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Friday, August 22, 2025

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ईद-उल-अजहाः अपने अंदर की बुराईयों की दें कुर्बानी

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फैयाज खान मिस्बाही ने बकरीद पर्व के महत्व पर डाली रौशनी

Young Writer, धानापुर। हर धर्म में त्याग का बड़ा महत्व होता है। त्याग शब्द को इस्लामिक मान्यताओं में कुर्बानी कहा जाता है। बकरीद पर्व की नींव ही कुर्बानी शब्द पर रखी गई थी। इसका नैतिक अर्थ यह होता है कि इंसान अपने अंदर की बुराइयों की कुर्बानी दे।
ईद-उल-अजहा के बाबत जानकारी देते हुए टीचर्स एसोसिएशन मदारिसे अरबिया के जनरल सेक्रेटरी फैयाज खान मिस्बाही ने कहा कि अगर आप ईद-उल-अजहा यानी बकरीद के शाब्दिक अर्थ पर जाएं तो उससे ही पता चलता है कि यह कुर्बानी का त्योहार है जो अल्लाह की राह में दी जाती है। अजहा अरबी शब्द है, जिसके मायने होते हैं कुर्बानी, बलिदान, त्याग और ईद का अर्थ होता है त्योहार। इस त्योहार की पृष्ठभूमि में है अल्लाह का वह इम्तिहान है जो उन्होंने हजरत इब्राहीम का लिया। हजरत इब्राहीम उनके पैगंबर हैं। अल्लाह ने एक बार उनका इम्तिहान लेने के बारे में सोचा। उनसे ख्वाब के जरिए अपनी सबसे प्रिय चीज की कुर्बानी मांगी। हर बाप की तरह हजरत इब्राहीम को भी अपने बेटे इस्माइल से मोहब्बत थी। यह मुहब्बत इस मायने में भी खास थी कि इस्माइल उनके इकलौते बेटे थे और वह भी काफी वक्त बाद पैदा हुए थे। उन्होंने फैसला लिया कि इस्माइल से ज्यादा उनको कोई प्रिय नहीं है और फिर उन्होंने उनको ही कुर्बान करने का फैसला किया।
रास्ते में शैतान से मुलाकात
हजरत इब्राहीम जब बेटे लेकर कुर्बानी देने जा रहे थे तो रास्ते में उनकी मुलाकात शैतान से हो गई। उसने जानना चाहा कि वह अपने बेटे को लेकर कहां जा रहे हैं। जब हज़रत इब्राहीम ने उन्हें यह बताया कि वह उसे अल्लाह की राह में कुर्बान करने के लिए जा रहे हैं तो उसने उन्हें यह समझाने की कोशिश की क्या कोई बाप अपने बेटे की कुर्बानी भी देता है? अगर उन्होंने अपने बेटे को कुर्बानी दे दी तो फिर उन्होंने देखभाल करने वाला कहां से आएगा? जरूरी नहीं कि बेटे की कुर्बानी दी जाए, बहुत सारी दूसरी चीज हैं, उन्हें ही अपनी सबसे प्रिय बताकर कुर्बानी क्यों नहीं देते? एक बार तो हज़रत इब्राहीम को लगा कि यह शैतान जो कह रहा है, वह सही ही कह रहा है। उनका मन भी डोल गया लेकिन फिर उन्हें लगा कि यह गलत होगा। यह अल्लाह से झूठ बोलना हुआ। यह उनके हुक्म की नाफरमानी होगी। बेटे की कुर्बानी देते हुए उन्होंने अपनी आंख पर पट्टी बांध लेना बेहतर समझा, ताकि बेटे का मोह कहीं अल्लाह की राह में कुर्बानी देने में बाधा न बन जाए। फिर उन्होंने जब अपनी आंख से पट्टी हटाई तो यह देखकर चौंक गए कि उनका बेटा सही सलामत खड़ा है और उसकी जगह एक बकरा (दुम्बा) कुर्बान हुआ है। तभी से बकरों की कुर्बानी का चलन शुरू हुआ। इसी वजह से इस त्योहार को बकरा ईद या बकरीद के नाम से भी जाना जाता है।
इस तरह पूरी होती है हज की रस्म
बकरों के अलावा भेड़, ऊंट और भैंसे की भी कुर्बानी दी जाती है लेकिन शर्त यह होती है कि वह पूरी तरह स्वस्थ हों। उन्हें बहुत ही सम्मान दिए जाने की परंपरा है। जिस दिन बकरीद होती है, उसी दिन हज भी होता है। जो शैतान पैंगबर हजरत इब्राहीम को अल्लाह का हुक्म न मानने के लिए भटका रहा था, उसी के प्रतीक को हज के तीसरे दिन पत्थर से मारने की रस्म भी होती है। इस रस्म के साथ हज पूरा माना जाता है। दुनिया के भर के आजमीन खाना-ए-काबा की जियारत को मक्का शरीफ पहुंच चुके हैं और खुदा की इबादत में मशगूल है। वैसे सऊदी अरब की सरजमीं पर पहुंचने के साथ ही आजमीनों की इबादत का दौर शुरू हो जाता है। हज के अरकान की शुुरुआत इस्लामिक महीने की आठ तारीख से होती है। इसका आगाज मिना में बसे टेंट सिटी से होगा। आठ जिलहिज को पूरे दिन आजमीनों को मिना के मैदान में टेंट सिटी में रहना होगा। टेंट सिटी में रहकर खुदा की इबादत करेंगे और मगफिरत की दुआ मांगेंगे। हज के पाक सफर पर पांच दिन खास होते हैं। इस दौरान ही हज के सारे अरकान पूरे किए जाते हैं।

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