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Wednesday, February 5, 2025

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गड़बड़ रामायण

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Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से

प्रसिद्धि भी गजब की चीज है। बड़ा अनूठा आकर्षण है। यह आकर्षण प्राणियों के मन-प्राण को बरबस खींच लेता है। शायद ही ऐसा कोई आदमी हो जिसे प्रसिद्धि की चाह न हो। पूरा संसार ही इस चाह के पीछे पागल है। दुनियाँ का चाहे जितना भी दुर्बल आदमी हो, जितना भी नासमझ आदमी हो, जितना भी अकर्मण्य आदमी हो, फिर भी वह चाहता है कि लोग उसे जानें। लोग जानें और लोग उसका सम्मान करें। बड़ा स्वाभाविक है। मानवीय दुर्बलतायें कितनी स्वाभाविक हैं। सबमें हैं।
तुलसीदास जी कहते हैं कि- सुत बित लोक एसना तीनी- हर प्राणी में पुत्र प्राप्त करने की, धन प्राप्त करने की और लोक यानी समाज में सम्मान प्राप्त करने की इच्छा, उसके स्वभाव में शामिल है। मनुष्य-जीवन में इच्छाओं की धकमपेल भीड़ में तीन इच्छायें सबसे प्रमुख और सबसे प्रबल है।
पुत्र और धन की कामना तो मनुष्य की अस्मिता से ऐसे सम्पृक्त है कि ये इच्छा न होकर स्वभाव की ही वाचक बन गई है। रह गई तीसरी लोक में प्रतिष्ठा की एषणा। यह मनुष्य जीवन की सबसे प्रमुख और प्रबलतम इच्छा है। इच्छा पूरी हो, न हो, यह दीगर बात है। मगर सारी मनुष्य जाति इच्छा के पीछे अंधी होकर दौड़ रही है। सत्ता के संघर्ष से लेकर सामान्य जन-जीवन के संघर्षों के केन्द्र में यही प्रभुत्व और प्रतिष्ठा प्राप्त करने की दुर्ललित लालसा है। देखिये न जरा, अपनी श्रेष्ठता कायम करने के लिए आदमी की जाति कितनी लालायित है।
प्रसिद्धि की प्यास जिसके गले में पैठ जाती है, उसकी प्यास कुँए के जल से नहीं बुझती। उसके जी की जलन सरोवरों और नदियों के पानी से भी शान्त नहीं होती। वह मीठे जल के सागर का अन्वेषी और आकांक्षी हो जाता है। चूंकि मीठे जल के सागरों का अस्तित्व है ही नहीं, इसलिए ऐसे लोगों को प्यासे-प्यासे और जलते-जलते ही जीना पड़ता है।
जो लोग प्रसिद्धि के पीछे अन्धे होकर दौड़ पड़ते हैं उन्हें वह कभी नहीं मिलती। इसलिए कि प्रसिद्धि कोई कर्म नहीं, कर्मफल है। अपने को अधिक समझदार समझने वाले नासमझ लोग प्रसिद्धि को ही कर्म मान बैठते हैं और अपने कर्म से विरत होकर नाना तरह की तिकड़में भिड़ाने में व्यस्त हो जाते हैं। कर्म से वंचित होकर कर्मफल को पा लेने की लालसा हमेशा ही निष्फल होती है। वैसे कभी-कभी तिकड़मो ंसे भी किसी-किसी को प्रसिद्धि कुछ समय के लिए हासिल हो जाती है। मगर कभी कदाचित ही- अंधे के हाथ बटेर लग जाने की तरह। अक्सर तो प्रसिद्धी के पीछे दौड़ने वाले सदा ही हास और उपहास के आधार बनते हैं, जैसे बटेर हाथ लग जाने की लालसा लिये हाथ मारते अंधों की भीड़।
प्रसिद्धि हमेशा उसे ही मिलती है, जो अपने कर्तव्य कर्म में तल्लीन हो जाता है। इतना तल्लीन हो जाता है कि उसमें उसका अस्तित्व विलीन हो जाता है। कर्ता कर्म में विलीन हो जाता है। कर्ता मिट जाता है और कर्म अस्तित्ववान हो जाता है। जो अपने कर्म में डूब जाते हैं, उन्हें प्रसिद्धि की चाह नहीं होती। फिर प्रसिद्धि स्वयं उनका वरण कर लेती है। निश्चय ही ऐसे लोग अपने समय में चेतना के विराट स्वरूप की अभिव्यक्ति के वाचक बन जाते हैं।
प्रसिद्धि अवश्य ही मनुष्य के चित्त को लुभाने वाली एक महत् आकर्षक चीज है। मगर उससे भी मूल्यवान एक चीज है- लोकप्रियता। लोकप्रियता प्रसिद्धि से बड़ी चीज है, कीमती चीज है। सारे प्रसिद्ध लोग लोकप्रिय नहीं होते। हर प्रसिद्ध आदमी लोकप्रिय भी हो, यह जरूरी नहीं। प्रसिद्धि में लोकप्रियता अन्तर्निहित नहीं है। मगर लोकप्रियता में प्रसिद्धि अनिवार्य रूप से अन्तर्हित है। जो लोकप्रिय है, वह निश्चित तौर पर प्रसिद्ध भी है। प्रसिद्धि केवल कुछ विशेषताओं, कुशलताओं, निपुणताओं और दक्षताओं पर आधारित होती है मगर लोकप्रियता, हमेशा लोकोपकारिता पर अवलम्बित होती है। लोक प्रियता हृदय की विशालता और सबको सुख पहुंचाने की सद्भावना से प्राप्त होती है। सबके दुख को अपना अनुभव करने की योग्यता और अपने सुख को सबका सुख बना देने की आकुलता ही लोकप्रियता का आधार है। सबके विषाद को, सबके विक्षोभ को अपने में खींच लेने की सामर्थ्य और अपने उल्लास को अपनी आस्था की शीतलता को सबमें प्रवाहित प्रसारित कर देने का कौशल जिससे सध जाता है, लोकप्रियता को प्राप्त हो जाता है।
हिन्दी जगत में तुलसीदास लोकप्रियता की अप्रतिम मिशाल हैं। नहीं, समस्त मानव जगत में तुलसी की लोकप्रियता बेमिशाल है। अद्भुत है तुलसी की लोकप्रियता। कविता के माध्यम से तुलसीदास ने लोकरंजन की, लोकहित की और लोकमंगल की उपलब्धि के जो मानक रचे हैं वह अन्य सारे माध्यमों से काम करने वाले तमाम लोगों से बहुत ऊपर और आगे हैं। तुलसी की कविता न जाने कबसे असंख्य लोगों के जीवन में, उल्लास की, उत्साह की, शीतलता की, जीवन के प्रति अथाह आस्था की और जीवन विरोधी असत् के प्रति अचल संघर्ष की अजस्र धारा बहाती आ रही है। न जाने कब तक बहाती रहेगी। तुलसी की लोकप्रियता एक और तरह से भी बड़ी अद्भुत है, वह किसी के हृदय में ईर्ष्या नहीं जगाती। वह हरेक के हृदय में भक्ति को ही उद्भूत करती है।
तुलसी की कविता केवल बुधजन को ही आकर्षित और उद्वेलित नहीं करती है। वह अबुधजन को भी उत्प्रेरित और उन्मथित करती है। तुलसी की कविता की अनूठी लोकप्रियता ने अद्भुत ढंग से अबुध जनों में सृजनात्मक आन्दोलन पैदा किया है। यह सृजनात्मक उत्प्रेरणा इतने भयानक रूप से घटित हुई है कि कुछ कहते नहीं बनता। यह लोकप्रियता का अप्रतिम पुरस्कार है या अपूर्व दण्ड कह पाना मुश्किल है। तुलसी की कविता में अनेकानेक लोगों का तरह-तरह से हस्तक्षेप चमत्कृत कर देता है।
बहुत से लोगों ने तुलसी की कविता पर अपना सहज स्वामित्व समझकर उसमें संशोधन का अधिकार भी स्वयं अधिकृत कर लिया है। निःसंकोच भाव से अनेक तुलसी की कविता के अनन्य प्रेमियों ने अगाध आत्मीयता से विगलित होकर अपनी समझ से उनकी भूलों का सुधार करके तमाम संशोधन अंकित कर डाले हैं। रामायण के अनेकानेक संस्करणों में पाठ भेद की भरमार और किसी की करनी नहीं तुलसी के अनन्य काव्य प्रेमियों की अपार करूणा का ही उपहार है। इतना ही नहीं उनके बहुत से काव्य प्रेमियों ने तो तमाम जगह उनकी कविता के कथन की अपर्याप्तता को दूर करने के लिये अपनी तरह से कविता रचकर जोड़ दिया है। ऐसा तुलसी के प्रेमियों ने उनकी कविता की कमियों को दूर करने के लिए किया है, ऐसा उनका दावा है। रामचरित मानस के विभिन्न संस्करणों में क्षेपक अंश आज भी इसके गवाह हैं। बचपन में मैं अपने घर में गीताप्रेस के संस्करण के पहले के व्यंकटेश प्रेस या खड्गविलास प्रेम से छपे रामायणों में क्षेपक अंश को देखकर बराबर विस्मित होता रहता था। तब मैं क्षेपक का मतलब नहीं जानता था। आज क्षेपक का अर्थ जान लेेने के बाद मेरा विस्मय और बढ़ जाता है।
धन्य हैं, वे लोग जो तुलसी की कविता के साथ अपनी कविता जोड़कर अपने को कृतार्थ अनुभव करते हैं। कितना असम साहस है। कितना दुस्साहस है। साहित्यिक मूल्यबोध और मर्यादा की दृष्टि से निश्चय ही यह नितान्त निन्दनीय है। मगर तुलसी और तुलसी की कविता के प्रति अपार अबुध प्रेम से विरहित तो नहीं है।
इतना ही नहीं, तुलसी की लोकप्रियता के प्रभाव का ऐसा जादू चला कि तमाम लोगों ने अपने को तुलसी से अभिन्न ही बना लिया। बहुत से लोग कविता में अपना नाम छोड़कर तुलसी ही बन गए। ऐसे बन गए कि असली तुलसीदास से तुलसी बने इन तुलसियों को अलगाना शोध का एक मुकम्मल विषय बन गया। इस दुरूह कार्य को डा. किशोरीलाल गुप्त जी ने प्रकाण्ड प्रयत्न करके ’तुलसी और, और तुलसी’ में उजागर करने का उद्योग किया है। फिर भी लोक जीवन में यह विश्वास पैदा करना कि ’हनुमान चालीसा’ रामचरित मानस वाले तुलसीदास की रचना नहीं है, आज भी संभव नहीं हो सका है।
मैं अक्सर सोचता हूँ, आखिर ऐसा क्यों हुआ। यह मुझे हमेशा बहुत व्यथित करता है, विक्षुब्ध करता है। तुलसी की कविता में, उनके शब्दों, पादों और काव्य पदों को बदल डालने के पीछे लोगों की क्या मंशा हो सकती है। उनके काव्य कथनों को अपर्याप्त समझकर क्षेपकों की सृष्टि के पीछे लोगों का क्या मंतव्य हो सकता है। क्या ये लोग तुलसी से द्रोह रखने वाले लोग हैं?
अपने उद्योग में काव्यद्रोह की भूमिका रखने के बावजूद मुझे ये लोग तुलसी के प्रति द्रोह रखने वाले लोग नहीं लगते। उनके काव्य-विवेक का चाहे जितना उपहास किया जाय ठीक है, मगर उनकी नीयत पर उंगली उठाना उचित नहीं मालूम पड़ता। मुझे ये लोग तुलसी की कविता के अनन्य प्रेमी लगते हैं। मुझे ये लोग तुलसी की प्रसिद्धि के प्रशंसक और उनके यश के और अधिक विस्तार के आकांक्षी लोग लगते हैं। इस उद्योग में मुझे उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं दिखाई पड़ता। कोई लिप्सा नहीं दिखाई देती। आखिर उन्हें मिला क्या इससे। कुछ भी नहीं। शायद उन्हें कुछ चाहिये भी नहीं था। तो क्या फिर यह सब उन्होंने केवल तुलसी के प्रति अपने अनन्य प्रेम और अपनी अगाध भक्ति की वजह से ही किया? शायद हाँ। शायद नहीं। अपने असीम प्रेम के बावजूद ये लोग तुलसीदास के काव्यबोध से अपने काव्यबोध को श्रेष्ठ समझने के भ्रामक अहं के अपराधी तो ठहरते ही हैं।
तुलसी की कविता के प्रेमियों, प्रशंसकों और उनकी प्रसिद्धि के उपासकों की एक और प्रजाति है। इस प्रजाति की वंशवृद्धि आज भी जनसंख्या वृद्धि के अनुपात में ही जारी है। यह प्रजाति तुलसी की कविता की अद्भुत व्याख्याताओं की प्रजाति है। यह प्रजाति उनकी कविता में काल्पनिक रहस्यों की सृष्टि करके फिर उस रहस्य के उद्घाटकों की प्रजाति है। यह बड़ी खतरनाक और अहमन्य प्रजाति है। यह प्रजाति तुलसी की प्रसिद्धि का फायदा उठाकर अपने अहं को परिपुष्ट और परितुष्ट करने वाली प्रजाति है। इस प्रजाति के लोग अपने को विद्वान और मर्मज्ञ साबित करने के लिए तुलसी की कविता के साथ चाहे जिस भी स्तर तक अत्याचार करने को उतारू रहते हैं। अपने को विद्वान न माने जाने का दारूण दंश वे तुलसी की कविता को डंस-डंसकर उतारा करते हैं। अक्सर मैं तुलसीदास को अपनी प्रसिद्धि का असहनीय दण्ड भोगते हुए देख-सुनकर अवाक रह जाता हूँ। ऐसे अवसरों पर अक्सर मैं तुलसी से अधिक अपने को ही दण्डित अनुभव करता हूँ। उत्तरों के रहते हुए भी निरूत्तर रह जाने की विवशता और मूर्खताओं को विद्वता की तरह ग्रहण करने की लाचारी से उपजी मर्मवेदना की व्यंजना भाषा में कभी व्यक्त नहीं की जा सकती।
इस प्रजाति के लोगों के अतिचार का- अत्याचार का मैं लाचार भुक्तभोगी हूँ। बचपन से ही मैं इनके बेरहम चंगुल में फँस जाया करता हूँ। फँस जाता हूँ और फँसकर निहायत निरीह की भांति छटपटाते हुए मुस्कुराता रहता हूँ। एक मुस्काहट के सिवा छाती को छेदते हुए उनके वाणी के बाणों से त्राण के लिए कोई दूसरी ढाल-कोई दूसरा कवच मुझे दुनियाँ में दिखाई ही नहीं पड़ता। सच, शालीनता भी आदमी को कितना निरीह और नपुंसक बना देती है।
किसी को अपमानित करके उसकी आत्मशक्ति को उतना कुंठित कभी नहीं किया जा सकता जितना कि सम्मानित करके। सम्मान आदमी की तेजस्विता को ढँक लेने के लिए एक बेशकीमती आवरण की तरह काम करता है। कोई इतना निर्मम हो नहीं सकता कि अपने प्रति प्रदर्शित होने वाले सम्मान को झटक दे। आज व्यवस्था इतनी स्वार्थी और चालबाज हो गई है कि इसमें लोग सम्मान का भी इस्तेमाल हथियार ही तरह अपने निहित स्वार्थ के हक में करने लगे हैं। असहमति की धार को अवरूद्ध करके जबान को जड़ देने का काम जितनी चतुराई से सम्मान से सध जाता है, उतना और किसी भी तरकीब से संभव नहीं। सम्मान में भी छल का समाहित हो जाना मनुष्य जाति के लिये कितना शर्मनाक है, कह पाना मुश्किल है।
इधर मैं एक महाविद्यालय में प्राचार्य का दायित्व निभा रहा हूँ। विद्यालय ठेठ ग्रामीण परिवेश में है। मेरे वहाँ पहुँचने से पहले मेरे साहित्यिक होने का परिचय पता नहीं कैसे पहुँच चुका है। अपने साहित्यिक होने की सजा मुझे खूब भुगतनी पड़ती है। अपने को साहित्यिक प्रमाणित करने को आकुल लोगों से अक्सर ही मैं घिर जाता हूँ। उनसे घिरकर अक्सर मैं अपने को कीचड़ में धँसी हुई गाय की तरह निरीह महसूस करता हूँ। वे लोग अपने क्षेत्र के ख्यातिप्राप्त साहित्यकारों की महत्ता को इतने आत्मविश्वास से दृढ़ता के साथ अर्थहीन साबित करते हैं कि मैं आश्चर्य में उनका मुँह ताकता रह जाता हूँ। इस दौरान मुझे तुलसीदास का वह दोहा बहुत-बहुत याद आता है, जिसमें उन्होंने अपनी जन्मभूमि में महत्ता की व्यर्थता को प्रतिपादित किया है-

तुलसी तहाँ न जाइये, जहाँ जनम को ठाउँ।
गुन-अवगुन समझैं नहीं, धरै पाछिलो नाउँ।

मुझे पक्का विश्वास होता है कि तुलसीदास जी ने कभी जरूर राजापुर में अपने जनम के परिचित और पुराने संगी साथियों के मुँह से अपनी प्रसिद्धि का मजाक उड़ाते अपने कानों सुना होगा। ये लोग अपनी साहित्यिक सूझों की दुर्लभ मूल्यवत्ता का गुणगान और सर्जना का पाठ मेरे सम्मुख इस धौस और धमक के साथ करते हैं, जैसे इनके साहित्यकार न माने जाने का मुकम्मल गुनहगार मैं ही हूँ। मैं उनके मुँह से उनकी अगाध यशगाथा अचूक धैर्य से सुनता रहता हूँ। मेरे मन में परशुराम के प्रति लक्ष्मण की वक्रोक्ति की ध्वनि गूंजती रहती है,-

अपने मुँह तुम आपन करनी, भाँति अनेक बार बहुबरनी।
नहिं संतोस त पुनि-पुनि कहहू, जनि रिसि रोकि दुसह दुख सहहूँ।

अपनी गुण-गाथा जब अपने मुँह कही जाती है, तो हास्यास्पद दंभ हो जाती है और दूसरों के मुँह से कही जाती है तो स्पृहणीय कीर्ति-कथा। मगर यह बात न जो तब परशुराम समझ सके थे और न ही अब परशुराम के वंचक वंशधर समझ पाते हैं। खैर।
इस कालेज में आने के बाद मैं अनुभव करता हूँ कि यहाँ पढ़ाने का का मेरे लिये प्रायः गौड़ है और पढ़ने का काम प्रधान। जो लोग मुझसे साहित्यिक वार्तालाप के लिये प्रायः सन्नद्ध रहते हैं, उनका उद्देश्य मुझे जानकारी देना ही अधिक रहता है। बातचीत के केन्द्र में प्रायः तुलसीदास की कविता होती है। तुलसी की कविता के संदर्भ में अपने अपूर्व चिन्तन और अपनी अद्भुत मौलिक उद्भावनाओं से वे लोग मुझे स्तंभित कर देते हैं।
सारे लोगों की मूल्यावान मौलिकता के वर्णन विस्तार में न जाकर मैं केवल एक व्यक्ति की कुछ उद्भावनाओं को आपके सम्मुख रखना चाहता हूँ, जिससे आप उनकी प्रतिभा का अनुमान आसानी से लगा सकेंगे।
जब पहली बार वे मुझसे मिले थे, बड़ी मासूमियत से उन्होंने अपनी खूबियों और अपने दायित्वों का वर्णन मुझसे किया था। उन्होंने बताया था कि रजिस्टर्ड रूप में तो वे इस कालेज में कुछ नहीं है मगर व्यावहारिक हकीकत में वे ही सबकुछ हैं। उन्होंने बताया था कि उन्हें किस तरह अकेले मैनेजर, अध्यक्ष, अध्यापक, चपरासी और मेरे आने से पूर्व तक प्रिंसिपल का समूचना भार अपने कमजोर कंधों पर उठाना पड़ता रहा है। मैंने उन्हें उनकी विह्वलता देखकर आश्वस्त किया कि मेरे आने के बाद भी आप सारा बोझ अपने कन्धे पर रखे रखकर उन्हें मजबूत बनाने का अभ्यास करते रहें। मेरी आश्वस्ति से वे आह्लादित हुये। आह्लाद में आकण्ठ डूबकर उन्होंने तुलसीदास के बारे में अपनी विशेषज्ञता का अथक बखान शुरू किया।
उन्होंने मुझे बताया कि कुछ पारिवारिक विवशताओं और कुछ कम शैक्षिक योग्यता के चलते उन्हेें गाँव के इंटर कालेज में पढ़ाने को मजबूर होना पड़ा। अगर ऐसी मजबूरी में न फंसना पड़ा होता तो उनका दावा है कि वे आज तुलसीदास के साहित्य की मर्मज्ञता के क्षेत्र में जरूर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की पहचान रखते। मगर दुर्भाग्य को भला कौन टाल सकता है।
एक दिन वे मुझसे बताने लगे कि तुलसीदास की कविता पढ़ने से नहीं गुनने से समझ में आती है। इसीलिये मेरा पढ़ने में बहुत कम विश्वास है। मैं तो पूरा-पूरा गुनने में ही यकीन रखता हूँ। गुनने से कविता परत दर परत खुलती जाती है। देखिये न कविता को गुनने के कारण ही आज रिटायर हो जाने के दस साल बाद भी बच्चे मुझे रिटायर नहीं होने देते। हर साल फाइनल वाले बच्चे अपने पीछे वाले बच्चों से मेरी व्याख्या की बारीकियों को बता देते हैं। हर साल बच्चे समूह बाँधकर आते हैं और एक साल और पढ़ा देने की जिद करके मुझे ले जाते हैं। फिर अगले साल वही बात। इस तरह मैं रिटायर होने के बावजूद अभी तक पढ़ाता आ रहा हूँ।
वे बता रहे थे कि एक बार एक बड़ा भारी जलसा हो रहा था। उसमें बहुत और बहुत बड़े-बड़े विद्वान और बड़े-बड़े ओहदेे वाले अप्सर आये हुये थे। उस सभा में मैंने तुलसीदास की कुछ चौपाइयों की ऐसी व्याख्या की कि सारे लोग चमकृत होकर चकित रह गए थे। पुलिस कप्तान तो गदगद होकर मुझे गले लगा लिए थे। जलसा कहाँ हुआ था, यह उन्होंने नहीं बताया। मुझे लगता है, धरती पर तो नहीं ही हुआ होगा। हुआ होगा तो उनके खयालों में ही हुआ होगा।
वे कहने लगे कि व्याख्या के लिये धनुषयज्ञ प्रसंग की एक चौपाई उठायी थी- ’’रंगभूमि जब सिय पगु धारी।’’

मूर्ख लोग कहते हैं, जिनको तुलसीदास के पूर्वापर कथनों में संगति की सूझ नहीं है, वे नासमझ लोग कहते है कि रंगभूमि में सीता ने जब पैर रखा। अरे यह कौन-सी बात हुई, कैसी बेहूदी तरह की बात हुई। इसमें क्या निगूढ़ता है। तुलसीदास जैसे कवि भला एक चौपाई भी ऐसी कैसे लिख सकते हैं, जिसमें कोई निगूढ़ रहस्य न भरा हो। फिर आगे कहा गया है कि उस रूप को देखकर नर-नारी सभी मोहित हो गए। अब बताइये भला सीता ही अगर रंगभूमि में आयी होतीं तो यह कैसे संभव होता। सीता को देखकर नर तो मोहित हो सकते हैं। मगर नारी का मोहित होना कैसे संभव है। नहीं, नहीं यह असंभव है। तुलसीदास ने खुद ही लिखा है- मोह न नारि नारि के रूपा। नारी के रूप को देखकर कभी भी नारी मोहित नहीं होती। अगर सीता को देखकर नर-नारी दोनों मोहित हो जाते हैं तो फिर तुलसी की स्थापना अपने आप ही खण्डित हो जाती है। भला तुलसीदास इतने मूर्ख हैं क्या कि अपनी ही स्थापना को अपने ही खण्डित करते चलें। ऐसे तो पूरी कविता ही चौपट हो जायेगी। मगर ऐसा नहीं है। यह तो लोगों की नासमझी है, तुलसी की कमी नहीं।
वे कह रहे थे कि असल में सब गड़बड़ी भाषा की, काव्य भाषा की ठीक समझ न होने के कारण पैदा हुई है। दरअसल जो लोग तुलसी की भाषा का मर्म जानते हैं वे जानते हैं कि पगु शुद्ध शब्द नहीं है। शुद्ध है पग। और जो यहाँ पगु लिखा गया है वह उत्तर के ’उ’ को जोड़ देने के कारण लिखा गया है। और जो लोग अवधी भाषा का व्याकरण और स्वभाव जानते हैं, वे जानते हैं कि ’घ’ और ’ध’ में यहाँ अभेद होता है। इस प्रकार ’पगु धारी’ का सही पाठ ’पग उधारी’ होता है। और ’पग उधारी’ का अर्थ होता है, रामचन्द्र। सीता के पैर को उधार करने वाले अर्थात रामचन्द्र जी। यह समास का कैसा अद्भुत कमाल है बहुब्रिही समास का। अब देखिये चौपाई का अर्थ कितना साफ और सुसंगत है, जब सीता और सीता के पैर को उघारने वाले रामचन्द्र रंगभूमि में आये तो उनके रूप को देखकर नर-नारी सभी मोहित हो गये। सीता को देखकर नर और रामचंद्र को देखकर नारी। कहीं कोई असंगति नहीं।
अपनी बात पूरी करके उन्होंने विजयी भाव से ऐसा अट्टहास किया कि मेरा कलेजा दहल उठा। मैं अचेत सा होकर टुकुर-टुकुर उनका मुँह ताकता रहा।
जब वे चले गये मुझे अपने बचपन की एक याद ताजी हो आयी। पहले हमारे घर पर रिश्ते के एक नाना आया करते थे। नाना पहलवानी करते थे और खूब गाँजा पीते थे। अक्सर शाम को गाँजा पीने के बाद वे हमारे चरवाहों और मजदूरों की महफिल लगाते। उस महफिल में वे तुलसी की कविता के गूढ़ रहस्यों के बारे में अपने गुप्त ज्ञान का जमकर प्रकाशन करते। वे बताते कि यह सब अनोखी बातें उन्होंने अपने गुरू से गड़बड़ रामायण का अध्ययन कर प्राप्त की हैं। वे यह भी बताते कि गड़बड़ रामायण का ज्ञान सबको सुलभ नहीं होता। यह तो कोई बिरला तुलसी का प्रेमी ही अपनी गहन साधना-भक्ति से तुलसी की कृपा से प्राप्त कर पाता है।
अब मैं समझ गया। ये अद्भुत अध्यापक विद्वत्ता के बुखार से बेकल रामायण नहीं गड़बड़ रामायण के उपासक हैं। ये अपनी नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा से तुलसी को पछाड़कर अपने को कृतार्थ करते हैं। कितना अद्भुत है, कितना विस्मयजनक है, कितना वितृष्णा कारक है हमारे देश में, हमारे समय में रामायण के समान्तर गड़बड़ रामायण का अस्तित्व। क्या हमारा समय रामायण को गड़बड़ रामायण में रूपान्तरित करने का समय तो नहीं बन रहा है।
हमारे समय में गड़बड़ रामायण के उपासक जिन शिक्षा-संस्थानों के सर्वेसर्वा हैं, उन संस्थानों में होना ग्लानि का विषय होना चाहिए या गर्व का? इन विद्यालयों में पढ़ने और पढ़ाने वाले लोगों की नियति का निर्धारण कौन करेगा? ऐसे विद्यालय हमारे देश के विकास को किस दिशा में ले जाएँगे? अस्सी प्रतिशत से अधिक का अनुपात रखने वाले अपने समय में ऐसे विद्यालयों की दशा और दिशा से आँख मूँदकर चुप पड़े रहना, क्या उपयुक्त है? क्या यह उपेक्षा आने वाले समय को नपुंसक और निरीह नहीं बना देगी?
बहुत से प्रश्न हैं, जो बिफरे हुए विषधर की तरह रस्तों को अपनी गेंड़ुर में लपेटकर फुँफकार रहे हैं। तक्षक के विषधर वंशज इतिहास की बहुमूल्य विरासत की पुण्यगाथा को डंसने के लिए तरकीबें ढूंढ रहे हैं। कहते हैं, महामुनि शुकदेव की भागवत कथा के आयोजन के बीच तक्षक ने फूल में छिपकर परीक्षित को डंसा था। हम देख रहे हैं, आज हमारी आस्था के, उपासना के उपादान तक्षक के वंशधरों के आश्रय बन गये हैं। हमारे जीवन में जीवन के लिए जो भी बहुमूल्य और रक्षणीय है, उसे विषदग्ध करने के लिए क्षुद्र स्वार्थ ने आस्था के उपादानों को ही अपना आश्रय बना लिया है। कितना दारुण है।
कितनी दारुण जीवन स्थितियों से घिरे होकर भी हम कितने निश्चिन्त बैठे हैं। हम निरुपाय और निरीह होकर जीने को अभिशप्त हो रहे हैं। दोष किसका है, पता नहीं है। किससे पूछे, कौन पूछे, कौन बताये? हर आदमी अपने-अपने स्वार्थ के विष से विमोहित है।
अभी तो हमारी आँखों के आगे सर्पसत्र का आयोन चल रहा है। पता नहीं जनमेजय का नागयज्ञ होगा?

प्राचार्य
मां गायत्री महिला महाविद्यालय
हिंगुतरगढ़, जिला-चन्दौली
पिनकोड- 232105
मो0- 9450551160

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