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Wednesday, February 5, 2025

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बुखार में हाँफते दिन : Dr. Umesh Prasad Singh

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Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह

बुखार में हाँफते दिन: चुनाव के अन्तिम चरण के दिन दस्तक दे रहे हैं। मतदान की आखिरी तिथि बिल्कुल सामने दिखाई पड़ने लगी है। समय बड़ा हलकान है। एक बुखार उतरने से पहले दूसरा चढ़ बैठा है।तापमान इतना बढ़ गया है कि दिन पसीने में डूब गया है। रात बेचैन है। नींद के पीछे सपने डंडे लेकर ऐसे पड़े हैं कि वह लस्त-पस्त भागने में लथपथ है। दौड़ते समय की साँसे उखड़ रही हैं। जो कुछ भी समय में समाहित है, सब हाँफ रहा है। सबसे ज्यादा समाचार चैनलों के एंकर हाँफ रहे हैं। ऐसे हाँफ रहे हैं, जैसे पहाड़ चढ़कर अब गिरने ही वाले हैं। वे बिना रुके, बिना थके लगातार बोल रहे हैं। बोलते जा रहे हैं। गला सूख जाने पर पानी पी-पीकर बोल रहे हैं। वे अपनी तरफ से नहीं बोल रहे हैं। अपने लिए नहीं बोल रहे हैं। उनको इहलाम हुआ है कि वे समय की तरफ से समय के लिए बोल रहे हैं। उनको डर है कि वे नहीं बोलेंगे तो समय गूँगा हो जाएगा। समय को गूँगा होने से बचाए रखने के लिए वे बोल रहे हैं। वे कितना बड़ा काम कर रहे हैं। कितना बड़ा एहसान कर रहे हैं।

अगर लोग एहसान फरामोश न हों तो समूचे देश को उनका ऋणी हो जाना चाहिए। खैर!
हमारा देश भी बड़ा अद्भुत देश है। बड़ा चमत्कारी देश है। यह जो कुछ होता है, आँख मूँदकर हो जाता है। चुनाव के समय हमारे देश की समूची जनता राजनीतिक हो जाती हैं राजनीतिक ही नहीं, राजनीति में पारंगत हो जाती है। पंडित हो जाती है। जो राजनीति की वर्णमाला तक नहीं जानता, वह राजनीति का प्रकाण्ड विद्वान बन जाता है। नुक्कड़-नुक्कड़ पर संसद देखना चाहैं तो चुनाव के समय कहीं भी देख लें। ज्ञान की बरसात बिना बादल हर कहीं होने लगती है। हर कोई भींग रहा होता है। जो नहीं भींग रहा होता है, उसकी गिनती आदमी में नहीं, उल्लू में होती है।

जो उल्लू नहीं है। जो उल्लू होने से बचे हुए लोग हैं, उनकी चिन्ताएँ अछोर है। उनकी व्यस्तताओं का क्या कहना। उनके दिमाग में उठने वाला तूफान संभावनाओं की सरहदों से टकरा-टकराकर उनकी जड़े हिलाने में दिन-रात व्यस्त है।
इन थोड़े से बचे हुए दिनों के पैर दावों के दलदल में धँसे हुए अफना रहे हैं। अनुमानों की आँधी में पीले पत्तों की तरह उड़ रहे हैं। आँखों में धूल झोंक रहे हैं। गहमागहमी में हाँफते हुए दिन कितने लाचार, कितने बेबस और कितने दीन दिखाई दे रहे हैं। दिनों की दयनीयता देखकर समय का मुँह सूख गया है। साँसें सहम गई हैं।

हर जगह चर्चे चल रहे हैं। हर कोई सरकार बना रहा है। हर कोई सरकार बिगाड़ रहा है। आँकड़े, रुझान, विश्लेषण में समूचा देश व्यस्त है। अपना काम छोड़कर हर कोई सरकारी काम में दखल दे रहा है। सरकारी काम में दखल देना वैसे दण्डनीय माना जाता है। मगर चुनाव के दौर में नहीं। चुनाव के दरम्यान में यह दखलन्दाजी पुरस्करणीय हो जाती है। जो जितना ही सक्रिय है वह उतना ही महत्वपूर्ण है। हो भी क्यों नहीं? चुनाव के दौरान तो समूची जनता ही सरकार है। सरकार चुनने की हकदार जनता भला सरकार से कम कैसे कही जा सकती है। कभी-कभी कुछ भ्रम भी कितने रोमांचक हो जाते हैं।

कौन बढ़ रहा है। कौन घट रहा हैं।किसने छक्का जड़ दिया, किसने चौका मार दिया। किसका बाल बाउन्सर चला गया। किसका विकेट गिर गया। कौन कैसे दहाड़ा। कौन कैसे मुस्कराया। किसका हाथ हिलाना आँधी बन गया। किसके आँसू बाढ़ बन गए। किसकी कौन सी अदा भीड़ को दिवाना बना गई! एक नहीं। हजार-हजार सिलसिले। कोई ओर नहीं। कोई छोर नहीं। बातों का क्या! सिर्फ बातें ही नहीं। बातों के अचार और मुरब्बों की गली-गली में दुकान लगी है। कहा जाता है कि आदमी अपने को नहीं देखता। दूसरों के काम में ज्यादा दिलचस्पी लेता है। चुनाव के समय में हर आदमी दूसरे के काम में डूबा हुआ है। राजनीतिक दलों के काम में समूचे देश की जनता डूब-उतरा रही है। बहुत लोग तो आकण्ठ डूब गए हैं। इतने डूब गए है कि दिख ही नहीं रहे हैं। कुछ लोग हैं जो इस कदर डूबे हैं कि बस डूब मरने से किसी तरह बचे हुए हैं।

अब सबकी निगाहें अनुमानों पर जाकर टिक गई है। सबकी साँसे पूर्वानुमानों की घोषणाओं में समा गई है। अनुमानों के इतने-इतने रंग, इतने-इतने ढंग कि कुछ पूछिए मत। राजनीतिक विश्लेषकों की एक पूरी बिरादरी ही अड्डा जमाए हुए है। ये राजनीति नहीं करते। राजनीति का विश्लेषण करते हैं। अपने को बुद्धिजीवी कहते हैं। इण्टेलेक्चुअल कहने से ये लेाग ज्यादा खुश होते हैं। ज्योतिषियों की तरह इतकी भी दुकानें है। एजेन्सियाँ है। एग्जिट-पोल के आर्गेनाइजेशन है। इनको और कुछ से नहीं अपनी फीस से मतलब है। अपने मुनाफे की फिक्र है। इनका काम, काम कम है, धन्धा ज्यादा है। मुनाफा कमाने के लिए जो काम किया जाता है, उसे काम नहीं धन्धा कहा जाता है। पता नहीं कैसे, पता नहीं क्यों, हमारे समय के लोकतंत्र में सारे काम धन्धे में बदल गए हैं। अब बदल गए हैं तो बदल गए हैं। आप मान सकें तो भी और न माने तो भी कोई फर्क नहीं। हमारे समय में तो घाटा और मुनाफा हमारे भीतर इतना घर कर गया है कि आदमी की जिन्दगी ही धन्धा बन गई है।

मनुष्य की प्रवृत्तियाँ इतनी शाश्वत और सनातन है कि बदलने का नाम ही नहीं लेती। रूप बदल जाता है रंग बदल जाता है, ढंग बदल जाता है मगर आत्मा नहीं बदलती। समय की सतह पर युग बदल जाता है, मगर सीने में चलने वाली साँसे वही रहती हैं।

आदमी के भीतर आगे आने वाले समय के अन्तराल में मौजूद यथार्थ को जान लेने की उत्कण्ठा उसकी आदिम उत्कण्ठा है। हमेशा से वह मनुष्य के जीवन में मौजूद रही है। वह आदमी को हमेशा बेचैन रखती है। वैसे यह बेचैनी पूरी तरह से व्यर्थ है, क्योंकि थोड़े से धैर्य से देखो तो भविष्य तो वर्तमान होने ही वाला होता है। मगर नहीं, पता नहीं क्यों मनुष्य कल को आज ही जान लेने को हमेशा उतावला बना रहता है। इस उतावली को संतुष्ट करने के निमित्त ही ज्योतिषशास्त्र का आविर्भाव हुआ होगा, ऐसा कहा जा सकता है। मनुष्य की इसी उतावली के ज्योतिषियों ने अकूत लाभ कमाए हैं। आज भी सारी आधुनिक बौद्धिकता और वैज्ञानिकता के दम्भ के बावजूद आदमी का ज्योतिष में विश्वास कम नहीं हुआ है। कभी कम होगा भी नहीं। थोड़ी गंभीरता से विचार करें तो हमारे समय में एग्जिट पोल की प्रणाली ज्योतिष के ही आधुनिक संस्करण की उपस्थिति है। प्रणाली वही है, प्रकल्प वही है, प्रतिज्ञा वही है, केवल उपादान अलग हैं। ग्राहक वही हैं। व्यवस्था वही है। मुनाफा वैसा ही है। बस ढंग और ढर्रा बदला है। भाषा बदली है। व्यापार की तकनीक बदली है। भावनाओं को भजाने की वृत्ति नहीं बदली हैं।

पाँवों पर दौड़-दौड़कर थके हुए दिन अब दौड़ के परिणाम की आकुलता में हाँफ रहे हैं। धूप में तपे हुए दिन। पसीने में डूबे हुए दिन। प्रतीक्षा में पगे हुए दिन। भूख से भकुआए हुए दिन। प्यास से पगलाए हुए दिन। सचमुच कितने कठिन हैं, ये दिन। दिन चाहे जितने भी कठिन हों कट ही जाते हैं। कट ही जाएंगे। निकल ही जाएंगे। सरकार बन ही जाएगी। फिर रहेगा पांच साल आराम से सोचने का समय। इत्मीनान के साथ सोचने का समय कि सरकार किसकी है, किसके लिए है। बचा रहेगा देखने का समय। देखना भी क्या? देख तो कबसे रहे हैं। सरकार है, जनता के लिए इतना ही बहुत है। जैसी भी होगी, नयी तो होगी।

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