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Saturday, July 5, 2025

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शवयात्रा

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Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से

वहाँ मैं बहुत सवेरे ही पहुंच गया था। उनके मरने की खबर तो मुझे रात में ही मिल गई थी। रात में हम घर से चलने को तैयार भी हो चुके थे। मगर चलेन से पहले उन्हीं लोगों ने फोन करके रात में आने से मना कर दिया था। बताया था कि अन्तिम यात्रा का समय सुबह के लिए ही निश्चित किया गया है, जिससे अधिकांश लोगों का सम्मिलित होना भी संभव हो जायेगा और आने-जाने में लोगों को सहूलियत भी रहेगी। इस प्रकार हमें रात अपने घर में एक मृत्यु की सूचना के साथ ही काटनी पड़ी थी। मैंने अनुभव किया कि पता नहीं कैसे टेलीफोन से आये हुए कुछ शब्द हमारे घर के समूचे विस्तार में किसी विषैले विस्फोट के धुंए की तरह फैलकर भर गए थे और पूरे घर को उदास और दमाघोंटू बना चुके थे। रात में मैं ध्वनियों में व्याप्त प्रभाव के विस्तार के बारे में सोचते हुए देखता रहा- रात मुझे बहुत बेहूदी और भद्दी लग रही थी।
मैं जब घर से चला था मुझे लगा था मैं बिल्कु समय से चला हूँ। उनके घर के पास पहुंचते-पहुंचते लगा कि मुझे थोड़ी देर हो गई है। मैंने उनके घर के ठीक सामने पहुंचर देखा कि लोग उनके घर से निकलते आ रहे हैं। आगे-पीछे, अगल-बगल बेतरतीब ढंग से लोग भीड़ की शक्ल में बढ़े आ रहे हैं। मैंने अपनी गाड़ी जल्दी से बगल के मकान की आड़ में खड़ी कर दी और सड़क के किनारे उदासीन मुद्रा में खड़ा हो गया। मैं पूरी सावधानी के साथ अपनी मुद्रा और अपने हाव-भाव को इस तरह प्रदर्शित करने में तल्लीन हो गया कि लोग यह समझ सकें कि मैं पहले से ही यहाँमौजूद रहा हूँ। लोगों के साथ उनके घर से चलकर यहाँ पहुँचा हूँ मुझे इस बात से बड़ सुकून मिला कि पूरी भीड़ में मिल जाने से पहले मुझको कोई परिचित और खास तौर से उनके घर का कोई सदस्य देख नहीं सका। जब लोगों ने मुझे देखा मैं पूरी तरह भीड़ का हिस्सा बन चुका था।
मुझे अपने ही भीतर अपने ऊपर बड़ा कोफ्त हो रहा था। मुझे अपनी आंखों में अपना चेहरा बड़ा विद्रूप लगा था। मुझे अपने एकान्त में अपना ही आचरण बड़ा बेहूदा लग रहा था। शायद लोगों के अनुमानों और उनकी अपेक्षाओं के अनुरूप अपने को दिखा सकने का एक दबाव जो हमें हमेशा दबाये रहता है, हमारे व्यवहार को बासी जूठन की तरह भद्दा और बेहूदा बना देता है। हमारी जिन्दगी हमारे हाथ से छूट जाती है और संसार में हम मुर्दा भावों के शववाहक बन जाते हैं। मुझे लगता है हम कहीं भी जाते-जाते पता नहीं कैसे मरघट की तरफ मुड़ जाते हैं। खैर आज तो मरघट जाने के लिए निकला ही हूँ।
कुछ ही कदम आगे बढ़ने के बाद भीड़ एकाएक रुक गई। बगल की खुली जगह में अरथी उतार दी गई थी। लोग एक-दूसरे के आगे पीछे घेरा बनाकर खड़े थे।
मैंने पीछे मुड़कर देखा, कोई पूछ रहा था- ’’का हो अरथी काहीं इहां उतार गयी।‘‘ वे शायद रिश्तेदार थे।
’’इहां कुछ समय लग जाई। सोचा गया है कि घाट का सब करमठ यहीं निबटा दिया जाय। उनकी वाणी में उनकी वरिष्ठता और पारिवारिक निकटता का रंग साफ झलक रहा था।‘‘ अब समझ लीजिए कि बरसात का मौसम होने के कारण घाट पर बड़ी मुसीबत उठानी पड़ रही है। सारी जगह तो गंगा जी की बाढ़ में डूब गई है। धारा सीढ़ी से ऊपर चल रही है। इस समय तो सब चिता बस छत के ऊपर ही जल रही है- नम्बर के मुताबिक।‘‘
तब तो बड़ी भारी मुसीबत है, भइया। ई किचिर-पिचिर अउर धक्का-मुक्की में तो मणिकर्णिका की दशा सोचकर जी कांप जाता है। ऊपर से बरसात होने लगे तो फिर पूछना ही क्या? कोढ़ में खाज की तरह दुखदायी। राम, राम् उन्होंने गहरी विरक्ति में मुंह बिल्कुल कसैला बना लिया।
‘‘बादल का रुख तो देखी रहे हैं न। लग रहा है कि पानी जब न बरस पड़े। इसी से तो मैंने तय किया कि पंचक के पिण्डदानके साथ ही मुण्डन अउर मुंह में आग वगैरह देने के कर्मठ यहीं कर दिये जाएं। वहाँ चिता की बगल में घूमने भर की जगह भी इस समय मिलना मुश्किल है। और यह सब काम यहीं निबटा रहेगा तो वहाँ के समय में घण्टे भर की बचत भी आराम से मिल जायेगी।
‘‘बहुत ठीक सोचा है, आप लोगों ने। बरसात में तो हमको घाट पर जाने में नरक में जाने से भी जियादा डर लगता है।’’
मैंने देखा, उधर अरथी की बगल में नाई उनके लड़के के बाल मूड़ने लगा था। पुरोहित जी पिण्डदान के लिए जौ के आटे में जरूरी तिल-गुड़ आदि मिलाने के लिए हिदायत दे रहे थे। कुछ लोग अरथी पर आने वालों के पिताम्बर ले लेकर बांधने-सजाने में मशगूल थे। भीड़ में अधिकतर लोग अगल-बगल वालों से बलियाने लगे थे। कुछ पेशाब करने की जगह ढूंढने में आगे पीछे आने-जाने लगे थे। कुछ लोग दो-चार के ग्रुप में चाय-पान की दुकानों की तरफ सरकने लगे थे। प्रायः हर लोग अपने-अपने ढंग से समय काटने की अलग-अलग तरकीब चुनने में लग गये थे।
लगभग 20 मिनट बीतते-बीतते फिर सारे लोग जहाँ-तहां से लौटकर मंडलाकार खड़े हो गए।
‘‘का भाई अब का देर है।‘‘ एक सज्जन काफी उकताये हुए से कह रहे थे। मैंने तो सोचा था कि इनको सड़क तक पहुंचाकर आठ बजे तक घर लौट आऊंगा। देख रहा हूँ, आठ यहीं बज गये। अब क्या बताऊं उनको मरना भी था तो आज ही। बड़े बेमौके मरे हमारे लिये।’’
’’कवनो परेशानी में पड़े हैं, का भइया’’ उनके बगल वाले सज्जन ने उनकी व्यग्रता और उनके विषादसे द्रवित होते हुए पूछा।
‘‘अरे अब परेशानी का बतायें, भइया। परेशानी कोई तनी-मनी है क्या? हमारी तो साँप-छछूंदर वाली हाल हो रही है। न इधर का हो रहा हूँ, न उधर का। देखिये न, पांच दिन से हेंगा-वेगा देकर खेत तैयार करके जोह रहा था। न रोपना मिल रहे थे, न रोपनी। कल जाकर बड़ी दौड़-धूप और चिरौरी मिनती के बाद पचास ठो रोपनी मिली हैं, आन गाँव से। ट्रैक्टर से ले आने और पहुँचाने की शर्त पर। ड्राइवर को भेजकर इधर आया। अब मजदूर खेत पर पहुंच रहे होंगे। अभी यहाँ लाश ही नहीं उठ पा रही है। पट्टीदारी का मामला है, इधर। लाश उठाने में न रहे तो बुरा। उधर खेत पर न पहुंचे तो बुरा। कुछ समय में नहीं आ रहा है, क्या करूं। पता नहीं अभी कितनी देर लगायेंगे लोग यहां।’’
तभी किसी ने उनके लड़के के पास जाकर कहा ‘‘का हो अब का देर है?’’
मैंने देखाउनके लड़के कुछ बोले नहीं मगर उनके चेहरे पर तनाव का ताप इस तरह छा रहा था कि उनका चेहरा लाल हो गया था। वे अपनी लाल-लाल चढ़ी हुई आंखें तरेर-तरेर कर बाजार की तरफ से आने वाले रास्ते पर न जाने किसे घूर रहे थे, जो अभी दिखाई नहीं दे रहा था। मुझे लगा उनके भीतर कोई भयानक हलचल बेकाबू होने को मचल रही है।
उनके रोये-रोये से जैसे आवाज फूट रही थी, किसी भयानक विस्फोट की तरह। ‘‘नहीं, नहीं, बाऊ जी की लाश ऐसे ही नहीं उठेगी। इतने चुपचाप ढंग से उन्हें कैसे विदा किया जा सकता है। यह तो हमारे लिये बड़ी हेंठी की बात होगी।
‘‘क्या कुछ नहीं किया है, बाऊ जी ने अपने जीवन में। अकेले बूते सत्तावन कीता मुकदमा लड़ते रहे हैं। किसी की दाल नहीं गलने दी उन्होंने अपने जीते-जी। अपने दुश्मनों को हमेशा छकाते रहे। कभी किसी का दांव नहीं लगने दिया। किस-किस के हक से, किस-किस के हाथ से जमीनें खींच-खींचकर वे न जाने कैसी-कैसी तरकीब से अपने हक में ले आते रहे हैं। भला उनकी लाश बिना बाजे-गाजे के, बिना फोटो कैमरे के, बिना वीडियो रिकार्डिंग के उठे तो लोग क्या कहेंगे। उनके दुश्मन मेरे जैसे उनके इकलौते वारिस पर भला कितना हँसेगे।
उनको लगा जैसे उनके चेहरे पर उनके दुश्मन थूक रहे हैं- बूड़ा वंश कबीर का…..’’ तभी वे अचानक फट पड़े।
’’अरे स्सालों जरा देख तो दौड़ के, सबके सब कहाँ मर गए। अभीतक भोंसड़ी के न बाजा वाले आये न फोटो कैमरा वाले, न वीडियो वाले। रात को ही सबको एडवांस दे चुका हूँ। हमको जानते नहीं हैं क्या? हमको अगर बेइज्जत किये तो साले सबको गोली मार दूँगा।’’
उनका रुख देखते ही, उनके लड़के सहम कर हड़बड़ी में मोटर साइकिल स्टार्ट करने लगे। मगर तभी डमडम डम-डिम डिम-डिम बाजे की आवाज गली का मोड़ पारकर सामने दिखाई पड़ने लगी। कैमरे और वीडियो वाले दौड़कर अरथी की फोटो उतारने में तल्लीन दिखाई पड़ने लगे। वे खिल उठे।
वे मगन होकर अरथी के सिरहाने खड़े हो गए। उनकी आंखें जैसे कह रही थीं- ’बाऊ जी देख सको तो देखो। जैसा तू ने अपने मालिकाने में कोई तिलक-ब्याह नहीं किया था, उससे जोरदार मैं तुम्हारी मातम पुरसी कर रहा हूँ।‘‘ तभी कैमरे वाले ने इशारा किया और उन्होंने माला अरथी पर डाल दी। कैमरे की फ्लैश लाइटें उनके चेहरे पर चमक उठीं। वे गर्व में फूल उठे। चारों ओर नजरें घुमा-घुमा कर वे चुनौती भरे लहजे में जैसे सबको गरिया रहे थे- देखो स्सालों देख लो। आज तक पूरे गाँव में, पूरी बाजार में किसी ने अपने बाप की लाश इस तरह से धूमधाम और तामझाम के साथ उठाई है।’’
उन्होंने अरथी का एक बाँस छूकर लाश उठाने का इशारा किया। आगे बढ़कर चार लोगों ने कंधे दिये। यात्रा चल पड़ी। राम नाम सत्य है……… राम नाम सत्य है। सड़क से गुजर रहे किसी गाड़ी में खूब तेज बज रहे गाने की आवाज शवयात्रा के ऊपर से गुजर रही थी- ’’बहारों फूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है-‘‘
मैं शव यात्रा में शरीक था। मेरी बगल से गाने वाली गाड़ी गुजर रही थी। सामने की रेलवे लाइन पर जोर से सीटी बजाती कोई तेज रफ्तार सवारी गाड़ी जा रही थी। कितना अद्भुत है, यह संसार। कितना विस्यमजनक। कोई यात्रा पूरी करके यहां से जा रहा है। कोई यात्रा शुरू करने के लिए आ रहा है। सुख-दुख का कितना अद्भुत सम्मिश्रण है, संसार। आदमी चला जाता है। उसके चले जाने से उसका अधिकार उससे छूट जाता है। फिर उसका छूटा हुआ अधिकार कोई पा लेता है। पाकर फूल उठता है। कोई यह नही ंसोच पाता आखिर यह अधिकार उससे भी एक दिन छूट जायेगा। कितना अबूझ है, जीवन। जीवन भर आदमी जिन्दगी को बूझने में लगा रहता है मगर बिना कुछ बूझे जिन्दगी से विदा हो जाता है। सचमुच कितना विस्मयजनक है।
अरथी सड़क पर पहुँच गई। सड़क पर पहुँचकर एक गाड़ी पर ऊपर शव रखकर बाँध दिया गया। जिन लोगों को घाट तक जाना था, उन्हेें गाड़ियों में बैठाया जाने लगा। अधिकांश लोग जाने वालों को रवाना कर घरों को लौट पड़े थे।
शव वाली गाड़ी के पीछे-पीछे कई गाड़ियां चल रही थीं। एक में मैं भी बैठा चल रहा था। मेरे दिमाग में मेरे रिश्तेदार से संबंधित अतीत की तमाम घटनाओं की स्मृतियां भी चल रही थी। मैं सोच रहा था कि उनके लड़के जो कुछ कर रहे थे- वे अपनी पितृभक्ति के कारण कर रहे थे या अपनी अहं की तुष्टि के लिये? उनके कर्तव्य उनकी आन्तरिक निष्ठा पर आधारित थे या दूसरों में अपनी श्रेष्ठता कायम करने के लिए? उनके क्रिया कलाप अपनी शान दिखाने और शेखी बघारने के लिए किए जा रहे थे, या आन्तरिक श्रद्धा की उत्प्रेरणा की उपज थे?
जहाँ तक मैं समझता हूँ ये सवाल मेरे विचार की उपज नहीं थे। ये प्रश्न तो उनके अतीत के लम्बे आचरणों और उनकी जीवन शैली से ही उपजे हुए थे। आज जिन्होंने अपनी पितृभक्ति के प्रदर्शन के लिए यह विराट आयोजन रचा है, कभी अपने पिता के जीवन काल में उन्होंने पिता या पिता के समतुल्य किसी संबोधन से पुकारा हो इसका गवाह कोई नहीं है। हां पिता के लिए उनकी जिह्वा पर दो-चार स्थायी गालियां हमेशा मौजूद रहा करती थीं। उनका जिक्र आते ही वे अनायास फट पड़ते थे और अपनी स्थायी उपाधियों से बराबर उन्हें नवाजा करते थे।
इन्होंने जवान होते ही अपने पिता की सत्ता के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल बजा दिया था। वे सदा से घर में उनके निर्णयों की अवहेलना किया करते थे। उनके हर काम का विरोध अपनी पूरी शक्ति से किया करते थे। वे अपने पिता से समूची सत्ता अपने लिये पाना चाहते थे। इसके लिए इन्होंने भयानक युद्ध छेड़ रखा था। घर को युद्धभूमि बना रखा था। ये अपने पिता से कहा करते थे- ‘तुमने अपने पिता से सारी सत्ता सारा अधिकार अट्ठारह की उम्र में ही छिन लिया था फिर उसी न्याय से तुम अपने अधिकार मुझे क्यों नहीं सौंप रहे हो। मेरीउमर पैंतालीस साल गुजर चुकी अभी तक तुम सारी सम्पत्ति पर कुंडली मार कर विषधर साँप की तरह बैठे हो। भला मैं अपने धन सम्पत्ति का उपभोग कब करूंगा?’’ मगर इनके पिता टस से मस नहीं हुए। उन्होंने अपना अधिकार क्या अधिकार का एक अंश भी जीते-जी नहीं छोड़ा। पता नहीं उनको अपने पुत्र की योग्यता और निष्ठा पर यकीन नहीं था या उन्हें अपनी योग्यता के सम्मुख कोई योग्य और अपनी निष्ठा के आगे कोई निष्ठावान ही नहीं मालूम पड़ता था। या शायद उनको अपना अधिकार ही अपना जीवन लगता था। जो भी हो मगर उनके मरने तक उनके और उनके पुत्र के बीच लड़ाई अनवरत जारी रही। दोनों एक ही घर में एक-दूसरे के दुश्मन की तरह लड़ते हुए रहते रहे। आज उस लड़ाई का अंत हो गया है।
मैं सोच रहा हूँ कहीं इस विराट आयोजन में इस लम्बी लड़ाई के अंत की उद्घोषणा के भी अंश हैं क्या? कहीं उनकी शवयात्रा में इनकी जयात्रा भी सम्मिलित है क्या? क्या संसार में शवयात्राएं और जय यात्राएं साथ-साथ और समान्तर नहीं चलती रहती हैं। जो भी हो। मैं यकीन के साथ कुछ कैसे कह सकता हूँ। जीवन में सत्य इतना सरल और सुबोध तो नहीं है कि बिना किसी दुुविधा के उसका उद्घोष किया जा सके। मुझे बार-बार ही शवयात्रा और जययात्रा के बीच फैला हुआ यह संसार बड़ा पाखण्डपूर्ण विद्रूप और वितृष्णाजनक लगता है। मगर मेरे लगने से क्या फर्क पड़ता है।
लम्बे इन्तजार के बाद चिता लगाने का अवसर मिला। चिता से संबंधित सारा काम ठेके पर तय कर दिया गया था। इसलिये चिता में आग दे देने के बाद कोई जिम्मेदारी शेष नहीं थी।
चिता में आग लगने के थोड़ी देर बाद एक सज्जन लकदक धोती कुर्ता में सजे पूरे लाव-लश्कर के साथ अंगरक्षकों से घिरे हुए आये। उन्होंने देर से सूचना देने के लिए उनके लड़के से शिकायत की।उनकी मृत्यु पर शोक व्यक्त किया। फिर कैबिनेट की मीटिंग से पहले राज्य लोक निर्माण मंत्री जी से मिलना पहले से तय और अत्यंत जरूरी होने के कारण क्षमा मांगकर लखनऊ की यात्रा के लिए चले गए।
अब घाट पर सारे लोग बेहाल और बदहाल दशा में इधर-उधर मारे-मारे फिर रहे थे। मुर्दों के साथ आये हुए लोग केवल अपने अपने मुर्दे के जलने की चिंता में जल रहे थे। हर किसी की केवल एक ही चाह थी, मुर्दा कितना जल्दी जल जाय। हर कोई हर किसी से हर क्षण यही पूछने की विकलता में व्याकुल था कि अभी कितनी देर और……। पूरे श्मशान घाट पर घाट से भागने की उकुलाहट के अलावा और किसी भी भाव का पूरा-पूरा अभाव था। मुर्दे जल रहे थे मगर जल्दी नहीं जल रहे थे। मुर्दों के जलने तक लोग उठते-बैठते, हिलते-डुलते, बोलते-बतियाते, चाय पीते, पान खाते एक मुर्दा बोझ से दबे मुर्दा बने से दीख रहे थे।
अब शाम होने लगी है। सूरज का ताप और सूरज का प्रकाश लग रहा है किसी चिता से उठने वाले विशाल और भयानक धुंए के विस्तार में डूबता जा रहा है। मैं शवयात्रा से लौट रहा हूँ। सड़क पर भारी भीड़ है। भीड़ में भयानक चिल्ल-पों है। हर आदमी हड़बड़ी में है। उकताया है। घवराया है। बोझ से दबा हुआ है। उदास है। मुझे लग रहा है हर आदमी अपना-अपना मुर्दा फूंककर लौट रहा है। हर आदमी फिर घर में किसी मुर्दा होने की आशंका से ग्रसित है। हमारा समय कैसा समय है, भाई। मुर्दा समय! हमारे समय में हमारा रिश्ता मर गया है, हमारा विश्वास मर गया है, हमारा कर्तव्य मर गया है, हमारा उल्लास मर गया है। मुझे लग रहा है, हम निरंतर किसी शवयात्रा से आ रहे हैं; किसी शवयात्रा में जा रहे हैं। हमारी यात्रा रिश्तों की शवयात्रा बन गई है।
मुझे लगता है कि कहीं कुछ गड़बड़ है। कहीं कुछ गड़बड़ है मगर हम उसे पकड़ नहीं पा रहे हैं। हम जो कुछ कर रहे हैं, वह सब हमारी स्वेच्छा नहीं है। हम वह सब कुछ करने को विवश हैं। हम बहुत कुछ करना चाह रहे हैं। मगर कर नहीं पा रहे हैं। हम जिधर जा रहे हैं, वह हमारे घर का रास्ता नहीं है मगर हम जा रहे हैं। हमारे समय में हमारी जययात्रा का शवयात्रा में शामिल हो जाना और शवयात्रा में जययात्रा का सम्मिलित हो जाना कितना विडंबनापूर्ण और खेदजनक है।
बहरहाल मैं अपने समय में रिश्तों की शवयात्रा से लौट रहा हूँ। मेरा मन घर पहुंचने के लिए उत्सुक हो रहा है। मैं अंधेरे में रास्ते के गुम होने से पहले घर पहुंच जाना चाहता हूँ।

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