Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से
’आई लव यू’ (I Love You) न जाने कबसे मैं अपनी जुबान से कहना चाहता हूँ। मैं बहुत बार, बार-बार कहने की कोशिश करता हूँ मगर कभी कह नहीं पाता। जब भी कहना चाहता हूँ, कहने का सुयोग बनता है, हलक सूख जाता है। जीभ जाकर तालू से जड़ जाती है। मैं विस्मित, विमूढ़, ठगा-सा खड़ा अपना मुंह ताकता रह जाता हूँ। अपनी किस्मत पर पछताता हुआ, अपने दुर्भाग्य पर माथा पीटता हुआ, हर बार अवसर चूक जाने पर हाथ मलता हुआ सोचता हूँ और सोचते-सोचते सोचता रह जाता हूँ।
मैं बार-बार, बराबर सोचता हूँ-आखिर ऐसा क्यों है? मगर किसी निभ्र्रान्त निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाता। तरह-तरह के विचार आते हैं और मुझे झोरकर, झकझोरकर चले जाते हैं। मैं उनकी ताड़ना से प्रताड़ना से कांप-कांप जाता हूँ। झंझावात से झकझोरे हुये फूलों से लदे-फदे पेड़ की तरह कुछ समय के लिये अपनी ही सुगन्धि की विच्युति से खीझ-खीझ उठता हूँ। कभी ग्लानि में मरता हुआ तड़प उठता हूँ। कभी अपने ही ऊपर लज्जित होकर अपनी ही आंखों से छिपने की असफल कोशिश करने लगता हूँ। तरह-तरह के यत्न-प्रयत्न करके भी मन में चैन नहीं पाता। अपनी बेचैनी में ठांव-कुठांव चलते-ठहरते मैं निरन्तर सोचता रहता हूँ।
कभी सोचता हूँ, अंग्रेजी भाषा में दक्ष और कुशल न होने के कारण कहीं ऐसा तो नहीं है? हाँ हो सकता है। उस भाषा के प्रवाह में मेरी कोई गति नहीं है। कान्वेण्ट के शिक्षितों की तरह मैं कत्तई फर्राटेदार अंग्रेजी नहीं बोल सकता। विराम और अनुशासनहीन धारा प्रवाह अंग्रेजी समझ भी नहीं सकता। फिर भी कुछ वाक्य या वाक्यांशों को कहने और समझने का काम तो चला ही सकता हूँ। फिर मुझे ऐसा नहीं लगता कि किसी भी भाषा का एक वाक्य कहने के लिए उस भाषा के समूचे व्याकरण और उसके इतिहास से वाकिफ होना निहायत जरूरी हैै। अभी तक मैं न जाने कितनी बार सिनेमा और टेलीविजन के पर्दे पर कितने नायकों और महानायकों के मुंह से ’आई लव यू’ कहते सुन रखा है। उनके बारे में इतना तो मुझे पता ही है कि वे सारे लोग अंग्रेजी भाषा के जवाहर लाल नेहरू, हरिवंश राय बच्चन और फिराक गोरखपुरी की तरह अनन्य अधिकारी नहीं हैं। आजकल तो मैं तमाम लोगों को अंग्रेजी के प्रचलित और अप्रचलित शब्दों को धड़ल्ले से बोलते सुनता हूँ, जिन्हें न तो अंग्रेजी आती है और न तो हिन्दी ही और वे हिग्लिंस बोलते हैं। खैर, अब क्या बताऊं। ’आई लव यू’ तो मैंने गली-नुक्कड़ के ऐसे शोहदों को भी कहते सुना है, जो अभी मैट्रिक की परीक्षा भी नहीं पास कर सके हैं और न आगे ही पास कर सकने का हौसला रखते हैं। फिर कैसे समझूँ कि अंग्रेजी भाषा में अपनी कमजोरी के कारण ही मैं ऐसा नहीं कह पाता हूँ।
कभी विचार आता है कि कहीं मैं निपट गँवार और गावदी होने के कारण तो ऐसा नहीं कह पाता? हाँ यह सच है कि मेरा जन्म गाँव में हुआ है। मेरा पालन-पोषण गाँव में हुआ है। आज भी मैं गाँव में ही रहता हूँ। जब मैं गाँव में नहीं भी रहता हूँ, तो गाँव मेरे में रहता है। इस तरह मेरे कहीं भी रहने से गाँव से मेरा विलगाव कभी नहीं होता। बहुत लम्बे समय तक गाँव में न रहते हुये भी मैं कह सकता हूँ कि जन्म से लेकर अब तक मैं हमेशा गाँव में हूँ। जिनके लिये ग्रामवासी होना और गंवार होना एक जैसा ही है, उनसे मेरा कोई अनुरोध नहीं है, जो केवल भाषा के रूढ़ अर्थ का ही बोध रखते हैं, उनके साथ किसी भी प्रकार के विमर्श में मेरी कोई रूचि नहीं है। मगर मैं जानता हूँ भाषा के व्यापक व्यंजना बोध से ताल्लतुक रखने वाले लोग भी हमारे बीच में कम नहीं होते और उनकी समझ को कभी पिछलग्गू समझ पीछे नहीं छोड़ पाती। निश्चय ही ऐसे लोगों की संसद में ग्रामीण और गंवार को कभी भी समानार्थक नहीं समझा जाता।
जो लोग अपनी जमीन में पुष्टिकारक अन्नों, रसदार फलों और सुगन्धित फूलों की फसल के साथ सरल जीवन के उच्चतर मानवीय मूल्यों के बीज उगाते रहे हैं, उन्हें गँवार कहना भाषा में व्यभिचार से कम कुत्सित नहीं है। नहीं, वसन्त जिन लोगों से सबसे पहले मिलने के लिए उनके बागों में आता है, बादल जिनकी आँखों में इन्द्रधनुष के चित्र सबसे पहले बना जाते हैं, उन्हें परजीवी अहमन्यता के अलावा कौन गंवार कह सकता है। जो किसी को धोखा नहीं देते, जो सभी का सम्मान और सत्कार करने में आत्मतोष का अनुभव करते हैं, और अपने हृदय के भावों से इतर कोई बात कहने में जो हजार बार हिचकते हैं, उन्हें गावदी वही कह सकते हैं, जो जीवन के व्याकरण की नाक पर रूमाल बांधकर निष्ठा का तुक दिन-रात विष्ठा से मिलाने का कारोबार करते हैं। नहीं मुझे नहीं लगता कि ग्रामीण संस्कार का संकोच और अभिव्यक्ति की हिचक मुझे ऐसा नहीं कहने देती।
कभी कोई विचार मेरे कानों में कुछ ऐसी ध्वनियों का विस्फोट करता है कि मैं बहुत भीतर तक दहल उठता हूँ। कभी कहता है- ‘‘बहुत छोटी-छोटी मामूली बातों को लेकर बहुत गंभीरता से सोच-विचार करने का आग्रह एक तरह की मनोग्रंथि है। इससे तुम बेवजह अपने को अपने आप गरिमामण्डित करने की गरज से खुद को बहुत नैतिक, पवित्र और उत्तरदायित्व पूर्ण दिखाने की कोशिश करते हो।’’
’’तुम बेवजह एक नितांत महत्वहीन बात को लेकर ऐसे माथापच्ची करने बैठे हुए हो जैसे कि भारतीय राजनेता पाक अधिकृत कश्मीर पर या चीन के कब्जे में पड़े सांस्कृतिक अस्मिता के प्रतीक कैलाश मानसरोवर पर भी कभी अपनी भूमिका के बारे में चिन्तन को नहीं बैठते हैं?
’’सच तो यह है कि तुम अद्यतन जीवन शैली में फिट ही नहीं बैठ पाते हो। इसी से अपने पिछड़ेपन को छिपाने के लिए तरह-तरह के बहानों को वैचारिक उदात्तता का जामा पहनाते रहते हो।’’
यह समय बहती गंगा में हाथ धो लेने का समय है। नहाने का, डूबने-तैरने का और आर-पार की माला चढ़ाने का समय नहीं है। इतनी फुर्सत आज किसी के पास नहीं है। इस समय में दुनियाँ की हर चीज महज एक उत्पाद है और हर आदमी बस एक उपभोक्ता। यह समय किसी भी कीमत पर लाभ अर्जित कर लेने का, फायदा कमा लेने का समय है। आम के आम और गुठलियों के भी दाम लगा लेने का समय है। इस समय में कोई भी बिना लाभ की कोई बात सुनने-समझने के लिए कत्तई खाली नहीं है। अपने समय के प्रवाह में शामिल होने से वंचित तुम्हारे जैसे लोग अपनी असफलता को निष्ठा के पल्लू में डालकर झूठी सांत्वना से आह्लादित होने की व्यर्थ कोशिश करते हैं।’’
मेरा जी तिलमिला उठता है, ये बातें सुनकर। मैं तमतमा उठता हूँ। मन होता है, खूब झरपेट दूँ। औकात बता हूँ, बेहूदे को। मगर तभी ख्याल आता है, क्यों आखिर क्यों ऐसा सोचते हैं। हम इतने रूढ़ और अवधारणाग्रस्त जीवन के अभ्यस्त क्यों हैं? हम क्यों केवल अपनी मूल धारणा के अनुकूल ही बातें सुनने के अभ्यासी हो गए हैं? हम हर किसी से केवन अपना समर्थन और अपनी अनुशंसा के ही आकांक्षी क्यों हैं? नहीं, नहीं ऐसा विचारों की स्वतंत्रता और समादर का नारा लगाने वाले लोगों के लिए मिथ्याचार का नमूना है। और फिर यह विचार भी तो मेरे ही अस्तित्व का हिस्सा है। अपने ही अस्तित्व की किसी सतह से उठने वाले विचार को अनसुना कर देना किसी भी तरह उचित और उपयुक्त नहीं है। मेरा मन शान्त हो जाता है और ठंडे चित्त से अपने विचार पर विचार करने लगता हूँ।
यह सत्य है कि हर आदमी अपने में अपनी श्रेष्ठता को पा लेने की अभीप्सा रखता है। मैं भी रखता हूँ। अपने में अपनी श्रेष्ठता को पा लेने का उपक्रम ही मेरे लिए लेखन का मूल मकसद है। इस उपक्रम का, इस उद्योग का हर पल मुझे बेहद रसपूर्ण लगता है। मैं जो हू उसी के उद्घाटन में हमेशा तल्लीन रहता हूँ। मैं जो नहीं हूँ, जैसा नहीं हूँ वैसा दिखने या दिखाने का आग्रह पाखण्ड है। पाखण्ड रचनाकर्म का विरोधी है। मेरे विचार में किसी भी रचनाकार का और चाहे जिससे भी कोई रिश्ता बना सकता है, मगर पाखण्ड से कत्तई नहीं। मेरी समूची आस्था अपने होने में है, दिखने में नहीं। इसलिये इस बात से मेरी समझ में मेरा कोई लेना-देना नहीं है। यह जो अपने होने के प्रति आस्था का अडिग भाव है, मुझे वह कुछ भी कहने से हमेशा विलग रखता है, जो कि हमारे अस्तित्व से तनिक भी अलग है यानी कि जो मेरे अस्तित्व से भिन्न है। जो कुछ भी मेरे अस्तित्व से अभिन्न नहीं है, वह मेरे लिये वाणी का विषय नहीं है।
पाक अधिकृत कश्मीर और कैलाश-मानसरोवर के मुद्दे को हमारे देश की राजसत्ता तमाम जटिल कारणों के कारण अपने चिन्तन की परिधि से बाहर रख सकती है, मगर सांस्कृतिक अस्मिता के किसी भी प्रश्न को अपने चिन्तन से बाहर रखना हमारे लिए स्वीकार्य नहीं है। मनुष्य जाति के सामूहिक अस्तित्व के उत्थान से सम्बन्ध रखने वाला कोई भी सवाल और लोगों के लिये चाहे जितना महत्वहीन हो मगर हमारे लिए वह हमेशा महत्वपूर्ण है। हमारे विचार में मनुष्य जाति के उत्थान में उसकी सांस्कृतिक विरासत की सबसे बड़ी भूमिका है, हमें लगता है कि उसकी भूमिका का जो उत्तरदायित्व है, हम भी उसमें भागीदार है। अपनी भागीदारी का बोध ही हमें मामूली सी लगने वाली बातों को भी हमारी दृष्टि में महत्वपूर्ण बना देता है। जो मेरे लिये महत्वपूर्ण है, मैं नहीं जानता वह और लोगों के लिये है या नहीं। मगर इससे मैं अपने विचार में कोई फर्क नहीं महसूस करता।
मैं सोचता हूँ अद्यतन जीवन शैली में फिट न होने का विचार भी कितना उथला और तथ्यहीन है। सोच के सबसे ऊपरी धरातल पर जीने वाले लोगों के मुंह से मैं इस तरह की बातें अनेकों बार सुन चुका हूँ। ऐसी बातें सुनकर या तो हँसी आती है या ऐसे लोगों की चिंतन की विपन्नता पर दया आती है। यह समझ पाना बड़ा मुश्किल हो जाता है कि इस प्रकार के कथन को ब्याज स्तुति समझा जाय या उपहास की वक्रोक्ति। किसी भी समय में जी रहे आदमी के लिये यह कहना है कि वह अपने समय में ’फिट’ नहीं है, तात्विक रूप से सत्य नहीं है। सच तो यह है कि अपने परिवेश में ‘फिट‘ न पड़ने वाले प्राणी के जीवित होने की संभावना ही नहीं बचती है। हाँ यह बात अलग है कि कुछ लोगों की आन्तरिक संरचना या उनका मानसिक संघठन बहुमत की आन्तरिक संरचना या उनके मानसिक संघठन से मेल नहीं खाता। बहुमत की जीवन शैली में जीने के मकसद अलग तरह के होते हैं। उनके जीवन में संघर्ष के आयाम प्रातः बहिर्गत होते हैं। बहुमत से भिन्न तरह के लोगों के जीवन के मकसद कुछ अलग तरह के होते हैं और उनके जीवन में संघर्ष के आयाम भी व्यापक और बहुस्तरीय होते हैं। उनका संघर्ष आन्तरिक और बाह्य दोनों धरातलों पर काफी जटिल होता है। चेतना की आन्तरिक दशाओं के साथ बाह्य स्वरूपों में समन्वय की समस्या उनके लिये प्रमुख समस्या होती है।
यह सच है कि अपने समय में बहुमत की जीवन शैली और उनके जीवन विश्वास ही प्रमुख पहचान के रूप में जाने जाते हैं। मगर यह कत्तई नहीं कहा जा सकता कि किसी भी समय में बहुमत की जीवनशैली और मूल्यनिष्ठा ही सही और सार्थक होती है। किसी भी समय में हमेशा तात्कालिक बहुमत के विश्वास और मूल्य ही परम्परा में सम्मिलित होते हैं, ऐसा भी नहीं है। बहुत बार तो ऐसा होता है कि बहुत कम लोगों के विचार और जीवन मूल्य ही बहुमत के विचारों और मूल्यों को जिसे तात्कालिक समय में मूलधारा समझा जाता है, उसे अपनी गहरी निष्ठा और संघर्ष शक्ति के बल पर विस्थापित करके स्वयं मूलधारा की पहचान बन जाते हैं। हमारे इतिहास में मूलधारा को विस्थापित करके अवान्तर धारा का मूलधारा बन जाना बहुत बार हो चुका है। यह एक प्रक्रिया है जो निरन्तर घटित होती रहती है। आज जो गौड़ है, कल उसके प्रधान बन जाने की संभावना से कभी इनकार नहीं किया जा सकता। अतः प्रचलित जीवन शैली में शामिल न होने के कारण-जीवन विश्वासों से सहमत न होने के कारण कोई व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों का छोटा समुदाय उपेक्षा के योग्य है या अवमानना का पात्र है, ऐसा सोचना तात्विक रूप से बिल्कुल गलत है।
कोई विचार या विश्वास बहुत पुराना है, बहुत दिनों से आचरित होता है, केवल इसीलिये वह मूल्यवान है, ऐसा सोचना और कोई चीज बिल्कुल नयी है और बड़े व्यापक धरातल पर ग्रहण की जा रही है, इसलिये वह कीमती और वरेण्य है, ऐसा सोचना- यह दोनों प्रकार का सेाचना मूर्खतापूर्ण सोचना है, मूढ़तापूर्ण सोचना है। हां, कवि कुल गुरु कालिदास का ऐसा ही कहना है-पुराणमित्येव न साधुसर्वं न चापिऽवद्यम् नवमित्य सर्वम्।
सन्तः परिक्ष्यान्तरतद् भजन्ते, मूढ़ः परः प्रत्ययनेय बुद्धिः।।
दूसरों के विश्वासों के अनुसार केवल हितकामना के लिये जीवन के प्रति अपना भी विश्वास बना लेना मूढ़ता है। मनुष्य जाति की हितकामना को केन्द्र में रखकर नये पुराने सभी को उसके गुण-धर्म के विवेचन के उपरान्त, मनुष्य जाति के विकास में उसकी भूमिका केा अच्छी तरह विचार कर, जीवन के प्रति अपना विश्वास और बर्ताव निर्धारित करना समझदारी है और लोग चाहे जो भी समझें कालिदास के भरोसे मैं अपने को मूर्ख नहीं समझता। मैं समझता हूँ अपने समय में जो लोग चलते हुए, जीते हुए समय की दिशा को मनुष्य जाति के उत्थान के लिये उसकी समृद्धि और सुख-शान्ति के लिये बदलने को संघर्षशील हैं, उन्हें अपने समय में ‘फिट‘ न होने के लांछन सेे विभूषित करना, उनके साथ ज्यादती है। ‘फिट‘ तो वाकई वे नहीं हैं जिन्हें समय ने रौंद दिया है। जिसे रौंद कर अस्तित्वहीन कर दिया है। जो अस्तित्ववान हैं, जो अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए और अपनी अस्मिता के विस्तार के लिए संघर्षशील हैं, जिन्होंने संघर्षों का स्वयं वरण किया है, उनकी उपलब्धियाँ बाजार की नजर में चाहे जितनी तुच्छ हों, मगर उन्हें नगण्य समझना भारी भूल है।
काल के दुरन्त प्रवाह में भोग और उपभोग के पाँव नहीं टिकते। यह संसार कर्म क्षेत्र है। हमारा कर्म ही कृतियों का निर्माण करता है। यह संसार कृतियों का मनोहर नीड़ है। कृतियां सुविधाओं और सहूलियतों के बलबूते नहीं बनतीं। कृतियाँ तो मनुष्य जाति के व्यापक हित के प्रति अपनी गहरी निष्ठा, गहरे विश्वास, अटूट संकल्प और अथक संघर्ष से लिखी जाती है। जिसकी आस्था में जितना बल होता है, समय के प्रवाह में वह उतना टिक पाता है। सहज विस्मृति की अजस्र धारा में वह उतना ही स्मृति का आधार बना रहता है। प्रकृति के अवदान के प्रति कृतज्ञता से प्रफुल्लित होकर- प्रकृति की संरचना को अपनी मानसिक परिकल्पना से अपने चिन्तन और अपनी क्रिया के द्वारा और अधिक सुन्दर, और अधिक सार्थक और अधिक उन्नत बनाना ही रचना है। मनुष्य जीवन को ऊंचा उठाने का हर उद्योग रचनाकर्म है। इस रचना कर्म की उपलब्धियाँही कृतियां हैं। यह संसार ऐसी ही मनोहर कृतियों का बसेरा है। इस स्वार्थ बहुल संसार में संसार को सुन्दर और शक्तिशील बनाने के उद्योग की उत्प्रेरणा हर परम्परा में स्थित और स्थापित होती है-यह नीड़ मनोहर कृतियों का, यह विश्व कर्म रंग स्थल है
है परम्परा लग रही यहाँ पर, ठहरा जिसमें जितना बल है।।
जहाँ तक मैं समझता हूँ, कोई समय अच्छा या बुरा नहीं होता। अच्छे या बुरे तो उस समय में रहने वाले लोग होते हैं। समाज में हमेशा दो तरह के लोग होते हैं, हमेशा से होते आ रहे हैं। भगवान कृष्ण ने भी गीता में दो तरह के प्राणियों की बात कही है। उन्होंने पूरी समष्टि को दो वर्गों में ही विभाजित किया है- ‘‘द्वौ भूत सर्गौ लोकेस्मिन दैव आसुर एव च।’’ इस समस्त सृष्टि में दो ही प्रजाति के प्राणी हैं। एक तरह के वे लोग हैं, जो केवल अपनी लघुतम सत्ता के हित के बारे में सोचते हैं। वे केवल अपने व्यक्ति हित के बारे में सोचते हैं। व्यक्ति समष्टि की लघुतम इकाई है। जो लघुतम इकाई के बारे में सोचते हैं वे लघु मानव हैं। वे हीनकोटि के मनुष्य हैं। दूसरे तरह के लोग वे हैं जो अपने को विराट संसृति का अंश समझकर समूची समष्टिका हित-चिन्तन करते हैं। समष्टि के हित में ही अपना हित देखते हैं। इस तरह के लोग जगत की महत्तम इकाई को केन्द्र में रखकर चिन्तन करते हैं। इसलिये वे महत् मानव होते हैं। महत्तम इकाई के बारे में सोचने वाले महत्ता के पद केा सहज प्राप्त होते हैं। इन दो तरह कीचिन्तन धाराओं के प्रतिनिधि मनुष्यों के बीच हमेशा संघर्ष होता रहता है। होता रहा है चिरकाल से और चिरकाल तक होता रहेगा।
हर व्यक्ति अपने स्वभाव का अनुसरण करता है। इसमें न तो गर्व की बात है न ग्लानि की। मैं भी अपने स्वभाव का अनुगत हूँ। वह अच्छा है या बुरा है, यह मैं नहीं जानता। बिना गर्व या ग्लानि के अपने स्वभाव का उद्घाटन ही सहज जीवन है। सहज हो जाना ही जीवन की साधना है। इससे ही जीवन सार्थक होता है। संस्कार के सामाजिक मूल्य हैं। समाज के लिये सामाजिक दृष्टि से उनकी निर्विवाद महत्ता है। मगर चेतना के उन्नयन की दृष्टि से सहज होने की प्रक्रिया का अलग मूल्य है। मेरा रास्ता सहज होने का रास्ता है। मेरा रास्ता अर्जन का रास्ता नहीं है। मेरा रास्ता आत्मसात का रास्ता है। रही बात बहती गंगा की तो गंगा मेरे लिये हाथ धोने के लिए नहीं हैै। गंगा मेरे लिये जीवन के मूलस्रोत के उद्घाटन की वाहिका चेतना की प्रतीक हैं। वे प्रणम्य हैं। जीवन के मूलस्रोत को जान लेने से ही जीवन धन्य होता है। जीविकोपार्जन के साधनों की प्रचुरता, उनकी भव्यता और उससे उपजने वाला दर्प जीवन में उपलब्धि के मानक नहीं हंै। जीवन निर्वाह के साधन कभी भी जीवन की सिद्धि नहीं बन सकते। मनुष्य का अस्तित्व समष्टि के महत् स्वरूप का ही अंश है- इस बोध का प्रसार मानवीय उत्कर्ष का आधार है। यह बोध बहती गंगा में हाथ धोने से नहीं, गंगा की निरन्तर गतिशील पवित्रता, शीतलता और करुणा को आत्मसात करने से उपजता है।
कभी मेरा मन कहता है-’’कह दो ना जो कहना चाहते हो। भाषा में कुछ भी कह देने से क्या फर्क पड़ता है। कुछ शब्दों से बने एक वाक्य को कहने और न कहने को लेकर मानसिक द्वंद्व का इतना विस्तार कौन-सी समझदारी है, इसे तुम खुद सोच सकते हो।’’
हाँ, मैं सोच सकता हूँ, और सोचता हूँ। मैं जब भी सोचना हूँ, मुझे लगता है, भाषा केवल उच्चारण अवयवों से उच्चरित कुछ सार्थक ध्वनि समूह नहीं है, जिनके लिये भाषा केवल होंठ हिलाकर कुछ शब्दों का विस्फोट कर देना है, उनके बारे में मुझे कुछ नहीं कहना है, जिनके लिये कुछ भी कह देने में और कुछ भी न कह देने में कोई फर्क नहीं होता, पता नहीं वे किस प्रजाति के प्राणी होते हैं। मैं तो उन लोगों की अभ्यर्पना करता हूँ जिनके लिये भाषा अपने अस्तित्व की अभिव्यक्ति का माध्यम है। जिनके लिये अपना कुछ भी कहा हुआ, अपने अस्तित्व के अर्थ की अभिव्यंजना से अलग नहीं है, वे भाषा के पुजारी हैं। उनके लिये कोई भी भाषा कर्म पूजा से भिन्न नहीं है।
हमारी परंपरा में भाषा हमारे हृदय के भावों की संवाहिका है। हमारी परंपरा में भाषा हमारे विचारों की, हमारे विश्वासों की प्रकाशिका है। हमारी भाषा में हमारे जीवन-विश्वास प्रकाशित होते हैं। हमारी परम्परा में भाषा हमारे समूचे अस्तित्व से हमारी समूची अस्मिता से अभिन्न है। हमारी परम्परा में भाषा हमारे आचरण को व्यक्त करती है। भाषा हमारे आचरण की सभ्यता की वाचक है। हमारी परम्परा में भाषा जीवन की साधना का एक रूप है। वाणी का तप यानी अपनी वाणी को अपनी आन्तरिक अस्मिता के अनुरूप प्रस्तुत करने का प्रकाण्ड प्रयास हमारे पारंपरिक जीवन का पवित्र स्वरूप है। नहीं, भाषा मेरे लिये किसी भी स्थिति में अपने होने के अर्थ बोध के प्रामाणिक प्रकाशन से भिन्न और कुछ भी नहीं है। इससे भिन्न जो कुछ भी है, वह हमारे लिये भाषा नहीं है। हमारे लिये भाषा हमारे से अलग नहीं है। हमारे लिये हमारी वाणी हमारे प्राणों की पुकार है। हमारी वाणी का मूल्य हमारे प्राणों के मूल्य से तनिक भी भिन्न नहीं है।
कह देने की संस्कृति भारतीय संस्कृति नहीं है। भारतीय संसकृति होने की संस्कृति है। कह देना जीवन का किनारा है। धार नहीं है। मझधार नहीं है। हमारी संस्कृति में जीवन-नदी के किनारे-किनारे नहा लेना मौज की बात नहीं है, महत्व की बात नहीं है। धार में कूदकर, धार में धंसकर, धार में डूब-तैरकर नहाना भारतीय जीवन का आदर्श है। अपने जीवन के अर्थबोध में गहरे खूब गहरे डूबकर धन्यता के भाव से भर जाना ही हमारी सनातन अभिव्यक्ति का आदर्श स्वरूप है।
प्रेम कहा नहीं जाता। वह कहने का विषय नहीं है। वह जीने का विषय है। प्रेम जिया जाता है। प्रेम कहने में नहीं आता। जो कहा जाता है, वह प्रेम नहीं है। प्रेम तो वाणी में भर जाने के बावजूद पूरा-पूरा वाणी से बाहर बचा रह जाता है। प्रेम करने की चीज है। प्रेम किया जाता है। नहीं, नहीं किया नहीं जाता, हो जाता है। वह हो जाता है, न जाने क्यों। न जाने कैसे! फिर हमें पता चलता है बाद में। सौन्दर्य के प्रति प्रेम पैदा हो जाता है। सौन्दर्य एक तत्व है, जो हमारी ही चेतना में प्रस्फुटित होता है। सौन्दर्य की वस्तुनिष्ठ अवधारणा हमें उतनी आकर्षक और तथ्यपूर्ण नहीं लगती। सौन्दर्य हमें हमेशा व्यक्तिनिष्ठ ही अनुभव होता है। हमारी आन्तरिक चेतना में सौन्दर्य का अभ्युदय होता है, फिर वह हमें आलम्बनों में दिखता है।
मेरा जी बार-बार हजार बार होता है कि मैं कह दूँ ‘आई लव यू‘। मगर कह नहीं पाता। कहते-कहते सहम जाता हूँ। कैसे कहूँ? किससे कहूँ? हमें हमारी समृद्ध साहित्यिक विरासत में एक भी ऐसा प्रेमी नहीं मिलता, जिसने कभी कहा हो कि मैं प्यार करता हूँ। नहीं, किसी ने नहीं कहाँ कोई कहे भी कैसे, वह तो अपनी समूची अस्मिता की अभिव्यक्ति है। प्रेम अस्तित्व के किसी अंश से नहीं, बल्कि सम्पूर्ण अस्तित्व में आप्लावित है। प्रेम वाणी में नहीं रोम-रोम में अभिव्यक्त होता है। साँस-साँस में गाता है। उसे हर कोई नहीं जानता। उस अनुभव को, अनुभव की उस अलौकिक गन्ध को चेतना के उसी धरातल पर अधिष्ठित आलम्बन समझता है। राम ने सीता के लिए यही सन्देश कहा था-तत्व प्रेमकर मम अरु तोरा, जानत प्रिया एक मन मोरा
सो मन रहत सदा तोंहि पाहीं, जानु प्रीति रस एतनेहि माहीं।।
प्रेम का रस दो रहने में नहीं है। दो से एक हो जाने में है। प्रेम का रस एकता का रस है। प्रेम में द्वैत का द्वंद्व नहीं है, अद्वैत का आह्लाद है। अभिन्न होने की अवस्था प्रेम की अवस्था है। प्रेम भिन्न को अभिनन बनाने का अद्भुत रसायन है। प्रेम चेतना की एक अवस्था है। वह एक भावसत्ता है। जिसमें शुद्ध अहं का बोध तिरोहित हो जाता है, विलीन हो जाता है। वह अपने को एक-दो नहीं, हजार-हजार तरीकांे से, अपने आचरण के समस्त रूप में व्यक्त करता है।
फिर जिससे मैं प्रेम करता हूँ, उसी से कैसे कहूँ कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ। नहीं, नहीं, यह तो बड़ी ओछी बात है। बड़ी भोंड़ी बात है। बड़ा हास्यास्पद है। क्या मैं जिससे प्रेम करता हूँ, वह इतना नासमझ है कि उसे यह बताने की जरूरत है कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ। अगर यह बताने की जरूरत है, तो सबकुछ कितना व्यर्थ है।
इस मामले में मेरे साथ एक और दिक्कत है। वह दिक्कत बड़ी जटिल है। बहुत दूसरे तरह की है। मैं जिससे प्रेम करता हूँ- भावजगत में तो उसका मुकम्मल अस्तित्व है, मगर वस्तुजगत में वह अभी अस्तित्ववान् नहीं है। यह एक अजीब-सी बात है, मगर है। मेरा पूरा अस्तित्व अपने आलम्बन को वस्तुजात में अस्तित्ववान करने की साधना में तल्लीन है। इस प्रक्रिया में मुझे जो रस मिलता है मेरी चेतना को प्रफुल्लित करता है। वह मुझे अपने जीवन में जीवन का अर्थ प्रदान करता है।
मैं अनुभव करता हूँ कि मेरा आलम्बन वस्तु जगत में चाहे जब तक अस्तित्ववान हो मुझे कोई परेशानी नहीं। वह चाहे अस्तित्ववान न भी हो तो भी मुझे अपनी आनन्दानुभूति में किंचित कमी की तनिक भी आशंका नहीं उभरती।
मैं समझता हूँ, इस प्रक्रिया को ही व्यापक फलक पर अपनी अर्थपूर्ण व्याप्ति में रचनाकर्म कहा जाता है। व्यक्त होने की सम्भावनाओं के सृजन में संलग्न हर आदमी प्रेम में पगा हुआ आदमी है। वह प्रेमी है, परमप्रेमी है। अपने प्रेम के योग्य और अनुकूल आलम्बन, परिवेश और आचार के सृजन की उत्कण्ठा प्रेमी हृदय ही उत्कण्ठा है।
किसी भी धरातल पर किसी भी अभिव्यक्ति माध्यम से सृजन में तल्लीन प्राणियों के प्रति मेरे हृदय में अपार प्रेम उमगता है। मनुष्य जाति के उत्थान के लिये प्रेमपूर्ण हृदय से रचना में संलग्न प्रेमबोध से सम्पन्न हर प्राणी से मैं बार-बार, हजार बार कहना चाहता हूँ-
‘आई लव यू‘…….. ‘आई लव यू‘……..‘आई लव यू आल‘।
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