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Sunday, September 8, 2024

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रावण का इंटरव्यू

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Young Writer, साहित्य पटल। रामजी प्रसाद “भैरव” की रचना

रावण मर रहा था । अभी वह पूरी तरह से मरा नहीं था । उसे मरने में अभी समय था । वह जल्दी मर भी नहीं सकता । उसका मरना आसान नहीं था । उसे तिल तिल मरना था , घुट घुट मरना था । उसे अभी अपने पापों का हिसाब देना था । राम ने बाण मार कर घायल कर दिया था । उसकी नाभि का अमृत कुंड सूख गया । वह बेबस और लाचार मृत्यु की घड़ियां गिन रहा था । राम की सेना खुशियां मनाते हुए वापस लौट गयीं । रावण की बची खुची सेना, रावण के रणभूमि में गिरते ही भाग गई । झुटपुटे का समय था, झेंगुरों ने बोलना शुरू कर दिया था । रावण के कानों में लंकेश की जय का शोर गूँज रहा है । उसकी ऑंखें बन्द थी, पर होठों पर मुस्कान तैर रही थी । उसके कानों में पुनः लंकेश की जय सुनाई दी, पर वह बोला नहीं । उसी तरह मुस्कुराता रहा । ध्वनि फिर टकराई लंकेश की जय हो ।रावण ने आंखे खोली , सामने किसी अपरिचित को देखकर क्रोध से बोला -” कौन हो तुम ।”
” मैं हूँ , बंशीलाल पत्रकार, आप का इंटरव्यू लेने आया हूँ ।
रावण ने मुँह फेर कर आँखें बंद कर ली । बंशी लाल कुछ देर प्रतीक्षा किया फिर बोला -” महाराज, आप कुछ तो सन्देश दीजिये , आने वाले समय में लोग रावण को केवल लम्पट न समझ लें, इसलिए आप का बोलना जरूरी है ।”
रावण ने आँखें खोली -” क्या बोलूं , मनुष्य के लिए अहंकार ठीक नहीं है, अपना सर्वस्व नाश करा लेता है, जहाँ तक हो सके उसे बचना चाहिए । मैंने अहंकार को अपना बना लिया था , मेरी दशा देख रहे हो ।”
” महाराज ,मैं आप से क्या पूछूं , आप तो खुद ही महा पण्डित हैं । लेकिन एक बात समझ में नहीं आयी कि आप इतने बड़े ज्ञानी होकर सीता हरण जैसा जघन्य अपराध क्यों किया । “
” राम से प्रतिशोध लेने के लिए , वह असुरों का अहित कर रहा था ।”
” महाराज , आप सर्व शक्तिमान भी थे , जिसके चलने मात्र से धरती काँपती थी , किसी देवता में भी रावण से टक्कर लेने की क्षमता नहीं थी । फिर भी आप राम के डर से , चोरी से उनकी पत्नी को हर लाये , क्या यह उचित कदम था ।”
” राम के डर से नहीं , उसकी रूपवती स्त्री के आकर्षण में में मैं बंधा चला गया । उसे देखते ही उसके सौंदर्य पर मुग्ध हो उठा , फिर मौका देखकर हरण कर लिया । सोचा , पत्नी वियोग में राम सिर पटक कर मर जायेगा और या रोते बिलखते अयोध्या चला जायेगा । इस प्रकार मेरे प्रिय राक्षसों को मारने का दण्ड भी पा जाएगा ।”
” लेकिन आप ने एक स्त्री का हरण कर किस परम्परा की शुरुआत कर दी , लोग अपने प्रतिशोध के लिए स्त्रियों का अपहरण करेंगे और आप का उदाहरण देंगे “
रावण गम्भीर जो गया , कुछ देर चुप रहा फिर बोला -” मैंने प्रतिशोध में अंधे होकर सीता का हरण किया था , मुझे अब लगता है , यह मेरा अनुचित कदम था । जिसकी कीमत मैंने लंका को युद्ध के अनावश्यक आग में झोंककर , कुल का नाश करा कर चुकाई है । शायद लोगों को इससे सीख मिले । “
“आप पर व्यभिचार का भी आरोप लगता है , रम्भा और वेदवती इसके उदाहरण हैं । “
बंशीलाल के सवाल पर रावण कुछ देर फिर चुप रहा , फिर बोला -” जब मनुष्य के पास शक्ति आती है , वह भले बुरे कर्मों में भेद करना भूल जाता है । इसी अहंकार में मैंने रम्भा के साथ बलात सम्भोग किया । युगों युगों से मनुष्य अपनी इस कमजोरी पर नियंत्रण नहीं पा सका । उस समय मैं इतना मदान्ध था कि स्त्री को केवल भोग्या ही समझता था । मुझे लगता था सृष्टि की यह सुंदर कृतियाँ केवल भोग के लिए बनाई गई हैं । इसलिए मैं रमणियों के साथ भोग करता रहा “
” सीता को आप ने अशोक वाटिका में ही क्यों रखा । आप के पास महल थे , सुविधाएं थी ।”
” रम्भा के प्रेमी नल कुबेर ने मुझे , उस घटना के बाद श्राप दिया था ” यदि मैंने किसी स्त्री को उसकी इच्छा के विरुद्ध , बल पूर्वक भोगने की चेष्टा की तो , उसी छण मेरे मस्तिष्क के टुकड़े हो जाएंगे ।इस डर से मैं सीता को महल से दूर वाटिका में रखा । सोचा धीरे धीरे वह अपने पति को भूल जाएगी , और मुझे स्वीकार कर लेगी ।”
” आप के भाई विभीषण ने भी आप को समझाने की बहुत कोशिश की , उसने राम से बैर न करने की सलाह दी । सीता को सकुशल वापस लौटने को कहा , परंतु आप ने एक न सुनी , उसे लात मार कर खदेड़ दिया । “
” उस समय मैं राजा था , ऐश्वर्य मेरे चरणों में लोट रहा था । समस्त संसार में मेरे जैसा शक्तिशाली कोई नहीं था । विभीषण बार बार राम के आगे घुटने टेकने को कहता तो मेरा खून जल जाता । जिस राम के पैरों में पादुका तक नहीं थी । ऐसे राम के आगे मैं रावण कैसे घूटने टेक देता । जिस रावण का नाम सुनते ही बड़े बड़े राजा , सामने पड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे । उस रावण को वह बार बार झुकने की सलाह दे रहा था । इसलिए मैंने गुस्से में लात मार कर निकाल दिया ।यहाँ भी मेरा अहंकार ही प्रभावी था । जो मैं राम की शक्ति को नहीं भांप सका , और अपना अहित करा बैठा , इस बात से मुझे ये सीख मिली , शत्रु को कभी कमजोर नहीं समझना चाहिए । “
” युद्ध तो किसी देश के हित में नहीं होता महाराज , लेकिन आप तो जैसे युद्ध की कामना ही की । जब अंगद मैत्री प्रस्ताव लेकर गया , उसे भी आप ने अपमानित करके लौटा दिया ।”
” तुम सही कह रहे हो , युद्ध किसी भी देश के लिए हितकर नहीं होता । युद्ध में यदि कोई बड़ी हानि होती है तो वह है जनहानि , कोई इसकी पूर्ति नहीं कर सकता । मैं अपनी ताकत के अहंकार में इतना मत्त था कि राम जैसे वनवासी को चुटकियों में मसलने की कल्पना करता था । इसलिए युद्ध को बहुत गम्भीरता नहीं लिया। सोचा युद्ध समाप्ति के लिए मेरे छोटे मोटे वीर योद्धा ही काफी है । लेकिन परिणाम तुम स्वयं देख रहे हो , मेरे जैसा विश्व विजेता अंतिम साँसे गिन रहा है । “
” हनुमान जी द्वारा लंका दहन के बाद भी आप की चेतना नहीं लौटी , आप राम से समझौता कर निष्कंटक राज्य कर सकते थे ।”
” तुम सही कह रहे हो , मैं ऐसा कर सकता था । लेकिन एक योद्धा को बिना युद्ध किये हथियार डाल देना क्या उचित होता , जब मेरे पास प्रशिक्षित योद्धा थे , मै स्वयं शक्तिशाली था , इतनी सहजता से कैसे हार मान लेता , आज रावण भले पराजित हो गया , लेकिन संसार रावण को प्रतिभट के रूप में जरूर याद करेगा ।”
” सुना है अभी अभी लक्ष्मण जी आये थे आप से शिक्षा ग्रहण करने , आप ने उनको जो कुछ बताया , मुझे भी बताने का कष्ट करें , ताकि संसार उन बातों को जान सके ।” बंशी लाल ने कहा ।
” मैं समर्थ राजा था , जो चाहता था , पा लेता था । परंतु सामान्य लोगों की तरह मेरे अंदर भी आलस्य भरा था । जो कार्य तत्काल करना चाहिए था , उसे कल पर टालता रहा । इस कारण मेरे जीवन की तीन इच्छाएं पूरी न हो सकी , जो अब मेरे मरने के साथ खत्म हो जाएगी । समय बड़ा मूल्यवान होता है । हर क्षण की कीमत होती है । हर क्षण में ग्रह नक्षत्रों का अलग अलग योग होता है । मनुष्य जो काम कल पर टाल देता है , उसका संयोग भी टल जाता है । हर मनुष्य इसके फलाफल को नहीं जानता । इसलिए वह आलस्य करता है । मैं जानता था , फिर भी आलस्य किया । जिसका परिणाम है कि मैं वो न कर सका जो , जो मेरे लिए सहज था । मनुष्य को सकारात्मक सोच वाले काम शीघ्र कर लेना चाहिए ,और नकारात्मक सोच वाले काम को कल पर टाल देना चाहिए । “
” आखिर आप करना क्या चाहते थे । ” बंशी लाल ने पूछा
रावण ने बंशी लाल की ओर देखा , वह लिखने को उद्दत था । रावण बोला -” पहला मैं सोने में सुगन्ध पैदा करना चाहता था , दूसरा स्वर्ग तक सीढ़ी लगाना चाहता था और तीसरा समुद्र के खारे पानी को मीठा करना चाहता था । यह सब करने में मैं सक्षम था , फिर भी अपने आलस्य के कारण नहीं कर पाया । मैंने लक्ष्मण को यही शिक्षा दी , मनुष्य के लिए आलस्य अच्छी चीज नहीं है । इसका त्याग कर देना ही उचित होता है ।”
अचानक रावण चौंका -” अरे , यह शोर कैसा , लगता है कुछ लोग मुझसे मिलने आ रहे हैं , अब तुम जाओ । ” रावण ने इतना कहकर पुनः आँखें बंद कर ली । बंशीलाल चुपचाप लौट गया ।

जीवन परिचय-
 रामजी प्रसाद " भैरव "
 जन्म -02 जुलाई 1976 
 ग्राम- खण्डवारी, पोस्ट - चहनियाँ
 जिला - चन्दौली (उत्तर प्रदेश )
मोबाइल नंबर- 9415979773
प्रथम उपन्यास "रक्तबीज के वंशज" को उ.प्र. हिंदी  संस्थान लखनऊ से प्रेमचन्द पुरस्कार । 
अन्य प्रकाशित उपन्यासों में "शबरी, शिखण्डी की आत्मकथा, सुनो आनन्द, पुरन्दर" है । 
 कविता संग्रह - चुप हो जाओ कबीर
 व्यंग्य संग्रह - रुद्धान्त
सम्पादन- नवरंग (वार्षिक पत्रिका)
             गिरगिट की आँखें (व्यंग्य संग्रह)
देश की  विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन      
ईमेल- ramjibhairav.fciit@gmail.com

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