Young Writer, ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह
चुनाव की हवा बहने लगी है। डालें हिलने लगी हैं। पत्ते झरने लगे हैं। जड़े डरने लगी हैं।
संचार माध्यमों में सवालों की आँधी आ गई है। जो भी सवाल उछल रहे हैं। उछाले जा रहे हैं। वे सारे सवाल उनके ही सवाल हैं, जिनके लिए चुनाव खेल है। जो सत्ता हथियाने के खिलाड़ी है, पक्ष-प्रतिपक्ष में वे सवालों की गेंद फेंक रहे हैं। कोई गेंद फेंक रहा है। कोई बल्लेबाजी कर रहा है। इस मैच में जो गेंद सबसे अधिक बार फेंकी जा रही है, वह गेंद संविधान की है। हमारा संविधान हमारे लोकतंत्र में गेंद बन गया है। ऐसा क्यों है? यह भी एक सवाल है। मगर यह सवाल कहीं नहीं है।
हमारे देश में जबसे जनतंत्र स्थापित हुआ है, तबसे राजनीति संविधान का इस्तेमाल तलवार की तरह कभी करती दिखती है, कभी ढाल की तरह। संविधान राजनीति के हाथ में है, हमेशा संविधान के हाथ में कुछ नहीं है।
जनता के सामने बार-बार दुहाई दी जाती है संविधान की। उधर जनता है कि संविधान के बारे में उसे कुछ पता ही नहीं है। उसकी कोई जानकारी ही नहीं है। जनता को संविधान के बारे में कुछ भी जानकारी देने का उद्योग सरकार का कभी मकसद ही नहीं रहा। कितने दुर्भाग्य की बात है। मगर ऐसा है। संविधान का जनता से कोई सीधा सरोकार नहीं है। वह केवल सरकार, जजों और काले कोट के वकीलों के लिए जीविका का निमित्त है। आज भी हमारे सारे कानून कोर्ट-कचहरी के परिसर की चार दीवारी में कैदी की तरह हैं। जन जीवन में कहीं भी संविधान की जीवित उपस्थिति नहीं है। फिर भी संविधान की रक्षा की गुहार जनता से लगाई जा रही है। कैसा विडम्बनापूर्ण है। यह लोकतंत्र का सबसे बड़ा जोखिम है। हमारे लोकतंत्र में यह जोखिम का खेल सभी मिलकर खेल रहे हैं। सभी कहते हैं,- जनता ही सबकुछ है। मगर सभी के लिए जनता कुछ भी नहीं है।
कुछ लोग पसीने में डूब-डूब चीख रहे हैं। चिल्ला रहे हैं, संविधान संकट में है। संविधान की हत्या की साजिश रची जा रही है। जनता को गुहार रहे हैं, गला फाड़-फाड़ कर कि संविधान की रक्षा करो। जनता देख रही है, चिल्लाने वाले, चीखने वाले भयानक संकट में फँसे हैं। यह क्या है? कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने संकट को संविधान का संकट कहने का नया राजनीतिक पैंतरा चल पड़ा है। जो भी हो जनता को नहीं पता। वह तो मुंह बा कर चीख-चिल्लाहट सुन रही है।
कुछ लोग गरज रहे हैं। सीना फुला-फुला कर, ताल ठोंक-ठोंककर बोल रहे हैं, वे संविधान की रक्षा में मुस्तैद हैं। वे जो भी कर रहे हैं, संविधान की रक्षा के लिए है। वे जो भी कर रहे हैं, संविधान को मजबूत बनाने के लिए कर रहे हैं। संविधान मजबूत रहेगा तो देश मजबूत बना रहेगा ।देश मजबूत रहेगा तो जनता सुखी रहेगी।संविधान, संविधान न हुआ ब्यायी हुई गाय हो गया है। उसे खाली भूसा खिलाओ। खिलाकर पेन्हाओ। फिर दूध निकाल लो। दूध पियो।फिर दूध से दही मक्खन खाओ।पनीर , खोआ जो मन हो बना लो। जैसी मर्जी मिठाई खाओ। मजा ही मजा है।
हमारे जनतंत्र में, जनतंत्र के चुनाव में जनता क्या है? जनता देख रही है। जनता देखती आ रही है। जनता देख रही है कि उसका होना विद्यालय में विद्यार्थी की तरह होना है। विद्यार्थी का होना ही अध्यापक के होने को अर्थ देता है। मगर विद्यार्थी का होना अध्यापक के लिए केवल अवसर है। उसके तनख्वाह पाने का अवसर। उसकी गरिमा का अवसर। विद्यार्थी का होना अध्यापक को सारे अधिकार देने के लिए होना है। जनतन्त्र में जनता का होना सरकार को शासन की शक्ति देने के लिए बस होना भर है।
जनता देख रही है, जनतंत्र के इस महान चुनावी मैच में जनता की हैसियत क्रिकेट मैच में दर्शक होने की हैसियत भर है। जनता अपनी इस हैसियत में भी खुश है। खुश न हो भी हो तो क्या फर्क पड़ता है खेल में। सो ठीक ही है, तमाशा देखना ही है तो खुश होकर देखो। वह देख रही है। वह दारु पी-पीकर, मुर्गा खा-खाकर, खेल देख रही है। यह भी तो मजा है। इतना भी कम थोड़े है। कुछ बुद्धिजीवी हैं, पत्रकार हैं लेखक हैं, वे अपने अभिमान में अकड़कर खेल की कमेण्टी कर रहे हैं। उनके बड़प्पन का सिम्बल उनके हाथ में माइक है, अखबार है, कलम है। दर्शक उन्हें देख रहे हैं, सुन रहे हैं, कम है! वे खिलाड़ियों के कौशल का बखान कर रहे हैं। उनकी कमियों का खुलासा कर रहे हैं। उनकी चूकों को उजागर कर रहे हैं। खेल को दर्शकों के लिए रोचक बनाए रखने का काम उनका काम है।
यद्यपि सारी जनता, जनता ही है। उसकी मूल नियति एक जैसी ही है। सबकी भूमिका दर्शक की ही है। फिर भी….। फिर भी जनता में कई तरह के लोग हैं। कुछ लोग हैं जो टिकट खरीद कर खेल को ग्राउण्ड में देखते हैं। वे अत्यन्त निकट से खेल देखते हैं। वे निकट से खेल ही नहीं खिलाड़ियों को भी देखते हैं। इस निकटता का उन्हें विशेष सुख मिलता है। ग्राउण्ड पर खेल देखने वाली दर्शक जनता को इस भ्रम का भी विशेष सुख मिलता है कि उनकी तालियों की गूँज खेल और खिलाड़ी को प्रभावित करती है। उन्हें इस बात का भी गुमान रहता है कि खिलाड़ी भी उनको देख रहे हैं।
मगर जनता में अधिकांश जनता वह दर्शक है जो खेल को बहुत दूर से स्क्रीन पर देखती है। वह खिलाड़ियों को देखती है, लेकिन खिलाड़ी उसे नहीं देखते हैं। वह भी ताली बजाती है। उछलती-कूदती है। जीत का जश्न और हार का मातम मनाती है। इतना मजा भी कोई कम नहीं है। ताली बजाने का सुख, जय बोलने का आनन्द भी रोज-रोज कहाँ मिलता है।
बहुत-से सवाल हैं, जो चारों तरफ से मुझे घेरे हैं। सवालों के घेरे में घिरकर मैं सोचता हूँ कि हमारे जनतंत्र में जनता खेल में केवल दर्शक क्यों है?
कबसे जनता सिर्फ सरकार के लिए क्यों है? सरकार जनता के लिए क्यों नहीं है?
सवाल और भी हैं। बहुत हैं। बहुत तरह के हैं। मगर किससे पूछे। सवाल पूछने की इजाजत नहीं है।
जिनके हाथ में संविधान है, हथियार की तरह वे कोई भी सवाल पूछने का मौका नहीं देते। उनकी नजर में सवाल पूछना संविधान के खिलाफ है। संविधान के खिलाफ जो भी है ,जो कुछ भी है, अपराध है।
संविधान के अनुरूप, संविधान के अनुकूल केवल चुनाव का खेल देखना है। ताली बाजाना है। उछलना है। कूदना है। जनता को न जीतना है। न हारना है। फिर भी जश्न मनाना है। फिर भी मातम मनाना है।
अगर आप जनता हैं। जनता में से हैं। तो सवालों की कुछ मत सुनिए। कान में तेल डाल लीजिए। ताली बजाइए पूरा जोर लगाकर। खूब उछलिए। खूब कूदिये। खेल को रोचक और रोमांचक बनाए रखने में अपना पूरा-पूरा कर्तव्य निभाइए। अपना पूरा योगदान रखिए। यह आपका नागरिक धर्म है। अपने धर्म का पालन ही सुख का आधार है। अपने धर्म के पालन का आँख मूँदकर सुख लूटिए। सुख से भरकर बोलिए,- ‘‘जय जनता। जय जनतंत्र।’’ इस महादेश के महान जनतंत्र में जनता का दर्शक की नियति में होना कितने दुर्भाग्य की बात है, कभी मत सोचिए। इस महादेश की समूची गरिमा उनकी है। सारा इतिहास, सारा भूगोल उनका है। इन सबके बारे में सोचने, समझने का हक उनका है। आप केवल दर्शक हैं। जो दिख रहा है, बस देखिए।