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Sunday, July 6, 2025

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प्राणों के दीप जलाकर

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Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से

दीवाली आ रही है। वह बाजार के बहुत नजदीक है। घरों से अभी दूर है।
दीवाली पहले बाजारों में क्यों आ जाती है? दीवाली की उजास से बाजार लम्बे समय तक क्यों जगमग बने रहते हैं? बाजार की रोशनी से चमकती आँखों की ओर आँख उठाकर ताकतें हमारे घरों का मुँह भकुआ क्यों जाता है? हर बार दीवाली आने से पहले ये सवाल आकर मुझे घेर लेते हैं। मैं उजबक की तरह उनका मुंह ताकता रह जाता हूँ।
मगर प्रश्न, प्रश्न हैं और त्योहार, त्योहार। हमारे त्योहारों में हमारे पारंपरिक विश्वास इतना बल है कि वह प्रश्नों की पूरी फौज को पराजित करके अपनी विजय का ध्वज समय की छाती पर, गाड़ देते हैं। हमारे पर्व हमारी अदम्य जिजीविषा के अचूक स्रोत के मार्गदर्शक आकाश दीप हैं, आँधियों में भी अकम्प जलने वाले आकाश दीप।

दीवाली से पहले हमारे बाजार मोम के दीयों से पट गये हैं। दुकानें सज गई हैं। रंग-बिरंगे मोम के दीपक हमारा चित्त लुभा रहे हैं। हमारे समय के बाजार में जो दीये दिख रहे हैं, उपलब्ध हैं सब बुझे हुये दीये हैं। जलते हुये दीपों की, जलते रहने वाले दीपों की कोई दुकान हमारे समय के बाजार में नहीं है। क्यों नहीं है? हमें पता नहीं है। हमें पता है कि मोम के दीये बाती जलते ही गलने लगते हैं। जरा-सी रोशनी की आँच में पिघल जाते हैं। रोशनी बाँटने का दम भरने वाले खुद रोशनी में आते ही गलने लगने लग जाते हैं। गलते-गलते कुछ ही समय में पूरा गल जाते हैं। उगते-उगते ही ढल जाते हैं। अँधरे में समा जाते हैं। वे सिर्फ अपने होने की जगह पर छोड़ जाते हैं, कालिख का एक भद्दा निशान। निशान, जो हमारी जमीन को धब्बेदार बना देता है। फिर भी, हमें दीवाली मनानी है- मनानी ही होगी इन्हीं दीयों के सहारे।

मिट्टी के दीये खोजने पर बड़ी मेहनत से मिलते हैं। मिल जाते हैं, कहीं-कहीं। मगर मशक्कत के साथ। हमारे समय में अपनी माटी की चीजें मिट्टी में मिला दी गई हैं। मिट्टी बन गई हैं। मिट्टी हो गई हैं। हमारे गाँवों में दीये गढ़ने के लिये कुम्हारों के पास जमीन नहीं है, माटी निकालने के लिए। उनके घरों में अब चाक नहीं है, जो चाक गीली मिट्टी को जाने कितने-कितने रूप और रंग देता था, अब उनके पास नहीं है। उनके पास सिर्फ उनके हाथ में एक प्रमाण पत्र है। जाति का प्रमाण पत्र। हमारे अंचल के सारे कुम्हार अनुसूचित जनजाति के खरवार हो गये हैं। हमारी सरकार ने उनके हाथों में यह प्रमाण पत्र थमा दिया है। वे अपने खाली हाथों में प्रमाण पत्र थामे, विकास और सुनहरे दिनों के वायदों का मुंह ताक रहे हैं।
हमारे गाँवों में अब माटी के दीये नहीं हैं। हमारे कपास के खेत अपनी सूनी आँखों से रूई की बाती के लिए कोलतारी सड़कों के सहारे सौदा-सुलुफ की भाषा सीखने के लिये कहीं दूर ताक रहे हैं। अब हमारे गाँवों के घरों में घी नहीं है। दूध ही नहीं बचा तो घी कहाँ से होगा। हमारे गाँवों में सिर्फ चाय भर दूध मुश्किल से बच पा रहा है। बाकी सबका सब डेयरियां हजम कर जा रही हैं। अपने मुनाफे के पेट में।

हम मार्टी के दीयों में घी की बत्तियाँ जलाकर अपनी ड्योढ़ी में रोशनी रखते रहे हैं। ड्योढ़ी में रखे घी के दिये घर के अंदर भी रोशनी करते रहे हैं और घर के बाहर भी। हमारे घर भी प्रकाशित होते रहे हैं, हमारा पड़ोस भी प्रकाशित होता रहा है। हमारी पारस्परिकता भी प्रकाशित होती रही है। हमारी पारस्परिकता में हमारे देश का प्रकाश दुनिया में फैलता रहा है। अब हमारी दीवाली में बारूदी पटाखों का भयावह विस्फोट है, विषैला धुँआ है, हमारी पारस्परिकता का ठहाका नहीं है। पारस्परिकता के अट्टहास के बिना हमारे पर्वों के कण्ठ गूँगे हो गये हैं। हमारी परम्परा में माटी के दीये जलाकर दीवाली मनाने वाले गाँव-गाँव में घर-घर में होते रहे हैं। आज हमारे समय में दीवाली मोम की दीवाली बनकर रह गई है। हमारा समय मोम के पिघलते स्तंभों का समय बनकर रह गया है।

हम दीवाली मना रहे हैं, मगर हमारे प्रणों में पैठा अँधेरा घट नहीं रहा है। हम मकान बनाते जा रहे मगर हमारा पड़ोस गुम होता जा रहा है। हम बड़ी-बड़ी कालोनियों बसाते जा रहे हैं, हमारी पारस्परिकता उजड़ती जा रही है। हम अपने घरों में किसिम-किसिम के सामान भरते जा रहे है, हमारा अन्तर खाली होता जा रहा है। हम खुशी के लिये पटाखे फोड़ते जा रहे हैं, हमारे भीतर उदासी भरती जा रही है। हम बहुत कुछ पीते जा रहे हैं, हमारी प्यास बढ़ती जा रही है। हम बहुत कुछ पढ़ रहे हैं मगर कीचड़ से आगे बढ़ नहीं रहे हैं। हम पढ़ते जा रहे हैं फिर भी लड़ते जा रहे हैं।

हमारे समय के प्राणी बुझे हुये प्राणों के प्राणी होते जा रहे है। नहीं, भाई नहीं, बुझे हुये प्राण को लेकर दीवाली कैसे होगी। दीवाली तो जलते हुये प्राणों का पर्व है। जलते हुये प्राणों की पारस्परिकता की श्रृंखला ही राष्ट्र की अस्मिता है। अपनी विरासत का वैभव है। अपनी आस्था का आलोक है।

हम जाने कबसे सूनेपन की मस्ती भूल चुके हैं। जिस सूनेपन में सामूहिक अस्तित्व की एकता का संगीत बजता है, उसे सुनने का हमारे पास अवकाश नहीं है। हमारे प्राणों के स्पन्दन में सम्बन्धों की ऊष्मा सोये हुये चूल्हे की तरह ठंडी पड़ गई है। हमारी सांसों के सपने में घर नहीं है, परिवार नहीं है, राष्ट्र नहीं है। हमारे ठिठुरते हुये गणतंत्र में हमारे प्राण सिकुड़ रहे हैं। दीवाली वैयक्तिक उत्कर्ष के आग्रह का पर्व नहीं है। यह सामूहिक अभ्युन्नति, सामूहिक समृद्धि और सामूहिक उल्लास की आराधना का आलोकपर्व है। हमारी दीवाली, दीप नहीं, दीपमाला के अनुष्ठान का आयोजन रचती है। जलते हुये दीपों की श्रृंखला से प्रकाश की अविरल धारा का प्रवाह पैदा करने का उल्लास और उत्साह ही दीवाली का प्राण है। स्वयं प्रकाशित होने और अपने प्रकाश से दूसरों में प्रकाश के स्रोत को जगा देना, हमारे प्रकाश पर्व की अभीप्सा है। हमारे प्रकाश पर्व की इस अभीप्सा को अपने प्राणों की अभीप्सा बना लेना हमारे समय की पुकार है।
दीवाली के समय महादेवी जी की एक कविता की पंक्तियाँ स्मृति को बहुत उद्वेलित कर रही हैं-
‘‘अपने इस सूनेपन की मैं हूँ रानी मतवाली
प्राणों के दीप जलाकर करती रहती दीवाली।।’’
दीवाली के मौके पर मैं महादेवी की कविता का उद्वेलन अपने समय के सभी साथियों को बांटने का बहुत-बहुत मन रखता हूँ।
हम दीवाली पर अपने प्राणों के दीप जलायें। अपने-अपने प्राणों के दीप जलायंे। जले हुये प्राणों के दीपों से दीपमाला सजायें। अपने उजास से, अपने-अपने उजास से अपने राष्ट्र को अलोकित कर दें। हमारे आलोक की अभीप्सा जन-जन के मँगलेच्छा की अभीप्सा है। हमारी अभीप्सा अंधकार के उच्छेद की अभीप्सा है। अंधकार के अलोप की अभीप्सा है,- ‘‘अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाये।’’ मित्रों! प्राणों के दीप जलाकर चलो मनायें दीवाली।

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