Young Writer, चंदौली। लेखक शमशाद अंसारी‚ Young Writer के founder member हैं…
चुनावी शंखनाद के साथ ही लोकतंत्र के उत्सव की तैयारियों जोर पकड़ती नजर आने लगी है। लेकिन लोकतंत्र के इस उत्सव के भागीदार ‘लोक’, ‘तंत्र’ की नाकामी से उदास है, दुखी और व्यथित है। क्योंकि तंत्र ने अपनी स्वायत्ता राजशाही व्यवस्था के आगे गिरवी रख दिया और उसका गुलाम बन बैठा। नतीजा लोकतंत्र के असली शासक कहे जाने वाले ‘लोक’ आज मारे-मारे फिर रहे हैं। इन पर महंगाई का मार है। दुश्वारियों का दंश है और जीवन-जीने की जद्दोजहद से हर रोज दो-चार हो रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों का सामना करना वाला इस देश का ‘लोक’ आखिर लोकतंत्र उत्सव मनाए भी तो कैसे और क्यों? हालात ऐसे हैं कि ‘तंत्र’ ने ’लोक’ को इस काबिल छोड़ा ही नहीं कि वह उत्सव मनाए, झूमे-नाचे और गाए।
बावजूद इसके तंत्र ने एक बार फिर विधानसभा चुनाव-2022 के उत्सव के आगाज की घोषणा कर दी है। लोक के इस उत्सव की आड़ में एक बार फिर से राजनेताओं की शाही सभाएं सजेगी। लोगों को खुली आंखों से सपने दिखाए जाएंगे, उन्हें छला जाएगा और इस छल के सहारे लोक की आजादी को लोभ, भय व प्रभाव से हथियाने की जुगत लगेगी और यह सबकुछ खुलेआम होगा। ‘तंत्र’ के संरक्षण में होगा और इस घटना का तंत्र का पूरा ताना-बाना इसका गवाह बनेगा। जैसा की पहले से होता आया है। वह भौतिक रूप से मौजूद होगा, लेकिन मूकबधिर की तरह मूकदर्शक, दृष्टिहीन की तरह कुछ भी ना देख पाने में अवस्था में निरीह व लाचार होगा। वह लोक के लाज और तंत्र की ताकत को लुटता हुआ देखेगा। जैसा ही आज से पहले होता आया है। हालांकि लोकतंत्र के उत्सव यानी चुनाव में ‘तंत्र’ अपने सशक्त व प्रभावी होने का प्रमाण हर बार देने का प्रयास करता है लेकिन ‘लोक’ को छले जाने की घटनाएं उसके नाकामी का प्रमाण बनकर सामने आ जाती हैं। क्योंकि ‘तंत्र’ की ताकत पर लोक की स्वायत्ता और उनके कल्याण का भार टिका है। लेकिन वह इसे संभालने की बजाय खुद राजशाही व्यवस्था के आगे घुटने टेके हुए नजर आ रहा है। देश और देशवासियों दोनों की प्रगति के लिए यह बड़ा ही अशुभ संदेश है, जिसमें बदलाव की शख्त जरूरत है। लेकिन ‘लोक’ आज इस अवस्था में नहीं है कि वह इस बदलाव के लिए हिम्मत जुटा सके। ऐसा नहीं है कि वह इस बदलाव को नहीं चाहता या फिर वह इस बदलाव को लाने में समर्थ नहीं है। यह तो इतना सहज और सरल है कि मात्र ‘तंत्र’ के ‘लोक’ से मिल जाने मात्र से हो सकता है, लेकिन विडंबना यह है कि ‘तंत्र’ ने ‘लोक’ से नाता तोड़कर ‘राजशाही’ व्यवस्था से नाता जोड़ लिया है, जिससे राजतंत्र की स्थापना अप्रत्यक्ष रूप से इस देश में कायम हो गयी है। ऐसे में लोकतंत्र के उत्सव मनाने का औचित्य ही यहां की जनता के साथ बेमानी है। इस उत्सव की सार्थकता तब होगी जब ‘लोक’ का ‘तंत्र’ से जुड़ाव होगा। इनके आपस में जुड़ते ही लोकतंत्र स्वतः सशक्त हो उठेगा। उसे किसी के सहारे की जरूरत नहीं होगी, और होनी भी नहीं चाहिए। क्योंकि ‘लोक’ और ‘तंत्र’ के मिलने मात्र से लोकतंत्र अपने आप में सम्पूर्ण हो उठेगा। ऐसी स्थिति में आमआदमी के जीवन में न दुश्वारियां होंगी और ना ही किसी तरह का दंश, जो उन्हें झेलना पड़े। तब देश का हर नागरिक, हर दिन लोकतंत्र का उत्सव मनाते और खुशियां बांटते दिखेगा।