26.8 C
New York
Saturday, July 27, 2024

Buy now

पाँड़े कवन कुमति तोंहे जागी

- Advertisement -

Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार Dr. Umesh Prasad Singh (डा. उमेश प्रसाद सिंह )

कुमति और सुमति सबके हृदय में हमेशा रहती है। सभी कहने वालों ने ऐसा कहा है। ऐसा ही कहा है। रहती है, दोनों साथ-साथ। एक जागती है तो एक सोई रहती है। एक जाग जाती है तो दूसरी सो जाती है। जिसके हृदय में सुमति जागती है, वह धन-धान्यपूर्ण हो जाता है। धन्य हो जाता है। जिस जाति में सुमति का जागरण होता है, उसका राष्ट्र उन्नत, समृद्ध और सुखी होता है। जिसके हृदय में कुमति जाग जाती है, वह अथाह विपत्ति में डूब जाता है। व्यक्ति डूब जाता है। समाज डूब जाता है। राष्ट्र डूब जाता है। उसकी विरासत डूब जाती है। उसका भविष्य डूब जाता है। अतल अन्धकार में निरन्तर डूबता जाता है।
कबीर की कविता अद्भुत कविता है। वह जीवन के दोनों छोरों को छूती हुई जीवन के विस्तार की कविता है। जीवन की गहराई की कविता है। जीवन के रस की कविता है। जीवन के आस्वाद की कविता है। कबीर की कविता में कडुवा भी है, जी को छनछना देने वाला। कसैला भी है, कण्ठ को भरभरा देने वाला। मीठा भी है। बेहद मधुर, स्निग्ध। स्वाद की समस्त ग्रन्थियों को रस से आप्लुत करके जी को जुड़ा देने वाला। कबीर की कविता में धिक्कार भी है और धन्यता भी है। एक छोर धिक्कार का है। एक छोर धन्यता का। धिक्कार और धन्यता के दो छोरों के बीच जीवन का समूचा प्रवाह अपनी अजस्र गति में, अकुंठ गान में प्रवाहित है।

जहाँ केवल धिक्कार है, वहाँ जिन्दगी नहीं है। जहाँ केवल धन्यता है, वहाँ भी जीवन नहीं है। नदी कभी एक किनारे में नहीं बँध सकती। नहीं बह सकती है। नदी जब भी होगी दो कूलों के बीच ही होगी।
नदी के इस छोर पर, धारा की सबसे ऊपरी सतह पर नहाने-धोने वालों को, पुण्य के प्रलोभन से धर्म का व्यापार करने वालों को कबीर पॉड़े कहकर संबोधित करते हैं। कबीर की कविता में पॉड़े मिथ्याभिमान का संबोधन है। कुमति की कठपुतली का संबोधन है। अन्धकार के यशगायक का सम्बोधन है। अन्धों की पथ प्रदर्शक अन्धता का संबोधन है। भावहीन कर्म के आयोजक का संबोधन है। क्रियाहीन फल के आश्वासन का संबोधन है। बड़ा संश्लिष्ट संबोधन है।
जीवन में जो प्रवेश का किनारा है, उस किनारे आदमियों की भारी भीड़ किनारा पकड़कर खड़ी है। किनारा छोड़ दे, तट को छोड़ दे तो नदी में उतर जाय। जिन्दगी में प्रवेश हो जाय। मगर नहीं वह किनारे खड़ी है। तट पर खड़ी है और नदी के बारे में सब कुछ जान लेना चाहती है। वह किनारे खड़ी रहकर नदी में जलपान का, स्नान का आनन्द चाहती है। वह नदी की गहराई का, नदी के विस्तार का मर्म जान लेना चाहती है। भला यह संभव है? कैसे संभव हो सकता है। यह निपट असंभावना है। किनारे खड़ी इस भीड़ का जो अगुवा है, जो उसे झूठे आश्वासन में उलझाये है, जो उसे भरोसे के भ्रम में भरमाये है, वह ही कबीर की कविता में पॉड़े है।

कबीर भाषा के कवि नहीं हैं। कबीर ही नहीं समूचे भक्तिकाल के कवि भाषा के कवि नहीं है। वे अनुभव के कवि हैं। आचरण के कवि हैं। व्यवहार के कवि हैं। जीवन के कवि हैं। उनकी भाषा जीवन की भाषा है। कबीर कविता के लिये भाषा नहीं सीखते। वे जीवन की समृद्धि के लिये, सौन्दर्य के लिये, शक्ति के लिये, अनुभव उपलब्ध करते हैं। कबीर कविता से कुछ पाने के आकांक्षी कवि नहीं हैं। वे कविता को कुछ देने की लालसा के कवि है। वे कविता के पुजारी हैं। प्रेमी हैं। वे जानते हैं प्रेम अपने को दे देना ही होता है। कबीर के लिये भाषा व्यापार की चीज नहीं है। जीवन व्यापार की वस्तु नहीं है। व्यापार की भाषा में कबीर की कविता विद्रोह की कविता है। वस्तुतः कबीर की कविता मनुष्य के प्रति व्यवस्था के विद्रोह के विरूद्ध विद्रोह की कविता है। कबीर की कविता जीवन रस से उद्वेलित मनुष्य की कविता है। जीवन सत्य के उजास से आलोकित मनुष्य की कविता है। उनकी कविता मृतक जीवन के संवाहक मनुष्यों की कविता नहीं है।
कबीर की कविता में पॉड़े मृतक जीवन के संचालक है। पॉड़े एक प्रवृत्ति के प्रतिनिधि हैं। अपने लाभ के लिये लोगों में लोभ को जगाने की प्रवृत्ति के प्रतिनिधि हैं। अपने लाभ के लिये लोगों में लोभ को जगाने की प्रवृत्ति के प्रतिनिधि। यह प्रवृत्ति घृणित प्रवृत्ति है। मनुष्य जाति को जीवन से विमुख कर देने वाली प्रवृत्ति है। जीवन सत्य से वंचित कर देने वाली प्रवृत्ति है। जीवन रस से विलग कर देने वाली प्रवृत्ति है। यह गर्हित प्रवृत्ति है। यह धिक्कृत वृत्ति है। कबीर अपनी कविता में इस प्रवृत्ति की भर्त्सना है।

जीवन की सरिता के तट पर खड़ी भीड़ को पॉडे़ बरगला रहा है। वह नदी में बगैर उतरे भींग जाने की तरकीब के मंत्र उचार रहा है। वह बिना पानी पिये पानी-पानी जपकर प्यास बुझा देने के अविश्वासनीय उपायों में विश्वास बना रहा है। गुड़ कहकर मुँह मीठा करने का भाषा में झाँसा दे रहा है। पानी-पानी चिल्लाने से कण्ठ तो सूख सकता है मगर प्यास कदापि नहीं बुझ सकती। आग-आग कहने से खाना कभी नहीं पक सकता। कबीर के लिये भाषा झाँसा देने के लिये नहीं है। पदार्थ के परिज्ञान के लिये है। अर्थ के संधान के लिये है। कबीर के लिये कविता शब्दों को उनके अर्थ के स्रोत तक ले जाने की माध्यम है।
कबीर भाषा में व्यापार के विरूद्ध कवि हैं। वे बौद्धिक सम्पदा की बिक्री के विरूद्ध कवि हैं। कबीर की कविता यश के लाभ के, अर्थ के लाभ के, सम्मान के लाभ के हर तरह के लाभ के निषेध की कविता है। कबीर की कविता जीवन के आस्वाद की कविता है। कबीर की कविता जोखिम की कविता है। जोखिम उठाने के साहस की कविता है। जान जोखिम में डालकर भी जीवन को जान लेने के आमंत्रण की कविता है। कबीर के लिये कविता सुविधाओं की तलाश नहीं है, बल्कि दुविधाओं के उन्मूलन की अभियान है। वे हवा में हाथ-पाँव पीटकर तैराकी सिखाने वाली पाठशालाओं के पाखण्ड उजागर करने वाले कवि हैं। कबीर अपनी कविताओं में नदी की धारा में उतरकर तैरना सीखने का आग्रह करने वाले कवि हैं। कबीर की कविता का मूल स्वर जीवन में उतरने का आग्रह है।

इसीलिये कबीर बार-बार अपनी कविता में पाँड़े को सम्बोधित करते हैं। समूचे कर्मकाण्ड की प्रवर्तक चेतना की भत्सर्ना करते हैं। भावहीन कर्म की निन्दा करते हैं। क्रियाहीन फल की लालसा को लताड़ते हैं। वे झूठ को पूरी आत्मिक गहराई के साथ झूठ कहते हैं। हृदय के समूचे आवेग के साथ कहते हैं। बड़ी त्वरा है कबीर की वाणी में। पहाड़ की बरसाती नदी जैसा वेग है। पाँव टिकने नहीं देती बहा ले जाती है। डुबा देती है। जड़ता की नाक में पानी भर देती है। कबीर की वाणी के आगे तटस्थता टिक नहीं सकती। कबीर की कविता तटस्थ कविता नहीं है। आप कबीर की कविता पढ़कर चुप नहीं रह सकते। तटस्थ नहीं रह सकते। आपको सहमत या असहमत होना पड़ेगा। असहमत होने का बूता किसके पास है? असहमति की चट्टान टकराकर बालू बन जाती है। कबीर की कविता निष्क्रिय कविता नहीं है। वह जिसके भीतर पहुँचती है, क्रियाशील कर देती है। सक्रिय कर देती है। कबीर की वाणी में प्रतिक्रिया की अनिवार्य परिणति है।
कबीर की कविता में आग है। लहकती हुई आग। दहकती हुई आग। कबीर की कविता को पढ़ना, कविता को सुनना आग में होने से अलग नहीं है। कबीर की कविता का पाठ आग में होकर गुजरना है- इक आग का दरिया है और डूबकर जाना है। कबीर को पढ़ने में बड़ा डर है। कुछ के जल जाने का डर। बहुत कुछ के जल जाने का डर। जो जलने से डरते हैं। जो कुछ भी जलाने से डरते हैं, वे कबीर की कविता के पाठक नहीं हो सकते। परीक्षार्थी हो सकते हैं। शिक्षार्थी हो सकते हैं। शोधार्थी हो सकते हैं। शिक्षक हो सकते हैं। परीक्षक हो सकते हैं। ऊँचे अंक दे सकते हैं। मगर पाठक नहीं हो सकते। कविता का पाठ कुछ और होता है। कविता के पाठ में पूरी-पूरी कविता समा जाती है, पाठक में। जैसे नदी पूरी-पूरी समा जाती है। हरहराती हुई। गरगराती हुई। जैसे नदी पूरी-पूरी समा जाती है, सागर में। मगर नदी से कविता भिन्न है। इसलिये भिन्न है कि नदी सागर में समाकर खो जाती है। कविता खो नहीं जाती। वह बस किसी में समाकर होे जाती है। कविता खो नहीं जाती। वह बस किसी में हो जाती है। कविता किसी में समाकर कर भी खोने से बची रह जाती है। फिर किसी में समा जाने के लिये।

कबीर की वाणी में अद्भुत प्रवाह है। इतना ओज है, इतना तेज है, इतनी उष्मा है, इतनी ऊर्जा है कि भाषा विश्रृंखलित हो जाती है। भाषा का बन्ध टूट जाता है। वह बिखर जाती है। बिहला जाती है। शब्द विस्फोट करने लग जाते हैं। शब्दों के भीतर बाहर निकल कर फैल जाने को आकुल अर्थसत्ता का दबाव इतना बढ़ जाता है कि शब्द विस्फोट कर जाते हैं। शब्द ध्वस्त हो जाते हैं। अर्थ की ध्वनि गूँज उठती है। जैसे बीज को तोड़कर वनस्पति में हरियाली उग आती है, वैसे ही कबीर की कविता में शब्दों को तोड़कर अर्थ प्रभाव छा जाता है। जो अपने ही घर में होली जलाने का हुलास नहीं रखते उनके लिये कबीर की कविता का कोई अर्थ नहीं है।
ध्वनि-स्फोट की जो गरिमा कबीर की कविता में है वह कहीं नहीं है। समूचे हिन्दी साहित्य में कबीर ध्वनि-स्फोट के अकेले कवि हैं। कबीर की कविता के शब्द कण्ठ में ही फूटते हैं, पटाखे की तरह। अन्दर और बाहर का समूचा अन्तराल गूँज उठता है। बहुत देर तक गूँजता रहता है। काफी देर तक प्रतिध्वनि सुनाई देती रहती है।
वे पाँड़े को सम्बोधित करके कहते हैं कि पाँड़े तुम्हारे में सुमति सो गई है। सुमति सो गई है और कुमति जाग गई है। यह कैसी कुमति है? जरा देखो तो। जिन्दगी बिल्कुल पास है। एकदम सामने बह रही है। लहरों के साथ हिला-हिलाकर बुला रही है अवगाहन के लिये। मगर तुम हो कि किनारा पकड़ कर खड़े हो। खुद ही खड़े नहीं हो न जाने कितनों-कितनों को राह रोककर खड़े किये हो। जिन्दगी को जिन्दगी में उतरने के लिये बाधा बनाकर, अवरोध बनकर खड़े हो। बड़े खेद की बात है। बड़ी लज्जा की बात है। बड़ी ग्लानि की बात है। मगर तुम इतने निर्लज्ज हो, इतने कसाई हो, इतने क्रूर हो कि हर ग्लानि की बात को गर्व की बात की तरह बखानते रहते हो।

पाँड़े! क्या तुम जानते हो कि वैतरिणी क्या है? कैसी है? किसने बनाई है? वैतरिणी हमारे कर्मों की ही निर्मिति है। हमारे कर्मों का ही परिणाम है। फल है। अपने ही कर्मों के फल को प्राप्त करने से तू लोगों को क्यों डराता है? तू भय का विस्तार क्यों करता है? तू आदमी को कायर और डरपोेंक क्यों बनाता है? द्रव्य और दक्षिणा के लिये? तू धूर्त है। तू लोभी है। पाखण्डी है। परजीवी है। आजीविका के अन्य भी साधन हैं। तू धोखे का धन्धा क्यों करता है। धिक्कार है तुझे।
गतात्मा को गाय की पूँछ पकड़कर कैसे वैतरिणी पार करा देता है। अरे मूर्ख! गाय की पूँछ पकड़कर कोई वैतरणी पार हो सकता है। गाय को तो तुम अपने घर ले आते हो। दूध पीते हो, घी खाते हो मौज उड़ाते हो। अपने जीवित जजमान को अभाव की वैतरणी में ढकेल आते हो और गतात्मा को वैतरणी पार करा देने का नाटक रचते हो। यह सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा लोभ है।
पाँड़े! सच बताना क्या तुम गतात्मा को देख पाते हो। क्या तुम्हारे में स्थूल शरीर से पृथक चेतन अस्तित्व को देख सकने की दृष्टि है? सामर्थ्य है? योग्यता है? विवेक है? क्या तुम कर्म विपाक के द्रष्टा हो? फिर तुम कर्म के बन्ध को काटने की, पार पाने की बात कैसे करते हो?

अपने कर्म फल को अपने कर्म से ही काटा जा सकता है। गाय के सहारे नहीं। अगर गाय की पूँछ पकड़कर स्वर्ग में पहुँच पाना संभव होता तो संसार में सिंहासन के लिये नहीं गाय के लिये ही भयानक युद्ध छिड़ जाता। गाय को लेकर दुनियां में लोमहर्षक मारा-मारी मच जाती। मगर नहीं, यह संभव ही नहीं है। पाँड़े तुम बुद्धिजीवी नहीं हो। तुम्हारे में केवल बुद्धिजीवी होने का दंभ है। अभिमान है। अभिमान आदमी को अंधा कर देता है। अन्धा-अन्धों को ठेलता है। दोनों कुँए में गिर जाते हैं। कुँए में जिन्दगी नहीं है। किताब में जिन्दगी नहीं है। तुम किताबें पढ़ते-पढ़ते मर-खप जाते हो। किताब पढ़ने से कोई पण्डित नहीं होता है। मूर्ख जरूर हो जाता है। तुम मुर्दा शब्दों की कब्रगाह बन गये हो। बुद्धिजीवी, आदमी बुद्धि की जागृति से होता है। बुद्धि की पहचान से, दृष्टि से, देखकर जीवन जीने से होता है।
दान, वस्तु का नहीं होता पाँड़े। दान, लोभ का होता है। लोभ को कम कर लेना, अपने से बाहर कर देना, बाहर कर देने की, दे देने की प्रक्रिया को ही दान कहा जाता है। मगर तुम्हारा तो उपदेश ही उल्टा है। तुम तो दान के द्वारा भी लोभ को बढ़ाने का ही व्यापार करते हो। तुम तो गाय का दान करके, स्वर्ण का दान करके, जमीन का दान करके, अन्न और द्रव्य का दान करके स्वर्ग को पाने के लोभ का विस्तार करते हो। तुम्हारा उपदेश पाखण्ड का उपदेश है। तुम पोथियां पढ़ते हो, पढ़ाते हो, सुनाते हो और प्रेम तुमसे दूर होता जाता है। प्रेम मरता जाता है। अभिमान बढ़ता जाता है। अभिमान के होने से सत-असत का परीक्षण संभव नहीं हो पाता।

पुष्कल पोथियों को पढ़कर मुर्दा विश्वासों का शव वाहक बन जाना जीवन का तिरस्कार है। मनुष्यता के प्रति कृतध्नता है। केवल ढाई अक्षर के प्रेम को जीवन में पढ़ लेने से, जीवन सार्थक हो जाता है। प्रेम को जीवन में पा लेने से जीवन सुफल हो जाता है। सफल हो जाता है। प्रेम किसी के प्रति नहीं होता। प्रेम सिर्फ उपलब्ध होता है। जो प्रेम को उपलब्ध हो जाता है, सब कुछ जान जाता है। उसमें सब कुछ समाहित हो जाता है। समूचा जगत उसका हो जाता है। वह समूचे जगत का हो जाता है। सारे भेद मिट जाते हैं। सारी श्रेष्ठताएँ और सारी हीनताएँ विरोहित हो जाती हैं। प्रेम के साम्राज्य में वैतरणी का कोई वजूद नहीं होता। वैतरणी नहीं होती। वैतरणी पार कर लेने की चिन्ता नहीं होती। चिन्ताओं के विस्तार के नायक पाँड़े का कोई प्रयोजन नहीं होता।
पाँड़े, तुम तनिक सोचो तो, क्या कर रहे हो? क्यों कर रहे हो? किसके लिये कर रहे हो? लाभ के लिये कुछ भी किया जाना लोभ को बढ़ावा देता है। लोभ के कारण ही पाखण्ड फैलता है। नहीं, जीवन व्यापार नहीं है। व्यापार चाहे धर्म का हो, ज्ञान का हो, चाहे विद्या का हो आदमी को कमजोर बनाता है। आदमी को कमजोर बनाने का काम धिक्कृत काम है। किसी को अपना पिछलग्गू बनाने का विचार निन्दनीय विचार है। यह अमानुषिक वृत्ति है। यह वृत्ति कुमति से पैदा होती है। कुमति किसी के लिये भी ठीक नहीं है। न अपने लिये न दूसरों के लिये।

प्रेम अद्भुत चीज है। प्रेम की अभ्यर्थना कबीर अनन्य भाव से करते हैं। कबीर की कविता प्रेम के प्रशस्ति की कविता है। प्रेम खेत में पैदा नहीं होता है। प्रेम कबीर की कविता में पैदा होता है। जहां पाखण्ड खत्म होता है, वहीं प्रेम पैदा हो जाता है। प्रेम बाजार में नहीं बिकता। प्रेम कविता में उपलब्ध होता है। प्रेम अहं के विलोप से उत्पन्न होता है। प्रेम, मूल्य के रूप में अपने को देकर पाया जाता है। प्रेम में दो नहीं होता। दो के मिटने से, द्वैत के मिटने से प्रेम प्रगट हो जाता है। प्रेम का अपना रंग होता है। दो के मिलकर एक हो जाने का रंग प्रेम का रंग है। अनेक के मिलकर असीम हो जाने का रंग प्रेम का रंग है। अन्त का अनन्त हो जाना प्रेम है।
प्रेम को उपलब्ध कर लेने को उन्मुख न होना कुमति है। जिसमें कुमति जाग रही है, वह सब कबीर की कविता में पाँड़े हैं। कबीर की कविता में कुमति की संवाहक और संरक्षक चेतना के लिये घोर धिक्कार है। जीवन में धन्यता के बोध के लिये विकलता कबीर की कविता में धिक्कार की जननी है।
कबीर की कविता विराट कविता है। विराट के लिये कविता है। विराट होने के लिये कविता है। वह मनुष्य की विराटता की आकांक्षी कविता है। कबीर की कविता विराट होने के लिये लघुता को धिक्कारती कविता है। लघुता को बनाये रखकर, बचाये रखकर, कबीर की कविता के साथ होना संभव नहीं है। कविता के बाजार में कबीर की कविता बाजार के पाखण्ड को धिक्कारती कविता है। कबीर की कविता धन्यता को दुलारती कविता है।

प्राचार्य
मां गायत्री महिला महाविद्यालय
हिंगुतरगढ़ चन्दौली
मो0नं0- 9450551160

Related Articles

Election - 2024

Latest Articles

You cannot copy content of this page

Verified by MonsterInsights