Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से
श्री सुरेश चन्द श्रीवास्तव का उपन्यास वनतरी अपने प्रभाव और प्रवाह में एक विलक्षण उपन्यास है। जीवन के यथार्थ की शक्ति और सौन्दर्य का इस रचना में अद्भुत प्रस्फुटन हुआ है।
इस उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें चरित्रों को गढ़ा नहीं गया है, न यथार्थवादी रचनात्मक अवधारणाओं के आधार पर न ही आदर्शवादी मूल्यों के आधार पर। यहाँ रचनाकार का अपने चरित्रों में गूढ़ अभिनिवेश पाठक के चित्त को सम्मोहित कर लेता है।
आदिवासी संस्कृति के जीवन्त परिवेश के बीच एक लड़की जिसका नाम वनतरी है की अदम्य संघर्ष चेतना, सहज भावबोध, अडिग निष्ठा और उच्छल प्रेम का जैसा अंकन सुरेश चन्द श्रीवास्तव जी ने किया है, वह दुर्लभ है। सबसे विस्मयजनक बात यह है कि इस उपन्यास के कथा विकास में चरित्रों का अवधारणामूलक वर्गीय विभाजन नहीं है। नायकों और खलनायकों के वर्ग में चरित्रों का गठन नहीं है। अपने स्वार्थों और अपने अपने विश्वासों के साथ जीते चरित्र स्वाभाविक जीवन स्थितियों की विश्वसनीय और हार्दिक व्यंजना करते हैं।
इस उपन्यास में सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि इसमें भाव पूरी तरह भाषा में समाहित हो सका है। भाव का भाषा में पूरी तरह संश्लेषित होकर एक नया रूप ग्रहण कर सकना ही किसी रचनाकर्म को सार्थक बनाता है। सुरेश चन्द श्रीवास्तव जी का यह उपन्यास सार्थक रचनाकर्म का अनूठा उदाहरण है।
इस उपन्यास में आजादी के छद्म स्वरूप का जैसा हार्दिक उद्घाटन हुआ है, वह बड़ा ही मारक प्रभाव डालता है। शासन-प्रशासन की समूची बन्ध्या विकास प्रक्रिया का पर्दाफाश लेखक ने बड़ी तन्मयता से किया है। विकास के समूचे संकल्पों की दोगली निष्ठा का उद्घाटन अपने प्रमाणिक स्वरूप में इस उपन्यास में सुलभ है।
उपन्यास की कथा और चरित्रों के बीच लेखक भी एक चरित्र के रूप में विद्यमान है। वह कहानी में और चरित्रों में समाहित हो सका है। इसी वजह से समूची कथा में प्राणों के स्पन्दन की अनुगूँज सुनाई देती है।
एक आत्मीय स्पर्श और अन्तरंग अनुभूति के कारण उपन्यास पढ़ लेने के बाद भी उसकी ध्वनि व्यंजना बहुत बाद तक अपने प्रभाव से बाहर आने की अनुमति नहीं देती। आदिवासी जीवन सन्दर्भों की कारुणिक नियति का सच हमारी स्मृति में टूटकर धँसे हुए काँटे की तरह चुभने के लिये कहानी खत्म हो जाने के बाद भी बचा रह जाता है।