-1.5 C
New York
Thursday, February 6, 2025

Buy now

दीनदयाल के भावबोध में भारतीय दर्शन की अनुगूंज

- Advertisement -

Young Writer, साहित्य पटल। लेखकः उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हृदयनारायण दीक्षित की कलम से

भारत की ऋषि परंपरा प्राचीन है। ऋषियों को मंत्र द्रष्टा कहा गया है। ऋषि अनेक हैं। सब संवादरत हैं लेकिन अनुभूति एक है। एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति। प0 दीनदयाल उपाध्याय आधुनिक काल के तत्वद्रष्टा ऋषि हैं। उन्होंने एकात्म मानव दर्शन का विचार दिया। भारतीय राष्ट्रभाव के संवर्द्धन में पूरा जीवन लगाया। वे राष्ट्रवादी विचार के संवादी थे। दीनदयाल जी सभी संवादों में सिद्ध थे। सम्वाद की कई कोटियां होती हैं – जैसे बुद्धि और बुद्धि के मध्य सम्वाद। वाद और प्रतिवाद का संवाद। लेकिन असली संवाद हृदय से हृदय के मध्य होता है। हृदय बोलता है, हृदय सुनता है। तब मन बुद्धि और प्राण सहचित्त हो जाते हैं।
दीनदयाल जी की राष्ट्र अनुभूति गहन थी। उन्होंने इसी ध्येय के लिए संपूर्ण जीवन राष्ट्रार्पित किया था। उन्होंने हजारों प्रबोधन व बौद्धिक दिए। वे प्रेरित करते थे, प्रभाव डालते थे। सक्रिय करते थे। इस सबका मूल कारण था कथन और कर्म की एका। प्रामाणिक जीवन का आचार व्यवहार अपने आप में बहुत बड़ा संवाद होता है। इसका प्रभाव दीर्घकालिक भी होता है। पंडित जी ध्येयनिष्ठ सृजनशील थे। उनके प्रबोधन से सहस्त्रों कार्यकर्ता सक्रिय हुए और सहस्त्रों कार्यकर्ता राष्ट्रजीवन में यशस्वी भी हुए।
भारत में ऋग्वेद के रचनाकाल से ही प्रश्न व तर्क की महत्ता है। पं0 दीनदयाल उपाध्याय भारतीय दर्शन के उत्कृष्ट विद्वान थे। उन्होंने शंकराचार्य पर एक छोटी सी प्यारी किताब लिखी थी। किताब में उन्होंने शंकराचार्य के दर्षन-ज्ञान की विकास यात्रा को रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। शंकराचार्य ने अल्पजीवन में उन्होंने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया। 11 उपनिषदों का भाष्य लिखा, गीता और ब्रह्मसूत्र पर विषाल भाष्य सहित ढेर सारा साहित्य लिखा। विष्व इतिहास में ऐसा उदाहरण दूसरा नहीं मिलता। उन्होंने भारत की सांस्कृतिक एकता का तानाबाना बनाया। दीनदयाल जी स्वाभाविक ही शंकराचार्य पर मोहित थे। भारत में अद्वैत दर्षन के साथ शंकराचार्य का नाम जुड़ा हुआ है। अद्वैत दर्शन वैज्ञानिक हैं। उपाध्याय जी ने अद्वैत दर्षन के लिए बादरायण का स्मरण किया है। लिखा है, “शंकर के नाम के साथ अद्वैत तथा वेदान्त का इतना अटूट सम्बन्ध जुड़ गया है कि लोग शंकर को ही वेदांत तत्वज्ञान का जन्मदाता समझने लग गये हैं। वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। सब तत्वज्ञानों के समान वेदांत तत्व आदि का स्रोत वेदमंत्र ही हैं। इसको संसार के समक्ष प्रकट करने वाले महर्षि बादरायण थे।” (शंकराचार्य, लोकहित प्रकाशन लखनऊ, पृष्ठ 21)। ब्रह्मसूत्र बादरायण की रचना है।
उपाध्याय जी ने बताया है “महर्षि बादरायण के काल में वैदिक धर्मावलम्बियों में तीन तत्वज्ञान मुख्यतया प्रचलित थे, कणाद का वैषेषिक दर्षन, गौतम का न्याय दर्षन तथा कपिल का सांख्य दर्षन। इसके अतिरिक्त चार्वाक का लोकायत दर्षन, जैनों का अर्हत् दर्षन तथा बौद्धों का तथागत दर्षन बहुत प्रसिद्ध है।” (वही, पृष्ठ 21) स्पष्ट है कि दीनदयाल जी भारतीय दर्षन के सूक्ष्म तत्वों से सुपरिचित थे।
उपाध्याय जी के दार्षनिक विवरण में भारतीय दर्षन की विकास यात्रा के बीजसूत्र हैं। लिखते हैं “वैदिक दर्षनों में कणाद भौतिकवाद का, कपिल द्वैतवाद का तथा गौतम नीरस तर्क का आश्रय लेकर संसार में द्वैधीभाव, अनास्था और अविष्वास का प्रचार कर रहे थे। कृष्ण तथा महर्षि वेदव्यास के बताये हुए मार्ग को लोग भूलते जाते थे। ऐसे समय में देष की समस्त बुराइयों को दूर कराने तथा वेदों का सारगर्भित अर्थ प्रकट करने के लिए तीन नये दर्षनों की रचना हुई, वे हैं पतंजलि का योग दर्षन, जैमिनि का मीमांसा दर्षन तथा बादरायण का वेदान्त दर्षन।” (वही पृष्ठ 22)
दर्षन और विज्ञान मनुष्य और समाज के समग्र विकास के लिए ही होते हैं। दीनदयाल जी ने इसीलिए पतंजलि के योग दर्षन, जैमिनी के मीमांसा व वादरायण के वेदान्त दर्षन को ‘सारगर्भित अर्थ प्रकट करने वाला बताया है। दीनदयाल जी कहते हैं कि लेकिन “वेदान्त इन सबमें प्रमुख है।” (वही, 22) वेदान्त ही प्रमुख क्यों है? लिखा है “युगो युगों से हिन्दुस्थान के महापुरूषों ने इसी में शान्ति पाई है।” (वही, पृष्ठ 22)
वेदांत के ‘अद्वैत’ में संपूर्ण सृष्टि एक इकाई है। दूसरा कुछ और नहीं-अद्वैत यानी दो नहीं। अद्वैत का यह दर्षन भारत की सनातन परम्परा है। वेदान्त को सूत्रों में बांधने का काम बादरायण ने किया था लेकिन दर्षन को भारत के जन जन तक पहुंचाने का काम शंकराचार्य ने किया। वेदान्त दर्षन भारतीय दर्षन का प्रतिनिधि है। यूरोप के दर्षनषास्त्री बहुत लम्बे समय तक ‘वेदान्त’ को ही भारतीय दर्षन मानते थे। पं0 दीनदयाल उपाध्याय ने बादरायण को स्वाभाविक ही प्रतिष्ठा दी है, उन्होंने लिखा, “श्रुति, स्मृति, उपनिषद् तथा श्रीमद्भगवत् गीता के अर्थ को सुस्पष्ट करने के लिए तथा ऊपर-ऊपर से देखने के कारण इन ग्रन्थों में आपस में विरोध देखने वालों के विरोधाभास को नष्ट करने के निमित्त उन्होंने स्वयं वेदान्त सूत्रों की रचना की।” (शंकराचार्य, पृष्ठ 23) असल में ऋग्वेद से लेकर उपनिषद् तक दर्शन की धारणा ‘एक सत्य’ की ही है। ब्रह्मसूत्रों में सभी ऐसे नामों को एक अर्थ दिया गया है। तब ब्रह्मसूत्र, उपनिषद् और गीता ज्ञान यात्रा की प्रस्थानत्रयी कहे गए थे। उपाध्याय जी ‘प्रस्थानत्रयी’ परम्परा से पूर्णतया अवगत थे। लिखते हैं “उपनिषद् वेदान्त सूत्र तथा गीता अपने धर्म की प्रस्थानत्रयी के नाम से विख्यात है।” (वही पृष्ठ 23)
पं0 दीनदयाल उपाध्याय भारत की सांस्कृतिक एकता में ही राष्ट्रभाव की स्थिरिता देखते थे। राजा और राज्य व्यवस्थांए आती जाती रहती हैं लेकिन सांस्कृतिक प्रवाह अविच्छन्न रहते हैं। शंकराचार्य ने भारत की सांस्कृतिक एकता को पुनर्नवा ऊर्जा दी थी। उन्होंने शंकराचार्य के वाराणसी प्रवास का वर्णन किया है, “भगवती भागीरथी के किनारे दषाष्वमेध घाट पर इन मिटते हुए साम्राज्यों तथा भारत की एकता के प्रष्न पर अवष्य ही विचार किया होगा। वहां यदि उन्होंने निर्णय किया हो तो क्या आष्चर्य कि बिना सांस्कृतिक एकता के, बिना विचारों के एक छत्र साम्राज्य के राजनैतिक एकता टिकाऊ नहीं होती। सांस्कृतिक एकता होते हुए राजनीतिक भिन्नताएं भी राष्ट्र का गला नहीं घोंट सकतीं।”
उपाध्याय जी ने लिखा, “कल कल करती हुई जाह्नवी ने उनका समर्थन किया। पुण्य सलिला की स्वच्छ जलराषि ने उनको स्नान के लिए आमंत्रित किया। शंकराचार्य स्नान करके निकले तो उनकी कान्ति द्विगुणित थी। संसार के समान गंगा का जल सामने से भागता जा रहा था, प्रतिक्षण परिवर्तनषील किन्तु अभिन्न कितना अनित्य किन्तु शांत। काषी की गंगा और हरिद्वार की गंगा एक है। दोनो को कौन अलग कहेगा? वे समान हैं, उनका स्रोत समान है, ध्येय समान है। यही है भेद में अभेद, भिन्नता में अभिन्नता, अनेकत्व में एकत्व, जिसको वे संसार को बताना चाहते थे।” (वही, पृष्ठ 41 व 42)

दीनदयाल जी के भावबोध में भारतीय दर्शन की अनुगूंज है। उन्होंने लिखा “गंगा में उठने वाली भंवर और तरंगें सत्य नहीं हैैं, वह तो वायु के परिणाम स्वरूप हैं। वे ऊपर की हैं, नित्य नहीं। शंकराचार्य की ‘अद्वैत’ प्रेरणा व वैदिक प्रतीति से उपाध्याय के चित्त में ‘एकात्म मानवदर्षन का उदय’ हुआ। उपाध्याय जी ‘एकात्म मानवदर्शन’ को लेकर सांस्कृतिक राष्ट्रभाव के लोकजागरण में सक्रिय थे। पं0 दीनदयाल उपाध्याय एकात्म अनुभूति वाले ऋषि द्रष्टा थे। दीनदयाल जी ने बहुत कुछ लिखा, बहुत कुछ कहा। भारत केवल भूगोल नहीं। यूरोपीय तर्ज का नेशन स्टेट नहीं। भारत एक विचार है। ज्ञान विज्ञान और दर्शन की पुण्य धरती। आकाश से धरती पर उतरी वैदिक ऋचा है भारत। एक मधुर गीत। शब्द ब्रह्म हैं। अमर हैं। उनके बोले लिखे शब्द अजर-अमर हैं। उनके शब्द हमारा आत्मरूपांतरण करते हैं। दीनदयाल जी के विचार अमर हैं। उन्हें पढ़ना दीनदयाल जी को सुनना है। अंग्रेजी के कवि शेली ने ‘एडोनिस’ में लिखा है “प्रकृति में पुनर्नवा शक्ति है। दीप्ति आभा बदल जाती है सुगंध में – ह्वेयर स्पलेंडर इज चेंज्ड इन टू फ्रेंगरेंस।” दीनदयाल जी की शब्द दीप्ति में शब्द गंध भी है। भारत इसी संदेश को ग्रहण करते हुए परम वैभवशाली हो सकता है।

Related Articles

Election - 2024

Latest Articles

You cannot copy content of this page

Verified by MonsterInsights