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Sunday, September 8, 2024

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ठाकुर प्रसाद सिंह : उजास के हास की शताब्दी

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Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह

उजाला हँसता है? हाँ, हाँ हँसता है। कैसे हँसता है? जैसे ठाकुर प्रसाद सिंह हँसा करते थे। एक दिसम्बर को उनके जन्म का शताब्दी वर्ष शुरू हो रहा है। हमारे लिए उनका शताब्दी वर्ष अँधेरे की तमाम जटिलताओं और भयावहता के बीच भारतीयता के उजास के हास की शताब्दी की तरह है।
हमारी स्मृति में ठाकुर प्रसाद सिंह की उपस्थिति आज भी बिल्कुल टहक है। बिल्कुल टटकी है। अपनी विविधि भंगिमाओं में, अपनी विविध भूमिकाओं में और अपने विविध रूप और रंग में हमारी सक्रियता में हस्तक्षेप करते हुए वे हमारे बीच उपस्थित हैं। उनकी उपस्थिति हमारे समय के लिए अनिवार और स्पृहणीय सार्थकता से परिपूर्ण है।

वे हमारी स्मृति में बहुत-बहुत तरह से मौजूद हैं। दुविधा के दोराहे पर सही रास्ते की तरफ उँगली उठाए हुए मौजूद हैं। प्रेम और सौन्दर्य के अभिनव प्रदेश में संवेदना के नए द्वार को खोलते हुए ,वंशी और मादल के गीत गाते हुए मौजूद हैं। ‘कुब्जा सुंदरी’ के मार्मिक प्रणय आख्यान को सुनाते हुए और सात घरों के गाँव की व्यथा की कथा को सुनते हुए मौजूद हैं। वे हमारे बीच एक केले के लिए किसी के पैरों पर थूथन रगड़ने की दीनता के विरूद्ध हारी हुई लड़ाई लड़ते हुए मौजूद हैं। वे गाँव के रास्ते पर सूर की कविता में यशोदा के मातृत्व का मर्म उद्घाटित करते हुए मौजूद हैं। वे समूची हिन्दी जाति को भारतीय स्वाभिमान की पहचान के लिए भरतेन्दु के घर का पता बताते हुए मौजूद हैं। उनकी उपस्थिति हमारी साहित्यिक विरासत की जीवंतता की उपस्थिति की पर्याय की तरह है। उनकी यात्रा अपने विरासत की गरिमा की प्रदक्षिणा है।

ठाकुर प्रसाद सिंह का समूचा रचनाकर्म आत्मकथात्मक अभिव्यक्ति का विलक्षण और अनूठा उदाहरण की तरह है। वे अपने विश्वास के साथ उन्मत झंझावत के समक्ष अडिग योद्धा क तरह खड़े रहने वाले साहित्यकार हैं। वे सामूहिक अस्तित्व की उपासना की आस्था वाले माहन रचनाकार हैं। उन्होंने केवल अपनी कलम से लिखकर ही साहित्य को समृद्ध नहीं किया है बल्कि साहित्य की समृद्धि के लिए अनेकों हाथों में कलम पकड़ाने का स्तुत्य दायित्व भी निभाया है। वे वाचिक परंपरा के आधुनिक संस्करण के पुरस्कर्ता के रूप में स्मरणीय हैं। उनकी वाणी का रंग स्याही से कभी अधिक गाढ़ा और प्रभावी सिद्ध रहा है। उनकी अभिव्यक्ति में निजता की छाप इतनी अनुरंजक है कि वह पाठक को अपनी लगने लगती है।
उनकी अभिव्यंजना अत्यन्त मूल्यवान और बहुस्तरीय अर्थ छवियों का गुलदस्ता बन जाती है। उसमें राहों के पांवों की कड़िया बन जाने के विडम्बना का बेधक दर्द भी है और आछी वन की मादक सुगन्ध भी। ठाकुर प्रसाद सिंह की रचनात्मक संवेदना में मनुष्यजाति के लिए उसके आदिम जीवन रस और सौन्दर्य के ऐश्वर्य का विपुल वैभव भरा पड़ा है। उनकी गरिमामय स्मृति का हार्दिक अभिनन्दन।

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