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Sunday, July 6, 2025

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स्वाभाविक महत्ता का आख्यान

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Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से

‘मिसेज एंडर्सन की हिन्दुस्तान वापसी’ पढ़ने के बाद सुरेश चन्द श्रीवास्तव के लेखन का मूल्य मेरे लिये कुछ और अधिक बढ़ गया। यह उपन्यास हिन्दी की कथा परम्परा में महत्वपूर्ण उपन्यास है। इस उपन्यास का पाठ रचनाकार के रचनाकर्म के प्रति आस्था के भाव जगाता है और उसकी रचनात्मक सामर्थ्य के प्रति विश्वास को मजबूत बनाता है।
इस उपन्यास का नामकरण भले चरित्र के आधार पर किया गया है, किन्तु यह चरित्र प्रधान उपन्यास कत्तई नहीं है। यह उपन्यास स्थिति प्रधान उपन्यास है। स्थितियों का अंकन लेखक ने इतनी तन्मयता और तत्परता के साथ किया है कि वे जीवन्त रूप में प्रत्यक्ष हो उठी है। इससे लेखक की मनुष्य जीवन में गहन अभिनिवेश की चामत्कारिक शक्ति का साक्ष्य मिलता है। मनुष्य के जीवन की गहराई में उतरकर उसकी तमाम मानसिक दशाओं का हार्दिक बिम्ब उतार पाना रचनात्मक सार्थकता की परिणति होता है। सुरेश चन्द श्रीवास्तव के लेखन में इस क्षमता का न केवल कुशल निदर्शन दिखाई पड़ता है बल्कि उनका इस कौशल पर पूरा अधिकार भी उद्घाटित होता है। इस उपन्यास में स्थितियों के बीच पात्रों का सहज चरित्र विकास इतना लुभावना है कि वह पाठक में विश्वसनीयता और आत्मीयता का बिना प्रयास ही संचार कर देता है। पात्रों के साथ पाठक की सहज आत्मीयता जैसी इस उपन्यास में बन जाती है, वह विरल है। पात्रों के चरित्र विकास में लेखक संयुक्त परिवार के मुखिया की भूमिका में दिखता है – पालै पोसै सबहि अँग, तुलसी सहित विवेक। इस भूमिका का निर्वाह बड़ा ही दुःसाध्य काम है, जिसे लेखक ने बखूबी निभाया है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात इस उपन्यास में रेखांकित करने योग्य यह है कि स्त्री-पुरूष के परम एकान्त व्यवहार का चित्रण लेखक ने इस कौशल के साथ किया है कि वे तनिक भी पाठक के ऊपर उत्तेक प्रभाव नहीं डालते। इस सन्दर्भ में लेखक भाषा का विलक्षण व्यवहार करता है। रचनाकार की भाषा का स्तवन करना पड़ता है। उसकी प्रशंसा न करना अन्यायपूर्ण महसूस होता है। प्रायः जिन स्थलों को रचते हुये राजेन्द्र यादव और कमलेश्वर जैसे प्रतिष्ठित कथाकार कामोत्तेजना के बहाव के शिकार हो जाते हैं, वहाँ सुरेश चन्द श्रीवास्तव अपने पाँव टिकाये हुये मिलते हैं। दृश्यों और स्थितियों में रस न लेने की सामर्थ्य सुरेश चन्द श्रीवास्तव की रचनात्मक मर्यादा को यथार्थ चित्रण की ऊँचाई प्रदान करती है।
इस उपन्यास में पुष्पलता गुड़िया, डा.ॅ राजीव लोचन और मिस्टर एंडर्सन के साथ तमाम चरित्र अपनी सहज भूमिका में आते हैं, अपनी कमजोरियों और अपनी सामर्थ्य के साथ और सजीव कालखण्ड के जीवन की सच्चाई को जीवन्त रूप में रचते हैं। शिक्षण संस्थानों से लेकर इसाई मिशनरियों के आदर्शों के पाखण्ड का पर्दाफाश लेखक ने बड़े कथात्मक कौशल के साथ किया है। यहाँ भिन्न-भिन्न जीवनादर्शों और विश्वासों का तार्किक टकराव नहीं बल्कि उनके सहअस्तित्व के संघर्ष की जटिल प्रक्रिया का प्रत्याख्यान प्रस्तुत है।
मिसेज एंडर्सन अपनी महत्वाकांक्षाओं की भँवर में लथराते हुये भी नारी की अस्मिता की संघर्ष चेतना को संभाले रख सकी हैं। प्रेम में समर्पण के बाद भी अपनी अस्मिता की गरिमा के प्रति एक आत्मदर्प उनमें झलकता है, जो अपनी ओर आकर्षित करता है। इस उपन्यास के छोटे-बड़े संवादों में सिद्धान्तों के घटाटोप नहीं बल्कि व्यावहारिक जीवन की सच्चाइयों की ऊष्मा मिलती है। किसी भी तरह के आदर्श के आतंक से मुक्त जीवन बोध का आस्वाद इस रचना का अलग मूल्य और महत्व संपादित करता है।

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