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Monday, February 3, 2025

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हुलास के लिए हुड़कती होली

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Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डॉ. उमेश प्रसाद सिंह की रचना
होली हमारी परम्परा में एक दिन का त्योहार नहीं है। यह मनुष्य की आन्तरिक चेतना में उठने वाले आत्म प्रसार के उद्दाम गवप्रवाह का उच्छल गान है। यह मनुष्य जाति में व्याप्त आत्म उत्फुल्ल यशगान का समारोह है। यह मनुष्य के आत्मदान के यज्ञ का अनुष्ठान है। इसकी पवित्र सुगन्धि से धरती से लेकर असीम आकाश का अन्तराल तक न जाने कबसे महकता आ रहा है।
होली आने के बहुत पहले ही हवा अल्हड़ हो उठती है। वह अपनी ही मादकता की सुवास से सुरभित होकर दिशाओं को आन्दोलित कर देती है। धरती की छाती हुलास से हुलसित होकर उमग उठती है। वह रंग-बिरंगी परिधान में सजकर प्यार लुटाने को मचल उठती है। वह अपनी प्रीति में सबको डुबा देने को ललक उठती है। आकाश आनत हो उठता है। वह अपने आलिंगन में लपेट कर मनुष्य जाति के हृदय में हुलास की हिलोर को लहका देने को आकुल हो उठता है। न जाने कबसे प्रकृति मनुष्य को आनन्द से आन्दोलित कर देने का अथक उपक्रम करती आ रही है।

मगर हमारे समय में आदमी अजीब बन गया है। बनता जा रहा है। वह सबसे मुँह फेरकर अपनी उदासी, बेबसी और अकेलेपन की चादर ओढ़कर अपनी महत्वाकांक्षाओं के अँधेरे बन्द कमरे में औंधे मुँह लेटा पड़ा है। उसके पाँव धरती पर नहीं है। उसके सिर पर आसमान नहीं है। उसने घर में हवा के आने के सारे रास्ते बन्द कर दिए हैं। धूप से, बरखा से उसने नाता तोड़ लिया है। पसीने से उसे घिन आती है। अब उसकी आँखों में प्रेम के सलोने सपने नहीं है, विश्व बाजार के विज्ञापन की धूल है। हमारे समय में आदमी, आदमी नहीं रह गया है। बाजार वाद के कुत्सित अभियान ने उसे यन्त्र बना दिया है। मनुष्य जाति को उपभोक्ता यंत्र में बदलने का बाजार का खड़यन्त्र मनुष्यजाति के लिए कितना भयानक है, अभी अनुमान कर पाना बड़ा मुश्किल है। बाजार के विध्वंसक आघात से आहत मरणासन्न मनुष्य के जीवन में होली का हुलास जल रहा है। फाग का रंग मर रहा है। हमारे समय में सब तरफ से आँख मूँदकर आदमी सिर्फ टी.वी. देख रहा है।
हवा अब भी सरसरा रही है मगर हमारे में कोई सिहरन नहीं है। बादल बरस रहे हैं, मगर हम भींगने से भाग रहे हैं। हमारा तो समूचा जीवन-व्यापार ही प्रकृति से विच्छिन्न हो गया है। नहीं, विच्छिन्न तक तो थोड़ी गुंजाइश थी। अब तो वह पूरा-पूरा प्रकृति के विरूद्ध खड़ा है। हमारे समय के मनुष्य को किसने प्रकृति के विरूद्ध खड़ा किया है?
नहीं, नहीं, यह सवाल मत पूछिए। यह सवाल बड़ा खतरनाक सवाल है। यह सवाल मनुष्य की लोलुपता को नंगा कर देने वाला सवाल है। यह सवाल मनुष्य के स्वार्थ की लघुता और तुच्छता को उघार देने वाला सवाल है। यह सवाल सभ्यता के नाम पर लोभ और लाभ के व्यापार की कलई खोल देने वाला सवाल है।
हम जिस सभ्यता में जी रहे हैं, जीने को विवश बने हुए हैं, वह हमारी सभ्यता नहीं है। यह सभ्यता उन लोगों की सभ्यता है, जो सब कुछ को बेचने के लिए पैदा हुए हैं। वे दवा बेचने के लिए बीमारियाँ पैदा करने के विश्वासी लोग हैं। वे लोग हथियार बेचने के लिए युद्ध का आयोजन करने के अपराधी लोग हैं। वे लोग विध्वंस को विकास बताने वाले स्वार्थी और अज्ञानी लोग है। आज समूची दुनिया उनके ही मंसूबों के विस्फोटक ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठी हुई है। मनुष्य के सारे सृजन को अत्यल्प समय में विनष्ट कर देने की उपलब्धि उनके विकास का प्रतिमान है। प्रकृति की असीम विराटता को अपनी क्षुद्र लघुता से पददलित कर देने का सपना हमारे समय की सभ्यता का घिनौना सपना बन गया है। खैर छोड़िए।
वसन्त आता है, आज भी। वह ललक कर आदमी को भेंट लेने को उत्सुक हुआ आता है। मगर आदमी ने अपने घरों के दरवाजे बन्द कर रखे हैं। होली आती है। रंग बरसता है। अबीर उड़ता है। मगर कोई भींगता नहीं है। हमारी चेतना ही पथरा गई है। पत्थर बन गई है। पत्थर पर भला कोई हरियाली कैसे उग सकती है।
हमने अपनी हरियाली गवाँ दी है। जीवन का हुलास खो दिया है। हमारे समय में मनुष्य जाति अपना हुलास खोकर डालर जुटा रही है। दीनार जुटा रही है। रूबल और रुपया जुटा रही है। सम्पन्न होने की मृगतृष्णा हमें विपन्नता की मृगमरीचिका में दौड़ा रही है। भटका रही है। आदमी अपनी ही प्यास को पी रहा है। हॉफ रहा है। बड़ा बुरा हाल है।
होली आदमी को आदमियों की भीड़ में खोज रही है। हुमस कर गले मिल लेने को ललक रही है। आदमी के कण्ठ में गान बनकर फूट पड़ने को विकल हो रही है। रंग बनकर चेहरे पर खिल उठने को उमंगित हो रही है। मगर कहीं भी आँख में पानी नहीं है। हृदय में हुलास नहीं है। होली आदमी को खोजते-खोजते हलकान है। हमारी होली हुलास के लिए हुड़कती होली बनकर बौंड़िया रही है।
भाई हे! देखो न। होली से मिलने को उत्सुक खो गया मन खोजो न। हमारे जीवन से होली के चले जाने के बाद कुछ भी नहीं बचेगा। बचेगा केवल मलाल। मलाल को लेकर जीना मनुष्य के लिए जीना नहीं है। होली गली-गली में घूम-घूम गा रही है-
सदा अनन्दा रहो एहि द्वारे
ठाकुर खेलैं होली।।
कुछ भी न हो, केवल हुलास बचा रहे तो आदमी जी लेगा, हँसी-खुशी। हमारे जीवन में हुलास का बचे रहना ही, बचाए रखना ही होली की पारम्परिक विरासत है।

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