Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से
गली-गली ढोल-नगाड़े बजा-बजाकर लोगों को जुटाया गया था। लोग इकट्ठे हो गये थे। एक खुली जगह में भारी भीड़ समायी हुई थी। वहाँ आदमी नहीं थे अब, केवल भीड़ थी। उत्सुकता थी। तमाशा शुरू हो चुका था। तमाशा शुरू करने से पहले मदारी ने भीड़ को भलीभाँति समझा दिया था कि तमाशा आपके लिये पेश किया जा रहा है। इस खेल का मकसद आपका स्वास्थ्य है। आपकी सुभीता है। आपकी सुरक्षा है। आपका विकास है।
भीड़ तमाशा देख रही थी। भीड़ तन्मय थी। भीड़ अवाक थी। भीड़ स्तब्ध थी। भीड़ ताली बजा रही थी। भीड़ जय बोल रही थी। तरह-तरह के करतब देखकर, सुनकर भीड़ चकित थी। भीड़ जब भी होती है, सबसे पहले चकित होती है। भीड़ हमेशा चकित होते-होते थकित हो जाती है। मुझे लग रहा था तमाशा भीड़ के लिये नहीं है। भीड़ तमाशा के लिये है।
मैं देख रहा था पेट की आग, आग के घेरे में कूद रही थी। कूदकर घेरा फाँद रही थी। भूख बड़ी गजब की चीज है। वह न जाने कैसे-कैसे करतब सिखला देती है। आदमी कुछ भी करने पर उतारू हो जाता है। कुछ भी कर लेता है। कुछ भी कर दिखाता है। खैर, पेट की भूख तो मामूली भूख होती है। मुट्ठी भर अन्न के दानों से, चुल्लू भर पानी से शान्त हो जाती है।
मगर यह तो मामूली भूख है। दौलत की भूख, शोहरत की भूख, शान की भूख, सत्ता की भूख, आश्चर्यजनक भूख है। वह सात समुन्दर का सारा पानी पीकर भी नहीं बुझती। वह बुझती नहीं कभी भी, केवल जलती है। वह तरह-तरह के तमाशे रचती है। बड़े-बड़े तमाशे। ऊँचे-ऊँचे तमाशे। लम्बे-लम्बे तमाशे। गहरे-गहरे तमाशे। वह तमाशे के लिये भीड़ जुटाती रहती है। तमाशा होता रहता है, भीड़ देखती रहती है। भीड़ तालियां बजाती है, चिल्लाती है। भीड़ जिन्दाबाद बोलती है। मुर्दाबाद बोलती है। भीड़ हंसती है। भीड़ रोती है। मगर भीड़ तमाशा देखती है।
मेरे मन में कुछ सवाल उठते हैं। तमाशा देखना भीड़ की नियति है, क्या?
तमाशा देखना भीड़ की नियति क्यों है? क्या केवल किसी तमाशा के लिये ही भीड़ होती है? बिना तमाशा के भीड़ होना संभव नहीं क्या? हमारे लोकतंत्र में जनता भीड़ क्यों बन गई है? जनता भीड़ कैसे बन गई है? मैं नहीं जानता ये सवाल वाजिब हैं या गैरवाजिब। मगर मैं क्या करूं। ये सवाल तो खड़े हो गये हैं। ये तमाशा के आगे खड़े हो गये हैं। तमाशा का मजा बिगाड़ने पर ये एकदम आमादा हैं। पूरी तरह उतारू हैं। मैं सवालों को पूरी ताकत से बैठाने की कोशिश करता हूँ।
मैं तमाशा देख रहा हूँ। मेरी आँखों के आगे मेरा देश खड़ा हो जाता है। मैं देख रहा हूँ, हमारे पूरे देश में तमाशा हो रहा है। जगह-जगह, हर जगह तमाशा हो रहा है। तमाशा दिखाने की संविधान सम्मत कंपनियां हैं। कंपनियां अपने तरह से अपनी पसंद के तमाशे दिखा रही हैं। दिल्ली में किसी कंपनी का तमाशा चल रहा है। लखनऊ में किसी दूसरी कम्पनी का। पटना में किसी दूसरी का। मगर चल रहा है हर कहीं।
राजा का सेवक बन जाना कभी-कभी मध्यकालीन या पुराकालीन आदर्श कथाओं में सुनने में आ जाया करता था। मगर सेवक का राजा बन जाना मौजूदा लोकतंत्र का ऐसा वैचारिक ‘लीजेण्ड’ है, जिसका केवल अचरज से मुँह ताकते रहा जा सकता है। समूचा हिन्दुस्तान अपनी पीड़ा में तड़फड़ा रहा है और हिन्दुस्तान की सेवा के लिये सेवकों में धक्का-मुक्की मची है। अधिनायक के अधिकार से भरे हुये सेवकों का हुजूम, राजसी वैभव से लदा-फँदा सेवकों का समूह; अपने रोब-दाब से दिलों को दहलाता सेवकों का जत्था, अपनी मनमानी पर उतारू सेवकों का दल, नहीं, दल ही नहीं दल का दल हिन्दुस्तान को अपनी सेवा समर्पित करने के लिये रौद रहा है। यह सेवा का तमाशा सबसे दिलचस्प तमाशा है।
यह सेवा का मिथक, मिथकों के इतिहास का सबसे नया, सबसे जटिल और सबसे दुर्बोध मिथक है, जिसका हमें सबसे अधिक बोध है।
कोई कम्पनी हिन्दुस्तान का चेहरा बदलने का तमाशा खेल रही है। उसका कहना है कि विश्व बाजार में हिन्दुस्तान का चेहरा ठीक नहीं है। वह ग्राहकों को लुभाने लायक नहीं है। उसका कहना है हिन्दुस्तान का चेहरा खिला होना चाहिए। हम खिलाकर दिखायेंगे दुनियाँ को। मगर कैसे? हिन्दुस्तान पूछना चाहता है। हमारे चेहरे पर तो बदहाली की हवाइयाँ उड़ रही हैं, बेरोजगारी के थप्पड़ों के लाल निशान हैं, असुरक्षा का आतंक है, अशिक्षा का कीचड़ है।
‘‘तो क्या हुआ। कीचड़ में ही तो कमल खिलता है।
‘‘कैसे खिलेगा?’’
‘‘यह ‘पे-टियम’ है न, यह खिला देगा। यह सबके चेहरे को खिला देगा। यह समूचे हिन्दुस्तान के चेहरे को खिला देगा। ताजे फूल की तरह प्रफुल्ल बना देगा।’’
‘‘अपने हाथों से हल छोड़िये, कुदाल छोड़िये, खुरपी छोड़िये, कलम छोड़िये, करघा छोड़िये। सबकुछ छोड़कर ‘पे-टियम’ गहिये।
‘‘पे-टियम’ आपको सबकुछ देगा। चावल देगा, आंटा देगा, आलू देगा। सबकुछ तो देगा ही पेट भरने के बाद की डकार भी देगा। फिर नींद में सपने भी।
किसानों का अनाज खलिहान में पड़ा रहे, कोई बात नहीं। किसानों को खाद पर सब्सिडी न मिले कोई बात नहीं। आपदा-राहत का चेक बीच रास्ते से गायब हो जाय कोई चिन्ता नहीं। हम गाँव-गाँव में ‘मेगा मार्ट’ बनायेंगे। ‘फास्ट फूड के प्रोडक्ट हैं न! कोई फिक्र नहीं।’
कोई कम्पनी कहती है कि हम हिन्दुस्तान का कलेजा हाथी जैसा बनायेंगे। कलेजा मजबूत रहेगा तो देश सब कुछ सह लेगा। भ्रष्टाचार का ओला पड़ता रहे, सह लेगा। बेईमानी की आंधी चलती रहे कोई बात नहीं। मजदूरों के हाथों को काम न मिले कोई बात नहीं। जब देश हाथी जैसा होगा तो चलता रहेगा अपने रास्ते। कुत्ते भौंकते रहें तो भौंकते रहें, उनकी कोई परवाह नहीं।
एक तमाशा कम्पनी मंच पर पारिवारिक कलह के उत्तेजक खेल पूरे कौशल से दिखाकर बता रही है कि हमारे परिवार में कोई विवाद नहीं है। हम सब एक हैं। अब परिवार में कोई दिक्कत नहीं है यानी अब देश में कोई दिक्कत नहीं है। उनके लिये अपना परिवार ही अपना देश है। यह समूचा देश उनके परिवार का है। पूरे देश को अपने परिवार का बनाने खातिर कुछ भी करने में उनको कोई हिचक न होगी।
यह देश हमारा कैसे हो जाय इसके लिये सारी कंपनियां खून-पसीना बहाकर दिन-रात एक किये हैं। किसिम-किसिम के करतब इजाद कर रही है। लगातार अभ्यास में लीन है। प्रदर्शन में मशगूल है।
सारा देश तमाशा देख रहा है। नये-नये तमाशे। शेर की तरह गरजने वाले तमाशे। घड़ियाल के आंसू रोने वाले तमाशे। गीदड़ की तरह माँद में घुस जाने वाले तमाशे। साँप और नेवले की लड़ाई वाले तमाशे। जीती-जागती शहादत वाले तमाशे। झूठ के अनगिनत तमाशे। रोज-रोज। हर रोज। हर कहीं।
अब तमाशे की मुनादी के लिये ढोल-नगाड़े का इस्तेमाल नहीं है। उसका युग बीत गया। उसका उपयोग भारत में होता था। अब हम इंडिया में हैं। हम तकनीकी क्रांति के युग में चरण जमा चुके हैं।
हम उत्थान की सीढ़ियां चढ़कर ‘डिजिटल’ के सोपान पर खड़े हैं। अब तमाशे की मुनादी के लिये हमारे पास इंटरनेट है, स्मार्टफोन है, टी.वी. में समाचार के स्वतंत्र चैनल हैं, बकायदा। अब तमाशा देखने के लिये बड़ा सुभीता है। अब घर बैठे सारे तमाशे का सजीव प्रसारण पूरे दृश्यबोध के साथ आपके लिये सुलभ है। अब आदमी के लिये आँख कान की जरूरत नहीं है। अब हमारे आँख-कान समाचार चैनल हैं। जो दिखा दे, सुना दें, उनकी मर्जी। हमें वहीे देखना है, जो वे दिखाना चाहें। वही सुनना है, जो वे सुनाना चाहें। हम सब भीड़ हैं। हम सब देख रहे है। हम वह सब कुछ देख रहे हैं जो तमाशा नहीं है।