Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह, HASTINAPUR EXTENTION
हस्तिनापुर एक्सटेंशन :– सृष्टि की मूल उत्प्रेरणा विस्तार की उत्प्रेरणा है। अस्तित्व का मूल स्वभाव विस्तार का स्वभाव है। संसार में मनुष्य सबसे अधिक विलक्षण है। जितना मनुष्य विलक्षण है, उतनी ही भाषा भी विलक्षण है। धर्म के माध्यम से, अर्थ के माध्यम से, काम के माध्यम से और मोक्ष के माध्यम से मनुष्य जाति की विस्तार की यात्रा अविरल जारी है। इस यात्रा का आख्यान भाषा जाने कबसे संवहन करती आ रही है।
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हमें लगता है भाषा का स्वरूप हमारी अस्मिता से भिन्न नहीं है। वह भिन्न भी है। मगर अभिन्न भी है। भाषा जब हमसे अभिन्न होती है तब भी उसकी अस्मिता वैसी ही होती है, जैसे भिन्न होने पर होती है। मनुष्य जाति के पास जो थोड़ी-सी बहुत बहुमूल्य चीजें हैं, उनमें भाषा सबसे अधिक मूल्यवान चीज है। भारतेन्दु ने ऐसे ही नहीं कह दिया है, – निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।’’ उनके कहने के गहरे अर्थ हैं।
भाषा हमारे अस्तित्व की अस्मिता भी है और अभिव्यंजना भी है। बिना अभिव्यंजना के अस्तित्व का कोई अर्थ नहीं है। हमारे होने का कोई मतलब नहीं है, अगर हम अभिव्यक्त नहीं हो रहे हैं। ऐसा यहाँ कुछ भी नहीं है, जिसमें अभिव्यक्ति की आकुलता नहीं है। नदी में है, पहाड़ में है, पेड़ में है, फूल-फल में है, पत्ती-पत्ती में है। सबसे अधिक मनुष्य में है। मनुष्य की भाषा में मनुष्य जाति की स्मृति की समस्त अमूूल्य संपदा संरक्षित है। सच में बड़ी अद्भुत है, भाषा। तुलसीदास ने भाषा को अद्भुत कहा है। बहुत ठीक कहा है।
भाषा पूरी-पूरी लौकिक है। मगर पूरी-पूरी लौकिक ही नहीं है। वह अलौकिक भी है। भाषा पूरी-पूरी मूर्त है। मगर वह पूरी-पूरी अमूर्त भी है। भाषा पूरी-पूरी भौतिक है। मगर वह सिर्फ भौतिक ही नहीं है। वह अभौतिक भी है। भाषा पूरी-पूरी आन्तरिक है। हृदय की अतल गहरी से निकलती हुई। अपनी जरूरतों को पूरा करने की आकुलता से भरी हुई। आकांक्षा के ताप से दहकती हुई। प्यास के प्रवाह में उफनती हुई। परितोष की पुलक से पंख फैला कर उड़ती हुई। सुगन्धि के बवण्डर उड़ाती हुई। किसी दर्द से फनफना कर फुँफकारती हुई। न जाने क्या-क्या करती हुई भाषा समूची आन्तरिकता में उमड़कर बाहर आ जाती है। बाहर हो जाती है। पूरी तरह बाहर हो जाती है। दूर चली जाती है। सुदूर चली जाती है। मनुष्य की समूची आन्तरिकता को बाहर ले आने में सिर्फ और सिर्फ भाषा समर्थ है।
भाषा प्रयोग की परम्परा बड़ी असीम परम्परा है। अथाह परम्परा है। भाषा का प्रयोग नितान्त व्यक्तिगत भी है और पूरा-पूरा सामाजिक भी है। भाषा के व्यवहार का आधार ही समाजवाद की धारणाका जनक है। भाषा के रूप में व्यक्ति की उपोषित संपत्ति का सार्वजनिक संपदा मे बदल जाना बड़ा अद्भुत है।
भाषा हमारे जितनी ही निकट है, उतनी की पकड़ से दूर है। भाषा पर किसी का अधिकार नहीं है। भाषा का प्रवाह अधिकार के अतिक्रमण की प्रक्रिया का वाचक है। भाषा, आपका कहा मान लेगी। आपका मान रख लेगी। मगर आपके कहने में नहीं रहेगी। वह पूरी-पूरी आपकी होकर भी आपसे पूरी-पूरी स्वतंत्र है। वह जितनी आपकी है, उतनी ही दूसरे की भी है। जो भाषा पर आधिपत्य की बात सोचते है, उनका आधिपत्य ही मिट जाता है। भाषा आधिपत्य की वस्तु नहीं है। अधिकार की वस्तु नहीं है। भाषा उपासना के लिये है। आराधना के लिये है, जीवन की तरह। भाषा अर्जित करने की चीज नहीं, उपलब्ध करने के योग्य है।
संसार की सारी वस्तुएँ भाषा में समाहित हैं। पता नहीं कैसे। किसी को मालूम नहीं। भाषा कितनी सूक्ष्म है कि उसमें सारा स्थूल समाहित है। भाषा में सबकुछ है। आग है। पानी है। नदी-पहाड़ है। पृथ्वी-आकाश है। भाषा में सब बँधा है। मगर भाषा किसी में नहीं बँधी है। भाषा में सब है। प्रेम है। घृणा है। स्तुति है। अभिनन्दन है। धिक्कार है। ऐसा कुछ नहीं है, जो भाषा में नहीं है। युद्ध भी है, शान्ति भी है। फिर भी भाषा में कुछ भी नहीं है। सबकुछ होकर भी कुछ भी न होने जैसा। कैसा विचित्र है। भाषा पूरी-पूरी भरी है। फिर भी पूरी-पूरी खाली है। पूरा खाली होकर ही पूरा भरना हो पाता है, क्या? सारे रूपों को अपने में समवा कर भी भाषा अरूप है। कितनी अपरूप है, भाषा!
भाषा का व्यवहार हम अपनी जरूरतों के लिये करते हैं। हमारी जरूरतें अनगिनत हैं। अनन्त हैं। अनन्त का भार अनन्त ही उठा सकता है। भाषा में अमित ऊर्जा है। आप चाहे जितना भी खर्च कर लें, फिर भी खर्च करने के लिये वह पूरी बची रहती है। भाषा में ऐसी ताजगी है कि वह दुहराव में कभी बासी नहीं होती। बासन का घिसने से भले मुलम्मा छूट जाय मगर भाषा की चमक घिसने से बढ़ती ही जाती है। भाषा की आत्मशक्ति कभी क्षरित नहीं होती।
बोल-चाल की भाषा, साहित्य की भाषा, विज्ञान की भाषा, व्यापार की भाषा, चिकित्सा की भाषा अलग-अलग भाषा नहीं है। ये सब भाषा के भोड़े भेद हैं। भाषा के अलग-अलग रूप हैं। जितने आदमी है, उतने रूप हैं। आदमी में जितने मनोभाव हैं, उतने रूप हैं। जितने मनोवेग हैं, उतने रूप हैं। भाषा एकदम निजी भी है और एकदम सार्वजनिक भी। भाषा जैसी सार्वजनिक निजता अन्यत्र दुर्लभ है। भाषा के साथ हमारे सम्बन्ध गोपन सम्बन्ध भी हैं और प्रकट सम्बन्ध भी हैं।
भाषा का स्रोत मनुष्य का जीवन ही है। भाषा की शक्ति, सामर्थ्य और समूची कुशलता भाषा के व्यवहार में ही निहित है। किसी भी शब्द में तयशुदा अर्थ पहले से भरा हुआ नहीं है। अर्थ हमेशा प्रयोक्ता ही भरता है, जितना भर सकता है।
जितना अर्थ उसके पास है। भाषाशास्त्र में हम जो भाषा के बारे में अध्ययन करते हैं, वह हमारी भाषा सम्बन्धी समझ को बढ़ाने के लिए है। उससे भाषा की अभिव्यंजना शक्ति में कोई फर्क नहीं आता। भाषा की अभिव्यंजना में जो कुछ भी इजाफा होता है, बोल-चाल के आवेग की पकड़ से होता है। साहित्य की भाषा में जो परिष्कार की प्रविधि है, वह इसी आवेग को आत्मसात करने की प्राविधि है, वह इसी आवेग को आत्मसात करने की प्रक्रिया में निहित है। किसी भी साहित्यकार का प्रशिक्षण भाषा का प्रशिक्षण नहीं है, वह जीवन-व्यवहार का अनुशीलन है। जीवन व्यवहार के रहस्यों के विदित होने से भाषा के प्रवाह और प्रभाव की बारीकियाँ स्वतः प्रगट हो उठती हैं।
नदी के प्रवाह को व्यंजित करने के लिये लोकभाषा में एक शब्द है-तरखा। यह शब्द ती्रवता का बोधक नहीं है, तीक्ष्णता का बोधक नहीं है, तिर्यकता का बोधक नहीं है। केवल वेग का बोधक नहीं है। जल की सघनता का बोधक नहीं है। इन सबका सम्मिलित बोधक वह है, मगर इनके अलावा वह कुछ और का भी बोधक है। इन सबके अतिरिक्त वह ठहराव के विपरीत शक्ति के उद्दाम आवेग का बोधक सबसे अधिक है। यही तरखा भाषा का प्राण है। यही उसकी प्राणशक्ति है। भाषा की प्राणशक्ति उसके प्रयोक्ता की प्राणशक्ति में सन्निहित है। भाषा अक्षत यौवना है। वह चिर कुमारिका है। वह द्रौपदी की तरह एक विवाह की सुहागरात के बाद फिर से दूसरे विवाह के लिये कुमारी हो उठती है। भाषा सचमुच पुनर्नवा है। क्षण-क्षण, प्रतिक्षण नया होने का, नया हो उठने का स्वभाव भाषा का स्वभाव है।
किसी को भाषा पर अधिकार होने का भ्रम हो सकता है। आलोचना उसके भ्रम को पुष्ट कर सकती है। मगर, नहीं। भाषा पर किसी का अधिकार संभव नहीं है। भाषा का अस्तित्व सारे अधिकारों को, अधिकारों की अवधारणा को निरस्त करती हुई अस्मिता है।
भाषा आदमी को पवित्र करती है। इस अर्थ में पवित्र करती है कि भीतर के भावों के उत्ताप को, उल्लास को उनकी अर्थवत्ता में व्यक्त कर देती है। भाषा आदमी को भर देती है। अपनी अंजलि से उलीच उलीच कर भर देती है। भाषा के समान मनुष्य को भरने वाला दूसरा कोई नहीं है।
हमारी भाषा चिरपुरातन होकर भी चिरनवीन है। हम शब्दों को बनाते नहीं हैं। भावदशा के अनुरूप शब्द हमारे सम्मुख प्रकाशित हो उठते हैं। हम उन्हें देख लेते हैं। उनको देख पाने की साधना ही साहित्य-साधना है। हमारी पारंपरिक भाषा में जो ‘द्रष्टा’ शब्द है, वह शब्दों के लिये भी उतना ही अर्थवान है। जब भाव और शब्द दोनों देखने में आ जाते हैं, जब दोनों भासित हो उठते हैं, भाषा चरितार्थ हो उठती है। भाषा की चरितार्थता की प्रक्रिया बड़ी लम्बी है। बड़ी कठिन है। वह दो दिन की नहीं है। दो पैसे की तो कत्तई नहीं है। उसके लिये अपने भीतर हमें उत्कण्ठा, आकुल अनुरोध, कठिन धैर्य और सबसे अधिक अथक प्रतीक्षा के सम्मुख बिना विचलित हुए खड़ा रहना होता है। हमारे पूर्वजों ने यह कठिन तप किया है। कठिन तप करके भाषा को उपलब्ध किया है। हमने भाषा को समृद्ध नहीं किया है। भाषा ने अपनी समृद्धि से हमें गौरव दिया है।
हमारी चिन्तन परम्परा में जो भाषा है, जो वाक है, वह मूल अस्तित्व से भिन्न नहीं है। अभिन्न है। वह उपार्जित नहीं है। उपलब्ध है। उपलब्ध और उपार्जित में जो अन्तराल है, वही भारतीय चिन्तन परंपरा और पाश्चात्य चिन्तन परंपरा का अन्तराल है।
भाषा के क्षेत्र में हमारी जो परंपरा है, वहीं हमारे भाषा प्रयोग को नियमित औरनर्देशित करने के लिये शुभ है। मंगलकारी है। समूची मनुष्य जाति के लिये कल्याणकारी है। हमारे लिये भाषा मनुष्य जाति के अस्तित्व को अभिव्यंजित करने का आधार है।
-Young Writer