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Saturday, July 5, 2025

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सन्त और समाजः किंवदन्तियों में कीनाराम

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Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से

भारतीय समाज व्यवस्था में सन्त और समाज का अन्तर्सम्बन्ध बड़ा संश्लिष्ट, अद्भुत और विस्यमजनक है। उसकी बारीकिया इतनी सूक्ष्म और अर्थगर्भित हैं कि उसका विश्लेषण आसान नहीं है। सन्त की अस्मिता राजसत्ता और सामान्य जन दोनों के समक्ष एक दिव्य और भव्य अधिसत्ता की तरह मान्य है। इसलिए कि उसमें भय नहीं है, लोभ नहीं है, स्वार्थ नहीं है। इन सबका न होना लोक में अलौकिक होने जैसा है। सन्त लोक में व्याप्त अलौकिक सत्ता का वाचक विग्रह है।

समाज इस संसार में विविध तरह की चेतना से संयुक्त मनुष्यों का एक चामत्कारिक समुच्चय है। चामत्कारिक इसलिए कि तमाम ऐसे मनुष्य जिनके चेतना का धरातल अविश्वसनीय रूप में एक-दूसरे से इतना भिन्न है कि उनके आपसी सम्बन्धों की कल्पना भी मुश्किल हो जाती है। फिर भी उन सबमें अन्तर्सम्बन्धों का अद्भुत अनुशासन कायम है। इस सम्बन्धों के अनुशासन को ही समाज कहा जाता है। समाज का आधार सम्बन्ध है। चाहे सम्बन्ध मधुरता का हो, चाहे कटुता का। चाहे सहयोग का हो, चाहे विरोध का। चाहे प्रेम का हो, चाहे कलह का। वह एक-दूसरे को जोड़ता है। मित्र के रूप में ही जुड़ना, जुड़ना नहीं होता। शत्रु के रूप में भी जुड़ना जुड़ना ही होता है। एक-दूसरे से जुड़ाव की प्रक्रिया से ही समाज निर्मित होता है। केवल मनुष्य ही नहीं, बल्कि समस्त प्राणी किसी न किसी रूप में एक-दूसरे से जुड़े हैं। एक-दूसरे पर निर्भर हैं। सभी एक-दूसरे के पूरक भी हैं। यह जुड़ाव, निर्भरता और पूरकता समाज का निर्माण करती है। असीम समाज अपार सम्बन्धो का जाल है। सम्बन्धों के मूल में स्वार्थ है। स्वार्थ चाहे क्षुद्र हो, चाहे उदार। सम्पूर्ण समाज एक-दूसरे से स्वार्थ से आबद्ध है। समाज व्यवस्था इसी स्वार्थ के स्वरूप का नियमन करने वाली व्यवस्था है। समाज व्यवस्था निरन्तर परिवर्तनशील व्यवस्था है।

निरन्तर परिवर्तनशील समाज व्यवस्था में अपरिवर्तनशील जीवन सत्यों के प्रकाश का प्रसार सन्त की अस्मिता की पहचान है। सृष्टि के आरम्भिक समय से वैदिक और औपनिषदिक काल से लेकर वशिष्ठ, विश्वामित्र और महर्षि व्यास के साथ आधुनिक सन्तों की परम्परा का प्रवाह इसी अनुष्ठान की उपासना में अनुरक्त है।
समाज के संचालन के लिए हर समय में और हर तरह के समाज में एक तरह की व्यवस्था का विधान दिखाई पड़ता है। समाज व्यवस्था में विधान की रचना करने वाला एक वर्ग होता है। यह वर्ग प्रभुसत्ता को स्थपित करने वाला वर्ग होता है। जो विधान रचा जाता है, उसे सारे लोगों को मानना होता है। यह कहना शायद ज्यादा उचित होगा कि सामाजिक विधान को सारे लोगों को मानना पड़ता है। विधान की सार्वजनिक स्वीकृति के पीछे सामाजिक सुरक्षा को पाने की आदमी की लालसा प्रमुख होती है। तमाम सुख-दुख के अवसरों और प्राकृतिक आपदाओं के संकटपूर्ण समय में आदमी दूसरों के सहयोग की अपेक्षा रखता है। समूहबद्ध होने से बहुत से संकटों का सामना करना आसान हो जाता है। इसलिए आदमी सामाजिक व्यवस्था को सहज अंगीकार करता है। समाज व्यवस्था में व्यक्ति की स्वतंत्रता का महत्व कम और सामूहिक जीवन आदर्शों का सम्मान अधिक देखा जाता है। सामूहिक हित के आदर्श को आगे रखकर बनाए गए सामाजिक विधान में भी प्रायः असंतुलन और अन्तर्विरोध देखे जाते हैं। बहुत-सी भ्रांतियाँ, रूढ़िया और मिथ्या विश्वास भी समाज व्यवस्था के अंग बन जाते हैं। प्रायः हर समय में समाज व्यवस्था के विधान प्रभुसत्ता के हितों के संपोषण के लिए अधिक अनुकूल होते हैं। एक तरह से शक्तिशाली लोगों के समूह के हित साधक विचार और व्यवहार समाज व्यवस्था के नियामक तत्व बन जाते हैं। इसलिए हर समाज व्यवस्था में कमजोर और असहाय जनवर्ग के उत्पीड़न के व्यवहार भी अनिवार्य रूप से मौजूद देखें जाते हैं।

किसी समय में सन्त अनिवार्य रूप से अपने समय में संचालित समाज व्यवस्था के विधानों को मानने के लिए बाध्य नहीं होते हैं। वे भी समाज में सम्मिलित होते हैं मगर समाज के अंग के रूप में नहीं। वे सामाजिक व्यवस्था के विधानों के समीक्षक भी होते हैं। उसकी विकृतियों के उद्घाटक भी होते हैं। उसमें मानवीय सन्दर्भ में संशोधनों के प्रस्तावक भी होते हैं। वे अपने समय के अनुचित नियमों के उल्लंघन का अधिकार भी रखते हैं। सन्त को सामाजिक रीतियाँ और नीतियाँ बाँधने की सामथ्र्य नहीं रखतीं, बल्कि सन्त उनको बदलने का विवेक प्रस्तुत करता है। स्वार्थ, भय और लोभ की अभिप्रेरणा से स्थापित सामाजिक सत्ता को सन्त सत्य, न्याय और प्रेम का व्यापक सन्दर्भ देते हैं। समाज से सन्त का सरोकार विधान के जरिए नहीं बल्कि जीवन की सचाइयों के आधार पर विकसित होता है। समाज की अन्य नियामक शक्तियाँ समाज के अवदान पर भी आश्रित होती है। मगर सन्त की सत्ता समाज में मानवीय भावना की स्थापना पर आधारित और अवलम्बित है। समाज में मनुष्य जीवन की अन्तर्दशाओं का दिग्दर्शन कराना सन्त का ध्येय होता है। मनुष्य जाति को जीवन सत्यों से साक्षात कराकर उनकी जीवनदशा को उन्नत बनाने का मार्ग प्रशस्त करके उनकी चेतना की आन्तरिक अभ्युन्नति के उपायों से अवगत कराना सन्त पुरूष के जीवन का आदर्श होता है।

‘‘तरुवर फल नहिं खात है, नदी न संचै नीर
परमारथ के कारनै, साधुन धरा सरीर।।’’

पेड़ में फल आते हैं। मगर वे खुद नहीं खाते हैं। नदियाँ जल की संवाहक हैं। वे जल का संचय नहीं करती। वे जल का संपोषण नहीं करतीं। संरक्षण नहीं करतीं। भंडारण नहीं करतीं। नदियों में प्यास नहीं है, पानी है। पेड़़ों में भूख नहीं है, फल है। जिनकी अपनी कोई प्यास नहीं है, उनके पास ही पानी होता है। जिनकी अपनी कोई भूख नहीं होती उनके पास ही फल होता है। सन्त होना पेड़ की तरह होना होता है। नदी की तरह होना होता है। जो खुद भरा हुआ है, वही दूसरों को भर सकता है। जो भूखा है, वह तृप्ति नहीं बाँट सकता। जिसके पास जो है, वह उसी को बाँट सकता है। जिसमें भूख है, वह भूख बाँटेगा। जिसमें प्यास है, वह प्यास बाँटेगा। जिसमें भय है, वह भय बाँटेगा। भूख केवल अन्न की नहीं होता। प्यास केवल पानी की नहीं होती। भूख पद की भी होती है, प्रतिष्ठा की भी होती है। प्यास प्रभुत्व की भी होती है। यश की भी होती है, मान की भी होती है। मृत्यु का भय, भला किसे नहीं है?

सन्त में भूख नहीं है। प्यास नहीं है। भय नहीं है। इसलिए कि उसमें अहं नहीं है। वह अहं का पोषक नहीं है। वह अस्तित्व के अभिप्राय का निमित्त मात्र है। निमित्त मात्र होना ही भरा हुआ होना होता है। भरा हुआ होने से ही कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है। जगत का मंगल संभव होता है। परहित का साधन फलित होता है। वृक्ष निमित्त मात्र हैं। नदियाँ केवल निमित्त मात्र हैं। सन्त निमित्त भर है। वृक्ष फल के निमित्त है। नदियाँ जल की निमित्त है। सन्त परितोष के निमित्त हैं। प्रमोद के निमित्त हैं। वे जगत में मंगल बाँटते हैं। मोद बाँटते हैं।
मोद क्या है? मोद बुभुक्षा मिटाने का मंत्र है, महामंत्र। मुदित होने के लिए साम्राज्य नहीं चाहिए। महल नहीं चाहिए। खजाना नहीं चाहिए। सोना, हाथी-घोड़ा यह सब भूख बढ़ाने के उपादान हैं। मुदिता केवल भरने का भाव है। वह सारे अभावों को मिटाकर भर देती है। आनन्द से भर देती है। धन्यता से भर देती है। धन्यता के बोध से भर जाना ही सन्त का होना होता है। सन्त की उपस्थिति से ही आनन्द का संचार होने लगता है। सन्त के होने से ही समाज में मंगल घटित होने लगता है। वह कल्याण करता नहीं है, कल्याण होने लगता है। जैसे वृक्ष के होने से छाया अपने आप हो जाती है, वैसे ही सन्त के होने से मंगल का बोध अपने आप घटित होने लगता है। जिसमें प्यास नहीं है, उसमें जलन नहीं है। ज्वाला नहीं है। उत्ताप नहीं है। वह शीतल है। शीतल से जो भी छू जाता है, शीतल हो जाता है।

सन्त की वाणी शीतल वाणी है। वह जो भी बोलता है हीतल से बोलता है। हृदय के तल से बोलता है। चेतना की आन्तरिक सतह से उसकी वाणी फूटती है। उसकी वाणी अस्तित्व के स्रोत से जुड़ी वाणी है। उसकी वाणी में अहं का विस्फोट नहीं है। मन के विशिष्टताबोध का विकार नहीं है। वह शीतल है। इसलिए वह जो भी देता है, उससे शीतलता प्राप्त होती है। वह अपने लिए नहीं है। उसकी अस्मिता ही दूसरों के लिए है।

समाज में जो कुछ भी है, सन्त के लिए वह कुछ भी नहीं है। सन्त के लिए जो कुछ भी नहीं है, वह समाज के लिए सब कुछ है। समाज के साथ सन्त का सम्बन्ध लेन-देन का सम्बन्ध नहीं है। लेन-देन व्यापार में होता है। लाभ के लिए होता है। लोभ के लिए होता है। सन्त का समाज से सम्बन्ध प्रेम का सम्बन्ध है। प्रशान्ति का सम्बन्ध है। प्रबोध का सम्बन्ध है। सन्त समाज को सतत देता है। देता रहता है। अपने को देता रहता है। वह बाँटता रहता है अपनी अक्षम पूँजी को। वह अस्तित्व के ऐश्वर्य को बाँटता रहता है। वह विभु के वैभव को लुटाता रहता है। वह महिमा के महाख्यान को बाँचता रहता है। जिसमें भी समाज से कुछ लेने की वांछा दिखाई देती है, वह सन्त नहीं होता, वह सन्त के वेष में व्यापारी होता है। वंचक होता है।

सन्त का हृदय हमेशा ही समाज के प्रति दवणशील रहता है। समाज लघुसत्ता का उपासक है। लघुसत्ता की उपासना विराट का विखण्डन करके क्षुद्र इयत्ता का सृजन करती है। खण्डित और क्षुद्र ईकाइयों में आस्था के कारण समाज में असमानता का, अन्याय का, अनाचार का, अत्याचार का प्रवर्तन होता हैं। पीड़ा का प्रसार होता है।
विराट बोध के अज्ञान से क्षुद्र में आस्था का उदय होता है। भेद की उपस्थिति होती है। भेेद के कारण ही स्वार्थ की उत्पत्ति होती है। स्वार्थ से ही विषमता उपजती है। विषमता से दुख का प्रवाह फूटता है। दुख में डूबती हुई मनुष्य जाति की असहायता और कल्पित सुख को पा लेने की उसकी उछाम आतुलता को सन्त सामाजिक सत्य के रूप में देखता है-

विषमता की पीड़ा से व्यस्त हो रहा स्पंदित विश्व महान।
यही सुख-दुख, विकास का सत्य यही भूमा का मधुमय दान।’’

इस दारूण मिथ्या सत्य को देखकर सन्त का हृदय द्रवित होता है। सन्त का हृदय कोमल है। द्रवणशील है। मगर उसमें अपना परिताप नहीं है। उसका अपना ताप नहीं है। वह समाज के मनुष्यों की वेदना के ताप से पिघलता हैं उसका अपना ताप नहीं है। वह समाज के मनुष्यों की वेदना के ताप से पिघलता है। तुलसीदास जी ने बड़े व्यंजक रूप में सन्त हृदय की अवस्था का चित्र उपस्थित किया है-

सन्त हृदय नवनीत समाना, कहा कविन पर कहइ न जाना।
निज परिताप द्रवइ नवनीता, परदुख द्रवइ सन्त सुपुनीता।।

इस महान विश्व का सामाजिक जीवन विषमता की पीड़ा में व्यस्त हैं। सन्त का जीवन समता के आनन्द में मस्त है। समाज दृश्य में डूबा हुआ है। सन्त जीवन में डूबा हुआ है। समाज की समूची सत्ता द्वैत पर आधारित है। सन्त का जीवन अद्वैत के बोध पर स्थित है। समाज की सारी मान्याताएँ, सारी मर्यादाएँ द्वैत की सत्ता पर निर्मित हैं। उसमें अपने, पराए का द्वैत है। राजा, प्रजा का द्वैत है। स्त्री-पुरूष, शत्रु-मित्र, धनी-गरीब, सबल-निर्बल का द्वैत है। द्वैत के बोध के कारण ही समाज में भेद का व्यवहार है। भेद के कारण ही शोषण है अन्याय है, अनाचार है, अधर्म है। धर्म की धुरी अद्वैत है। सन्त का साम्राज्य धर्म का साम्राज्य है। धर्म के साम्राज्य में मोह नहीं है, द्रोह नहीं है, हिंसा नहीं है, प्रतिशोध नहीं है, घृणा नहीं है। सन्त का आचरण अभेद का आचरण है। अभेद के आचरण में अथाह प्रेम है। अपार करुणा है। सन्त के आचरण में असहाय की सहायता, दुखियों का उद्धार, पीड़ितों की सेवा व्यक्ति इकाई पर अवलम्बित व्यवहार नहीं है, प्रकारान्तर से वह सब द्वैत के बोध पर आधारित व्यवस्था का निषेध है। भेदबुद्धि की निरस्ति है। अद्वैत की भावना का, अभेद के अनुभव का प्रसार है। व्यापक बोध की प्रतिष्ठा है। धर्म का विस्तार है। सन्त की अस्मिता का प्रयोजन, धर्म के विस्तार का प्रयोजन है।

सन्त की समग्र अस्मिता धर्म के विस्तार के लिए है। धर्म का विस्तार मानव जाति की कल्याण कामना में निहित है। धर्म की उत्प्रेरणा चेतना के उन्नयन में चरितार्थ होती है। सन्त का आचरण चिन्तन, मनन सब कुछ लोककल्याण के निमित्त केन्द्रित रहता है। चेतना के उच्चतर धरातल पर अधिष्ठित होने के कारण सन्तों के कार्य सथूल धरातल के अलावा सूक्ष्म रूप में भी घटित होते रहते हैं। सूक्ष्म रूप में घटित होने वाली उनकी गोपनीय प्रणाली स्थूल दृष्टि से पकड़ में आने योग्य नहीं होती। इस सन्दर्भ में स्वामी विवेकानन्द जी से गाजीपुर में पवहारी बाबा का वार्तालाप विशेष रूप से द्रष्टव्य है। चिन्तन की प्रक्रिया में संकल्प से साधित लोक कल्याण के सन्तों के महत उद्योग को स्थूल माध्यम में अंकित कर पाना कभी भी साध्य नहीं हो सका है। भाषा में उनके स्थूल स्तर पर जनकल्याण के आचरण अवश्य ही हर काल के साहित्य में लिपिबद्ध मिलते हैं। बाबा कीनाराम अपने समय में आर्ष परम्परा की उच्चतर धरोहर की तरह थे। उनके जीवन के अनेक सन्दर्भ और अनेक घटनाएँ उनके लोककल्याण के स्तुत्य आचरण की मिशाल पेश करती हैं।

ऐसी ही घटनाओं में एक घटना कोहलीन नगर की है। वहाँ के आपदाग्रस्त मनुष्यों की पीड़ा को दूर करने के लिए बाबा की अद्भुत सेवा का कठिन व्रत और उनका कठोर श्रमसाध्य उद्योग चमत्कृत कर देता है। उस सन्दर्भ से गुजरते हुए उपनिषद का रैक्व आख्यान बरबस याद आ जाता है, जिसकी मार्मिकता का उद्घाटन हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने उपन्यास ‘अनामदास का पोथा’ में बेहद गहन संवेदना के साथ सम्पन्न किया है।

काशी में कालूराम से समागम
बाबा कीनाराम गिरिनार की यात्रा करके भ्रमण करते हुए दिल्ली से काशी आ रहे थे। नदियों, पहाड़ों के सौन्दर्य को निरखते हुए नगरों, ग्रामों के जनजीवन में विलास और विक्षोभ के व्याप्त अन्तर्नाद को सुनते, समझते हुए वे काशी की तरफ आ रहे थे। एक तरफ उनका हृदय प्रकृति की सहज सुषमा से आन्दोलित था तो दूसरी तरफ मानव समाज में फैली विषमता की पीड़ा से उन्मथित भी। वे आगे आने वाले समय में मनुष्यजाति की कल्याण कामना से उत्प्रेरित अपने अभियान के स्वरूप का चिन्तन करते चल रहे थे। इसी दौरान एक रात स्वप्न में हिंगलाज देवी ने उन्हें दर्शन दिया। निकट भविष्य में घटित होने वाले महत ईश्वरीय विधान की तरफ इंगित करने के प्रयोजन से उन्होंने बाबा को उद्बोधित करते हुए कहा, ‘‘वत्स काशी में पहुँचने के कुछ ही समय बाद, आपको वहाँ के हरिश्चन्द घाट पर अत्यन्त गौरवर्ण, ऊँची आकृति और विशाल कन्धों वाले जटाजूटधारी महापुरूष से मुलाकात होगी। वे आश्चर्यजनक कृत्यों को सहज सम्पन्न करते दिखेंगे। उनको आप दत्तात्रेय भगवान के अंश स्वरूप कालूराम के रूप में ग्रहण करना। उनके सहयोग और सानिध्यसे आगे के सारे मेरे सुझाए काम संपनन करना। क्रीं कुण्ड में मेरे निवास की व्यवस्था उनके माध्यम से सहज संभव होगी। वहाँ मेरे श्रीयंत्र स्वरूप विग्रह की स्थापना करके उस केन्द्र से मनुष्यजाति के हित साधन के महत उद्योग का समारंभ करना। ईश्वर की अनुकम्पा आपके माध्यम से जीव-जगत के मंगल मार्ग का संधान करने को उत्सुक है।’’

बाबा कीनारा देवी के मार्गदर्शन से प्रफुल्ल मार्ग के विस्तार को पार करते काशी पहुँच आए। काशी में विश्राम करके वे भ्रमण करते हुए हरिश्चन्द घाट पहँुच गए। वहाँ उन्होंने दिव्य प्रकाश से सुशोभित अत्यंत गौरवर्ण के विशाल कन्धों वाले घनघोर जटाजूट धारण किए महापुरूष को बैठे हुए देखा। वे नर कपालों के साथ विचित्र तरह की क्रीड़ा करते हुए आमोद कर रहे थे। बाबा कीनाराम जी ने देवी के निर्देशों के द्वारा उन्हें कालूराम के रूप में पहचान कर उनकी अभ्यर्थना की। कालूराम जी ने वहाँ बैठे कीनाराम जी से कुछ भोजन कराने की इच्छा व्यक्त की। बाबा कीनाराम ने गंगा की तरफ हाथ उठाया। गंगा से उछलकर मछलियाँ वहाँ चिता की अवशेष आग में आ गिरीं। उस समय बाबा के साथ बीजाराम भी उपस्थित थे। भुनी हुई मछलियों का भोग लगाकर वे सभी लोग तृप्त हुए। उसके बाद कालूराम जी ने गंगा की धारा में बहुते हुए टिकठी पर बंधे एक मुर्दे की तरफ इशारा करके कीनाराम जी को उत्प्रेरित किया। कीनाराम के संकेत से मुर्दा किनारे आ गया। उन्होंने अपने हाथ से अक्षत उठाकर उसके ऊपर फेंक दिया। मुर्दे के बन्धन खुल गए। महाराज कीनाराम ने हाथ में जल लेकर उसके ऊपर छिड़क कर कहा,-

ले राम नाम
जिस राम नाम में है
सारी कुदरत का खेला।।’’

मुर्दा राम-राम कहते हुए उठ बैठा। उसने सामने आकर बाबा कालूराम और बाबा कीनराम की पाद वन्दना की। उसने हमेशा के लिए उनसे अपना अनुचर बना लेने की प्रार्थना की। बाबा ने उसे अपने साथ रख लिया। आगे चलकर वे अपनी उन्नत साधना, सेवा और समर्पण के कारण बाबा कीनाराम के विशेष कृपापात्र बने। रामनाम के प्रभाव से मरकर पुनः जीवित होने के लिए उनका नाम रामजियावन दास पड़ा। वे ही ‘क्रीं कुण्ड’ की बाबा की धूनी के प्रथम सेवक होने के गौरव से विभूषित होकर अत्यन्त प्रसिद्धि को प्राप्त हुए।
उस दिन कालूराम जी सबको लेकर अपनी कुटी की तरफ चल पड़े। उस समय वे गंगा के किनारे केदार घाट और हरीश्चन्द घाट के बीच एक नाले के किनारे झोपड़ी लगाकर निवास कर रहे थे।

बाबा कीनाराम का काशी आगमन काल के इतिहास में बहुत बड़े परिवर्तन का निमित्त था। सामाजिक सोच के वृहत्तर आयामों में बदलाव के लिए उनको माध्यम बनाने की परमसत्ता की अलक्ष्य योजना निश्चित थी। कालूराम जी से समागम के संकेत तो देवी ने उन्हें पहले ही स्वप्न में दे दिया था। ऐसा लगता है, जैसे कलुषनशिनि माँ गंगा ने रामजियावन दास के रूप में उन्हें एक सुयोग्य सेवक और शिष्य सौंपकर उनके काशी आगमन पर अपने आशीर्वाद और उल्लसित अभिनन्दन का सजीव उपहार देकर उनका स्वागत किया हो।

बाबा विश्वेश्वर विश्वनाथ की उत्प्रेरणा से महाराज कालूराज के समागम से माँ गंगा के उज्ज्वल उपहार से बाबा कीनाराम के अलौकिक सामथ्र्य का शंखनाद काशी की गली-गली में घर-घर में गूँज उठा। काशी आगमन के साथ ही उनकी कीर्ति की कहानी काशी प्रान्त के दिगन्त में व्याप्त हो गई। जो मृत व्यक्ति उनके आदेश से जी उठा था, वह जीकर संासर की अलक्ष्य भीड़ में कहीं विलीन नहीं हो गया था। वह वहीं बाबा के साथ उनके सहचर के रूप में मौजूद था। वह एक अविश्वसनीय सच के साक्ष्य की तरह उपस्थित था। लोग उसे देख सकते थे। सुन सकते थे। समझ सकते थे। जो भी सुना, जो भी सुनता आश्चर्य से, कुतूहल से उत्प्रेरित होकर हरिश्चन्द घाट की तरफ बाबा कालूराम की कुटी की ओर चल पड़ता। काशी की सारी सड़कें, सारी गलियाँ मुड़ गईं हरिश्चन्द घाट की तरफ। सारे लोग उमड़ पड़े बाबा कीनाराम के दर्शन के लिए। जिसे लोगों ने चमत्कार की तरह कभी सुना था। पुरखों के मुँह से, पुराकालीन लोककथाओं में जिसे कभी लोगों ने सुन रखा था जिसे सुनकर लोगों का चित्त विश्वास करने और विश्वास न करने की दुविधा के दोले में झूला करता था वह कल्पना और सन्देह से परे एक ठोस सचाई के रूप में काशी की जनता की आँखों के सामने देखने के लिए उपस्थित था। काशी में आस्था का एक नया केन्द्र देखते ही देखते प्रतिष्ठित हो चुका था, बाबा कीनाराम के स्वरूप में। उनकी जयकार की गूँज समूचे नगर में व्याप्त होकर नगर से बाहर चतुर्दिक यात्रा पर निकल पड़ी थी। बाबा कीनाराम ईश्वरीय अनुकम्पा के जड़ नहीं बल्कि जंगम विग्रह बनकर काशी की पुण्यभूमि में विराजमान थे।

पीड़ित मानवता का आश्वासन केन्द्र ‘क्रीं कुण्ड’ की अधिष्ठापना-

तत्कालीन काशी में एक रईस जमींदार थे, जिनका नाम राघवेन्द्र सिंह था। वे संभ्रान्त और सुरूचि सम्पन्न व्यक्ति थे। धर्म में उनकी गहरी निष्ठा थी। वे उदार हृदय थे। साधु सेवा उनकी सहज वृत्ति थी। राघवेन्द्र सिंह की बाबा कालूराम के प्रति गहरी निष्ठा थी। वे उनकी कुटी पर प्रायः जाया करते थे।
बरसात के दिनों में गंगा का जलस्तर बढ़ जाने के बाद उफनते नाले का पानी चारों तरफ फैल जाता, जिससे बाबा की झोपड़ी में भी पानी भर जाता था। ऐसी स्थिति में वहाँ निवास करने में भारी असुविधा और संकटापन्न स्थिति को देख दुखी होकर उन्होंने बाबा से निवेदन किया कि वे पास के ‘क्रीं कुण्ड’ में चलकर निवास करने की अनुमति दें तो वहाँ अपनी भूमि में वे कुटी का निर्माण करा दें। यहाँ बरसात में हर साल बाढ़ के प्रकोप से झोपड़ियाँ दह जाती है। वह स्थान ऊँचा है, जहाँ बाढ़ का पानी प्रायः नहीं चढ़ पाता है।

ठाकुर राघवेन्द्र सिंह के हार्दिक आग्रह का बाबा कालूराम ने सम्मान किया। उन्होंने कहा कि उचित समय की प्रतीक्षा करो। मैं आपके भूभाग में अवश्य निवास करूँगा। राघवेन्द्र सिंह तब से बाबा के आदेश में प्रतीक्षारत थे। वे बाबा कालूराम के निवास के लिए अपनी भूमि को अर्पित करने के आकांक्षी थे। ऐसे सुयोग को वे अपना परम सौभाग्य समझते थे। वे उनकी इंगिति पाने के दिन गिन रहे थे।
राघवेन्द्र सिंह की चिर अभिलषित आकांक्षा के पूरा होने का सुयोग बना बाबा कीनराम के काशी आगमन के साथ। कालूराम जी कुटी पर बाबा कीनाराम, बाबा बीजाराम और रामजियावन दास जी के साथ-साथ रहने के लगभग दस दिन उपरान्त ‘क्रीं कुण्ड’ में निवास स्थापित करने का निश्चय हुआ। बाबा कालूराम जी ने राघवेन्द्र सिंह को बुलाकर इस निश्चय से उन्हें अवगत कराया। राघवेन्द्र सिंह बाबा की स्वीकृति पाकर फूले न समाए। उन्होंने अत्यन्त हर्ष और उल्लास प्रगट किया।

‘क्रीं कुण्ड’ के पास मन्दारों के वन में से दस बीघा जमीन जो उनकी खुद की भूमिधरी थी और हिंगलाज देवी का यंत्र उन्होंने लिखित रूप में बाबा कीनाराम की सेवा में अर्पित किया। इस प्रकार ‘क्रीं कुण्ड’ के साथ वहाँ गुफा में स्थित हिंगलाज देवी के यंत्र विग्रह की विधिवत स्थापना हुई और दक्षिणी भाग में कुटी निर्माण कर वहाँ पीड़ित मानवता के आश्वासन केन्द्र की अधिष्ठापना का कार्य सम्पन्न हो गया। यही केन्द्र अघोर पीठ के आदि केन्द्र रूप में अद्यावधि प्रतिष्ठित और पूजित है।
अघोर मत का ‘क्रीं कुण्ड’ आदि पीठ है। महाराज कीनाराम जी इसके प्रवर्तक और प्रतिष्ठापक आदि आचार्य हैं। पीड़ित मानवता की सेवा और सामाजिक चेतना के उन्नयन में इस पीठ की संलग्नता और सक्रियता अद्यावधि अपनी निरन्तरता में अक्षुण्ण है।

एक साल तक बाबा कीनाराम के सानिध्य और साहचर्य का उपभोग करने के उपरान्त महाराज कालूराम जी ने इस भौतिक शरीर का आश्रय त्यागकर अन्तरिक्ष में कपाल खप्पर में विराजित रहने की स्थिति का वरण कर लिया। उनके खड़ाऊ और आसन की समाधि ‘क्रीं कुण्ड’ स्थल में सुशोभित है।
बाबा रामजियावन दास को काशी के ‘क्रीं कुण्ड’ स्थल की व्यवस्था का दायित्व सौंपकर बाबा बीजाराम को साथ लेकर बाबा कीनराम जी ने लम्बा परिभ्रमण किया। वे अनेकों जगह पर लम्बी अवधि तक विचरण करते रहे। बाबा कीनाराम की कृपा से उपलब्ध आयु के माध्यम से सात वर्षों तक बाबा रामजियावन दास ‘क्रीं कुण्ड’ की कुटी की सेवा का भार निर्वहन करते रहे। उन्होंने जीवन में सन्त की कृपा का लाभ उठाकर चेतना की उन्नत अवस्था को उपलब्ध किया। तत्पश्चात इस लोक की शरीर यात्रा पूरी कर शिवलोक गमन किया। ‘क्रीं कुण्ड’ स्थल में उनकी समाधि स्थित है, जहाँ श्रद्धालु आगन्तुक आज भी उनके समीप अपनी श्रद्धा निवेदित करते हैं।

भेददृष्टि के प्रतिकार के निमित्त लोटादास के भण्डारा में-

बाबा कीनाराम अघोर साधना को आत्मोउपलब्ध होकर अनन्त के असीम ऐश्वर्य में विचरण करते थे। वे बाह्याचार के प्रति उदासीन कौपीन धारण करके भ्रमण करते रहे। किसी भी वस्तु में घृणा के बोध से वे पूरी तरह से विरत थे। भेददृष्टि का बाबा निरन्तर अपने आचरण में तिरस्कार करते रहते।
जीवन में सहजता की उपलब्धि सबसे कठिन उपलब्धि है। सहज एक साधना नहीं है, जीवन स्थिति है। जीवन में स्थिति है। जीवन में स्थिति मिल जाने के बाद बाह्य आचरण और बाह्य उपादान उपेक्षित हो जाते हैं। उनकी मूलवत्ता व्यर्थ हो जाती है। भेद थोथा हो जाता है। खान-पान, वस्त्र-अलंकार, वाणी-व्यवहार में विधि-निषेध की सीमाएँ ढह जाती हैं। ऐसी स्थिति में महापुरूषों को उनकी रहनि को लेकर न केवल सामाजिक मान्यताओं के समक्ष उपेक्षित होना पड़ता है, बल्कि धार्मिक क्षेत्र में भी परम्परापोषित दृष्टिकोण के सम्मुख तिरस्कृत होना होता है। बाबा कीनाराम के साथ भी ऐसी उपेक्षा और अनादर की घटनाएँ घटित हुईं, जिनका उन्होंने न केवल दृढ़ता से सामना किया बल्कि उदग्र भाव से उन्होंने धार्मिक आचार के पाखण्डों का बराबर निरसन भी किया। ईश्वरगंगी में बाबा लोटादास का भंडारा ऐसी ही भ्रामक मान्यताओं के विखण्डन का एक उज्ज्वल उदाहरण है।

ईश्वरगंगी में बाबा लोटादास का जनसमाज में समादृत एक प्रतिष्ठित आश्रम था। बाबा को लोटा की सिद्धि थी। उनकी सिद्धि की कहानियाँ लोक में काफी प्रसिद्ध थीं। बाबा के आश्रम में एक भंडारा का विशद आयोजन किया गया था। उस भंडारे में भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों से सम्बन्धित साधुओं को आमंत्रित किया गया था। बाबा लोटादास से बाबा कीनाराम का घनिष्ठ परिचय था। तीर्थों में भ्रमण के दौरान वे कीनाराम जी के साहचर्य में रहे थे। कई अवसरों पर कीनाराम महाराज ने उनकी महत सहायता भी की थी। मगर उनके कौपीन मात्र धारण करने की स्थिति से और खान-पान में अभेद आचरण की वजह से लोटादास ने बाबा कीनाराम जी को भंडारा में निमंत्रित नहीं किया था। यह अपमानजनक व्यवहार बाबा के लिए दुखद था।
बाबा कीनाराम अनामंत्रित भंडारा में पहुँच गए थे। वे एक किनारे सबसे अलग चुपचाप बैठ गए थे। किसी ने उनको लक्ष्य नहीं किया। अनाहूत अतिथि की तरफ भला किसका ध्यान जाता! क्यों जाता? खैर।

आश्रम में व्यस्तता थी। भीड़ थी। लोग आ रहे थे। जा रहे थे। स्वागत हो रहा था। आने वालों का सत्कार हो रहा था। बाबा एक किनारे थे। भीड़ में भी भीड़ से अलग थे। वे सबसे निरपेक्ष थे। वे सोच रहे थे। आन्तरिक उत्प्रेरणा के अभाव में मनुष्य का आचरण सत्य नहीं है। मिथ्या है। पाखण्ड है। संसार में मिथ्या की पूजा क्यों है? पाखण्ड का प्रदर्शन क्यों है? जो सत्य है, उससे दूर होते जाना धर्म नहीं है।
भंडारा की तैयारी पूरी हो गई। आमंत्रितों की पंगत बैठा दी गई। भोजन परोसा जाने लगा। परासे दिया गया। मगर….। मगर प्रसाद पाने से पहले सब गड़बड़ हो गया। वहाँ भयानक उथल-पुथल मच गई। हाहाकार छा गई। पत्तलों पर परोसी गई सब्जी में मछलियाँ कूदने लगीं। पुरवे में भरे गए पानी से शराब की गन्ध उठने लगी।
खाने वाले स्तंभित हो गए। खिलाने वालों के चेहरे फक्क। ऐसा कैसे हो गया? क्यों हो गया? यह तो अबूझ है। आश्चर्यजनक है। बाबा लोटादास दौड़े-दौड़े आए। सब कुछ देखा। जो देख रहे थे सच था। वे सन्न रह गए। उन्हें काठ मार गया। काटो तो खून नहीं।

तभी उन्होंने देखा पंगत से अलग दूर एक कोने में बाबा कीनाराम बैठे हुए हैं। बाबा लोटादास को अपनी गलती का बोध हुआ। उन्हें अपार ग्लानि हुई। जो कत्तई उपेक्षणीय नहीं है, उसकी उपेक्षा क्यों? यह तो भयानक पाप है। अपराध है। पाप का परिणाम कितन भयंकर है।
वे दौड़े हुए गए और बाबा कीनाराम के चरणों गिर गए।
‘‘अपराध क्षमा करें प्रभो! भ्रमवश भूल हुई। आप समर्थ हैं। आप सिद्ध हैं। आपकी अवहेलना परमात्मा की अवहेलना है। आप पूज्य हैं। प्रथम पूजा के आप ही योग्य हैं। आप ही अधिकारी हैं। सबसे पहले मैं आपको भोजन कराऊँगा।’’

‘‘ठीक है। कराओ।’’ बाबा कीनाराम ने शान्त भाव से कहा।
भोजन सामग्री आ गई। बाला लोटादास अपने लोटा में भर-भर पूरियाँ, कचैरियाँ, सब्जी, दही, मिठाई बाबा कीनाराम के खप्पर में देते गए। सब कुछ अन्तरिक्ष में विलीन होता गया। खप्पर में कुछ भी नहीं दिखा।
बाबा लोटादास का गर्व धूल में लोट रहा था। उन्होंने अपने लोटा की सिद्धि का अभिमान चूर-चूर होते देख लिया था। बाबा लोटादास ने पुनः हाथ जोड़कर प्रार्थना की, ‘‘महाराज प्रसन्न होइए। आपकी सिद्धियों के सामने मेरी ऋद्धियों का मूल्य नहीं। मैं आपका दास हूँ। सेवक हूँ। कृपा करके भंडारा को सफल बनाने का आशीर्वाद प्रदान करें।’’
बाबा कीनाराम प्रसन्न हो गए। वे प्रीत हुए। बाबा ने सहास कहा,’’एक परमात्मा ही सत्य है। उसमें प्रेम ही धर्म है। बाकी सब पाखण्ड है। सत्य का आचरण ही साधन है। बस वही कल्याणकारी है।’’ बाबा ने लोटादास की तरफ देखकर ‘हुम’ का स्फोट किया। सब कुछ पूर्ववत हो गया। पत्तलों पर सब्जियाँ जस की तस दिखने लगीं। जल सुगन्धित हो उठा। कीनाराम जी ने बाबा लोटादास से कहा, ‘‘अपना भण्डारा देखो।’’

लोटादास ने भण्डारा देखा। चार लोटा भोजन उन्होंने बाबा के खप्पर में डाला था। भंडार में सारे सामान चार गुना होकर भर गए थे।
बाबा कीनाराम की जयकार से आश्रम का कोना-कोना गूँज उठा। भंडारा सफल हुआ। सार्थक हुआ। परमात्मा में निष्ठा पूजित हुई। प्रतिष्ठित हुई। पाखण्ड का पराभव हुआ। आचरण आन्तरिकता की अभिव्यक्ति है। वस्त्र-अलंकार का आच्छादन नहीं।
उस दिन से बाबा लोटादास के आश्रम में भंडारे में पहला भोजन बाबा कीनाराम को अर्पित करने की परम्परा बन गई।

साधुता बड़प्पन में नहीं होती
साधुता सहजता में होती है, बड़प्पन में नहीं। धन-दौलत, हाथी-घोड़ा, जमीन-जायदाद, ऐश्वर्य-वैभव यह सब सामाजिक श्रेष्ठता के आधार हो सकते हैं, धर्म जगत में नहीं। धर्म के क्षेत्र में तो चेतना की उच्चता की एकमात्र श्रेष्ठता की कसौटी है। मगर भ्रमवश धर्म के क्षेत्र में भी बहुत से महात्मा अपनी भौतिक समृद्धि को लेकर अहंकार के वशीभूत हो जाते हैं। अपनी सिद्धियों के अभिमान में अपने को विशिष्ट मान बैठते हैं। दूसरों को विपन्न समझकर उनका तिरस्कार करने लग जाते हैं। ऊँच-नीच का, भेद-भाव का आचरण साधु के लिए शोभा जनक नहीं होता, ऐसा बाबा कीनाराम जी मानते थे।

एक बार कीनाराम जी भ्रमण करते हुए गोरखपुर जनपद के अमरौली गाँव में पहुंचे हुए थे। वहाँ पर फलाहारी बाबा का बड़ा समृद्ध आश्रम था। भौतिक समृद्धि से भरा-पूरा। उनका ऐसा ऐश्वर्य था कि उनकी शिष्य मंडली हाथी-घोड़े पर बैठकर निकलती थी। बाबा की सिद्धियों की दूर-दूर तक बड़ी चर्चा थी। उनकी प्रसिद्धि का क्षेत्र काफी विस्तृत था। फलाहारी बाबा बड़े ठाट-बाट और शान-शौकत के साथ रहने के अभ्यस्त थे।
उस दिन फलाहारी बाबा के आश्रम में भंडारा का आयोजन था। भंडारे में बाबा कीनाराम अपने अरुचिकर और अशोभन में वेश में पहुँच गए। बाबा कीनाराम की वेश-भूषा को देखकर फलाहारी बाबा ने उनके साथ उपेक्षा का बर्ताव किया। उनका व्यवहार साधुता के विरूद्ध व्यवहार था। बाबा कीनाराम ने अपना खप्पर उनके आगे करके कहा, ’’ खप्पर में खाना भर दो।’’
फलाहारी बाबा ने तिरस्कारपूर्ण भाव से खप्पर में खाना डालकर उन्हें आँख से दूर करना चाहा। उनके औघड़ रूप को वह हेय समझकर उनके प्रति तुच्छता का व्यवहार कर रहे थे। मगर उनके आश्चर्य का ठिाकाना न रहा जब उनका छोटा-सा खप्पर खाना से भर न सका। खप्पर में जो भी खाद्य पदार्थ फलाहारी बाबा डालते वह सब अन्तरिक्ष में विलीन हो जाता। खप्पर खाली का खाली।
अपनी असफलता और समर्थता पर फलाहारी बाबा की खीझ बढ़ती जा रही थी। दौरे भर-भर कर कचैरियाँ खप्पर नहीं भर सकीं। वे हतप्रभ और दयनीय हो उठे। सारी भीड़ सारी जगहों से सिमट कर वहीं उमड़ पड़ी।

वहाँ उपस्थित कई लोग बाबा कीनाराम को जानने वाले थे। उनके लोगों ने पूर्व में घटी घटनाओं का हवाला देकर फलाहारी बाबा को समझाया कि ये महान औघड़ सन्त है। इन्हें देकर आप तृप्त नहीं कर सकते। ये तो आत्मतृप्त और आत्मपूर्ण महापुरूष है।
लोगों के सुझाव और अपनी असहायता से विवश होकर फलाहारी बाबा ने अपने अहंकार और श्रेष्ठता बोध के लिए क्षमा माँगी। प्रणाम किया। भंडारे की सफलता के लिए प्रार्थना की।
फलाहारी बाबा की अभिमान रहित अनुनय-विनय सुनकर बाबा कीनाराम ने ‘हुम’ शब्द का उद्घोष किया। ‘‘भण्डारा परिपूर्ण है। जाकर देख लो।’’
सारे खाद्य पदार्थ पहले से अधिक मात्रा में भंडार में भरे दीख पड़े।

‘‘अभिमान मिथ्या है। माया है। प्रेम सत्य है। परिपूर्ण है।’’ बाबा कीनाराम ने कहा और चल पड़े।
बाबा कीनाराम की जयकार से दिगन्त गूँजने लगा था।
उसके बाद से फलाहारी बाबा के आश्रम में जब भी भंडारा होता है, सबसे पहले औघड़ बाबा कीनाराम के नाम से प्रसाद निकाल कर अर्पित किया जाता है।


विषमता में समता के व्यवहार का संधान-
बाबा कीनाराम एक बार गदहे पर सवार होकर हाथ में एक बिल्ली लिए हुए दरभंगा में मैथिल ब्राह्मणों की सभा में पहँुच गए। मैथिल ब्राह्मणों में अपनी श्रेष्ठता का दंभ उन्हें उद्दण्ड व्यवहार के लिए उत्प्रेरित करता था। उन लोगों के मन में तांत्रिक सिद्धियों के प्रति लोलुपता भरी हुई थी। सिद्धियों के पीछे वे पागल हुए फिरते थे। मैथिल ब्राह्मण तांत्रिक सिद्धियों के अन्ध उपासक थे। उन लोगों ने बाबा कीनाराम की अशोभन वेश-भूषा को लक्ष्य करके उनके साथ अनादर का व्यवहार किया। उनका तिरस्कारपूर्ण उपहास करते हुए उन ब्राह्मणों ने वहाँ एक मरे हुए हाथी की तरफ संकेत कर कहा कि आप अगर अपने को औघड़ सिद्ध समझते हैं तो इसी हाथी को जीवित कर दीजिए। इस असंभव चुनौती के लिए बाबा को ललकार वे सब उपहास में एक साथ हंसने लगे। बाबा को उन अज्ञानी अभिमानियों की कुबुद्धि पर दया आई, उन्होंने एक विद्रूप मुस्कान के साथ उन ब्राह्मणों के समूह को देखा और अपने हाथ में ली हुई बिल्ली को हाथी के ऊपर फेंक दिया। देखते-देखते बिल्ली हाथी में विलीन हो गई। हाथी उठ बैठा। इसके बाद बाबा ने अपने गदहे से हाथी को ऐंड़ लगाने का आदेश दिया। गदहे के ऐंड़ लगाते ही हाथी खड़ा हो गया।

हाथी के खड़ा होते ही भीड़ में बवण्डर मच गया। लोग दौड़-दौड़कर बाबा कीनाराम के पाँव पर गिरने लगे। जय बोलने लगे। उनके सम्मान के समादर के समायोजन रचने लगे। वहाँ अपूर्व की, अद्भुत की लीला का लास्य छा गया।
सभी बाबा की तरफ श्रद्धावनत हो हाथ जोड़कर उत्कर्ण हो उठे। बाबा कीनाराम ने उन्हें संबोधित कर कहा,-
‘‘सज्जनों! देश भयानक संकट के सम्मुख खड़ा है। धर्म के नाम पर धर्म के पाखण्ड का विस्तार हो रहा है। जनता में विषमता के आचरण से विद्वेष की ज्वाला भड़क रही है। विधर्मी मुगल शासन की स्थाई रूप से बागडोर सँभाल चुके हैं। हमारे समाज में ऊँच-नीच और छुआछूत का अमानवीय व्यवहार हमें खोखला बना रहा है। कमजोर कर रहा है। इस कमजोरी को पहचानो। यह पराभव का मार्ग है। प्रवंचना का मार्ग है। यह मार्ग आत्मवंचना का मार्ग है। आत्मवंचना का मार्ग समाज को आत्मघात की मंजिल की तरफ ले जाता है। इस स्थिति को पहचानो इस स्थिति से बचो। यह सोने का समय नहीं है। जागने का समय है। अपनी शक्ति को जगाने का समय है। मुसलमानों की दुर्नीति के सम्मुख चैकन्ना होकर मुकाबले का समय है। अपनी शक्ति की उपासना करो। भैरवी चक्र का अर्चन करो।’’

‘‘हे ब्राह्मणों, भारतीय जाति के दुर्विवाक को समझो। इसे दयनीयता के पंक में धंसकर मलिन होने से बचाओ। ऊँच-नीच का भेद व्यवहार पाप है। परमात्मा के विधान का तिरस्कार है। अपने से गरीबों के प्रति घृणा के व्यवहार का परित्याग करो। अछूतों के प्रति अपमान के बर्ताव का त्याग करो। देखो, तुम्हारे श्रेष्ठता के अहंकार से घायल होकर कितनी छोटी जातियों के तुम्हारे ही परिजन मुसलमान बनते जा रहे हैं। उन्हें अपनाओ। उन्हें प्यार दो। सम्मान दो। अपने सद्व्यवहार से निम्न जातियों को अपने धर्म में अपने समाज में बनाए रखने का उपक्रम करो। उन्हें इस्लाम कबूलने की दिशा में मत ढकेलो।’’
‘‘अपना उत्थान करो, सज्जनों। अपने देश का उत्थान करो। अपने धर्म का उत्थान करो। यही मनुष्य जीवन की सार्थकता है। यही परम कर्तव्य है।’’
बाबा के उद्बोधन से वहाँ उपस्थित जनों में नई उत्प्रेरणा का संचार हुआ। नये संकल्प का उदय हुआ। नई चेतना का जागरण हुआ।

धार्मिक विद्वैष और अमानवीय बर्बरता के विप्लव के बीच अपार करुणा और अथक सेवा का धर्म-
धर्म के नाम पर, धर्म की आड़ में मनुष्यों में जिस अमानवीय बर्बरता का उदय होता है, उससे मनुष्यता हमेशा लांछित होती है, लज्जित होती है। मनुष्य की मर्यादा पतित होती है। मनुष्य जाति पीड़ित होती है। किसी भी तरह की पीड़ा पहुँचाने के काम का धर्म से किसी भी तरह का सम्बन्ध नहीं होता। दूसरों को दबाने का, कुचलने का, लूटने का, अपमानित करने का काम आदमी स्वार्थ के वशीभूत होकर लोभ के कारण करता है। लोभ व्यक्तिगत भी होता है, सामूहिक भी। लोभ सत्ता की स्थापना का भी होता है। सत्ता के विस्तार का भी और सत्ता की सुरक्षा का भी। मुसलमानों के शासन काल में हिन्दू जनता पर इस्लाम के नाम पर जो भी अत्याचार किए गए उनके पीछे राजनीतिक लाभ और लोभ ही प्रधान था। उसे केवल स्वार्थ को ढकने के निमित्त धार्मिक रंग दिया गया। वह सब धर्म नहीं था, धर्मान्धता थी। धर्मान्धता आदमी को केवल क्षुद्र बनाती है। धर्मान्तरण का अभियान प्रकारान्तर से मनुष्यों के बीच क्षुद्रता के विस्तार की मुहिम है। हिन्दू समाज व्यवस्था में व्याप्त ऊँच-नीच और छुआछूत की कुरीतियों से मुसलमानों के कलुषित उद्देश्यों को शक्ति मिलती रही। बाबा कीनाराम अपने समय में अपने चिन्तन से, अपने आचरण से और अपने उपदेश से निरन्तर इन अधार्मिक और अमानवीय उत्पीड़नों के विरूद्ध मुखर रहे। वे बराबर शासकों के सम्मुख खड़े होकर पूरी निर्भीकता के साथ उन्हें धिक्कारते रहे। वे हिन्दू समाज को भी लगातार उनकी आत्मघाती विसंगतियों की पहचान कराते रहे। अपनी सामाजिक कमियों को दूर करने लिए वे हिन्दू जाति को हमेशा प्रेरित करते रहे। बाबा कीनाराम का यह उद्योग भारतीय अस्मिता को जागृत करने में उनकी महत भूमिका की प्रतिष्ठापना करता है। उनका समूचा जीवन व्यवहार और उनकी समूची साहित्यिक चेतना भक्ति आन्दोलन की देशव्यापी महत्तम विरासत को समृद्ध बनाती है। भक्ति साहित्य के महान जीवन मूल्य महाराज कीनाराम जी के व्यवहार और सृजन में न केवल अद्भुत रूप में उद्घाटित होते हैं, बल्कि उद्भासित भी होते हैं।

कान्धार प्रकरण के काफी बाद शाहंशाह शाहजहाँ से उसके उत्तरकाल में बाबा की मुलाकात उत्तर भारत में भ्रमण के दौरान हुई थी। उस मुलाकात में बाबा ने शाहंशाह की स्त्रैणता और उसके जनविरोधी कृत्यों के लिए जिस स्पष्टता और निर्भीकता के साथ भत्र्सना की वह सन्तत्व की गरिमा का उज्जवल आख्यान है। बाबा कीनाराम की चेतावनी इस बात का उदाहरण उपस्थित करती है कि सन्त किसी राजा के राज्य में नहीं, अन्नत के साम्राज्य में विचरण करता है। वह अपने समय के शासक की प्रजा नहीं होता, वह पृथ्वी पर परमात्मा के अभिप्रायों की स्थापना का प्रतिनिधि होता है। वह संसार में सर्वभूतहित की भावना से अभिप्रेरित अनुष्ठान का उपासक होता है।

जिस समय बादशाह की मुलाकात बाबा से हुई, वह काफी समय से प्रजा के धन का दुरुपयोग अपनी निजी इच्छाओं की पूर्ति और अपने ऐशो-आराम के उपादानों पर कर रहा था। यह राजधर्म के विपरीत निन्दनीय आचरण था। वह देश की सम्पत्ति को अपनी बेगम की विलासिता और उसके साज-श्रृंगार के निमित्त व्यर्थ में बहा रहा था। और बेगम के न रहने पर अब उसकी स्मृति में बना रहे मकबरे पर लुटा रहा था। उसकी इन सब राजधर्म विरूद्ध प्रवृत्तियों की बाबा ने कठोर शब्दों में घोर भत्र्सना की। बाबा की प्रताड़ना से शाहंशाह शाहजहाँ भड़क उठा और उसने उनके प्रति अधिकार के अभिमान मे उदण्ड आचरण किया। उसके अभद्र आचरण से आक्रोश में भरकर बाबा ने उसे उद्बोधित किया-
‘‘तुमने साधु की अवज्ञा की है। तुम बीबी के गुलाम हो। वासना के दास हो। तुम्हें अपने कुकृत्यों का फल भोगना होगा। तुम अपनी औलाद के हाथ दुख पाओगे। तुम अपने जीवन के अन्त समय तक संतप्त रहोगे। अपनी करनी का फल चखोगे।’’

इतिहास गवाह है कि शाहजहाँ को अपने जीवन के उत्तरकाल में कैसी दुखद स्थितियों में अत्यन्त त्रासद अनुभवों से गुजरना पड़ा। औरंगजेब की आज्ञा से वह कैद होकर कैदखाने में कठोर यंत्रणा को सहते हुए मृत्यु को प्राप्त हुआ।
बाबा कीनाराम का व्यवहार भारतीय संत परम्परा में अन्तर्निहित गौरव का गरिमामय उदाहरण प्रस्तुत करता है।
बाबा बीजाराम ने अपनी गुरुभगिनी महाराज कीनाराम की अन्तिम शिष्या बंग प्रदेश की निवासी बाह्मण कुलोत्पन्न माँ अवधूतिन की प्रार्थना पर बाबा कीनाराम के जीवन प्रसंगों को उनके सम्मुख वर्णित किया था। वह कथा ‘औघड़ राम कीना कथा’ नाम से प्रसिद्ध है। उस कथा में बाबा बीजाराम ने बताया है कि बाबा रामजियावन दास के शिवलोक गमन के पश्चात बीजाराम जी ने ‘क्रीं कुण्ड’ की कुटी की सेवा का दायित्व संभाला। उन्होंने कुटी को अघोर मठ के रूप में व्यवस्थित करने और उसे विकसित करने में अपने को अर्पित किया। उस दौर में महाराज श्री कीनाराम जी यदा-कदा ‘क्रीं कुण्ड’ स्थल आते और आवश्यक निर्देशों के साथ उनका मार्गदर्शन करते। प्रायः 56 वर्षों का वर्षावास बाबा कीनाराम ने ‘क्रीं कुण्ड’ स्थल में किया।
अपने परिभ्रमण के बीच बाबा लोककल्याण के निमित्त तत्कालीन समाज में व्याप्त रूढ़िवादिता, अन्धविश्वास, आपसी भेदभाव से व्याप्त कटुता को दूर करने के उद्योग में लगे रहते। मुगल शासन की ओर से इस्लाम को बढ़ावा देने का अभियान घोषित और अघोषित दोनों स्वरूप में देश में चल रहा था।

हिन्दू जनता को उत्पीड़न का शिकार बनाया जाता था। उस पर नाना तरह के अत्याचार किए जाते थे। हिन्दू समाज का राजनीतिक नेतृत्व विखण्डित होकर बिखर चुका था। धार्मिक क्षेत्र में भारतीय जीवन मूल्यों की श्रेष्ठता की प्रतिष्ठापना के महत प्रयास निरन्तर हो रहे थे मगर संगठित शक्ति के रूप में उसका स्वरूप विकास वैसा नहीं था, जो समाज को संरक्षण दे सके। ऊँची जातियों का व्यवहार नीची जातियों के प्रति घृणा और कटुता से भरा था। इससे तिरस्कृत होकर तमाम गरीब और दबे-कुचले लोग इस्लाम को स्वीकारते जा रहे थे। अन्धविश्वास और धार्मिक पाखण्ड के कारण भी बड़ी संख्या में लोग मुसलमान बनते जा रहे थे। बहुत से लोग तो धार्मिक कूपमण्डूकता और मूढ़ता के कारण हिन्दू धर्म से बहिष्कृत करके मुसलमान बनने को विवश कर दिए जाते थे। जैसे किसी मुसलमान का बधना कहीं कुआँ में गिर गया तो उस कुएँ का पानी जाने-अनजाने पी लेने के कारण पूरे के पूरे गाँव को मुसलमान बना दिया जाता। किसी गाँव के कुएँ में किसी मुसलमान द्वारा रोटी का जूठा टुकड़ा गिरा जाता। सारे गाँव के लोग जब कुएँ का पानी पी चुके होते तो प्रचारित कर दिया जाता कि उसमें जूठन गिरा हुआ था। इस प्रकार रातों-रात पूरा गाँव मुसलमान हो जाता। मुसलमान बनने के पीछे हिन्दू जाति का श्रेष्ठताबोध, भयानक छूआछूत और धार्मिक कट्टरता बहुत बड़ा कारण थी, जो हिन्दू समाज को कमजोर बनाकर उसे बिखण्डित कर रही थी। इन धार्मिक कुरीतियों और अन्धविश्वासों से अपने समाज की होने वाली हानि को समझकर बाबा कीनाराम दुखी होते थे। वे इन दोषों से समाज को मुक्त करने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते।

हिन्दू धर्म की आत्मिक उन्नति बाबा कीनाराम के जीवन का प्रमुख लक्ष्य था। सबल समाज के निर्माण का स्वप्न उनका ध्योय था। शक्तिशाली देश का उदय और राष्ट्रीय भावना के विकास का उद्योग उन्हें प्रिय था। गरीबों और दुखियों की सेवा, सहायता उनके कर्म की वरीयता थी। धार्मिक संकीर्णता के विरूद्ध उदार मानवीय चेतना के उत्थान के लिए वे निरन्तर कार्यशील रहते थे। उन्होंने व्यापक करुणा के अभिप्रेरित अपने व्यवहार और उपदेश से अपने समय के आहत समाज को आश्वासन का एक मजबूत केन्द्र सुलभ कराया था। जर्जर होती मानवता के संरक्षण और उत्थान में बाबा कीनाराम का महत अवदान अविस्मरणीय है। धर्म की शक्ति को समाज के उत्थान के निमित्त नियोजित करने की उनकी संकल्पना का ऐतिहासिक मूल्य इतिहास की अमूल्य धरोहर है। सन्यासियों की सामाजिक भूमिका को बाबा कीनाराम ने नया स्वरूप और नया अर्थ देकर उसे नई ऊँचाई पर अधिष्ठित करने का जो स्तुत्य कार्य अपने जीवन में किया है, वह अत्यन्त अभिनन्दनीय है। केवल चिन्तन नहीं, केवल विचार से नहीं अपितु कर्म से समाज के उत्थान का उनका उद्योग इतिहास की अनमोल थाती की तरह स्मृति में सुरक्षित रखने के योग्य है।

एक समय में महाराज कीनाराम कोहलीन नगर के निकट नदी किनारे बाबा बीजाराम के साथ कुछ समय के लिए निवास कर रहे थे।
उसी समय मुसलमान सैनिक रक्षकों के साथ साँठ-गाँठ करके पिंडारी दस्युओं के संगठित समूह ने कोहलीन नगर को लूट लिया। पिंडारी पठान, अफगान और कुछ उच्छृंखल लोलुप देशी लड़ाकों का ऐसा संगठन था जो अत्यंत क्रूर और लालची था। ये लोग केवल धन को पाने के लिए समृद्ध व्यापारियों के यात्रादल को निर्जन स्थानों में उनकी हत्या करके सारा धन लूट कर आपस में बांट लेते थे। नगरों पर वहाँ की कमजोर शासन व्यवस्था का लाभ उठाकर आक्रमण कर देते थे और उसे नष्ट-भ्रष्ट करके वहाँ की सारी सम्पत्ति बटोर ले जाते थे। पिंडारियों ने कोहलीन नगर को अपनी बर्बरता का शिकार बनाया। भीषण ताण्डव की विभीषिका से सारा नगर दहल उठा। शासन व्यवस्था के सैनिक पिंडारियों से मिल गए थे। कोई रक्षक नहीं था। नागरिकों में जो भी प्रतिरोध के लिए सामने आया मौत के घाट उतार दिया गया। घर-घर में मौजूद युवाओं का कत्ल करके घरों से अन्न, वस्त्र, आभूषण, नकद जो भी मिला सब लूट लिया। मकानों को आग के हवाले कर दिया गया। देखते ही देखते समूचे नगर का विध्वंस कर दिया गया। बहुत से लोग जान बचाकर भागे और पहाड़ों-जंगलों में अत्यन्त भयभीत होकर छिपकर प्राण बचाए। बहुत से लोग हमेशा के लिए नगर छोड़कर दूसरी जगहों पर पलायन कर गए। जो भी जीवित बच सका और भाग सकता था, भाग रहा था उस समय नगर में सिर्फ बूढ़े, बीमार, अशक्त, लंगड़े-लूले लोग ही बचे रह गए थे। खाने-पहनने को कुछ नहीं रह गया था। किसी के सिर के ऊपर कोई छाजन नहीं बची थी। बस वहाँ जो कुछ भी बचा था, ध्वंस का अवशेष था।

रोते-बिलखते, चीखते-चिल्लाते भागते लोगों की भीड़ से बाबा कीनाराम को इस अत्यंत अमानवीय और क्रूर बर्बर काण्ड का पता चला। वे द्रवित हो उठे। बिना विलम्ब किए बाबा कोहलीन नगर पहुँच गए। वहाँ पहुँचकर वे अनाथ और बीमार व्यक्तियों की सेवा में जुट गए। बीमारों की उन्होंने जड़ी-बूटियों के माध्यम से सेवा की। जिनके घरों में खाने को अन्न नहीं रह गया था, उनके लिए अन्न का प्रबन्ध करने में जुट गए। जिनके शरीर ढँकने का वस्त्र नहीं था, उनके लिए वस्त्र की व्यवस्था के लिए चिन्तित हो उठे। वहाँ पीड़ित मनुष्यता की सेवा में बाबा ने अपने को समर्पित कर दिया। सेवाकार्य में बाबा के साथ बीजाराम जी छाया की तरह लगे रहे।

उस नगर में जीवति बचे लोगों की जीवन-रक्षा के लिए बाबा कीनाराम ने दूसरे नगरों में घूम-घूम करके भिक्षाटन द्वारा अन्न, वस्त्र इकट्ठा किया। एकत्रित की गई सामग्री को बैलगाड़ियों से ढो-ढोकर नगर में वितरित किया। कई महीनों तक बाबा अन्न, वस्त्र, दवा दूसरी जगहों के सम्पन्न व्यक्तियों और व्यापारियों से सहायता माँग-माँगकर इकट्ठा करते रहे। इकट्ठा सामग्री को दूसरे नगर के लोगों ने लूट-पाट के भय से कोहलीन नगर पहुँचाने में असमर्थता व्यक्त की। ऐसे मौकों पर बाबा ने सेवा के काम के लिए उन्हें प्रेरित और उत्साहित करके उनका मनोबल बढ़ाया। बहुत बार उन्होंने खुद बैलगाड़ी पर सामान लादकर और स्वयं बैलगाड़ी हांककर उस नगर में सामान पहुंचाया और जरूरतमंदों में उसका वितरण किया। बहुत बार बाबा बीजाराम ने आसपास से सिर पर अन्न का गट्ठर लादकर वहाँ तक लाया और उसका वितरण किया। बाबा की अपार करुणा और उनके कठिन उद्योग से वहाँ नगर में बचे असहाय लोगों की प्राण रक्षा संभव हो सकी। बरसात आने से पहले उस नगर के बूढ़े और बच्चों को उत्साहित और प्रेरित करके जंगलों से लकड़ी और खर-पात इकट्ठा कर वर्षा से बचाव के लिए बाबा ने झोपड़ियाँ तैयार करवा दी। बाबा स्वयं सुख-दुख से निर्लिप्त थे, अपने मात्र एक कौपीन वस्त्र के नाम पर धारण करते थे मगर उन नगर वासियों की जरूरतों को पूरा करने के लिए सारी शक्ति लगा दी थी। उन दिनों बाबा की अथक कर्मठता को देखकर ऐसा लगता था कि वहाँ के लोगों के दुख के साथ उन्होंने तदाम्य भाव स्थापित कर लिया था। बाबा कीनाराम का यह महत सेवा का अनुष्ठान सन्यास की सर्वथा नवीन मर्यादा रचने वाला था। बाबा का चिन्तन और कठोर कर्म से सम्पन्न यह अद्भुत सेवा-सहायता कार्य गीता के निष्काम कर्मयोग का जीवन्त व्यवहार बनकर उपस्थित हुआ था। प्रायः आठ महीनों तक बाबा अविरत अथक भाव संे इस अभियान में लगे रहे। बाबा की अनुकम्पा और अन्यतम उद्योग से उस उजड़े हुए नगर में जीवन का संचार हुआ। इसके बाद बाबा कीनाराम ने नगर वासियों को अपना आशीर्वाद दिया। उन्होंने उनको निर्भयता का संदेश देते हुए संबोधित किया-

‘‘आज से यह नगर सदियों तक दुष्टात्मा पिंडारियों और यवनों के आक्रमण से मुक्त रहेगा। जब इस नगर के निवासियों को किसी तरह की परेशानी का अनुभव हो तो आप मुझे याद करना हिंगलाज देवी की कृपा से आप लोगों को किसी तरह का दुर्दिन नहीं देखना होगा।‘‘
बाबा कीनाराम के ये उद्गार केवल आशीर्वाद नहीं हैं। केवल आश्वासन नहीं है। केवल भविष्य कथन नहीं हैं। ये और भी बहुत कुछ हैं। उनके ये वचन पीड़ित मानवता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के शिलालेख भी हैं। असहायता के पक्ष में अटल विश्वास के स्तम्भ भी हैं। अत्याचार के प्रतिरोध के प्रति उदग्र पक्षधरता के संकल्प भी हैं। उनके ये वचन सन्यास की उच्चतम मर्यादा की नूतन प्रतिस्थापना भी हैं।
बाबा ने आठ माह तक सब कुछ भूलकर उन लोगों की सेवा में अपने को समर्पित कर दिया, जिन लोगों को वे जानते तक नहीं थे। जिन लोगों से उनका किसी भी तरह का परिचय तक नहीं था। संन्यासी की व्यापक अभेद करुणा का ऐसा उज्ज्वल उदाहरण दुर्लभ है।
सन्यासी केवल वही नहीं होते जो समाज का त्याग कर चुके होते हैं। नहीं, सन्यासी वे भी होते हैं, जो समाज से अलग होकर समाज के लिए होते हैं। जो सब कुछ छोड़कर सब कुछ त्याग कर, केवल मनुष्य के रूप में, मनुष्य के लिए बचे होते हैं। सामाजिक विधान की सारी सीमाओं को अतिक्रमित करके केवल मनुष्य के रूप में, मनुष्य के लिए बचे रह जाना ही सच्चे अर्थ में अलौकिक अस्मिता में स्थित होना होता है। सारी सभ्यताएँ मनुष्य की सामाजिक उन्नति के मार्ग के संधान का परिणाम हैं। सभ्यताओं के विधान में मनुष्य छूट जाता है, समाज आगे आ जाता है। संन्यास के धर्म में मनुष्य ओझल नहीं है। मनुष्य का निजी उत्कर्ष, उसकी निजी स्वाधीनता और सामाजिक समुन्नति दोनों का बराबर सामंजस्य होता है।
सन्यासी सामाजिक विधानों का जिसे व्यवस्था की व्यावहारिक भाषा में कानून कहते हैं, उसका मुखापेक्षी नहीं होता। वह मनुष्य जीवन की व्यापक और उदात्त गरिमा का व्यवस्थापक होता है। सामाजिक विधानों की रूढ़ और प्रतिगामी विकृतियों का वह विरोधी भी होता है। बाकी सारी की सारी सामाजिक संस्थाएँ यहाँ तक कि राजसत्ता का भी समाज के साथ लेन-देन का व्यापारिक सम्बन्ध है। व्यापारिक सम्बन्धों में सेवा की उपस्थिति एक काल्पनिक संभावना का प्रतिभास भर है। असल में सेवा केवल वही कर सकता है, जिसे बदले में कुछ भी नहीं चाहिए। संन्यासी समाज में समाज की सेवा की समूची योग्यता से सम्पूर्ण होता है। बाबा कीनाराम जी ने अपने व्यवहार से संन्यास की महिमा और सेवा की गरिमा को स्थापित करके अविस्मरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। ऐसा विरल उदाहरण इतिहास में शताब्दियों में शायद कभी घटित होता है। बाबा कीनाराम की ऐसी अद्भुत और अहेतुक सेवा का समायोजन भारतीय सन्तों के महिमामय चरित का श्रृंगार करता है। यह घटना उपनिषद के रैक्व आख्यान की महिमा का सहज स्मरण करा देती है, जिसका मार्मिक अंकन हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘अनामदास का पोथा’ में बड़े हृदयग्राही रूप में गहरी संवेदना के साथ उपस्थित किया है। अपने जीवन व्यवहार में महाराज कीनाराम जी भारतीय आर्ष परम्परा की न केवल रक्षा करते हैं, बल्कि उसका उन्नयन भी करते हैं। कीनाराम जी ऐसे विरल सौभाग्य के यशस्वी उत्तराधिकारी हैं।

स्त्री जीवन की पीड़ा का प्रत्याख्यान –
किसी भी आधार पर श्रेष्ठता का बोध समाज में विषमता का प्रवर्तन करता है। विषमता के व्यवहार से विद्वेष की भावना जनमती है। विद्वेष से कटुता का विस्तार होता है। आपसी सम्बन्धों में तनाव बढ़ता है, जो सामाजिक संतुलन को बिगाड़ देता है। संतुलन के बिगड़ने से समाज कमजोर होता है। यह शान्ति, समृद्धि और विकास को विनष्ट करता है। जिस तरह से जातिगत श्रेष्ठता का दंभ समाज के लिए घातक है वैसे ही लिंग के आधार पर सुविधा और सम्मान का अनुचित और अन्याय पूर्ण विभाजन समाज के लिए कलंक की बात है। किसी ऊँची जाति में पैदा हो जाने के कारण कोई ऊँचा नहीं हो जाता। ऊँची जाति में उत्पन्न होने के कारण नीची जाति के लोगों के साथ अपमानजनक बर्ताव सामाजिक अपराध है। वैसे ही लिंग भेद के कारण ऊँच-नीच का व्यववहार भी अन्यायपूर्ण है। केवल पुरूष होने के कारण कोई श्रेष्ठ है और केवल स्त्री होने के कारण कोई हीन है, ऐसी धारणा, न्यायपूर्ण व्यवस्था का तिरस्कार है। एक ही स्थिति में पुरूष को अलग सुविधा देने की व्यवस्था और स्त्री से सुविधा छीन लेने का व्यवहार हमारे समाज के लिए अभिशाप है।
बाबा कीनाराम का चिन्तन समाज में किसी भी तरह की भेद दृष्टि की भत्र्सना करता है। हर धरातल पर उन्होंने अभेद दृष्टि की स्थापना का अपने चिन्तन में प्रबल प्रवर्तन किया है। स्त्री जीवन की दुर्दशा के सन्दर्भ भेद दृष्टि की जिस सूक्ष्मता के साथ उन्होंने विगर्हणा की है, वह बहुत ही ऐतिहासिक महत्व की बात है। स्त्रियों के सामाजिक जीवन की समस्याओं के सन्दर्भ में बाबा जिस तरह से न्यायपूर्ण और वैज्ञानिक बोध से युक्त विचार प्रस्तुत किए हैं, वे अपने आप में चिरन्तन हैं। अभिनन्दनीय हैं। स्त्री-पुरूष के सामाजिक भेद को लेकर अन्यायपूर्ण और अधार्मिक व्यवहारों को जिस स्पष्टता और दृढ़ता के साथ बाबा ने निरस्त किया है, वह अद्वितीय है। महाराज कीनाराम अकेले ऐसे सन्त हैं जिनकी स्त्री-पुरूष सम्बन्धों जैसे संवेदनशील विषय पर बिल्कुल अलग राय है। उनके विचार इतने व्यापक, उदार और वैज्ञानिक हंै कि उनकी महत्ता सार्वकालिक बन जाती है।

एक बार बाबा कीनाराम ने महिलाओं के प्रति समाज में सम्मान और समता के व्यवहार के अभाव को देखकर बड़े ही खिन्न मन से खेद और दुख के साथ बाबा बीजाराम को संबोधित करके अपने उद्गार प्रगट किए-
‘‘देखा न, क्षेत्रीय युद्धों में, दवा-औषधि, चिकित्सा-उपचार और आवश्यक सुश्रूषा की कमी और अधिकांश घरों में पौष्टिक एवं स्वास्थ्यप्रद भोजन के अभाव की वजह से बहुतेरे नौजवानों की असमय मृत्यु हो जाती है। फलतः उनकी विधवा नारियाँ समाज में व्याप्त कुप्रथाओं की शिकार होकर आजीवन आह्लाद रहित, अभिशप्त जीवन व्यतीत करने को विवश हो जाती हैं। उनका जीवन कलुषित और काया कृश हो जाती है।

हिन्दू समाज में अग्रगामी ब्राह्मण जानते हैं कि हमारे शस्त्रों में इस विषय में उदार-व्यवहार का निर्देश दिया गया है। फिर भी निजी स्वार्थवश ब्राह्मणों ने ऐसा विधान कर रखा है कि समाज लज्जाजनक एवं घृणित कुकृत्यों की ओर प्रेरित हो रहा है। हमारे शास्त्रों में मन्दोदरी, अहल्या, कुन्ती, तारा और द्रौपदी नामक पंचकन्याओं की चर्चा आदरपूर्ण ढंग से की गई है। इस सत्य को छिपाकर ब्राह्मण और हिन्दू समाज विधवा नारियों के समक्ष सतीत्व का थेथा उपदेश देकर जीवन-पर्यन्त उन्हें नारी जीवन के वास्तविक आनन्द और सुख से वंचित रख रहे हैं। ‘परोपदेशे पाण्डित्यम्’। यह सतीत्व और सच्चरित्रता नहीं है। मनु ने कहा है- रजस्वला होने के बाद सारी स्त्रियाँ कुमारी हो जाती हैं। यदि यह सत्य है तो यह कैसी विडम्बना है कि एक ओर तो परिवार के अन्य सदस्य मौज-मस्ती लेते रहते हैं, और दूसरी ओर अल्पवयस्का विधवा महिलाएँ आह्लादहीन नीरस जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य हो जाती हैं। उनको नारी का शास्त्र सम्मत, गौरवपूर्ण और महिमामय जीवन जीने से वंचित किया जा रहा है। क्या यह पाप नहीं है?
यह घोर पाप ही नहीं अपितु समाज का नारी वर्ग के प्रति निष्ठुर अन्याय और अभिशाप है, जिसे किसी भी धार्मिक एवं नैतिक विधान के अनुसार उचित नहीं करार दिया जा सकता। विजय! यदि इस ओर अभी से ध्यान नहीं दिया गया तो शताब्दियों बाद स्त्रियाँ पुरूषों की अवहेलना व उपेक्षा कर हिन्दू समाज के इस पाखण्डपूर्ण उपदेश और विधान के विरूद्ध विद्रोह कर देंगी और अपने को पुरूषों से स्वतंत्र घोषित कर देंगी।

पुरूष की जरूरत पुत्रादि के लिए ही तो है। शताब्दियों बाद विज्ञान का चमत्कार सामने आएगा और स्त्रियाँ पुत्रों के लिए कृत्रिम गर्भाधान करेंगी। अपनी उपेक्षा और अवहेलना के प्रतिशोध में पुरूषों की उपेक्षा और अवहेलना करने को वे उद्यत हो सकती हंै। विजय! समाज के इन अपराधपूर्ण कृत्यों के प्रति लोगों में चेतना उत्पन्न करो और उन्हें अपने भयंकर कुकृत्यों के भविष्यत अनिष्टकारी परिणामों से अवगत कराओ। पुरूष विधुर हो सकते हैं किन्तु स्त्रियाँ विधवा नहीं हो सकतीं।
मनु ने कहा है- ‘‘विधवा होने के छह महीने बाद रजस्वला होने पर स्त्रियाँ फिर से प्रतिष्ठित की जा सकती हैं और नारी की महिमा और गरिमा से पूर्ण आह्लादमय स्वस्थ जीवन जी सकती हैं। मानव के व्यक्तित्व की अपनी महत्ता है। वर्तमान सामाजिक रूढ़ियों एवं अनाचार के कुठाराघात से उसका जो हनन हो रहा है, उसके अमांगलिक परिणाम हिन्दू समाज भुगत रहा है और आगे भी उसको भुगतना पड़ेगा। मैं देख रहा हूँ इन अपराधों के दुःसह परिणामों को। समाज खण्डित एवं निर्जीव-सा हो जाएगा।

विजय! अबलाएँ दया की पात्र होती हैं। वे करुणा की पात्र हैं। विशेषतः विधवा नारियाँ। वे तो समाज की सामूहिक करुणा की अधिकारिणी हैं। तुम्हारे शिष्य समुदाय के बीच जब कभी भी विधवा नारियों को समाज में प्रतिष्ठा देकर नारी का स्वाभाविक जीवन जीने का अवसर उपस्थित हो, तुम लोगों को उन्हें सहर्ष सहयोग और सानिध्य देकर पुनर्विवाह के लिए उत्साहित करना चाहिए और उसमें योगदान करना चाहिए। समाज के स्वार्थी वर्ग के लोगों के विरोध से बेपरवाह उन्हें अलग-थलग छोड़कर इन नारियों को समाज में प्रतिष्ठित कर दो और समाज में उन्हें मान्यता दिलवाओ। तब वे नारित्व एवं देवत्व की महिमा से मण्डित जीवन जियेंगी और जीवन भर तुम लोगों की कृतज्ञ रहेंगी। यदि तुम लोग ऐसा कर सके तो तुम्हारी शिष्य मंडली पूजा के योग्य हो सकेगी। समाज निर्दोष, समन्वित जीवन जी सकेगा। सुख का प्रसार हो सकेगा और वर्तमान चेतना शून्य, विवशता और दुष्प्रवृत्ति के बन्धनों से मुक्त होकर प्रसन्नता का अनुभव करेगा।’’
अपने प्रथम और प्रधान शिष्य बाबा बीजाराम को संबोधित महाराज कीनाराज जी का यह उद्बोधन बहुत ही क्रांतिकारी और ऐतिहासिक महत्व का है। उनके विचार भारतीय समाज में भविष्य में घटित होने वाले सामाजिक परिवर्तन की अपेक्षाओं के संकेत देते हैं।
सबसे पहले जो बात ध्यातव्य है, वह यह कि धार्मिक क्षेत्र में नारी जीवन की पीड़ा को लेकर किसी महान धार्मिक सन्त के ये विचार पूर्व के सन्तों के विचार से बिल्कुल भिन्न और नवीन हैं। इनकी अर्थव्याप्ति सुदूर भविष्य में सामाजिक संरचना को वैज्ञानिक विचारवाद से अभिप्रेरित होने को उन्मुख करती है। बाबा के मंतव्य आगे के समय में राजा राममोहन राय के सामाजिक सुधारों के महत प्रत्यन के धार्मिक विचारों की पूर्व पीठिका प्रस्तुत करते हैं। नारी स्वतंत्रता और स्त्री विमर्श जैसे अत्याधुनिक आन्दोलनों की अभिप्रेरणा के आदि स्रोत के रूप में उनके इस उद्गार को देखा जाना चाहिए। समग्र समाज के संतुलन की चिन्ता का सुचिन्तित आधार बाबा के इस वक्तव्य में स्पष्ट है। उनके वक्तव्य की अर्थपूर्णता को देखते हुए बाबा कीनाराम को नारी समस्या से सम्बन्धित विचारकों के आदि आचार्य के रूप में देखना समीचीन और न्याय संगत है।
पूजने से देवता प्राप्त होते हैं और छोड़ने से भूत छूट जाते हैं-
बाबा कीनाराम की एक बहुत बड़ी विलक्षणता यह थी कि उनके उपदेश का मुख्य माध्यम उनका व्यवहार था। बहुत कम अवसारों पर उन्होंने जो वाणी से उपदेश दिए हैं वह भी मनुष्य जीवन के सामान्य व्यवहारों के दृष्टान्त पर आधारित हैं। उनकी बातें इतनी सहज और व्यावहारिक है कि अध्यात्म के गूढ़ रहस्य भी सामान्य जीवन व्यवहार के माध्यम से व्यंजित हो उठते हैं। उन्हें समझने के लिए मशक्कत नहीं करनी पड़ती। बाबा कीनाराम वाणी, विचार और भाषा में देशी ठाठ के अन्यतम महापुरूष हैं।
पाटलिपुत्र में गंगा और सोनभद्र के संगम पर नीलकन टोला नाम का एक गाँव है। वहाँ अपनी कुटी में अधोर महात्मा महाराज कीनाराम रमण कर रहे थे। सन्ध्या बेला में गाँव के श्रद्धालुजन महाराज के सानिध्य में उपस्थित थे। बाबा ने हास-परिहास के माध्यम से विनोद की शैली में उन्हें संबोधित करते हुए उपदेशित किया-

‘पुजले देवता अउर छोड़ले भूत।’ अरे भाई। जब तुम किसी चीज को सँवारते हो, सुन्दर बनाते हो, सम्मानित करते हो, उसे पूजते हो, उसकी पूजा करते हो, उसे अपनी श्रद्धा निवेदित करते हो, वह तुम्हारा देवता हो जाता है। तुम्हारे लिए देवता हो जाता है। वह तुम्हे देने वाला बन जाता है। वह तुम्हें सुख देता है। उस सुख से तुम्हें शान्ति मिलती है। वह तुम्हारे हर कार्य की कठिनाई को दूर करता हैं। तुम्हें शक्ति देता है। तुम्हे सम्पन्न बनाता है। देखो न। तुम अपने ही द्वार पर पड़े हुए कूड़ा के ढेर को साफ करते हो तो प्रसन्न हो उठते हो। खुश हो जाते हो। वही कूड़ा तुम्हारे लिए खाद का काम करता है। उपयोगी बन जाता है। गन्दी चीज को छोड़ देने से, साफ कर देने से, उसे मिट्टी में दबा देने से, वह खाद बन जाती है। छोड़ देने से, हटा देने से, भूत चला जाता है। गन्दगी हट जाती है। उदासी छँट जाती है। भय भाग जाता है।

यदि कूड़ा को साफ नहीं करते हो तो गन्दगी से अँटे-पटे रहते हो। वह तुममें मलीनता लाती है। तुम खुद अपने को देखो। यदि तुम स्नान करना छोड़ दो, वस्त्र नहीं धोओ, पवितत्रता से भोजन नहीं बनाओ और खाओ तो मालूम पड़ेगा कि तुम म्लेच्छ की तरह हो। दूर से देखने पर ही तुम म्लेच्छ की तरह दिखाई पड़ोगे। याद रखो- ‘पुजले देवता, छोड़ले भूत।’ जिस चीज को तुम पूजोगे और संवारोगे, वह तुम्हें देवता की तरह फल प्रदान करेगा। पूजना, संवारना और सफाई रखना ये देवत्व की तरह हैं तथा तुम्हें देवत्व की स्थिति में परिणत करेंगे। जिस चीज की तुम उपेक्षा कर दोगे, करने योग्य काम को आलस्य और प्रमाद के कारण टाल दोगे, वह बोझ बन जाएगी। वह भूत की तरह डरावनी और दुखदायी हो जाएगी। करने योग्य काम को न करना मन पर कलुष चढ़ाता है। मन को मैला बनाता है। छोड़े हुए कर्तव्य कर्म भूत बन जाते हैं।

अपने घर से लेकर अपने खेतों तक, अपने मवेशियों से लेकर घर के प्राणियों तक- यदि तुम इन्हें संवारोगे, पोंछोगे और साफ रखोगे तो तुम आनन्दित रहोगे। अपने कामों को पूजा की तरह श्रद्धा से, प्रेम से, लगन से करना देवत्व है। सुख देने वाला है। अपने कामों को तिरस्कारपूर्वक छोड़ देना, त्याग देना, उसमें आलस्य और प्रमाद करना भूत की तरह कलुषित करने वाला है। दुख देने वाला है। भय प्रदान करने वाला है मनुष्य का जीवन आनन्दित होने के लिए है। कलुषित होने के लिए नहीं है।’’
महाराज कीनाराज जी की सहज, सरल और व्यावहारिकता से भरी बातें सुनकर वहाँ उपस्थित अनपढ़ ग्रामीण भी अपने को कृतकृत्य समझने लगे। उन्होंने इस संयोग को अपना सौभाग्य अनुभव किया।

अन्ध विश्वास के विरूद्ध असम साहस का प्रकाश-
बाबा कीनाराम अन्धविश्वास के विरूद्ध असम साहस का प्रकाश करने में हमेशा तत्पर रहा करते थे। अन्ध विश्वास हमेशा ही समाज को अनाचार के लिए उत्प्रेरित करता है। अपने कुकृत्यों पर पर्दा डालना और दूसरे के पाप को सामूहिक अनर्थ का कारण मान लेना समाज की कायरता और उसके मिथ्याचार की निशानी है। अन्धविश्वास की निःसारता को साबित करने में बाबा को तनिक भी हिचक नहीं होती थी। मिथ्याचार के पीछे खड़ी संगठित सामाजिक शक्ति को चुनौती देने के लिए वे अकेले उसके विरूद्ध निर्भीक खड़े होने में कभी विलम्ब नहीं करते थे। ऐसे अवसर उपस्थित होने पर असम साहस का प्रकाश उनके व्यक्तित्व की विलक्षणता को प्रतिष्ठित करता है। गुजरात के सूरत नगर में घटी एक घटना इस तथ्य को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है।

एक समय कीनाराम महाराज जी सूरज नगर में विचरण कर रहे थे। उस नगर में एक ब्राह्मणी थी जो कम उम्र में ही विधवा हो गई थी। कुप्रथाओं एवं कुरीतियों के अन्धकार से आछन्न होकर समाज अपनी दृष्टि खोकर अन्धा बना हुआ था। उस विधवा नवयुवती को पितृविहीन जानकर एवं वृद्धा माता की परवाह न करके दुराचारियों ने उसे छल-बल से विमोहित कर उसके साथ सहवास किया। यद्यपि इस विषय में वह अबला विरत चित्त थी। वह विवश थी। वह बेबस थी। परिणामस्वरूप उसे गर्भ रह गया। वह डरी सहमी गर्भ को छिपाए रही। नौ मास बीतने पर उसके गर्भ से शिशु का जन्म हुआ। पूरे नगर में यह बात फैल गई। नगर के रूढ़िवादी लोगों का समूह उसे अपमानित करना और प्रताड़ना देना प्रारम्भ किया।लोगों ने उस विधवा महिला को उसके शिशु के साथ समुद्र-तल में दफना देने का निर्णय लिया।सामाजिक विडम्बना के इस भयान संत्रास से पीड़ित हो वह विधवा ब्राह्मणी विलाप करने लगी। मगर क्रूर दानवों का दिल तनिक भी नहीं पसीजा। लोगों ने उसे मारा-पीटा। तरह-तरह से सताया। उन्मत्त भीड़ शिशु के साथ उस विधवा को बाँधकर सागर में डालने के लिए ले जाने लगी। इसके क्रूर कर्म के पीछे अन्धविश्वास यह था कि जिस दिन उस शिशु का जन्म हुआ था, उसी दिन बड़े जोर का समुद्री तूफान आया था और आँधी-बवण्डर उठा था। शिशु के जन्म से लेकर कई दिनों तक लगातार प्राकृतिक आपदा का ताण्डव चलता रहा। इससे लोग भयभीत हो उठे थे। लोगों के मन में डर समा गया था कि कहीं ऐसा न हो कि यह तूफान नगर को विनष्ट कर दे। उन लोगों ने इस विनाशकारी आँधी-तूफान का कारण इस विधवा के दुराचार को मान लिया था। उनकी दृष्टि में यह पाप का परिणाम था और यह पाप विधवा के गर्भ से शिशु का जन्म था। इस पाप के कारण प्रकृति के प्रकोप से छुटकारा पाने के लिए लोग बच्चे के साथ विधवा को बाँधकर समुद्र में डुबाने का उद्योग रच चुके थे।

उस विधवा ब्राह्मणी के सौभाग्य से महाराज कीनाराम जी उस दिन उधर ही विचरण कर रहे थे। भयानक हल्ला-गुला सुनकर जब उन्होंने जिज्ञासा प्रगट की तो तत्काल इस दारुण घटना के बारे में पता चल गया। पता चलते ही बाबा बहुत तीव्रता के साथ वहाँ पहुँच गए। भीड़ को चीरते हुए बाबा अभयमुद्रा में उस हतभाग्य विधवा बालिका के सम्मुख खड़े होकर भीड़ को धिक्कारते हुए बोले-
‘‘आप लोग सचमु धर्मात्मा हैं, इसलिए ही इस असहाय अबला और अनाथ बाबल को पाप की सजा देने जा रहे हैं। मगर आपने क्या सोचा है कि जिस पाप की सजा आप सब दे रहे हैं, वह पाप आपने कभी नहीं किया? नहीं, कभी नहीं सोचा है। आदमी अपने पापों के बारे में, अपने कुकर्मों के बारे में कभी नहीं सोचता। उसे अपना पाप दिखाई ही नहीं देता। यही इस समाज का सबसे भयानक दुर्भाग्य हैं आप सबके पापों को मैं एक-एक कर गिनाने लगूँ तो आप सबको इस स्त्री और बालक के साथ ही समुद्र में डूबना पड़ेगा।’’ बाबा गरज उठे। बाबा की भयानक गर्जना सुनकर लोग भयभीत हो उठे। धीरे-धीरे लोग सिर झुकाकर खिसकने लगे। महाराज कीनाराम ने उस विधवा के बच्चे को हाथ बढ़ाकर अपनी गोद में ले लिया। बाबा की करुणा उस स्त्री पर बरस पड़ी। उसे आशीर्वाद देते हुए बाबा बोले-

‘‘तुम भाग्यशालिनी हो। तुम्हें लोग अन्यायपूर्वक, अधर्मपूर्वक मृत्यु के मुख में डालने ले जा रहे थे। तुम ईश्वर के अनुग्रह की उत्तराधिकारिणी हो। उस पापी पुरूष को धिक्कार है, जिसने कुकृत्य कर तुम्हें लज्जित कराया है। तुम्हें अपमानित कराया है। पाप तुम्हारा नहीं, उस अधर्मी पुरूष का है। पापी वह है। पापी यह भीड़ है। दण्ड इन्हें ही मिलना चाहिए। तू इस नगर को छोड़कर अपने बच्चे को गोद में ले नरसी मेहता की समाधि के पास जूनागढ़ चली जा।’’
बाबा के रौद्र रूप को देखकर लोग उल्टे पाँव भाग पड़े। भीड़ गायब हो गई। वह स्त्री बाबा के आदेश को शिरोधार्य कर जूनागढ़ चली गई। बाबा के शाप का भयानक परिणाम उस नगर को भुगतना पड़ा। उस महिला के नगर छोड़ते ही समुद्र से भयानक तूफान उठा, जिसने उस इलाके की बस्ती को उखाड़ कर कच्छ की खाड़ी में फेंक दिया।

धर्मान्ध अभियान को दुत्कार-

राजा के लिए अभिमान स्वाभाविक ही होता है। राज्याभिमान के कारण प्रायः शासक जनता के प्रति असहिष्णु व्यवहार के अपराधी बन जाते हैं। मगर जब राजा धर्मान्ध हो उठता है तो प्रजा के प्रति उसके व्यवहार की कठोरता दुःसह हो उठती है। औरंगजेब एक ऐसा ही मुगल शासक था जिसकी धार्मिक कठोरता अमानवीय उत्पीड़न का निमित्त बन चुकी थी। बाबा कीनाराम धार्मिक असहिष्णुता को अमानवीय अपराध के रूप में देखते थे। औरंगजेब अपने आखिरी दिनों में बाबा से मिलने आया था। मुगलसत्ता की प्रतिष्ठा के साथ भारतीय राजनीतिक चेतना हतदर्प जरूरत हो गई थी। मगर इसके बावजूद भारत की सांस्कृतिक चेतना का दर्प तनिक भी मलिन नहीं हुआ था, बल्कि उसकी गरिमा की दीप्ति और चमक ही उठी थी। इस चेतना का प्रतिनिधित्व भारतीय समाज में सन्त कर रहे थे। हिन्दी का समूचा भक्तिकाव्य भारतीय चेतना के उच्चतर प्रतिरोध का उज्ज्वल साक्ष्य है। औरंगजेब को उसके कुकृत्यों के लिए बाबा कीनाराम जी ने जिस तरह से दुत्कारा वह सन्त की महिमा का गौरवमय आख्यान है।

महाराष्ट्र राज्य के क्षिप्रा नदी तट पर रंजन नामक ग्राम में बाबा कीनाराम विचरण कर रहे थे। पास में ही मुगल बादशाह औरंगजेब अपनी फौज के साथ ठहरा हुआ था। औरंगजेब को यह बात मालूम थी कि उसके पिता शाहजहाँ का अघोर सन्त महाराज कीनाराम के साथ संपर्क था। एक दिन धर्मान्धता का अभिमानी शाहंशाह औरंगजेब महाराज कीनाराम की कुटी पर उपस्थित हुआ। उसने झुककर बाबा को सलाम किया और उनका सानिध्य प्राप्त किया। जब औरगंजेब ने बाबा से आशीर्वाद की याचना की तब उन्होंने प्रशान्त भाव से उसे संबोधित किया-
‘‘धर्म के नाम पर पृथ्वी को रक्त से न रँगें। भविष्य आपका कृतज्ञ नहीं होगा। भारतभूमि के लोग आपको क्रूर शासक के रूप में देखेंगे। भले ही आप अपने परिश्रम से अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं फिर भी आपके विचार ईश्वार या खुदा के विचार नहीं हैं। आपके व्यक्तिगत घृणा को विस्तार देने वाले विचार अमानवीय और अशोभनीय हैं। आपकी मृत्यु नजदीक है। अब आप अपने कब्र की ओर जाने वाले हैं। ’’

‘‘खुदा या ईश्वर से आपको क्षमा कैसे मिलेगी? आपके कार्य स्वार्थ से प्रेरित होते हैं। आपका चित्त लोलुप है। जब आप अपने पिता के नहीं हुए, अपने बन्धुओं के नहीं हुए तो भला इस देश के कैसे हो सकते हैं? आप जिस प्रतिष्ठा को पाने की आस लगाये हैं और इस महान भारतवर्ष में इस्लाम की गहरी नींव के ख्वाब देख रहे हैं, वह कभी पूरा नहीं होगा। यह सब कुछ आपके लिए और आपकी सन्तति के लिए अहितकर होगा। आपके क्रूर कर्म आपके राज्य की आयु क्षीण कर रहे हैं। अभी भी बदलिए। अपने में बदलाव लाइए। दिल्ली तक आपका पहुँचना कठिन है।’’
बाबा कीनाराम की आक्रोश पूर्ण निभ्र्रान्त वाणी सुनकर बादशाह भीतर तक सिहर उठा। उसकी अन्तरात्मा काँप उठी। उसका आत्मविश्वास हिल उठा। अभी तक किसी ने उसके सम्मुख ऐसी बात नहीं कही थी। अब तक वह जो कुछ करता आ रहा था, उस पर उसे गर्व था। गर्व का ग्लानि में बदल जाना कोई साधारण बात नहीं होती।
वह आशीर्वाद की याचना करने आया था। अब तक वह भौतिक प्रतिरोधों को कुचलता रहा था। उसे अपने धर्म पर, अपनी शक्ति पर अभिमान था। पहली बार बाबा कीनाराम के आत्मविश्वास और उनकी आत्मशक्ति के सम्मुख वह अपने को पराभूत अनुभव कर रहा था। वह काँपते हुए, हाँफते हुए उठा। अपनी सफेद दाढ़ी को सहलाता बाहर निकल गया।
इस मुलाकात में बादशाह ने बाबा को मुद्राएँ भेंट की थीं। उन मुद्राओं को खर्च करके बाबा ने ‘विवेकसार’ ग्रन्थ का सृजन कर उसे प्रकाशित करा दिया।

राजदर्प का दलन-
आधुनिक काशी राज्य के संस्थापक मनसा राम महाराज कीनाराम के प्रति गहरी निष्ठा रखते थे। वे बाबा की सेवा में मनोयोग पूर्वक लगे रहते थे। वे अपने गाँव धुधुरिया जिसे अब गंगापुर के नाम से जाना जाता है, से बराबर दर्शन के लिए ‘क्रीं कुण्ड’ आया करते थे। अपने हाथ से हुक्का भरकर बाबा को पिलाया करते थे। उनकी श्रद्धा और सेवा भावना से महाराज कीनाराम जी मनसाराम पर प्रीत थे। एक दिन बाबा ने अत्यन्त प्रसन्न होकर मनसाराम को आशीर्वाद दिया,- ‘जा बेटा, तुम्हारे घर राजा जनम लेगा।’’
महाराज कीनाराम के आशीष से बलवन्त सिंह का जन्म हुआ। वे दीर्घकाल तक काशी के महाराज रहे। बलवन्त सिंह का स्वच्छन्द आचरण एवं व्यवहार मर्यादित न रहा, जिसके कारण वे लोक में आदर और सम्मान के हकदार नहीं हो सके।
मनसाराम के बाद काशी का राजपरिवार बाबा कीनाराम के प्रति आदर-सम्मान से विमुख हो उठा। राजपरिवार में कर्मकाण्डी पुरोहितों का प्रभाव बढ़ता गया। पुरोहितों के प्रलोभनों और बहकावे में आकर महान सन्त कीनाराम की अशोभन बाह्य वेश-भूषा को लेकर राजा उनसे उदासीन हो गए। अपने व्यवहार में राजपरिवार बाबा के साथ उपेक्षा का आचरण प्रदर्शित करने लगा।

एक समय में काशीराज की राजगद्दी पर महाराज चेत सिंह अधिष्ठित थे। ‘क्रीं कुण्ड’ के समीप ही शिवाला घाट पर किला में एक वैदिक अनुष्ठान का आयोजन किया गया था। चेत सिंह बाबा कीनाराम के बाह्य वीभत्स रूप में अरूचि और सम्मान प्रदर्शित करते थे। अनुष्ठान को लेकर द्वारपालों और आन्तरिक सुरक्षा के सेवकों को आदेश था कि राजपरिवार और पुरोहितों के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति को दुर्ग के भीतर प्रवेश न करने दिया गया।
उस आयोजन के बीच महाराज कीनाराम जी अत्यंत वीभत्स वेश और रौद्र रूप में गदहे पर बैठकर किला के प्रांगण में प्रगट हो गए। उन्हें देखकर महाराज चेत सिंह आग-बबूला हो उठे। उन्होंने बाबा के प्रति अपमानजनक व्यवहार करते हुए उन्हें किले से बाहर निकाल देने का आदेश दिया।
बाबा कीनाराम उनके अशिष्ट आचरण से क्रुद्ध हो उठे। उन्होंने वेदपाठी ब्राह्मणों को संबोधित करते हुए कहा-
‘‘लोलुप ठग विद्या का आश्रय लेने वाले, उदर निमित्त ईश्वर और अपने धर्म से विमुख ब्राह्मणों! देखों मेरा गदहा वेद बोल रहा है।’’
महाराज कीनाराम ने गदहे का कान ऐंठकर घूसा मारा और गदहा बेद बोलने लगा।
अत्यंत रोष के साथ महाराज कीनाराम जी ने कुछ अक्षत अपने हाथ से किला की ओर फेंका और शाप दिया-
‘‘किला में कबूतर बीट करेगा। छोड़कर भागना होगा। यह राजमहल विधर्मियों के अधिकार में चला जाएगा। यहाँ उपस्थित सभी लोग निःसन्तान होंगे।’’
बाबा की भयानक वाणी से समूचा किला थरथरा उठा। बाबा के किला से बाहर निकलते ही राज दरबार के प्रमुख मुसाहिब बख्शी सदानन्द दौड़कर आए और उनके पैर पर गिर कर अपराध क्षमा करने की प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना सुनकर बाबा ने कहा,-‘‘राज परिवार म्लेच्छों की राजसत्ता के अधीन रहेगा। भारत वर्ष के पश्चिम से आए शासक जब लौट जाएँगे और जब इस देश के वासी दिल्ली में राज्य प्रारम्भ करेंगे तब दूसरे प्रबन्ध की कल्पना की जा सकती है।‘‘
‘‘जा बख्शी, जा। तू घर जा। जब तक तुम्हारी औलाद के नाम के साथ आनन्द शब्द लगा रहेगा, तुम्हारा वंश चलेगा।‘‘
यहाँ जिस प्रकार से महाराज कीनाराम जी ने धर्म के व्यवसाय का विडम्बन किया और अविवेक से आक्रान्त महाराज चेत सिंह के राजदर्प का दलन किया, वह इतिहास के लिए सन्त की महिमा का अविस्मरणीय उदाहरण है।

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