एक्सटेंशन : कब्र से उठती आवाज

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Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह, HASTINAPUR EXTENTION

कभी-कभी जब आस-पास कोई आवाज नहीं होती है, बहुत-सी आवाजें आने लगती है। कानों में गूँजने लगती हैं। मन पर छाने लगती हैं। गाने लगती हैं, तरह-तरह के रुदन के गान। नींद उचट जाती है।
मेरे गाँव में कोई कब्र नहीं है। फिर भी लगता है पूरा गाँव ही कब्रगाह है। घर-घर में कब्र है। बहुत कम लोग हैं, भाग्यशाली, जो शयनयान पर सोते हैं। हमारे देश में शयनागार में सोने वाले बड़े थोड़े-से लोग हैं। बड़े-थोड़े से लोग हैं, जिन पर लोकतंत्र की कृपा है। पता नहीं क्यों हमारे देश में लोकतंत्र बहुत थोड़े-से लोगों पर कृपालु है? ऐसा क्यों हैं? बार-बार सवाल उठता है। मगर किससे पूछें? सवाल जनमता है, फिर तुरत मर जाता है। हम उसे दफन कर देते हैं। हम जहाँ होते है, वहीं दफन कर देते हैं। हम जहाँ रहते हैं, वहीं दफन कर देते है। हम अपनी लाशें बिना कफन के दफन कर देते हैं।
हम जहाँ अपने सवाल दफन करते हैं, देखते हैं कि वहाँ पहले-से भी बहुत-सी लाशें दफन है। अपनी लालसा की तमाम लाशें वहाँ दफन हैं। अपने सपनों के तमाम शव वहाँ दफन हैं। अपने विरोध और विद्रोह के तमाम मुर्दे वहाँ गड़े है। अपनी जरूरतों का क्या कहना, उनके शव को दफनाने के लिए तो रोज-रोज गड्ढे खोदने पड़ते हैं। हम गड्ढे खोदते हैं, पाटते हैं फिर उन्हीं के ऊपर चारपाई डालकर सोने का प्रयत्न करते हैं। नींद आये तो ठीक। न आये तो ठीक। आज हमारे देश का अधिकांश आदमी कब्र के ऊपर चारपाई बिछाकर सोने को अभिशप्त है। क्यों? आजादी तो सबके लिये आयी थी। समूचे देश के लिये आई थी। लोकतंत्र तो सबका है? ‘‘हाँ, हाँ, हाँ…..’’ सब कहते हैं। सब झूठ कहते हैं। सब जो कहते हैं, झूठ कहते हैं। जो भी कुछ कहना जानते हैं, झूठ कहते हैं। बड़ा गजब हैं। जो, कुछ कहना नहीं जानते, वे कुछ भी नहीं जानते हैं। न सच जानते हैं। न झूठ जानते हैं। वे सिर्फ कहने वालों का कहा मानते हैं।

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हमारी व्यवस्था का दावा है कि आजादी के बाद हमारे देश में शिशुओं की मृत्यु दर में बहुत कमी आई है। यह सच है। मगर इससे ज्यादा यह सच है कि हमारे देश में सपनों की मृत्यु दर में बेतहाशा वृद्धि हुई है। इस विशाल स्वप्नदर्शी देश की अधिकांश आबादी सपनों के शिशुओं से वंचित आबादी बन गई है। इस महान देश के समूचे गाँव सपनों के पूतों से निपूते गाँव बन गये हैं। वे सपनों के गर्भधारण के अयोग्य बनते जा रहे हैं। बंध्यापन की बीमारी आँख-आँख को अपनी गिरफ्त में लपेटती, लीलती जा रही है। गर्भपात की दुर्घटना अब आम बनती जा रही है। सपना कहीं किसी की आँख में कोटि जतन से पैदा हो भी गया तो पैदा होते ही उसका मरना भी तय है। उसे जमुआ दबा देता है। सपना पैदा होता है, पैदा होते ही मर जाता है। माटी जगाने की नौबत ही नहीं आती। यह रोज-रोज की मृत्यु का अवसाद अब तो मातम मनाना भी भूल गया है।

सपना देखने का अधिकार हर किसी का अधिकार हुआ करता था। मगर नहीं। अब ऐसा नहीं है। अब समूचे देश में यह अधिकार एक समय में केवल एक अदमी को होता है। वह समूचे देश और सारे देशवासियों के लिये सपना देखने का अकेला हकदार होता है। उसका ही सपना, सबका सपना होना चाहिए। सबके सपने, उसके सपने भले न हो सकें मगर उसका सपना सबका सपना हो सके, इसका वह पक्का संजाल रचता है। चूँकि एक समय में एक आदमी के ऊपर काम का बड़ा भारी बोझ रहता है, इसलिये वह और सब जरूरी कामों को संभालने के लिये सपने देखने के अपने अधिकार को अपने विश्वस्त शुभेच्छुओं को सुपुर्द कर देता है। वह अपने निकट के थोड़े-से चुनिन्दा लोगों को सपने देखने की खुली आजादी सौंप देता है। जो सपने देखने के हकदार चुने जाते है, उनकी आँखें बड़ी होती हैं। उनकी आँखे बड़ी-बड़ी आँखे होती हैं। उनकी बुद्धि विचक्षण होती है। उनके इरादे पक्के होते हैं, फौलादी। उनकी भूख बड़ी विकराल होती है। उनका हाजमा दुर्दान्त होता है। फिरे वे इतमिमान से सपने देखते हैं। दिन-रात देखते हैं। वे सपने ही खाते-पीते है। सपने ही बोलते-बतियाते हैं। सपने में डूबते-उतराते हैं। अपने सपने पर इतराते हैं। उनका सपना समूचे देश को अपनी बड़ी-बड़ी आँखों में कैद कर लेता है। समूचा देश उनमें खो जाता है। बड़ी-बड़ी आँखों के बड़े-बड़े सपनों में समूचे देश के असंख्य छोटे-छोटे लोगों के छोटे-छोटे सपने विलीन होकर बिला जाते हैं।

उनका कहना होता है कि छोटे-छोटे सपने देश को छोटा बना देते हैं। तुच्छ बना देते हैं। दुनिया में देश की गरिमा को बौना बना देते हैं। यह ठीक नहीं है। दुनियाँ के बीच देश की नाक का सवाल है। देश का हाथ कट जाय, तो कट जाय। पाँव कट जाय चलेगा। कलेजा फट जाय, कोई बात नहीं। मगर नाक, साबूत रहनी चाहिए।
इधर हमारे गाँव हैं, जिन्हें देश की आत्मा कहा जाता है, उनकी आत्मा न जाने कहाँ अलोप हो गई है। उनके प्राण उनके शरीर से प्रयाण कर चुके हैं। फिर भी वे जी रहे हैं। जीवित बचे हुये हैं। काहे लिये? क्या प्रयोजन है, उनके जीवित बचे रहने का? बिल्कुल बेशरम हैं क्या? बिल्कुल बेहया हैं क्या? कौन कहे भला! नहीं, वे जी रहे हैं, अपने सपनों के शिशु शवों की कब्रगाह बनाने के लिये। वे कब्र खोदने के काम को करने के लिये जी रहे हैं। इसके लिये उनका जिन्दा रहना जरूरी है, इसलिये जी रहे हैं। जिन्दा रहना उनकी मजबूरी है, इसलिए जी रहे हैं।

अब हमार गाँव में अधिकांश के लिये घर बनाने का सपना अपने जनम के साथ ही मरा हुआ सपना है। अपनी संततियों के पोषण का सपना मरा हुआ सपना है। अपने बच्चों के लिये शिक्षा का सपना मरने के लिये बीमार सपना है, जिसके लिये कोई अस्पताल नहीं है। कोई डाक्टर नहीं है। कोई दवा नहीं है। अपनी बेटियों के ब्याह का सपना इतना डरावना सपना है कि उसके खौफ में नींद फटकती ही नहीं। भर पेट खाने का सपना, मन मुताबिक खाने का सपना, जवान मौत का शिकार सपना है। कुछ खरीदने का सपना, कुछ जोड़ने का सपना? पूछिये मत। ऐसे सपने अव्वल तो गर्भ में ही नहीं आते। गलती से आ भी जाते हैं तो दुर्दान्त नियति की गर्जना से गर्भपात को प्राप्त हो जाते हैं। हाँ, कुछ घटने के, कुछ हटाने के सपने जरूर बहुत-सी आँखों में उतराते हैं, जैसे विषैले पानी में मरी हुई मछली उतराई रहती है।

इन तमाम सपनों को रोज-रोज समाधि देनी होती है। कहाँ? यहाँ कोई मुर्दहिया नहीं है। कब्रगाह नहीं है। कुल मिलाकर एक गुजर करने भर की छोटी-सी जगह है। उसी जगह में कब्र खोदनी है। सपने दफनाने हैं। उसी कब्र पर नहाना है। खाना है। चारपाई डँसाकर सोना है। फिर चारपाई उठाकर, उड़ासकर फिर कब्र खोदना है। आस-पास कहीं कोई आवाज नहीं है। न हँसी-दिल्लगी की। न विरोध की। न विद्रोह की। न प्रतिरोध की। न आक्रोश की। ऐसे में चारपाई के नीचे से कब्र से आवाज आती है। नींद से जगाती है। फिर नींद को भी कब्र में खींच ले जाती है।

हम कब्र में पाँव लटकाये पड़े हैं। हम न सोये हैं, न जागे हैं। हम न सो पा रहे हैं। न जाग पा रहे हैं। हम केवल भाग पा रहे है। हम भाग रहे है। अपने से भाग रहे हैं। अपनों से भाग रहे हैं। सपनों से भाग रहे हैं। भाग-भाग कर भी वहीं हैं। वहीं कब्र पर खड़े। कब्र पर पड़े।
कब्र से आवाज उठ रही है। आवाज उठ रही है। आवाज गूँज रही है,- ‘‘छोटे-छोटे आदमी, आदमी नहीं हैं, क्या? छोटे आदमी देश के नहीं हैं, क्या? छोटी-छोटी आँखें, आँखें नहीं है, क्या? छोटे-छोटे सपने, सपने नहीं हैं, क्या? छोटी मछलियाँ, मछलियाँ नहीं है, क्या?
हमारा लोकतंत्र समूचे तालाब के लिये है, या सिर्फ तालाब की बड़ी मछलियों के लिये।
हमारा लोकतंत्र बहुमत का लोकतंत्र है? बहुजन का लोकतंत्र है? सर्वजन का लोकतंत्र है? या हुकूमत के हुनर का लोकतंत्र है?

हमारा लोकतंत्र छोटे-छोटे लोगों के मौलिक अधिकारों के कब्र खोदने के लिए बड़ी-बड़ी आँखों को बड़े-बड़े सपने अलाट करने वाला लोकतंत्र है। हमारे लोकतंत्र को हमारा राम, राम कहना।

-Young Writer

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