34.6 C
Chandauli
Sunday, July 6, 2025

Buy now

पुणे: प्रकृति के स्पर्श की एक अद्भुत यात्रा

- Advertisement -

Young Writer: देशाटन को सदियों से महत्वपूर्ण माना गया है। राजशाही व्यवस्था के दौरान राजा-महाराज अपनी प्रजा के सुख-दुख को जानने समझने और अपने साम्राज्य की सीमाओं के अंदर उनके राजाज्ञाओं के प्रभाव व दुष्प्रभाव को जानने के लिए समय-समय पर देशाटन करते थे ताकि उन्हें राजमहल के बाहर की दुनियां में क्या चल रहा है उसकी सही व सटिक जानकारी मिल सके। वर्तमान में देशाटन यानी यात्राओं को नई जगह, नए लोग, नई भाषाएं और नई सामाजिक ताने-बाने को जानने व समझने का सबसे स्रोत माना गया है।
तेजी से भागती दुनिया में मन व शरीर की थकावट को दूर करनी हो तो भीड़ व कंक्रीट के जंगल से बाहर निकलकर लोग पर्वतों-पहाड़ों व पेड़ों के बीच कुछ समय के लिए जा बसते हैं। यही छोटी बसावट उनके तन-मन से थकान को निचोड़कर उसे उसमें उत्साह, उमंग व उल्लास के रंग भरता है जिससे थक चुका मन फिर से चंचल और शरीर चुस्त-दुरूस्त हो उठता है। प्रकृति की झलक और उसके औषधीय स्पर्श को चिकित्सक भी जरूरी मानते हैं।

विसापुर की पहाड़ी पर नजारों को निहारते हुए हम सभी।

ऐसी ही एक यात्रा हमने भी शुरू की। यात्रा थी काशी की हिस्सा रहे चंदौली से पुणे की। होश संभालने से लेकर अब तक मैंने केवल पुणे की बातें सुनी थी उसका नाम सुना था लेकिन कभी वहां जाने और उससे जानने का अवसर ही नहीं मिला। लेकिन 24 जुलाई 2022 की मध्य रात्रि को तीनों अपने यात्रा के पहले पड़ाव यानी मुगलसराय जंक्शन, जिसे अब एकात्मवाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय के नाम से देश व दुनिया जानती है। रूटीन के कामकाज के बोझ व तनाव को घर पर ही छोड़कर हम सभी मुगलसराय जंक्शन पहुंचे। वहां थोड़ी इंतजार के बाद हमारी ट्रेन प्लेटफार्म पर पहुंची और हम अपने बोगी में सवार होकर अपने-अपने सीट तक पहुंचे। मध्यरात्रि बीत चुकी थी और चौथा पहर शुरू होने वाला था। लेकिन यात्रा की उत्सुकता के कारण निंद आंखों से गायब थी। ट्रेन अपने निर्धारित समय पर धीमी गति से प्लेटफार्म को छोड़ते हुए गंतव्य के लिए रवाना होती है और इसके साथ ही हम सभी का रोचक सफर शुरू होता है।

25 जुलाई का पूरा दिन हमारा ट्रेन में कट जाता है। मसलन दिनचर्या के सभी कामकाज हमें ट्रेन में निपटाने पड़े। सुबह उठे तो ट्रेन मध्य प्रदेश की सीमा में थी। रास्ते में पड़ने वाले स्टेशन पर हम सभी ने सुबह की चाय चखी और कुछ हल्का नाश्ता किया। ट्रेन यात्रा के दौरान घर के खाते का स्वाद की याद आने के साथ ही घर से दूर होने का हल्का ऐहसास भी हुआ। पूरे दिन ट्रेन का पहिया चलता-रूकता रहा और उसके साथ हमारी यात्रा आगे बढ़ती गई। ट्रेन पहाड़ी इलाकों से गुजरती तो हरी-भरी प्रकृति मन को स्पर्श कर जाती। पूरा दिन ट्रेन की बर्थ पर नजारे देखते और गाने सुनते हुए बीत गया। शाम के वक्त जैसे ही अंधेरा हुआ हमारा आर्डर किया हुआ खाना हम तक पहुंचा। भूख सभी को लगी थी लिहाजा सभी ने बिना देर किए खाने के पैकेट को खोना। देखने में खाना की गुणवत्ता अच्छी लगी रही थी, लेकिन जब हमने उसे चखा तो वह भी बेदम व स्वाद रहित निकला। पेट की आग बुझानी थी लिहाजा स्वाद को भूलकर सभी ने जल्दी-जल्दी खाना खाया। इसके बाद अपनी-अपनी सीट पर लेट गए। समय बीतने के साथ ही ट्रेन हम सभी को लेकर अपने गंतव्य के करीब तेजी से पहुंच रही थी। बीच-बीच में हमारा मेजबान यानी गोविंद हमारी लोकेशन वाट्सऐप चैट के जरिए पूछता रहता। ट्रेन सुबह पांच बजते-बजते पुणे जंक्शन पहुंची और हम अन्य यात्रियों के साथ प्लेटफार्म पर उतरे और गोविंद के बताए हुए रास्ते से जंक्शन से बाहर आए।

बाहर आते ही गोविंद से हमारी मुलाकात हुई। आत्मीय मुलाकात के बाद हम सभी गाड़ी में बैठकर अपने नए पड़ाव यानी गोविंद के घर के लिए निकल पड़ते हैं। 15 मिनट की ड्राइव के बाद पिंपरी चिंचवड महानगर पालिका की सरहद में पहुंचे और घर पहुंचने से पहले हम सभी ने रुककर सुबह की चाय की चुस्की ली। चाय पीते ही ट्रेन यात्रा की थकान से थोड़ी ताजगी मिली। फिर हम सभी घर पहुंचते हैं और अपने-अपने बैग को जहां जगह मिला वहीं छोड़कर आराम करने लग जाते हैं। थोड़े विश्राम के बाद हम सभी के दिन की शुरूआत होती है। गोविंद के घर में काफी सुसज्जित और स्वच्छ था। हर चीज जगह पर और सही तरीके से रखी गयी थी। दैनिक उपयोग की सभी चीजें घर के अंदर मौजूद थी या हूं कहें कि जितनी जरूरत हो उससे कुछ ज्यादा ही। पहला दिन घर पर खाने-बनाने और बातचीत में बीत गया। दिन ढलता है और शाम होती है। जो कब रात में बदल जाती है दोस्तों से बातचीत में पता ही नहीं चल पाता। देर रात तक हम सभी एक-दूसरे से बातें करते हैं और सुबह घूमने की योजना के साथ अपने-अपने बिस्तर पर लेट जाते हैं।
यात्रा की थकान और नर्म गद्दा। नींद अभी पूरी भी नहीं होती है कि गोविंद की आवाज हम सभी के गांवों में अलार्म की तरह गूंजने लगती है। सुबह के चार बज रहे होते हैं। हम सभी फुर्ती के साथ बिस्तर छोड़कर उठते हैं और खुद को बाहर जाने के लिए तैयार करते हैं। यात्रा का पहला दिन पौ फटने से पहले ही शुरू हो जाता है और इसका पूरी क्रेडिट गोविंद को जाता है जो पूरी सजगता के साथ हमें शहर से निकालकर पहाड़ों की ओर ले जाता है।

बिसापुर पहाड़ी की परिक्रमा
हमारा डेस्टिनेशन होता है बिसापुर। एक सामान्य सा दिखने वाला इलाका। हम सभी हाइवे से होते हुए आधे घंटे की यात्रा के बाद बिसापुर के करीब पहुंचते हैं। रास्ते में चाय और महाराष्ट्र के ट्रेडनिशन फूड बड़ा पाव के साथ अपने दिन की शुरूआत करते हैं। आगे बढ़ने में प्रकृति का स्पर्श हम सभी को ताजगी से भर देता है। पहाड़ के नीचे गाड़ी पार्क करके जैसे ही हम बाहर निकलते हैं। ऐसा लगता है वहां चारों मौजूद धूंध और ठंडी हवाएं हमें पहाड़ों के करीब आने आमंत्रण दे रही हों। धुंध के कारण के वहां दृश्यता बेहद कम थी जिस कारण हमें कुछ भी लेकिन पेड़ों व उसकी आवरण के बीच मौजूद जीव-जंतुओं की आवाज हमारे कानों तक स्पष्ट पहुंच रही थी। इसके बाद हम सभी गोविंद के साथ पैदल ही पहाड़ की ओर निकल पड़ते हैं।
10 मिनट की पैदल गश्त के बाद हम सभी बिसापुर पहाड़ी की ट्रैकिंग प्वाइंट के पास पहुंचते हैं जहां पहले से ही कुछ लोग पहाड़ चढ़ने की तैयारी में थी। उनका ग्रुप बड़ा था और वे आपस में एक-दूसरे को हंसने-हंसाने मशगूल थे। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था जैसे ही प्रकृति सौन्दर्य के बीच जीवन अपने आप में रंग भरकर उसे निखार रही हो। उत्साह से भरपूर हम चार चढ़ाई के लिए चट्टान की ओर आगे बढ़ते हैं। पेड़ों के बीच आते ही हम सभी को घनघोर जंगल जैसा माहौल मिलता है। हम एक-दूसरे से बातें करते हुए मोबाइल से फोटो व वीडियो बनाते हुए आगे बढ़ते हैं। इस बीच पेड़ों पर उझल-कूद मचा रहे बंदर हमें यह एहसास दिला रहे थे वहां हम अकेले नहीं है। कोई है जो हमारी गतिविधियों पर नजर बनाए हुए है। इसके साथ ही एक ओर चीज थी जो हमें निगरानी में रखें हुए थी और वो था हम सभी का मोबाइल। पहाड़ चढ़े नहीं कि फोटो व वीडियो बनाने का सिलसिला शुरू हो गया। गोविंद अपने स्वभाव के अनुरूप बेहद सादगी के साथ बिसापुर की फिजाओं को इंज्वाय कर रहा था वहीं अशफाक अपने वाट्सऐप, फेसबुक व इंस्टाग्राम के लिए अच्छे फ्रेम की फोटो व वीडियो तलाश रहा था उसकी इस तलाश में पहाड़ की चढ़ाई कई बार रुकती, जिससे सभी को थोड़े समय के लिए अपनी-अपनी शारीरिक थकावट को दूर करने का मौका मिल जाता है।

विसापुर पहाड़ी पर चढ़ाई की तैयारी।

पहाड़ की चढ़ाई में मैं पीठ पर बैग लिए सूरवीर की तरह तेजी से आगे बढ़ रहा था। इस बात की परवाह किए गए बगैर कि मेरा शारीरिक बनावट और दिनचर्या पहाड़ चढ़ना नहीं, बल्कि कम्प्यूटर के सामने बैठकर दिन भर दिमागी दंगल करना है। लेकिन मेरे दोस्त इस बात से भली भांति वाकिफ थे। उनके द्वारा मुझे बार-बार हिदायत दी जाती रही कि धीरे चढ़ो, नहीं तो थक जाओगे। लेकिन प्रकृति से मुलाकात की बेसब्री इस कदर थी कि तेजी से मैं आगे बढ़ता गया। चढ़ाई अब चंद कदमों की थी हम सभी अकेले ही पहाड़ पर चढ़े जा रहे थे। हालांकि पीछे से लोगों का कई जत्था आ रहा था, जिनके होने की आहत स्वच्छ व साफ वातावरण में स्पष्ट सुनी जा सकती थी। तेजी से चढ़ाई करने के कारण थकान से मेरे शरीर को अपने चपेट में ले लिया। सभी नीचे और मुझसे पीछे थे। इसलिए पत्थर वहीं बैठकर उनके आने का इंतजार करने लगा, ताकि आगे की चढ़ाई उनके साथ पूरी की जा सके। लेकिन जब वे पास आए तो मैं पूरी तरह से बदहाल हो चुका था। मेरी चेतना धीरे-धीरे शून्य होने लगी और जैसे ही दोस्त पास आए पूरा बदन ढीला पड़ गया। कुछ मिनटों के लिए वहां क्या हुआ मुझे पता ही नहीं चला। लेकिन जैसे ही मेरी आंख खुली सभी चिंतित व परेशान हाल मिले। थोड़ी देर वहीं रुकने के बाद हम सभी नई ताजगी के साथ आगे बढ़े और चंद मिनटों में बिसापुर की पहाड़ी पर पहुंच गए। वहां पहुंचते थे आसपास का जो नजारा था वह किसी जन्नत से कम नहीं था।

सिंहगढ़ किले का विहंगम दृश्य।

ठंडी हवाओं ने हमारी नशों व शरीर में नई जान फूंक दी और हम सभी भूल गए कि पहाड़ चढ़ते समय रास्ते में कुछ हुआ भी था। फिर हमने अपने साथी या यूं कहें सारथी गोविंद की अगुवाई में पहाड़ के परिक्रमा करने की योजना बनाई, ताकि बिसापुर की वादियों को हम सभी अच्छे से देख व निहार सके उसे अपनी स्मृतियों में कैद कर सके। ताकि जब भी उदासी हमारे मन-मस्तिष्क को अंधेरे में खींचने का प्रयास करे उसे इन यादों की रौशनी से रौशन किया जा सके। हम चलते गए और एक से बढ़ एक अद्भुत नजारे हमारे आंखों के सामने से गुजरते गए। ऐसा लग रहा था कि हम चलते रहें और यह यात्रा यूं ही आगे बढ़ती जाए। लेकिन कुछ ही मिनटों में भगवान भास्कर भी अपनी मौजूदगी का ऐहसास हमें कराते हैं। तब प्रतीत होता है कि अब पहाड़ों से नीचे उतरने का वक्त हो गया है, लेकिन हमारा अभी भी अदृश्य और काफी दूर था, जिसे जैसे-तैसे हम सभी ने पूरा किया और वहां पहुंचे जहां से हमने परिक्रमा पूरी की थी। दिन चढ़ आया था और हम सभी कुछ स्पष्ट दिख रहा था लोगों की आमद भी भारी मात्रा में पहाड़ पर हो चुकी थी। हम संभल कर पत्थरों पर अपने पैर जमाते हुए पूरी सावधानी से नीचे उतरते हैं और गाड़ी में सवार होकर घर के लिए निकल पड़ते हैं। घर पहुंचने के बाद सभी आराम फरमाने लगते हैं। शाम को फिर से हम सभी शहर की चकाचौंध देखने के लिए निकल पड़ते हैं।

मेरे लिए पूरे नई जगह थी इसलिए वहां मौजूद एक-एक इलाके जानने की उत्सुकता हमेशा मन में बनी रहती थी। ऊंची-ऊंची बिल्डिंगे मानों पुणे के विकास में लिखी गई इबारत के साथ एक दस्तख्त के रूप में मौजूद हो। शहर बड़ा था, लेकिन वहां साफ-सफाई व आम लोगों का जीवन काफी अनुशासित था। अधिकांश आबादी वहां नौकरीपेशा थी और शनिवार को विकेंड होने के कारण होटल, रेस्टूरेंट में खाने व खिलाने वालों का तांता जगह-जगह लगा था। हम भी खाने पहुंचते मिसेल पाव। यह भी पाव था लेकिन कुछ अलग तरह था। जिसे खाने का अंदाज भी अलग था और वहां रेस्टूरेंट में खिलाने का अंदाज भी काफी अलग था। यानी आपके पेट में जितनी जगह है मिसेल पाव से भर लीजिए उसका कोई अतिरिक्त पैसा नहीं लगने वाला है।
हम पांच थे और उसमें मैं ही एक ऐसा शख्स था जिसने पहले कभी मिसेल पाव नहीं खाया था। गोविंद और उसका लोकल फ्रेंड राजीव इस खाने के स्वाद से बखूबी वाकिफ थे। हम सभी खाना शुरू करते हैं और जल्दी ही मेरे साथ इरफान और अशफाक की पेट पूजा पूरी हो जाती है। लेकिन गोविंद और राजीव पूरे इत्मीनान के साथ मिसेल पाव को इंज्वाय करते हैं। इसके बाद हम सभी लोग शहर में ही थोड़ी पैदल यात्रा करते हैं और वापस अपनी गाड़ी के पास पहुंचते हैं। अगले दिन मुलसी की पहाड़ियों पर जाने की योजना बनती है और एक बार फिर देर रात तक बातचीत का दौर आपस में चलता रहता है।

मुलशी पहाड़ी पर सेल्फी प्वाइंट के पास।

मुलशी की सुंदरता में मिली सुकून व शांति
सुबह फिर से गोविंद की पुकार पर सभी उठते हैं और मुलशी की पहाड़ियों को निकल पड़ते हैं। यात्रा की शुरूआत चाय से ही होती है। हम सभी जैसे ही शहर को पीछे छोड़कर आगे निकलते हैं। पहाड़ों पर बसी आबादी और टिमटिमाती रौशनी को सुबह होने से पहले देखना भी अपने आप में एक अलग रोमांच पैसा करता है। यात्रा के दौरान ही रात का अंधेरा धीरे-धीरे छट जाता है और सुबह होते-होते हम सभी ऐसी जगह होते हैं जहां प्रकृति खुद का श्रृंगार करके अपनी सुंदरता से हम सभी को रिझा रही थी। पहाड़ों व पेड़ों से धुंध ऐसे लिपटी थी जैसे कोई प्रेमी अपनी प्रेयशी के बाहों में लिपटा पड़ा हो। रविवार होने के कारण लोग भागदौड़ भरे जीवन को पीछे छोड़कर पहाड़ों पर काफी आगे निकल चुके थे। हर कोई संडे की सुबह को अपने अंदाज में अपने तरीके से इंज्वाय कर रहा था। हम सभी अपने तरीके से मस्ती कुंड में पूरी तरह से डूबोए पड़े थे।

मुलशी पहाड़ी की सुंदरता।

मुलशी के शुरूआती प्वाइंट पर रुकने के बाद हम सभी धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं। जैसे-जैसे हमारी गाड़ी आगे बढ़ती है पहाड़ों के विहंगम दृश्य को देखकर हम सभी यह तय नहीं कर पा रहे थे कि जिस दृश्य को देख और किसी ना देखें। वहां कण-कण में सुकून था। हर मोड़ में एक नया दृश्य हमारे आंखों के सामने आ जाता, जो हमें अचरज में डाल देता। जिसे देखकर हम सभी यह सोचने पर विवश थे कि काश हमारा हर दिन ऐसे ही शुरू हो जैसा कि आज है। यह आज कभी बीते हुए कल में ना बदले। लेकिन समय का चक्र कहां किसी के लिए रुका है जो आज हमारे लिए रुकता है। ऐसे में हम भी जगह-जगह रुकते गए हंसते और एक-दूसरे को हंसाने के साथ ही प्रकृति को स्पर्श को महसूस करते हुए उसे अपने-अपने मोबाइल में कैद करते हुए आगे बढ़े। लम्बी दूरी चलने के बाद हमने पहाड़ों पर रुकने का फैसला किया। हम जहां रुके वहां से नीचे का दृश्य साफ दिख रहा था। पहाड़ों के बीच एक बड़ा औद्योगिक शहर झीलनुमा नदी किनारे बसा था जो दूर से बेहद शांत और सुंदर नजर आ रहा था। वहां भी कुछ सेल्फी, फोटो व वीडियो बनाने के बाद हमारी गाड़ी मुड़ती है और हम फिर से लौटने लगते हैं अपनी यात्रा को पीछे छोड़कर कुछ दूर चलने के बाद हम एक ढाबे पर रुकते जहां चाय के साथ बड़ा पाव खाने को मिलता है। थोड़े पड़ाव के बाद हम फिर से वापसी की राह पर निकल पड़ते हैं। हम भले ही वापस लौट रहे थे लेकिन हमारा मन अभी भी उन पहाड़ों में ठहरा हुआ था। वहां का दृश्य भुलाए नहीं भुल रहा था। मुलसी की पहाड़ियों को देखकर लगा कि जन्नत कहीं है तो वह है प्रकृति की गोद में। जहां प्रकृति, पेड़ व पहाड़ है असली जीवन वहीं है हम तो बस कंक्रीट के जंगल में आधुनिक वनवास काट रहे हैं जो बेमतलब है। हमारी अंधाधूंध भागदौड़ चंद पैसों के लिए है जो दैनिक जरूरतें तो पूरी करती है, लेकिन सुकून नहीं देती।

मुलशी पहाड़ी की सुंदरता।

दो दिनों तक लगातार पहाड़ों पर चढ़ने व चलने से हमारा शरीर काफी थक चुका था और हम ऐसी स्थिति में बिल्कुल नहीं थे कि अब अगले दिन कहीं जा सके। इसलिए हमने अगले दिन ब्रेक लेने का फैसला किया और सभी लोग थकान से चूर बेफिक्र होकर सो गए और सुबह काफी समय तक बिस्तर पर ही चादरों में लिपटे रहे। पुणे का मौसम बेहद शानदार और एकरस था जहां न तो अधिक गर्मी का एहसास था और ना ही ठंड ही उतनी थी कि लोगों को उससे बचाव का कोई यतन करना पड़े। पूरा दिन हमने छुट्टी कर तरह काटा और शाम होते ही शहर के लिए निकल पड़े। कई मॉल व शापिंग सेंटर पर गए और कुछ तरह के सामान भी खरीद भी हम सभी ने की। इस दौरान स्थानीय लोगों से कभी भी बातचीत का मौका ही नहीं मिला। अब बारी थी खाने की। आज कुछ नया टेस्ट करने का मन हुआ तो गोविंद और राजीव हम लोगों को दाल-बाटी खिलाने के लिए ले गए। बाटी हमारे लिए कोई नई चीज नहीं थी। हम अक्सर रही बाटी-चोखा, बाटी-मुर्गा और बाटी-बकरा का स्वाद चखते रहते थे। लेकिन शहरवासियों के बाटी यूनिक फूड था और उसे दाल के साथ चखना और भी यूनिक। इसका पता उस वक्त चला जब हम सभी लोग बाटी खिलाने वाले के पास पहुंचे। जहां इतनी गाड़ियां खड़ी थी जिसे देखकर अंदाजा लग गया कि यहां की बाटी के लोग दीवाने है। हम सभी गाड़ी पार्क कर रहे थे तभी राजीव भागकर गया और रजिस्टर में नाम दर्ज कराकर लौटा। पूछने पर बताया यहां खाने के लिए नंबर लगता है। नाम पुकारा जाता है तब जाकर सीट मिलती है और सीट मिलेगी, तभी खाने को भी मिलेगा। करीब 40 मिनट के बाद हमारा भी नंबर आता है और हम सभी अपनी-अपनी सीट तक पहुंचते हैं और बाटी के साथ दाल परोसा जाता है। पहला निवाला खाते ही यह महसूस हो जाता है कि आखिर यह जगह इतनी मसहूर क्यों है। कुछ तो बात थी कि वहां की बाटी और दाल में।

मुलशी पहाड़ी पर प्राकृतिक सौंदर्य के बीच सेल्फी।

सिंहगढ़ः जहां मिलते हैं प्रकृति और इंसान
अगला दिन हमारी यात्रा का अंतिम दिन होता है और सभी लोग सिंहगढ़ पहाड़ चलने की योजना बनाते हैं। फिर से सुबह हमारी यात्रा वैसे ही शुरू होती है जैसे पिछले दो दिनों में हुई थी। हमसभी करीब एक घंटे की यात्रा के बाद रास्ते में रुकते हुए सिंहगढ़ की पहाड़ियों पर पहुंचते है। यहां भी पहाड़ों को धुंध अपनी आगोश में लिए हुए थी। हम सभी ऊपर पहुंचने के बाद वहां पार्किंग में अपनी गाड़ी खड़ा करके जैसे ही बाहर निकलते हैं वहां की आबोहवा हमें तरोताजा कर देती है। ऐसा लग रहा था मानो पहाड़ों पर हवाएं नहीं, बल्कि अमृत बह रही है जो भी उसका पान कर ले वह अमर हो जाए। पहाड़ों की चाय को चखने के बाद हम सभी ऊपर मौजूद सिंहगढ़ किले के अवशेष व वहां मौजूद प्राकृतिक सौंदर्य अपनी यादों में समेटने के लिए निकल पड़े। कुछ सीढ़ियां चढ़ने के बाद हमें सिंहगढ़ किले का द्वार दिखता है जो आज भी उसी मजबूती के साथ तटस्थ जैसा वह राजा-महाराज के दौर में हुआ करता था। सिंहगढ़ किले की अपनी कहानी है, जिसे हर किसी को पढ़नी व जाननी चाहिए। हम चलते और चढ़ते हुए किले के ऊरूज पर पहुंचते हैं जहां ठंडी हवाएं पूरे दम से पेड़ों की पत्तियों व टहनियों को झंकझोर रही थी। वहां में नमी और बूदों का मिश्रण हमारे चेहरों व आंखों को ठंडक पहुंचाने के साथ ही हमारे मन-मस्तिष्क को भी शीतलता प्रदान कर रहा था।

हम सभी ने फिर से किले के एक छोर से चहलकदमी शुरू की। आवागमन में सुविधा व सहूलियत के लिए महाराष्ट्र सरकार के पर्यटन विभाग की ओर से पैदल चलने वाले रास्तों का निर्माण पूरे किले में कराया गया था और भी बहुत कुछ था जो वहां बन चुका था या फिर बनने की प्रक्रिया में था। वहां दूरदर्शन केंद्र के साथ-साथ मोबाइल टावर तक स्थापित थे ताकि कम्युनिकेशन में कोई बाधा न आए। साथ ही पर्यटकों को रिझाने के लिए रिसार्ट आदि की भी सुविधाएं स्थापित नजर आ रही थी। लेकिन इस सब चीखों को दरकिनार कर हम पहाड़ी के कोनों पर प्राकतिक से मिलने को व्याकुल और आकुल नजर आ रहे थे, यहां भी हमारे साथियों के कैमरे का फ्लैस खूब चमक रहा था। किले के कोन-कोने को जानने व समझने के लिए जगह-जगह दिशा-सूचक बोर्ड के साथ ही सूचना पट्टिकाएं स्थापित की गयी थी, जहां वहां मौजूद हर छोटी-बड़ी चीज के ऐतिहासिक व प्राचीनता का प्रतीक थी। हम घुमते टहलने, हंसते हंसाते किले का चक्रमण करते हुए आगे बढ़ते रहे। बीच में रुके तो वहां किले के अंदर ही महिलाएं अपनी आजीविका के लिए प्याज के पकौड़े और चाय की दुकान लगाए हुए मिली। वहां मौजूद दरवाजे से मैं नीचे तक गया और कुछ दूर चलने के बाद वह रास्ता पेड़ों के बीच खो गया। हम सभी वहां रुके कुछ फोटो खींची और चाय के साथ पकौड़े को चखा। वापसी के वक्त मौसम साफ हुआ तो आसपास की पहाड़ियां भी नजर आने लगी। लेकिन वहां पल-पल मौसम बदलता रहता। कभी धुंधा छट जाती तो कभी घनघोन धुंध किले को अपनी आगोश में ले लेती। वापसी के समय किले में लोगों की चहल-पहल अच्छी खासी हो गयी और वहां कई दुकानें भी खाने-पीने की खुली हुई नजर आयी, जो स्थायी रूप से पहाड़ों पर ही रहते हैं और पर्यटकों की मेजबानी करके अपनी आजीविका चलाते हैं।

वहां से लौटने के बाद हम सभी घर वापसी की तैयारी में जुट गए। सामान को बैग में फिर से समेटने का वक्त आया था। हम वो सबकुछ पीछे छोड़े जा रहे थे जो हमारे जेहन को सुकून पहुंचा रही थी। लेकिन यह यात्रा भी कभी न कभी खत्म होती ही। जैसे एक दिन हम सभी की जीवन यात्रा खत्म हो जाएगी और हम न चाहते हुए हम सबकुछ यहीं पीछे छोड़ जाएंगे। अपने घर-परिवार, चाहने वाले यार-दोस्त और भी बहुत कुछ जिन्हें पाने के लिए हम सभी आज अपना जीवन खपा रहे हैं। कुछ पाने की लालसा में अपनों से दूर होकर जीवन के कीमती वक्त को यूं ही जाया कर रहे हैं। शाम को एक बार फिर और हम शहर घुमने निकले और रात को वहां की एक मशहूर रेस्टोरेन्ट पहुंचे, जो बेहतरीन बिरयानी खिलाने के लिए जाना जाता है। बिरयानी खाने की योजना पहले से थी तो वही आर्डर किया गया। जैसे ही हमने उसके निवाले को चखा, लगा कि खाने में टेस्ट है जो उस रेस्टूरेंट को बेस्ट बनाता है। अगली सुबह हम सभी जाने की तैयारियों में लगे रहे। देखते ही देखते शाम हुई और हम सभी फिर से उसी पुणे स्टेशन के लिए रवाना हुए जहां से हम सभी का यह शानदार सफर शुरू हुआ था। ट्रैफिक जाम में फंसते-फंसाते हम स्टेशन तक पहुंचे और अब गोविंद व इरफान ने हमें और अशफाक को गले मिलकर विदा किया। वापसी में हम दो ही लौटे। गोविंद अपने जिंदगी में फिर से व्यस्त हो गया। 28 घंटे की यात्रा के बाद हम और अशफाक मुगलसराय जंक्शन पहुंचे और फिर आटो से अपने-अपने घर हो लिए। इसके बाद जिंदगी फिर से उसी पटरी पर लौट आयी।

पुणे की यात्रा बेहर शानदार रही। इसे गोविंद के साथ ने और भी शानदार बनाया। इरफान व अशफाक का बाहर घुमने के पुराने अनुभव ने इस यात्रा में रंग भरने का काम किया। ऐसी यात्राएं इंसान को बहुत कुछ सिखाती है। हम सभी ने भी इस यात्रा को इंज्वाय करने के साथ बहुत कुछ सीखा। मेरी नजर में वहां के लोगों का जीवन शांत, संतुलित व अनुशासित नजर आया। वहां कर कोई काम करके खुश नजर आ रहा था। शहर हो या गांव वहां की महिलाएं कामकाजू थी और छोटे-मोटे व्यवसाय करके अपने आप को सशक्त व स्वावलम्बी बना रखा था। यही वजह थी कि उनके अंदर खुद का आत्मबल काफी मजबूत नजर आ रहा था। दोस्तों के साथ यह मेरे जीवन की पहली और शानदार यात्रा रही, मुझे हमेशा याद रहेगी।

पुणे की यात्रा यहीं समाप्त।

Special thanks, Govind Gupta…

Related Articles

Election - 2024

Latest Articles

You cannot copy content of this page

Verified by MonsterInsights